Sunday, October 26, 2025

नियम हीं ईश्वर

 गंगा और यमुना के पवित्र संगम के बीच, जहाँ धरती हरी-भरी थी, नदियाँ नीली लहरों में बहती थीं और आकाश तारों से जड़ा था, वहाँ एक प्राचीन वन फैला था वन। यह वन केवल प्रकृति का आलिंगन नहीं था, बल्कि सत्य की खोज का एक जीवंत केंद्र था। यहाँ न कोई भव्य मंदिर था, न कोई चमकीली मूर्ति। बस एक सादा-सा कुटीर था, जिसके सामने एक दीपक अनवरत जलता था, मानो वह सृष्टि के शाश्वत नियमों की साक्षी हो। वन में निवास करते थे ऋषि देवप्राण, जिनकी आँखें शांत सरोवरों-सी थीं। उनमें झाँकने वाला अपने चेहरे का प्रतिबिंब नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता था। उनकी देह सादगी से भरी थी, पर उनकी उपस्थिति में एक ऐसी शक्ति थी, जो मन को शांत कर देती थी।

एक दिन, एक युवा साधक, शोधक, ऋषि देवप्राण के पास आया। उसका मन जिज्ञासा से भरा था। उसने चरणों में सिर झुकाकर पूछा,“गुरुदेव, यह विशाल ब्रह्मांड, यह तारों से भरा आकाश, यह सूर्य, चंद्र, नदियाँ, और हमारा जीवन—यह सब कौन चला रहा है? क्या कोई ईश्वर है, जो इस सृष्टि का नियंता है?”

ऋषि देवप्राण ने दीपक की ओर इशारा किया और कहा,“शोधक, इस दीपक की लौ देख। यह हर क्षण बदल रही है, पर हमें लगता है कि यह एक ही है। क्या कोई ईश्वर इस लौ को जला रहा है? नहीं। यह तेल और बाती के कारण जलती है। जब तेल खत्म होगा, लौ बुझ जाएगी। यही नियम इस ब्रह्मांड को चला रहा है—कारण और परिणाम का नियम। जब एक कारण होता है, तब परिणाम होता है। जब कारण नहीं, तब परिणाम भी नहीं।”

शोधक ने आश्चर्य से पूछा,“गुरुदेव, यह नियम क्या है?”ऋषि ने समझाया,“यह सृष्टि का मूल सत्य है। बीज बोया जाए, तो अंकुर निकलता है। अंकुर की देखभाल हो, तो वृक्ष बनता है। वृक्ष फल देता है। यदि बीज न बोया जाए, तो कुछ भी नहीं होगा। सूर्य उगता है, क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। चंद्रमा की कलाएँ बदलती हैं, क्योंकि उसकी स्थिति सूर्य और पृथ्वी के सापेक्ष बदलती है। यह सब नियमों की एक अनवरत श्रृंखला है, न कि किसी बाहरी शक्ति का खेल।”

शोधक के मन में एक और प्रश्न उठा।“गुरुदेव, यदि सब कुछ कारण और परिणाम से चलता है, तो हमारी चेतना, हमारा ‘मैं’ क्या है? क्या हम भी इस नियम का हिस्सा हैं?”

ऋषि देवप्राण ने शांत स्वर में कहा, “शोधक, तू जो ‘मैं’ मानता है, वह रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान—इन पाँच तत्वों का मेल है। यह ‘मैं’ स्थायी नहीं, बल्कि हर क्षण बदल रहा है, जैसे नदी की धारा। तू अपने को अलग मानता है, पर यह भ्रम है। तू इस सृष्टि का हिस्सा है, और सृष्टि तुझ में समाई है। जब तू इस भ्रम से मुक्त होगा, तब तुझे सत्य का अनुभव होगा।”

एक रात, जब चाँद की किरणें नदी पर बिखर रही थीं, शोधक ने पूछा,“गुरुदेव, यदि कोई ईश्वर नहीं, तो हमारे कर्मों का फल कौन देता है? न्याय कौन करता है?”

ऋषि ने नदी की ओर देखते हुए कहा,“शोधक, कर्म स्वयं फल देता है। जैसे आग में हाथ डालने से जलन होती है, वैसे ही करुणा और सत्य का मार्ग चुनने से मन को शांति मिलती है। लोभ और द्वेष चुनने से दुख मिलता है। यह कोई बाहरी शक्ति का दंड या पुरस्कार नहीं, बल्कि कारण और परिणाम की स्वाभाविक प्रक्रिया है। तू अपने कर्मों से अपने जीवन का निर्माता है।”

वर्ष बीत गए। एक दिन ऋषि देवप्राण समाधि में लीन हो गए। उनका कुटीर खाली रह गया, पर उनकी शिक्षाएँ वन की हवा में गूँजती रहीं। शोधक वन में रह गया और उसने ऋषि की सिखाई साधना—मौन और साक्षी-भाव—को अपनाया। पर उसका मन शांत नहीं था। विचार, भय, और इच्छाएँ उसे परेशान करती थीं। एक दिन वह निराश होकर बोला, “गुरुदेव, मैं मौन चाहता हूँ, पर मेरा मन शोर मचाता है!”

तब उसके भीतर से ऋषि की वाणी गूँजी,“मौन कोई वस्तु नहीं, जो तुझे मिलेगी। यह तब आता है, जब तू अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है। अपने विचारों से मत लड़, उन्हें देख। वे आएँगे और जाएँगे, जैसे नदी में लहरें। तू केवल साक्षी बन।”

शोधक ने ऐसा ही किया। उसने अपने विचारों को देखना शुरू किया, बिना उनसे जुड़े। धीरे-धीरे उसका मन शांत हुआ। एक दिन उसे वह मौन मिला, जो सजीव था। उस मौन में उसने अनुभव किया कि वह और सृष्टि एक हैं। नदी, वृक्ष, आकाश—सब एक ही लय में बह रहे थे। उसने समझा,“यह सृष्टि कोई नहीं चला रहा। यह स्वयं चल रही है, और मैं इसका हिस्सा हूँ।”

कई वर्ष बाद, एक नया साधक अद्वय वन में आया। उसने शोधक से पूछा,“मुनिवर, यदि सब कुछ कारण और परिणाम से चलता है, तो क्या मेरा जीवन पहले से तय है? क्या मेरे पास स्वतंत्रता है?”

शोधक ने मुस्कुराते हुए कहा,“नदी का बहाव देख। वह अपने नियम से बहती है, पर नाविक तय करता है कि नाव को कहाँ ले जाना है। इसी तरह, तू सृष्टि के नियमों का हिस्सा है, पर तेरे कर्म तेरा मार्ग चुनते हैं। अच्छे कर्म चुन, और तू शांति की ओर जाएगा। गलत कर्म चुन, और दुख तेरा परिणाम होगा। यह तेरा चुनाव है।”

साधक ने पूछा,“पर मुनिवर, मेरे कर्मों का फल कौन देता है?”

शोधक ने दीपक की ओर इशारा किया,“यह लौ देख। यह जलती है, क्योंकि तेल और बाती है। यदि तू गुस्से में किसी को बुरा कहता है, तो तेरा मन पहले जलता है। यदि तू करुणा से किसी की मदद करता है, तो तेरा हृदय सुकून पाता है। यह कर्म का फल है, न कि किसी बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप।”

साधक की आँखें खुल गईं। उसने कहा,“मुनिवर, अब मैं समझा। मैं अपने कर्मों से अपने भाग्य का निर्माण करूँगा।”

शोधक ने कहा,“तू अब केवल साधक नहीं, अपने जीवन का निर्माता है।”

वृद्धावस्था में, एक पूर्णिमा की रात, शोधक ने अपने शिष्यों को बुलाया। नदी पर चाँद की किरणें बिखर रही थीं। उसने कहा,
“ऋषि देवप्राण ने मुझे सिखाया कि यह सृष्टि कोई नहीं चला रहा। यह स्वयं चल रही है—कारण और परिणाम की अनवरत श्रृंखला से। मैंने पहले सृष्टिकर्ता को खोजा, फिर स्वयं को खोजा। अब मैं समझ गया कि न मैं हूँ, न कोई सृष्टिकर्ता। केवल नियम है, और मैं उसका हिस्सा हूँ।”

उसी रात, शोधक समाधि में लीन हो गया। वन में चंदन और वर्षा की गंध फैली, और दीपक की लौ स्थिर हो गई। हवा में एक ध्वनि गूँजी—“सोऽहम्… मैं यह सृष्टि हूँ।”

आज भी ऋषि देवप्राण की वाणी सुनाई देती है:“यह सृष्टि कोई नहीं चला रहा। यह स्वयं चल रही है—कारण और परिणाम के नियम से। तू अपने कर्मों से अपना मार्ग बनाता है। जब तू इस नियम को समझ लेगा, तब तू दुख से मुक्त हो जाएगा। यही सत्य है, यही धर्म है।”

ज्ञान, अनुभव और भक्ति

 गंगा और यमुना के पवित्र संगम के मध्य, जहाँ धरती हरी-भरी थी, नदियाँ नीली थीं और आकाश स्वर्णिम रंग में रंगा था, वहाँ एक प्राचीन वन फैला हुआ था — अद्वय वन। यह वन न तो कोई साधारण जंगल था, न ही कोई तीर्थस्थल। यहाँ न कोई भव्य मंदिर था, न कोई सोने-चाँदी की मूर्ति। बस एक सादा-सा कुटीर था, जिसके सामने एक छोटा दीपक रात-दिन जलता रहता था। उस दीपक की लौ ऐसी थी, मानो समय स्वयं उसकी रक्षा करता हो। हवा के झोंके उसे बुझा नहीं पाते थे, जैसे वह लौ प्रकृति की गोद में सदा के लिए सुरक्षित थी।

इस कुटीर में निवास करते थे मुनि अद्वय। उनकी आँखें ऐसी थीं, जैसे दो शांत झीलें हों, जिनमें झाँकने वाला अपने चेहरे का प्रतिबिंब तो देखता, पर वह चेहरा नहीं, उसकी आत्मा का साक्षात्कार होता। उनकी देह दुबली थी, पर उनकी उपस्थिति में एक ऐसी शक्ति थी, जो हृदय को बाँध लेती थी। लोग उन्हें ऋषि कहते, संत कहते, पर वे स्वयं को कुछ नहीं मानते थे। उनका एकमात्र परिचय था:
“मैं कुछ नहीं, बस एक सुनने वाला मौन हूँ।”

मुनि अद्वय का जीवन सादगी का प्रतीक था। वे नदियों के किनारे ध्यान में बैठते, वृक्षों से बातें करते, और हवा के साथ गूँजते। उनके शब्द सरल थे, पर उनमें गहराई ऐसी थी कि सुनने वाला अपने भीतर की गहराइयों में उतर जाता।

एक दिन अद्वय वन में एक युवा साधक आया, जिसका नाम था आरुण। वह लंबी यात्रा करके आया था, उसके कंधों पर प्रश्नों का बोझ था, और मन में सत्य को जानने की तीव्र प्यास। उसने मुनि अद्वय के चरणों में सिर झुकाया और पूछा,“गुरुदेव, संसार में सब लोग ईश्वर की पूजा करते हैं। मंदिरों में मूर्तियाँ हैं, यज्ञ होते हैं, भजन गाए जाते हैं। पर आप किसकी पूजा करते हैं?”

मुनि अद्वय ने उसकी ओर देखा। उनकी मुस्कान ऐसी थी, जैसे सूर्य की पहली किरण अंधेरे को चीर दे। उन्होंने कहा,“मैं सत्य की पूजा करता हूँ। पर सत्य किसी मंदिर में कैद नहीं, न किसी मूर्ति में बंधा है। वह हर श्वास में है, हर पत्ते की सरसराहट में, हर नदी की लहर में। जिस दिन तू इसे देख लेगा, पूजा कोई कर्मकांड नहीं रहेगी — तू स्वयं पूजा बन जाएगा।”

आरुण ने सिर झुका लिया, पर उसके मन में एक नया प्रश्न उठा। वह बोला,“क्या यह संभव है कि पूजा बिना देवता के हो?”

मुनि ने दीपक की ओर देखते हुए कहा,“जब तक देवता बाहर है, तू उसका दास है। जब वही देवता तेरे भीतर जागे, तभी तू मुक्त हो सकता है।”

उस क्षण वन में हवा का एक झोंका आया। दीपक की लौ थरथराई, पर बुझी नहीं। मानो प्रकृति स्वयं मुनि के शब्दों को साक्षी बन रही हो।

वर्ष बीतते गए। एक दिन मुनि अद्वय समाधि में लीन हो गए। उनका शरीर छूट गया, कुटीर खाली रह गया। पर उनकी वाणी हवा में गूँजती रही, जैसे वन का हर कण उनकी शिक्षाओं को संजोए हुए हो।

आरुण वन में ही रह गया। उसने मुनि की सिखाई साधना को अपनाया — मौन। पर मौन आसान नहीं था। उसके मन में विचारों की लहरें उठतीं, पुरानी यादें लौटतीं, भय और इच्छाएँ जागतीं। एक दिन वह निराश होकर चिल्ला उठा,“गुरुदेव, मैं मौन चाहता हूँ, पर मेरा मन शोर मचाता है! मुझे शांति नहीं मिलती!”

उसी क्षण, उसके भीतर से एक स्वर गूँजा, मानो मुनि अद्वय की आत्मा बोल रही हो:“मौन कोई वस्तु नहीं जो पकड़ में आए। वह तब उतरता है, जब ‘तू’ खो जाता है। अपने विचारों से लड़ना छोड़ दे। उन्हें देख, पर उनके पीछे मत भाग।”

आरुण ने यही किया। उसने अपने विचारों, भयों, और इच्छाओं को देखना शुरू किया। वह उन्हें थामने या ठुकराने की बजाय केवल साक्षी बन गया। धीरे-धीरे उसका मन शांत होने लगा। और एक दिन, एक अनोखा मौन उसके भीतर उतरा। यह मौन कोई खालीपन नहीं था — यह सजीव था, जैसे आकाश स्वयं बोल रहा हो।

उस मौन में आरुण ने अनुभव किया:“ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है। वह कोई रूप नहीं, अनुभव है।”उसने आँखें खोलीं। नदी, वृक्ष, आकाश — सब वही थे, पर अब सब कुछ एक लय में बह रहा था। जीवन और मृत्यु, प्रकाश और अंधकार — सब एक ही साँस में समा गए थे।

कई वर्षों बाद, अद्वय वन में एक नया साधक आया — देवप्राण। वह अपने साथ भगवान सोमेश्वर की एक छोटी मूर्ति लाया था। उसने कुटीर के पास पत्थरों का एक छोटा मंदिर बनाया, दीपक जलाया, और आरुण से बोला,
“मुनिवर, मैं रोज़ पूजा करता हूँ, फिर भी मेरा मन शांत नहीं होता। मैं क्या करूँ?”

आरुण ने मुस्कुराते हुए पूछा,“तू पूजा करता है, पर किसलिए?”

देवप्राण ने उत्तर दिया,“भगवान को प्रसन्न करने के लिए। अगर वे खुश होंगे, तो मुझे मोक्ष मिलेगा।”

आरुण ने दीपक की ओर इशारा करते हुए कहा,“तू भक्ति को व्यापार बना रहा है। जहाँ भय है, वहाँ प्रेम नहीं। जहाँ लोभ है, वहाँ मुक्ति नहीं। यह दीपक तेरी भक्ति है। जब तू इसे अपने भय की हवा से ढँकता है, लौ काँपती है। जब तू भय हटाता है, लौ स्थिर हो जाती है। वह स्थिरता ध्यान है। भक्ति उसका हृदय है, ध्यान उसकी दृष्टि। दोनों एक ही ज्योति के दो छोर हैं।”

देवप्राण की आँखें नम हो गईं। उसने अपनी मूर्ति को नदी में प्रवाहित कर दिया और बोला,“अब मैं उसे बाहर नहीं पूजूँगा, क्योंकि वह मेरे भीतर जल उठा है।”

आरुण ने कहा,“अब तू अग्नि भी बन गया है, और दीपक भी।”

वर्षों बाद, जब आरुण वृद्ध हो चुका था, उसने अपने शिष्यों को बुलाया। एक पूर्णिमा की रात थी। नदी पर चाँद की रजत किरणें बिखरी थीं। उसने कहा,
“गुरुदेव अद्वय ने मुझसे कहा था — ‘ईश्वर को मत खोजो, उसे देखो। जब देखना भी मिट जाए, तब वही तुम हो।’ मैंने पहले पूजा में ईश्वर खोजा, फिर ध्यान में स्वयं को खोजा। अब दोनों मिट गए। अब केवल मौन है — जो सब कुछ है, और कुछ भी नहीं।”

उसी रात, आरुण ध्यान में लीन हो गया। कहते हैं, उस क्षण वन में चन्दन और वर्षा की मिली-जुली गंध फैली। दीपक की लौ स्थिर हो गई, और मौन में एक ध्वनि गूँजी:“सोऽहम्… अहं ब्रह्मास्मि…”

आज भी, जो अद्वय वन में जाता है, उसे हवा में मुनि अद्वय की वाणी सुनाई देती है:सत्य किसी मंदिर, मूर्ति, या कर्मकांड तक सीमित नहीं है। यह हर श्वास, हर पत्ते की सरसराहट, और हर नदी की लहर में विद्यमान है।

मौन का अर्थ है अपने विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं को केवल देखना, उनके साथ तादात्म्य न करना। आरुण जब अपने विचारों से लड़ना बंद करता है और उन्हें साक्षी-भाव से देखता है, तब उसे सजीव मौन की प्राप्ति होती है।

ध्यान वह दृष्टि है, जो साधक को अपने भीतर की सच्चाई देखने में मदद करती है। कथा में दीपक की स्थिर लौ ध्यान का प्रतीक है। जब मन की हवा (भय, इच्छा) रुकती है, तब ध्यान की स्थिरता में सत्य का अनुभव होता है।

मुनि अद्वय और आरुण दोनों ही बाहरी कर्मकांडों से ऊपर उठकर सत्य को अनुभव करने की बात करते हैं।मुनि अद्वय की अंतिम वाणी — "ईश्वर हर उस श्वास में है जिसे तुम अभी ले रहे हो" — अद्वय दर्शन का सार है। यह हमें याद दिलाता है कि सत्य कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर और हमारे चारों ओर है। जब हम इसे देखना सीख लेते हैं, तब पूजा, ध्यान, और जीवन एक हो जाते हैं, और केवल मौन रह जाता है — वह मौन जो सब कुछ है, और कुछ भी नहीं।

मृत्यु के पार का संसार


हिमालय की गोद में, जहाँ गंगा की धारा चट्टानों को चीरती हुई उतरती थी, वहीं ऋषिकेश से कुछ दूर एक शांत आश्रम था। उस आश्रम में मुनि वशिष्ठानंद अपने शिष्यों को आत्मज्ञान का उपदेश देते थे। एक दिन, सांझ के समय जब गंगा की लहरों पर सूर्य की किरणें सुनहरी छाया डाल रही थीं, एक युवा ब्रह्मचारी मुनि के चरणों में आकर बैठा। उसकी आँखों में तीव्र जिज्ञासा थी।

उसने कहा, “गुरुदेव, मैं एक बात जानना चाहता हूँ। जब यह शरीर समाप्त हो जाता है, तब आत्मा कहाँ जाती है? क्या वह स्वर्ग में पहुँचती है, या यमलोक में जाती है, या फिर किसी और लोक में भटकती है?”

मुनि वशिष्ठानंद ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। उन्होंने कहा, “पुत्र, तुम्हारा प्रश्न नदी की गहराई पूछने जैसा है, जब तुम अभी तैरना ही नहीं जानते। पहले यह जानो कि यह नदी कहाँ से बहती है।”

युवा शिष्य ने विनम्र स्वर में कहा, “गुरुदेव, कृपा कर यह रहस्य स्पष्ट करें।”

मुनि बोले, “पहले मैं तुमसे एक प्रश्न पूछूँ। यदि किसी के घर में आग लग जाए, और वह यह जानने में समय बिताने लगे कि आग किस दिशा से आई, किसने लगाई, और किस पदार्थ से लगी— तो क्या उसका घर बच सकेगा?”

शिष्य ने उत्तर दिया, “नहीं गुरुदेव, जब तक वह आग बुझाएगा नहीं, सब भस्म हो जाएगा।”

मुनि बोले, “वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है, यह प्रश्न उस जली हुई गृहस्थी की तरह है। जब तक तुम यह नहीं समझते कि जीवन में आग क्यों लगती है— तब तक कोई उत्तर तुम्हें शांति नहीं देगा।”

उन्होंने कुछ क्षण मौन रहकर कहा, “जीवन एक निरंतर प्रवाह है। यह शरीर मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। जब यह मिट्टी में मिल जाता है, तो यह अंत नहीं, केवल परिवर्तन है। आत्मा स्थिर सत्ता नहीं, चेतना की धारा है— जो कर्मों और संकल्पों से चलती है।”

शिष्य ने पूछा, “गुरुदेव, क्या इसका अर्थ है कि मैं मृत्यु के बाद वही नहीं रहूँगा?”

मुनि ने गंगा की ओर इशारा किया। “देखो इस नदी को। क्या तुम कह सकते हो कि यह वही जल है जो सुबह बह रहा था? नहीं। फिर भी यह वही गंगा है। जल बदलता है, पर धारा बनी रहती है। वैसे ही, देह बदलती है, पर चेतना की धारा चलती रहती है।”

शिष्य ने गहरी सांस ली और कहा, “गुरुदेव, यदि चेतना चलती रहती है तो वह कहाँ जाती है?”

मुनि मुस्कुराए, “जहाँ उसके कर्म उसे ले जाते हैं। कर्म ही वह नाव है जो चेतना को एक तट से दूसरे तट तक ले जाती है। अच्छे कर्म शांत तट तक पहुँचाते हैं, बुरे कर्म अशांत लहरों में भटकाते हैं।”

उन्होंने आगे कहा, “कल्पना करो दो यात्री हैं। दोनों ने अपने थैले में वस्तुएँ भरीं। एक ने दया, सत्य और सेवा भरी। दूसरे ने छल, क्रोध और अहंकार। जब मृत्यु रूपी सराय आई, तो पहले यात्री ने अपने पुण्य के आधार पर शांति का लोक पाया। दूसरा यात्री अपने पापों के बोझ से अंधकार में गिर गया। यही पुनर्जन्म का रहस्य है। आत्मा कहीं जाती नहीं, बस कर्म की धारा उसे नए रूप में प्रवाहित कर देती है।”

शिष्य ने सिर झुकाकर पूछा, “तो क्या स्वर्ग और नरक भी हैं, गुरुदेव?”

मुनि ने कहा, “हाँ पुत्र, हैं— पर वे स्थान नहीं, अवस्थाएँ हैं। जब मन लोभ, द्वेष और मोह से भरा होता है, तब वही चेतना अंधकार में गिरती है। जब मन करुणा और संतोष से भरा होता है, तब वह उजाले में खिलता है। नरक और स्वर्ग मन के भीतर हैं, बाहर नहीं।”

थोड़ी देर तक मौन छाया रहा। गंगा की लहरें जैसे उस मौन को संगीतमय कर रही थीं।

मुनि ने आगे कहा, “मुक्ति का अर्थ है— इस प्रवाह को रोक देना। जब ज्ञान का सूर्य उदित होता है, तब अज्ञान की छाया मिट जाती है। तब न मृत्यु शेष रहती है, न जन्म। केवल शांति— परम शांति।”

शिष्य ने गद्गद स्वर में कहा, “गुरुदेव, यह कर्म कैसे निष्क्रिय होते हैं?”

मुनि ने एक कथा कही—
“एक बार दो किसान थे। एक किसान ने अपने खेत को नित्य जल दिया, खरपतवार निकाली, और देखभाल की। दूसरा आलसी था, उसने बीज तो बो दिए पर पानी न दिया। पहले किसान का खेत हरा-भरा हुआ, दूसरे का बंजर। वैसे ही, यदि तुम अपने मन को लोभ और मोह से सींचोगे तो जन्म का चक्र बढ़ेगा। यदि तुम उसे वैराग्य और विवेक से सुखाओगे तो कर्म निष्क्रिय हो जाएँगे।”

शिष्य मौन बैठा रहा। फिर धीरे से पूछा, “गुरुदेव, जब यह सब मिट जाएगा तो मैं कहाँ रहूँगा?”

मुनि ने कहा, “जब दीपक की लौ बुझती है, तो क्या तुम कहते हो कि लौ कहीं चली गई? नहीं। वह बस शांत हो गई। वैसे ही जब चेतना अपने कर्मों की जड़ काट देती है, तब वह ना जाती है ना लौटती है— बस मुक्त हो जाती है। यही मुक्ति है, यही समाधि है।”

रात का समय हो चला था। गंगा की लहरें मद्धम स्वर में बह रही थीं। आकाश में पूर्णिमा का चाँद था। मुनि वशिष्ठानंद ने कहा, “पुत्र, मृत्यु से डरना मत। वह जीवन का दूसरा द्वार है। पर उससे पहले जीवन को जानो। यदि तुम हर क्षण सजगता, करुणा और सत्य से जियोगे तो मृत्यु तुम्हारे लिए भय नहीं, विश्राम बन जाएगी।”

युवा ब्रह्मचारी ने नम्रता से कहा, “गुरुदेव, अब मैं समझ गया— प्रश्न यह नहीं कि मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है, बल्कि यह कि मैं यहाँ रहते हुए अपने मन को कितना निर्मल बना सकता हूँ।”

मुनि मुस्कुराए और बोले, “यही ब्रह्मज्ञान का प्रारंभ है। जब यह समझ दृढ़ हो जाती है, तब व्यक्ति देखता है कि जीवन और मृत्यु केवल लहरें हैं— सागर तो एक ही है।”

रात के उस मौन में, गंगा का स्वर और मुनि की वाणी मिलकर जैसे ब्रह्म की गूंज बन गए। शिष्य ध्यान में बैठ गया। उसके भीतर पहली बार मृत्यु नहीं, बल्कि अमरता का अनुभव जागा।

Monday, October 20, 2025

स्थायी आदेश

 अब न्याय न काली गाउन पहनता है,

न हथौड़ा उठाता है।
अब वह सड़क किनारे चाय पीते मज़दूर के पास बैठा है,
जो अपने दिन की कमाई में भी
बराबरी का हिसाब रखता है।

वह मंदिरों के बाहर नहीं,
कस्बे की पुरानी लाइब्रेरी में दिखता है,
जहाँ बच्चे किताबें बदलते हैं,
बिना जात पूछे, बिना दस्तख़त किए।

कानून अब भी चलता है —
धीरे, पुरानी फाइलों के साथ,
पर न्याय ने नया रास्ता ले लिया है —
वह अब सुनवाई नहीं करता,
वह सुनता है।

वह माँ की झिड़की में है,
जो बच्चे को कहती है — “सही बोलो।”
वह किसान की हथेली में है,
जो आधा अनाज पड़ोसी के घर भेज देता है।
वह बस कंडक्टर के ईमान में है,
जो कहता है — “एक रुपया ज़्यादा मत दो, टिकट का भाव यही है।”

न्याय अब फैसला नहीं सुनाता,
वह खुद फैसला बन गया है।
न उसे अदालत चाहिए, न तारीख़ें,
बस थोड़ा सा हृदय चाहिए,
जहाँ सत्य अब भी जगह पा सके।

कभी-कभी, जब रात गहरी होती है,
पुरानी अदालतों की दीवारें उसे पुकारती हैं —
“कहाँ हो?”
वह हवा में कहता है —
“मैं यहाँ हूँ, उन बच्चों के बीच,
जो अब सच बोलने से डरते नहीं।”

और उस पल,
धरती पर पहली बार
एक ऐसा सन्नाटा उतरता है
जो अन्याय का नहीं, न्याय का होता है।

यह वही न्याय है
जो कभी गाउन में था,
फिर भगवान के दरबार में गया,
फिर आत्मा की अपील बना,
और अब —
मानवता के हृदय में स्थायी आदेश के रूप में टँक गया है।

सुनवाई पूरी हुई

 एक दिन, बहुत समय बाद,

न्याय ने गाउन उतारा,
विग उतारी, हथौड़ा रख दिया,
और कहा —
“चलो, ज़रा नीचे चलते हैं,
देखें अब इंसान कैसा है।”

वह धरती पर उतरा —
किसी जज की तरह नहीं,
बस एक साधारण आदमी की तरह —
माथे पर पसीना, जेब में बस उम्मीद।

पहला दृश्य —
एक अदालत, जहाँ तारीख़ें पंखुड़ियों की तरह बिखरी थीं।
लोग कतार में थे —
किसी को वकील की फीस भारी लगी,
किसी को सच बोलना।
क्लर्क ने उसे देखा, बोला —
“तुम्हारा केस कौन-सा नंबर है?”
न्याय मुस्कुराया — “मेरा तो कोई केस नहीं,
बस सुनवाई की तलाश है।”

वह आगे बढ़ा —
एक सरकारी दफ्तर में, जहाँ
हर फ़ाइल पर लिखा था — “न्याय लंबित”।
वह बोला — “कितनी देर और?”
दफ्तर हँसा —
“जब तक लोग सच से ज़्यादा स्टांप पेपर पर भरोसा करेंगे।”

फिर वह भीड़ में चला गया —
जहाँ लोग बहस कर रहे थे —
“कानून क्या कहता है?”
पर कोई नहीं पूछ रहा था —
“इंसान क्या कहता है?”

न्याय थक गया।
बैठ गया एक पेड़ के नीचे —
जहाँ एक बच्ची खेल रही थी,
मिट्टी से गुड़िया बना रही थी,
और उन्हें बराबर बाँट रही थी।
न्याय ने पूछा — “क्यों?”
बच्ची बोली —
“क्योंकि सबको थोड़ा-थोड़ा मिलना चाहिए।”
न्याय रो पड़ा।
इतने बरसों बाद
उसे पहली बार
फैसले में सच्चाई मिली।

वह उठा,
आसमान की ओर देखा,
और धीरे से बोला —
“मैं वापस नहीं जाऊँगा।
अब से न्याय गाउन में नहीं,
बच्चे की मुस्कान में रहेगा।”

तभी बादलों ने दस्तावेज़ मोड़े,
तारे गवाही देने लगे,
और धरती ने कहा —
“आख़िरकार, सुनवाई पूरी हुई।”

कॉस्ट ऑफ डिले

 भगवान की अदालत स्थगित हुई,

घंटा थमा, बादल लौट गए।
स्वर्ग में सब शांत था —
पर धरती पर भीड़ थी,
लोग अब भी लाइन में थे,
अपने-अपने फ़ैसलों की फोटोकॉपी लिए।

किसी ने कहा —
“ऊपर तो सुनवाई हो गई,
अब नीचे क्या बाकी है?”
एक बूढ़े वकील ने हँसकर कहा —
“यहाँ हर फ़ैसले की अपील होती है,
यहाँ न्याय भी रीव्यू पेटिशन डालता है।”

कोर्ट के बाहर एक बच्चा खेल रहा था —
उसकी जेब में चॉक थी,
वह ज़मीन पर बना रहा था —
‘न्यायालय’ लिखा हुआ एक छोटा सा चौखट।
कोई वादी नहीं, कोई वकील नहीं,
सिर्फ़ वह और उसकी हँसी।
शायद यही था असली न्याय —
जहाँ नियम नहीं, बस निष्कपटता थी।

शहर में अफ़वाह चली —
कि भगवान ने फैसला तो लिखा,
पर हस्ताक्षर नहीं किए।
कहा जाता है —
वो अब भी सोच रहे हैं,
कि न्याय को लागू कौन करेगा —
मानव, या मानवता?

रात गहरी हुई,
अदालतों की लाइटें बुझ गईं,
पर एक खिड़की अब भी खुली थी —
जहाँ एक क्लर्क फाइलें सहेज रहा था।
उसने धीरे से कहा —
“इतने फ़ैसले लिखे गए,
पर किसी फ़ाइल में ‘करुणा’ की धारा अब तक नहीं डली।”

आसमान ने यह सुना,
और एक तारा गिरा —
शायद यह भी किसी केस की
“कॉस्ट ऑफ डिले” थी।

सुनवाई बाक़ी है

 भगवान की अदालत में आज सब हाज़िर थे —

न्याय, कानून, और आत्मा भी बेज़ार थी।
कोई वकील नहीं, कोई जिरह नहीं,
सिर्फ़ सन्नाटा था — जैसे किसी गवाही की अंतिम साँस हो कहीं।

भगवान ने देखा —
कानून खड़ा था, हाथ में ग्रंथ लिए,
पर अक्षर काँप रहे थे, अर्थ खो चुके थे।
न्याय झुका हुआ था,
गाउन मुरझाया, स्याही सूख चुकी थी,
और आत्मा —
बस शांत थी, जैसे किसी पुरानी सज़ा को स्वीकार करती हुई।

भगवान बोले —
“कहो, क्या मामला है?”
कानून बोला — “मैंने नियम बनाए,
पर आदमी ने रास्ते बना लिए।”
न्याय बोला — “मैंने फ़ैसले दिए,
पर वो ज़मीन पर उतरने से पहले ही अपील बन गए।”
आत्मा बोली — “मैंने सच्चाई रखी,
पर हर बार दस्तावेज़ अधूरा निकला।”

भगवान मुस्कुराए —
“तो दोष किसका है?”
कानून ने कहा — “मेरे शब्दों का।”
न्याय ने कहा — “मेरे विलंब का।”
आत्मा ने कहा — “उनकी चुप्पी का,
जो सही जानते हैं पर बोलते नहीं।”

कुछ देर मौन रहा —
फिर बादलों ने दस्तावेज़ पलटे,
हवा ने सील तोड़ी,
और ऊपर से आवाज़ आई —
“फ़ैसला सुरक्षित रखा जाता है।”

तभी धरती कांपी,
घंटा बजा —
और फ़ाइल बंद हो गई।
भगवान उठे, बोले —
“अब न्याय का नया संस्करण बनेगा,
जहाँ तारीख़ें नहीं होंगी,
सिर्फ़ सत्य होगा।”

आत्मा मुस्कुराई,
न्याय ने सिर झुकाया,
कानून ने किताब बंद की,
और सब लौट गए —
अपनी-अपनी अदालतों में।

पर उस दिन से
स्वर्ग में हर शाम
एक घंटा बजता है —
धीमे, बहुत धीमे —
जैसे कोई कह रहा हो,
“अभी सुनवाई बाक़ी है…”

आत्मा की अपील

 कहा गया — “सत्यमेव जयते।”

पर सत्य कहीं फाइलों में अटका था,
पन्नों के बीच दबा हुआ,
जैसे पुराना नोट — अब चलन से बाहर।

आत्मा आई थी सुप्रीम अदालत में,
एक अर्जी लेकर —
“महोदय, मैंने मनुष्य के भीतर न्याय खोजा था,
पर पाया कि न्याय खुद ज़मानत पर बाहर है।”

मुख्य न्यायाधीश ने पूछा —
“तुम कौन?”
आत्मा बोली —
“वही जो हर अपराध में छिपी होती है,
हर शपथ में बुलाई जाती है,
पर किसी साक्ष्य में नहीं मिलती।”

पीठ के सदस्य बोले —
“क्या चाहती हो?”
आत्मा बोली —
“बस इतना कि जब इंसाफ दिया जाए,
तो उसे सुना भी जाए।”

वकील खड़े हुए —
कोई संविधान गिना रहा था, कोई धारा,
कोई मिसाल, कोई नज़ीर।
आत्मा मुस्कुराई —
“आप लोग कानून के इतने पास हैं,
कि इंसान से बहुत दूर चले गए हैं।”

जज ने कलम उठाई,
फैसले का मसौदा शुरू किया,
लिखा —
“न्यायालय आत्मा की याचिका स्वीकार करता है,
पर कार्यान्वयन की तारीख़ बाद में घोषित की जाएगी।”

भीड़ शांत थी,
घंटा बजा — अदालत स्थगित।
आत्मा बाहर निकली,
आसमान की ओर देखा,
और बोली —
“शुक्र है, ऊपर वाले दरबार में अभी तारीख़ नहीं लगती।”

फिर वह उड़ गई —
जैसे किसी पुरानी अपील की तरह,
जो कभी डिसमिस नहीं होती,
बस मुल्तवी रहती है...
अनंत काल तक।

न्याय का न्याय से याचना

 लोक अदालत लगी थी,

मंच पर न्याय बैठा था —
सफेद विग, थकी आँखें,
और गाउन में लिपटा था।

जनता आई — थकी, टूटी, मगर जागी हुई,
हाथ में अर्ज़ियाँ, आँखों में आग थी कुछ बाकी हुई।
एक किसान बोला —
“मालिक, मेरा खेत गया, केस नहीं गया।”
न्याय मुस्कुराया — “कानून का रास्ता लंबा है।”
किसान बोला — “साहब, मैं तो मर गया,
अब मेरा पोता आगे है,
वो भी थका है, अब किसका नंबर है?”

एक औरत उठी —
“मेरे पति के केस में साक्ष्य खो गए,
फाइल मिल गई, पर इंसाफ सो गए।
कहा गया ‘विवाद समाप्त’ —
पर मेरे आँसू आज भी लंबित हैं।”

न्याय ने कहा —
“मैं अंधा हूँ, पर सुनता हूँ।”
भीड़ में से किसी ने कहा —
“सुनते तो हो, पर सुनवाई कब होती है?”

कोने में बैठा एक जवान बोला —
“साहब, आपने न्याय दिया, पर वक्त नहीं दिया।
मेरी जवानी कोर्टरूम में तारीख़ों की तरह बीत गई —
हर अगली तारीख़ में एक सफेद बाल बढ़ गया।”

न्याय चुप था —
फाइलें फड़फड़ा रहीं थीं, जैसे कबूतर पिंजरे में।
पंख थे, उड़ान नहीं।
क़लम थी, पर स्याही सूखी हुई थी।

फिर जनता ने कहा —
“साहब, हम अपराधी नहीं, बस याचक हैं।
हम आपकी मूर्ति नहीं, आपकी पुकार चाहते हैं।”
न्याय ने धीरे से सिर झुका दिया,
गाउन उतार दिया,
और बोला —
“मैं दोषी नहीं, पर थका हुआ हूँ।
मैं न्याय हूँ —
पर अब मुझे भी न्याय चाहिए।”

न्यायालय की दीवारें

 न्यायालय की दीवारें

ऊँची हैं, ठंडी हैं,
वहाँ हर कोई बराबर है —
बस फर्क इतना है
कि कोई बराबरी के लिए
बीस साल तक खड़ा रहता है,
और कोई
सीधे चेंबर का दरवाज़ा खोल देता है।

कहा जाता है —
न्याय अंधा होता है।
अब तो वह
चश्मा लगाकर भी फाइलें नहीं देख पाता।
कागज़ पीले पड़ चुके हैं,
सील की स्याही सूख चुकी है,
पर तारीख़ अब भी गीली है।

गवाह कहता है —
“मैंने सब अपनी आँखों से देखा।”
जज मुस्कुराते हैं —
“बताओ, कब देखा था?”
गवाह चुप हो जाता है,
कैलेंडर पलटता है,
और धीरे से कहता है —
“जब मेरे बाल काले थे, साहब।”

यहाँ समय का कोई अर्थ नहीं।
यहाँ मिनट नहीं गिने जाते,
यहाँ पीढ़ियाँ गिनी जाती हैं।
बाप केस करता है,
बेटा तारीख़ें लेता है,
पोता फैसला सुनता है —
वो भी तब,
जब खेत बिक चुका होता है,
और पता चलता है
कि ज़मीन अब किसी मॉल के नीचे है।

फैसला आता है —
“न्याय हुआ।”
और लोग तालियाँ नहीं बजाते,
बस खामोश खड़े रहते हैं,
जैसे किसी ने
लंबे सपने से जगाया हो
बिना वजह।

Monday, October 13, 2025

जेंडर का झोल

कभी किसी को पुरूष बना दे और नारी को चुप करा दे,

हिंदी के ग्रामर का चक्कर कैसे कैसे रोब चला दे!

महापुरुष” सुनते ही सारे , तुरन्त करें प्रणाम,

“महा-महिला” सुनते ही पूछे  ये कैसा है नाम?

राष्ट्रपति  पर शान बढ़े, सब करते जयकार!”,

राष्ट्र पत्नी पर सब चकराए ये कैसे व्यवहार ! 

राष्ट्रपति” पर शान बढ़े, पर राष्ट्र पत्नी पर ब्लस ,

माचो टाइप कहीं पे भारी कहीं फिमेल का क्रश.

भारत माता” पर जयकारे, झंडे फहराते हर साल,

“भारत पिता” कहने पर पूछे क्या करते हो फिलहाल!”

गाय तो “माँ” कहलाती है, पूजा में थाली सजती है,

साँड़ बेचारा उसको ना पिता की  पदवी मिलती है

शब्दों के नीति नियम क्या, ये सोच बड़ी निराली,

गौ “माँ” पूजे पिता को भूले साँड़ की खाली प्याली ? 

वन्दे मातरम्” सब गाएँ, बच्चों को याद कराए ,

“वन्दे पितरम्” बोले  तो मास्टर जी डाँट सुनाए ! 

ग्राम पंचायत के मुखिया को कहते ग्राम प्रधान, 

गर महिला हो गाँव की मुखिया उलझन हो श्रीमान। 

काली कोयल कूक सुनाती, सब बोले वो नारी,
क्या मर्द कोयल छुट्टी पे? या फेमिनिन बीमारी

नैया को नारी क्यों कहते, भालू को बस भालू,
तेलचट्टे की बीबी पूछे खुद को क्या बतलाऊँ ?
भाषा भी करने लगी सियासत, कानून भी हुए हैरान,

व्याकरण की संसद में भी जेंडर का उठा तूफ़ान!

भाषा भी कर रही सियासत, हिल गए सब कानून,

व्याकरण की संसद में भी, जेंडर का  जूनून”

हिंदी का ग्रामर सुधारो, दो इक्वल सबको हक़,

गर बिन जेंडर के गीत सुनाऊँ ,ना करना ख़ट पट.

ना करना ख़ट पट. कि भैया जेंडर का जो झोल ,

कहत कवि अच्छे अच्छों को कर देता बकलोल

Friday, October 3, 2025

ना लो रोटी से तुम पंगा


विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
कर्मभूमि पर चलता दंगल,
जीवन रोटी का एक जंगल।
जंग जसने रोटी से ठानी,
याद दिला दे उसको नानी।
बेअसर सब गीत चालीसा, 
टोना  टोटका कोई फंडा।
विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।

जो पंगा ले आफत आए,
सोते-जगते शामत छाए।
कभी सांप को रस्सी जाने,
कभी नीम को लस्सी माने।
माथे की नसें सब फूलीं,
आंखों में तारे हमजोली ।
कोई उपाय ना कोई ढंग,
किस भांति पेट भरे  संग!
सोचो कर के कोई  धंधा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।

रोजी रोटी चले हथौड़े,
माथे पर अब बम ये फोड़े।
उड़ते बाल बचे जो थोड़े,
बने कबूतर, सब ही छोड़े।
कंघी कंघा का क्या  काम?
जब माथा बने गोल मैदान!
तेल चमेली, रजनी गंधा,
हार गए  रोटी का फंदा ।
बस माथे पर चमके चंदा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।

रोजी रोटी सबको भाए,
जो ना पाए वो पछताए।
जो पाए वो भी घबराए,
ना छुट्टी ना चैन समाए।
छुट्टी मांगी आफत आई,
छुट्टी मिली  शामत छाई।
वेतन आया तो घट के हीं 
मूड खुशी का है फट के हीं। 
यही गम , यही है फंदा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।

रोजी रोटी के  चक्कर में,
जीने के हीं घन चक्कर में ,
कैसे-कैसे रूप बदलते ।
बीन बजाते बस हम रहते,
भैंस चुगाली करती रहती।
ना कुछ कहती सुनती रहती ,
ऑफिस में राग भैरवी गाए,
बॉस पीछे से गुस्सा लाए।
माथे में ताले लग जाते,
सब विचार पंखे खा जाते।
बुद्धि मंदी, बंदा मंदा,
ना लो भाई इससे पंगा।
ना लो भाई इससे पंगा।

या दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे प्यारा मासिक भत्ता।
सपनों में आता सैलरी स्लिप,
जागो तो गायब वो चिप-चिप।
आंखो पर मोटा चश्मा खिलता,
चालीस में अस्सी सा  दिखता।
वेतन का बबुआ ऐसा चक्कर,
पूरा दिमाग बने घनचक्कर।
कमर टूटी, हिला है कंधा,
ना लो भाई इससे पंगा।

विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा! 

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