Sunday, September 25, 2022

चंद्रगुप्त मौर्य की जुबानी , भगवान श्रीकृष्ण की कहानी


जिस प्रकार भारतीय धर्मग्रंथों को ऐतिहासिक रूप से  प्रमाणिक नहीं माना जाता रहा है ठीक उसी प्रकार इन धर्मग्रंथों में दिखाए गए महान व्यक्तित्व भी। इसका कुल कारण ये है कि  इन धर्मग्रंथों को कभी भी पश्चिमी इतिहासकारों के तर्ज पर समय के सापेक्ष तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत नहीं किया गया। 

लेकिन क्या इसका मतलब ये हैं कि हम अपने पौराणिक महानायकों को मिथक की श्रेणी में रखकर इनकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर हीं प्रश्न उठाने लगे ? या कि बेहतर ये होगा कि इस तथ्य को जानकार कि ऐसा घटित हीं क्यों हुआ , इसकी तह तक जाये और प्रमाण के साथ भगवान श्रीकृष्ण आदि जैसे महान व्यक्तित्व के प्रमाणिकता की पुष्टि करे ? मेरे देखे दूसरा विकल्प हीं श्रेयकर है। 

और  यदि हम दूसरा विकल्प चुनकर सत्य की तहकीकात करें तो हमे ये सत्य प्रमाणिक रूप से निकल कर आता है कि आज से, अर्थात वर्तमान साल  2022 से लगभग  4053 साल पहले भगवान श्रीकृष्ण का अस्तित्व इस धरती पर था। आइए देखते हैं कैसे?

सर्वप्रथम ये देखते हैं पुराणों और वेदों में वर्णित व्यक्तित्वों को संदेह से देखे जाने का कारण क्या है ? फिर आगे प्रमाण की बात कर लेंगे।  वेद , पुराण, महाभारत आदि ग्रंथों का मुख्य ध्येय भारतीय मनीषियों द्वारा अर्जित किए गए परम अनुभव और ज्ञान को आम जन मानस में प्रवाहित करना था। अपनी इसी शैली के कारण आज भगवान श्रीकृष्ण , श्रीराम जी आदि को ऐतिहासिक रूप से उस तरह से  प्रमाणित नहीं माना जाता जैसे कि गौतम बुद्ध , महावीर जैन मुनि, गुरु नानक साहब जी इत्यादि महापुरुषों को।

लेकिन इन धर्मग्रंथों का यदि ध्यान से हम अवलोकन करेंगे तो तो इनके  ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक होने के अनगिनत प्रमाण मिलने लगते हैं। इन धर्मग्रंथों में रचित पात्र मात्र किदवंती नहीं अपितु वास्तविक महानायक हैं। जरूरत है तो मात्र स्वयं के नजरिए को बदलने की, जो कि पश्चिमी इतिहासकारों के प्रभाव के कारण दूषित हो गए हैं। 

चंद्रगुप्त मौर्य, धनानंद, चाणक्य, पुष्यमित्र शुंग इत्यादि के ऐतिहासिक प्रमाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।चंद्रगुप्त के पोते सम्राट अशोक को तो ऐतिहासिक रूप से प्रमाणिक माना जाता है। सम्राट अशोक के चिन्ह को हीं इस देश का राज चिन्ह बना दिया गया है। ऐसे में अगर इनसे संबंधित जानकारी किसी धर्म ग्रंथों में मिलता है तो फिर इनकी प्रमाणिकता पर संदेह उठाना कहां से उचित होगा?

अगर कोई आपसे ये कहे कि किसी वेद या पुराण में सम्राट चंद्रगुप्त, चाणक्य, वृहद्रथ, पुष्यमित्र शुंग, नंद वंश इत्यादि में बारे में विस्तार से वर्णन किया गया हो तो क्या आप श्रीकृष्ण या प्रभु श्रीराम की प्रमाणिकता पर आप संदेह कर पाएंगे? आइए देखते हैं इन तथ्यों में से एक ऐसा तथ्य तो वेद और पुराण की लिखी गई घटनाओं के प्रमाणिकता की पुष्टि करते हैं।

यदि हम भारतीय इतिहास को खंगाले तो सिकंदर के समकालीन होने के कारण नंद वंश तक का जिक्र बड़ी आसानी से मिल जाता है। परंतु नंद वंश के पहले आने वाले राजाओं की वंशावली का क्या? इनके बारे में कहां से जानकारी मिल सकती है?

पुराणों की गहराई से अवलोकन करने से बहुत तथ्य ऐसे मिलते हैं जिनकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इनमे से एक ऐसा ग्रंथ भागवद पुराण है जो श्रीकृष्ण के समकालीन जरासंध से लेकर नंदवंश, मौर्य वंश, शुंग वंश, तुर्क, यूनानी वंश, बहलिक वंश इत्यादि के बारे में बताता है।

भगवाद पुराण वेद व्यास द्वारा रचित 18 पुराणों में से एक पुराण है जो कि अर्जुन के पोते राजा परीक्षित और महात्मा शुकदेव के वार्तालाप के बीच आधारित है। ये ग्रंथ भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से ओत प्रोत है। 

इस ग्रंथ में शुकदेव जी कलियोग में होने वाले घटनाओं का वर्णन करते हैं। इसी प्रक्रिया के दौरान वो राजा परीक्षित को महाभारत काल के बाद से लेकर भविष्य में आने वाले राजवंशों का वर्णन करते हैं। इसी दौरान वो जरासंध,  सम्राट चंद्रगुप्त, चाणक्य, वृहद्रथ, पुष्यमित्र शुंग, नंद वंश, कण्व वंश  आदि के बारे में राजा परीक्षित को बताते हैं। आइए देखते हैं इसकी चर्चा कैसे की गई है।

हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार महाभारत की घटना द्वापर युग में हुई थी। युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण के बाद और राजा परीक्षित के अवसान के बाद कलियुग का आगमन होता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि महाभारत की घटना घटने के  बाद हीं कालियुग का पदार्पण होता है। कलियुग में आने वाले राजवंशों और लोगो के व्यवहार का वर्णन भागवद पुराण में किया गया है।

भागवद पुराण के नवम स्कन्ध [अर्थात 9 वें स्कन्ध] के बाइंसवें अध्याय के श्लोक संख्या से श्लोक संख्या 40 से 45 में राजा क्षेमक , जो कि सोमवंश का अंतिम राजा था, उसके बारे में बताया गया है कि द्वापर युग का वो अंतिम राजा होगा तथा उसके आने के बाद कलियुग की शुरुआत हो जाती है। इसके बाद श्लोक संख्या 46 से श्लोक संख्या 49 तक  मगध वंश का वर्णन किया गया है। ये कुछ इस प्रकार है।

जरासन्ध के पुत्र सहदेव से मार्जारि, मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से अयुतायु और अयुतायु से निरमित्र नामक पुत्र होगा ॥ 46 ॥ निरमित्र के सुनक्षत्र, सुनक्षत्र के बृहत्सेन, बृहत्सेन के कर्मजित, कर्मजित के सृतञ्जय, सृतञ्जय के विप्र और विप्र के पुत्र का नाम होगा शुचि ॥ 47 ॥ शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्म सूत्र, धर्मसूत्र से शम, शम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल का जन्म होगा ॥ 48 ॥ सुबल का सुनीथ, सुनीथ का सत्यजित, सत्यजित का विश्वजित और विश्वजित का पुत्र रिपुञ्जय होगा। ये सब बृहद्रथवंश के राजा होंगे। इनका शासनकाल एक हजार वर्षके भीतर ही होगा ।। 49 ।।

जरासन्ध 

[मगध वंश , 23 राजा, लगभग 1000साल]

[यह श्रीकृष्ण का समकालीन शासक था , तथा उनकी उपस्थिति में हीं भीम ने जरासंध का वध किया था]

सहदेव

मार्जारि

श्रुतश्रवा

अयुतायु

निरमित्र

सुनक्षत्र

बृहत्सेन

कर्मजित

सृतञ्जय

विप्र

शुचि

क्षेम

सुव्रत

धर्मसूत्र

शम

द्युमत्सेन

सुमति

सुबल

सुनीथ

सत्यजित

विश्वजित

रिपुञ्जय


इस प्रकार हम देखते हैं कि भागवद पुराण के नवम स्कन्ध के 22 वें अध्याय में जरासंध के पूरे वंश के बारे में चर्चा की गई है , जिसका कार्यकाल लगभग 1000 माना गया है। इसके बाद की घटने वाली घटनाओं का वर्णन भागवद पुराण के 12 वें स्कन्ध में अति विस्तार से किया गया है।


भागवद पुराण के द्वादश स्कन्ध [अर्थात 12 वें स्कन्ध] के प्रथम अध्याय  के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 43 में,  जब महात्मा शुकदेव महाराजा परीक्षित को कलियुग में आने वाले राजवंशों का वर्णन करते हैं तो इन सारे राज वंशों के बारे में विस्तार से बताते हैं। इसकी शुरुआत राजा परीक्षित के प्रश्न पूछने से होती है। 


जब राजा परीक्षित भगवान श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के बाद आने वाले राजवंशों के बारे में पूछते हैं तब इसके उत्तर में शुकदेवजी कलियुग ने आने वाले राजवंशों के बारे में चर्चा करते हैं। इसी क्रम में चंद्रगुप्त मौर्य का भी जिक्र आता है। आइए देखते हैं कि भागवद पुराण में इस बात को कैसे लिखा गया है।


राजा परीक्षित ने पूछा  भगवन , यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण जब  अपने परम धाम पधार गये, तब पृथ्वी पर किस वंश का राज्य हुआ ? तथा अब किसका राज्य होगा ? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ 1 ॥ 


श्रीशुकदेवजीने कहा – प्रिय परीक्षित मैंने तुम्हें नवें स्कन्ध में यह बात बतलायी थी कि जरासन्ध के पिता बृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्री का नाम होगा शुनक वह अपने स्वामी को मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योत को राज सिंहासन पर अभिषिक्त करेगा। 


प्रद्योत का पुत्र होगा पालक, पालक का विशाखयूप, विशाखयूप का राजक और राजक का पुत्र होगा नन्दिवर्द्धन। प्रद्योत वंश में यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी 'प्रद्योतन' ये एक सौ अड़तीस वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 2-4॥


श्री कृष्ण स्वर्गारोहण 

बृहद्रथ 

[लगभग 1000साल]

I

जरासन्ध 

I

पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय

[जरासंध के वंश का अंतिम राजा] 

I

मंत्री शुनक-प्रद्योत

I

प्रद्योत वंश 

[पाँच नरपति]

[एक सौ अड़तीस वर्ष, अर्थात 148 वर्ष ]

I

पालक

I

विशाखयूप

I

राजक

I

नन्दिवर्द्धन


इसके पश्चात शिशुनाग नाम का राजा होगा। शिशुनाग का काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्मा का पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ 5 ॥ क्षेत्रज्ञ का विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भक का पुत्र अजय होगा ॥ 6 ॥ अजय से नन्दिवर्द्धन और उससे महानन्दि का जन्म होगा। शिशुनाग वंश में ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुगमें तीन सौ साठ वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित, महानन्दि की शूद्रा पत्नी के गर्भ से नन्द नाम का पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान  होगा। महानन्दि 'महापद्म' नामक निधि का अधिपति होगा। इसीलिये लोग उसे 'महापद्म' भी कहेंगे। वह क्षत्रिय राजाओंके विनाशका कारण बनेगा। तभी से राजालोग - प्रायः शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ।। 7-9॥


नन्दिवर्द्धन

शिशुनाग 

[शिशूनाग वंश में 10 राजा और इसका कार्यकाल 360 साल तक]

काकवर्ण

क्षेमधर्मा

क्षेत्रज्ञ

विधिसार

[बिम्बिसार के नाम से भी जाना जाता है और ये गौतम बुद्ध का समकालीन था]

अजातशत्रु

[गौतम बुद्ध का समकालीन था]

दर्भक

अजय

नन्दिवर्द्धन

महानन्दि

नन्द

[इसे महापद्म के नाम से भी जाना जाता है]

चंद्रगुप्त मौर्य 

[चाणक्य की सहायता से सम्राट बना जो कि सिकंदर का समकालीन था]


महापद्म पृथ्वी का एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासन का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियों के विनाश में हेतु होने की दृष्टि से तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये 10 ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्ष तक इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ 11 ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्व विख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रों का नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुग में मौर्य वंशी नरपति पृथ्वी का राज्य करेंगे ॥ 12 ॥ वही ब्राह्मण पहले पहल चन्द्रगुप्त मौर्य को राजाके पद पर अभिषिक्त करेगा। 


चन्द्रगुप्त का पुत्र होगा वारिसार और वारिसार का अशोकवर्द्धन ॥ १३ ॥ अशोकवर्द्धन का पुत्र होगा सुयश । सुयश का सङ्गत, सङ्गत का शालिशूक और शालिक का सोमशर्मा ॥ १४ ॥ सोमशर्मा का शतधन्वा और शतधन्वा का पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंश विभूषण परीक्षित्,  मौर्यवंश के ये दस नरपति कलियुग में एक  सौ सैंतीस वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। बृहद्रथ का सेनापति होगा पुष्यमित्र शुङ्ग। वह अपने स्वामीको मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। 


चंद्रगुप्त मौर्य  

[मौर्य वंश, 10 राजा, 137 साल]

वारिसार 

[इसे बिम्बिसार के रूप में भी जाना जाता है]

अशोकवर्धन 

[इसे महान सम्राट अशोक, चंडाशोक के नाम से भी जाना जाता है। इसने बौद्ध धर्म को पूरे विश्व में फैलाने का काम किया और इसके द्वारा निर्माण किए गए सिंह स्तंभ को भारत देश के राजकीय चिन्ह के रूप में आंगीकर किया गया है]

सुयश

सङ्गत

शालिक

शालिशूक

सोमशर्मा

शतधन्वा

बृहद्रथ

पुष्यमित्र शुङ्ग


पुष्यमित्र का अग्निमित्र और अग्निमित्र का सुज्येष्ठ होगा ॥ 15-16 ॥ सुज्येष्ठ का वसुमित्र , वसुमित्र का भद्रक और भद्रक का पुलिन्द, पुलिन्द  का घोष और घोष का पुत्र होगा वज्रमित्र ॥ 17 ॥वज्रमित्र का भागवत और भागवत का पुत्र होगा देवभूति । शुङ्गवंश के ये दस नरपति एक सौ बारह वर्ष तक पृथ्वी का पालन करेंगे ॥ 18 ॥


पुष्यमित्र शुङ्ग

[शुङ्ग वंश, 10 राजा, 112 वर्ष] 

अग्निमित्र

सुज्येष्ठ

वसुमित्र

भद्रक

पुलिन्द

घोष

वज्रमित्र

भागवत

देवभूति

वसुदेव


परीक्षित, शुङ्ग वंशी नरपतियों का राज्यकाल समाप्त होने पर यह पृथ्वी कण्व वंशी नरपतियों के हाथमें चली जायगी । कण्व वंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओं की अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंश का अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्री कण्व वंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबल से स्वयं राज्य करेगा वसुदेवका पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्र का नारायण और नारायण का सुशर्मा । सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा ॥ 19-20 ॥ कण्व वंश के ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे ॥ 21 ॥ प्रिय परीक्षित,  कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा - बली, वह अन्ध्र जाति का  बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा ॥ 22 ॥


वसुदेव

[कण्व वंश, 4 राजा, 345 साल ]

भूमित्र

नारायण

सुशर्मा

बली [शुद्र वंश]


इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ 23 ॥ पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिबिलक होगा। चिविलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन ।। 24- 22 ॥ परीक्षित,  सुनन्दन का पुत्र होगा चकोर; चकोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी 'बहु' कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटे का नाम होगा शिवस्वाति वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा।


बली 

[शुद्र वंश, 23 राजा, 456 साल]

कृष्ण

श्रीशान्तकर्ण

पौर्णमास

लम्बोदर

चिबिलक

मेघस्वाति

अटमान

अनिष्टकर्मा

हालेय

तलक

पुरीषभीरु

सुनन्दन

चकोर

शिवस्वाति

गोमतीपुत्र

पुरोमान

मेद

शिरा

शिवस्कन्द

यशश्री

विजय

चन्द्रविज्ञ

सात आभीर


शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरोमान ॥ 26 ॥ पुरोमान का मेद, मेद का  शिरा, शिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यशश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे - चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ 27 ॥ परीक्षित, ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे ॥ 28 ॥ परीक्षित, इसके पश्चात् अवभृति नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वी का राज्य करेंगे। ये सब के सब बड़े लोभी होंगे ॥ 29 ॥ इनके दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ 30 ॥ मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वीका उपभोग करेंगे, तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे। 


सात आभीर [43 राजा, 1099 साल]

दस गर्दभी

सोलह कङ्क

दस गुरुण्ड

ग्यारह मौन नरपति [300 साल]


जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नामकी नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वङ्गिरि, वङ्गिरिका भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक ये एक सौ छः वर्षतक राज्य करेंगे ।। 31- 33 ।। इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब के सब बाहिक कहलायेंगे। उनके पश्चात पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा ॥ 34 ॥ परीक्षित,  बाह्निकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्न देश के तथा सात ही कोसल देश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर- भूमि के शासक और कुछ निषध देश के स्वामी होंगे ॥ 35 ॥


ग्यारह मौन नरपति [300 साल]

भूतनन्द [3 राजा, 106 साल]

वङ्गिरि

शिशुनन्दि



शिशुनन्दि

बाहिक

पुष्पमित्र[क्षत्रिय]

दुर्मित्र

विश्वस्फूर्जि


इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्वस्फूर्जि । यह पूर्वोक्त पुरञ्जय के अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा । यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा ॥ 36 ॥ इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा। यह अपने बल वीर्यसे क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ 37 ॥


परीक्षित,  ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ 38 ॥ सिन्धुतट, काश्मीर मण्डल पर प्रायः शूद्रों का संस्कार एवं ब्रह्मतेज से हीन नाममात्रके द्विजों का और म्लेच्छोंका राज्य होगा ॥ 39 ॥


चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्ती पुरी और परीक्षित, ये सब के सब राजा आचार विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में राज्य करेंगे। ये सब के सब परले सिरे के झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातों को लेकर ही ये क्रोध के मारे आग बबूला हो जाया करेंगे ॥ 40॥


ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणों को मारने में भी नहीं हिचकेंगे। दूसरे की स्त्री और धन हथिया लेनेके लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते क्षण में रुष्ट तो क्षण में तुष्ट । इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी ॥ 41 ॥ इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य कर्मका पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुणसे अंधे बने राजा के वेषमें वे म्लेच्छ हो होंगे।


वे लूट खसोट कर अपनी प्रजाका खून चूसेंगे ॥ 42 ॥ जब ऐसे लोगों का शासन होगा, तो देश की प्रजामें भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषणकी वृद्धि हो जायगी। राजा लोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपस में भी एक दूसरेको उत्पीड़ित करेंगे और अन्ततः सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे ।। 43 ।।


यदि हम भागवद पुराण में वर्णित इन ऐतिहासिक घटनाओं को देखे तो ये तय हो जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का पदार्पण इस धरती पर लगभग 4000 साल पहले हुआ है। अभी 2022 चल रहा है। चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 345 ईसा पूर्व माना जाता है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल से पहले के राजवंशों का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है।


चंद्रगुप्त से पहले मगध के नरेश जरासंध के वंश के शासकों का वर्णन किया गया है, जिसकी अवधि तकरीबन 1000 साल की बताई गई है। तो मगध वंश के पश्चात प्रद्योत वंश  का वर्णन किया गया है, जिसकी अवधि लगभग 148 साल की बताई गई है।


इसी प्रकार प्रद्योत वंश के अवसान के बाद शिशुनाग  वंश के बारे में बताया गया है जिसमें 10 राजा हुए  और इसका कार्यकाल लगभग 360 साल तक रहा है। इसी शिशुनाग  वंश का अंतिम शासक नंद हुआ था जिसका वध करने के बाद चंद्रगुप्त मौर्य सत्ताधीन हुआ था।


इस प्रकार हम देखते हैं कि जरासंध और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच तीन वंशों का जिक्र है। खुद जरासंध का मगध वंश जिसमे कि 23 राजा हुए और जिन्होंने लगभग 1000 साल तक शासन किया। फिर उसके बाद प्रद्योत वंश जिसमे कि 5 राजा हुए तथा जिसकी अवधि लगभग 148 साल की बताई गई।


फिर प्रद्योत वंश के बाद शिशुनाग वंश के बारे में बताया गया है कि जिसमें 10 राजा हुए  और इसका कार्यकाल लगभग 360 साल साल बताया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जरासंध और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच लगभग 38 [23+5+10] राजाओं का वर्णन किया गया है तथा इसके बीच का समय 1508 साल [1000+148+360] का समय अंतराल आता है।


चंद्रगुप्त मौर्य का खुद का शासन काल लगभग 345 ईसा पूर्व बताया गया है। इसप्रकार हम देखे तो जरासंध का अस्तित्व लगभग 1853 ईसा पूर्व  [1508+345] आता है। यदि वर्तमान समय से इस अवधि को देखें तो जरासंध का अस्तित्व लगभग 4053 साल [2200+1853] पहले आता है।


जरासंध भगवान श्रीकृष्ण का समकालीन था। जरासंध भगवान श्रीकृष्ण के मामा कंस का दामाद भी था। जरासंध ने श्रीकृष्ण पर 21 बार चढ़ाई भी की थी तथा जरासंध का वध भगवान श्रीकृष्ण की सलाहानुसार भीम ने उनकी हीं उपस्थिति में की थी।  इसप्रकार हम कह सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण आज से लगभग 4000 साल पहले इस धरती पर अवतरित हुए थे। 


ठीक इसी प्रकार ये भी कहा जा सकता है कि महाभारत की घटना भी कोई कपोल कल्पित घटना नहीं है , बल्कि निश्चित रूप से ये घटना आज से लगभग 4000 साल पहले घटित हुई है। इसे मात्र एक साहित्यिक रचना मान लेने की भूल पश्चिमी इतिहासकारों से हुई है। वास्तविकता तो ये है कि महाभारत का युद्ध प्रमाणिक रूप से लड़ा गया था।


भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम को केवल कहानियों का हिस्सा मान लेना उचित नहीं जान पड़ता। भागवद पुराण में वर्णित घटनाओं के आधार पर ये निश्चित रूप कहा जा सकता है कि जिस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर प्रमाणिक थे , बिल्कुल उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भी।


इस कहानी में भगवान श्रीकृष्ण की प्रमाणिकता को साबित करने के लिए चंद्रगुप्त का इस्तेमाल एक मानक के रूप में किए जाने का कारण ये है कि भागवद पुराण में वर्णित राजाओं में चंद्रगुप्त मौर्य को पहला शासक है।जिसकी प्रमाणिकता के बारे में पश्चिमी इतिहासकार भी संदेह नहीं करते।


इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान कृष्ण की उपस्थिति को ठीक उसी तरह से प्रमाणिक माना जा सकता है जिस प्रकार कि गौतम बुद्ध, चंद्रगुप्त मौर्य, सिकंदर, पोरस, अजातशत्रु, बिम्बिसार, चाणक्य और आम्रपाली इत्यादि के अस्तित्व को। ये बिल्कुल स्पष्ट है कि भगवान श्रीकृष्ण इस धरती पर ठीक उसी प्रकार अस्तित्वमान थे जिस प्रकार कि गौतम बुद्ध।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित 

Sunday, September 18, 2022

सच्चाई लक्ष्मण रेखा की



आम बोल चाल की भाषा में जब वाद विवाद के दौरान कोई अपनी मर्यादा को लांघने लगता है, अपनी हदें पार करने लगता है तब प्रायः उसे लक्ष्मण रेखा नहीं पार करने की चेतावनी दी जाती है। 

आखिर ये लक्ष्मण रेखा है क्या जिसके बारे में बार बार चर्चा की जाती है? आम बोल चाल की भाषा में जिस लक्ष्मण रेखा का इस्तेमाल बड़े धड़ल्ले से किया जाता है, आखिर में उसकी सच्चाई क्या है? इस कहानी की उत्पत्ति कहां से होती है? ये कहानी सच है भी या नहीं, आइए देखते हैं?

किदवंती के अनुसार जब प्रभु श्रीराम अपनी माता कैकयी की इक्छानुसार अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को गए तब रावण की बहन सुर्पनखा श्रीराम जी पर कामासक्त हो उनसे प्रणय निवेदन करने लगी।

जब श्रीराम जी ने उसका प्रणय निवेदन ये कहकर ठुकरा दिया कि वो अपनी पत्नी सीताजी के साथ रहते है  तब वो लक्ष्मण जी के पास प्रणय निवेदन लेकर जा पहुंची। जब लक्ष्मण जी ने भी उसका प्रणय निवेदन ठुकरा दिया तब क्रुद्ध हो सुर्पनखा ने सीताजी को मारने का प्रयास किया ।  सीताजी की जान बचाने के लिए मजबूरन लक्ष्मण को सूर्पनखा के नाक काटने पड़े।

लक्ष्मण जी द्वारा घायल लिए जाने के बाद सूर्पनखा  सर्वप्रथम राक्षस खर के पास पहुँचती है और अपने साथ हुई सारी घटनाओं का वर्णन करती है । 

सूर्पनखा के साथ हुए दुर्व्यवहार को जानने के बाद  राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ मिलकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी पर आक्रमण कर देता है ।

लेकिन सूर्पनखा की आशा के विपरीत राक्षस खर अपने भाई दूषण के साथ श्रीराम और लक्ष्मण जी के साथ युद्ध करते हुए मारा जाता है । अब सूर्पनखा के पास और कोई चारा नहीं बचता है सिवाए इसके कि वो अपने भाई रावण से सहायता मांगे ।

इसके बाद घायल सुर्पनखा रावण के पहुंच कर प्रतिशोध लेने को कहती है। रावण अपने मामा मरीच के साथ षडयंत्र रचता है। रावण का मामा मारीच सोने के मृग का वेश बनाकर वन में रह रहे श्रीराम , सीताजी और लक्ष्मण जी के पास पहुंचता है।

सीताजी उस सोने के जैसे दिखने वाले मृग पर मोहित हो श्रीराम जी से उसे पकड़ने को कहती है। सीताजी के जिद करने पर श्रीराम उस सोने के बने मारीच का पीछा करते करते जंगल में बहुत दूर निकल जाते हैं।

जब श्रीराम उस सोने के मृग बने रावण के मामा मारीच को वाण मारते हैं तो मरने से पहले मारीच जोर जोर से हे लक्ष्मण और हे सीते चिल्लाता हैं। ये आवाज सुनकर सीता लक्ष्मण जी को श्रीराम जी की सहायता हेतु जाने को कहती है।

लक्ष्मण जी शुरुआत में तो जाने को तैयार नहीं होते हैं, परंतु सीताजी के बार बार  जिद करने पर वो जाने को मजबूर हो जाते हैं। लेकिन जाने से पहले वो कुटिया के चारो तरफ अपने मंत्र सिद्ध वाण से एक रेखा खींच देते हैं। 

वो सीताजी को ये भी कहते हैं कि श्रीराम और लक्ष्मण की अनुपस्थिति में ये रेखा उनकी रक्षा करेगा। अगर वो उस रेखा से बाहर नहीं निकलती हैं तो वो बिल्कुल सुरक्षित रहेगी।

जब लक्ष्मण जी बाहर चले जाते हैं तो योजनानुसार रावण सीताजी के पास सन्यासी का वेश बनाकर भिक्षा मांगने पहुंचता है। सीताजी भिक्षा लेकर आती तो हैं लेकिन लक्ष्मण जी द्वारा खींची गई उस रेखा से बाहर नहीं निकलती।

ये देखकर सन्यासी बना रावण भिक्षा लेने से इंकार कर देता हैं। अंत में सीताजी लक्ष्मणजी द्वारा खींची गई उस लकीर के बाहर आ जाती है और उनका रावण द्वारा अपहरण कर लिया जाता है।

लक्ष्मण जी द्वारा सीताजी की रक्षा के लिए खींची गई उसी तथाकथित लकीर को आम बोल चाल की भाषा में लक्ष्मण रेखा के नाम से जाना जाता है। इस कथा के अनुसार लक्ष्मण जी ने सीताजी की रक्षा के लिए जो लकीर खींच दी थी, अगर वो उसका उल्लंघन नहीं करती तो वो रावण द्वारा अपहृत नहीं की जाती।

महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित रामायण को तथ्यात्मक प्रस्तुतिकरण के संबंध में सबसे अधिक प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता हैं। आइए देखते हैं महर्षि वाल्मिकी द्वारा रचित वाल्मिकी रामायण में इस तथ्य को कैसे उल्लेखित किया गया है। वाल्मिकी रामायण  के आरण्यक कांड के पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ( अर्थात 45 वें भाग) में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इस घटना की शुरुआत मारीच के श्रीराम जी द्वारा वाण से घायल करने और मरने से पहले मारीच द्वारा सीता और लक्ष्मण को पुकारने और सीता द्वारा इस पुकार को सुनकर घबड़ाने से शुरू होती है। इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से शुरू होता है।

जब जानकी जी ने उस वन में पति के कण्ठस्वर के सदृश स्वर में आर्त्तनाद सुना, तब वे लक्ष्मण से बोलीं कि, जा कर तुम श्रीराम चन्द्र जी को देखो तो ॥ १ ॥

न हि से हृदयं स्थाने जीवावतिष्ठते ।
क्रोशतः परमार्तस्य श्रुतः शब्दो मया भृशम् ॥ २ ॥

इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं, चित्त न जाने कैसा हो रहा है , क्योंकि मैंने परम पीड़ित और अत्यन्त चिल्लाते हुए श्रीराम चन्द्र जी का शब्द सुना है ॥ २ ॥

आक्रन्दमानं तु वने भ्रातरं त्रातुमर्हसि ।
तं क्षिप्रमभिधाव त्वं भ्रातरं शरणैषिणम् ॥३॥

अतः तुम वन में जा कर इस प्रकार आर्त्तनाद करने वाले
अपने भाई की रक्षा करो और दौड़ कर शीघ्र जाओ क्योंकि उनको इस समय रक्षण की आवश्यकता है ॥ ३॥

रक्षसां वशमापनं सिंहानामिव गोषम् ।
न जगाम तथोक्तस्तुभ्रातुराज्ञाय शासनम् ॥४॥

जान पड़ता है, वे राक्षसों के वश में जा पड़े हैं, इसी से वे सिंहों के बीच में पड़े हुए बैल की तरह विकल हैं। सीता जी के इस कहने पर भी लक्ष्मण जी न गये, क्योंकि उनको उनके भाई श्रीरामचन्द्र जाते समय आश्रम में रह कर, सीता की रखवाली करने की आज्ञा दे गये थे ॥४॥

तमुवाच ततस्तत्र कुपिता जनकात्मजा ,
सौमित्र मित्ररूपेण भ्रातुस्त्वमसि त्वमसि शत्रुवत् ॥५॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि जब घबड़ाकर सीताजी लक्ष्मण जी से श्रीराम चंद्र जी की रक्षा करने को कहती है, तब भी  लक्ष्मण जी नहीं जाते हैं। इसका कारण ये था कि श्रीराम जी ने लक्ष्मण जी को सीता जी की रक्षा करने की आज्ञा दे गए थे। 

अपनी बात को न मानते देख सीताजी क्रोध में आ जाती हैं वो लक्ष्मण जी को अनगिनत आरोप लगाने लगती हैं ताकि लक्ष्मण जी उनकी बात मानने को बाध्य हो जाएं। आगे देखते है क्या हुआ।

तब तो सीता जी ने क्रोध कर लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण , तुम अपने भाई के मित्ररूपी शत्रु हो ॥ ५ ॥ ( यदि ऐसा न होता तो ) तुम क्या उस महा तेजस्वी श्रीराम चन्द्र जी के दिन इसी प्रकार निश्चिन्त और स्थिर बैठे रहते । 

देखो जिन श्रीरामचन्द्र जी के अधीन में हो कर, तुम वन में आए हो, उन्हीं श्रीरामचन्द्र जी के प्राण जब संकट  में पड़े हैं, तब मैं यहाँ रह कर ही क्या करूँगी (अर्थात यदि तुम न जायोगे तो मैं जाऊँगी)। 

अब्रवीलक्ष्मणस्वस्तां सीतां मृगवधूमिव । पन्नगासुरगन्धर्वदेवमानुषराक्षसः ॥१०॥

अशक्यस्तव वैदेहि भर्ता जेतुं न संशयः ।
 दानवेषु च घोरेषु न स विद्येत शोभने ॥१२॥

देव देवमनुष्येषु गन्धर्वेषु पतत्रिषु ॥११॥ 
राक्षसेषु पिशाचेषु किन्नरेषु मृगेषु च ।

यो रामं प्रति युध्येत समरे वासवोपमम् । 
अवध्यः समरे राम्रो नैवं त्वं वक्तुमर्हसि ॥१३॥

जब जानकी जी ने प्राँखों में आंसू भर कर, यह कहा ।।८।। तब लगी के समान डरी हुई सीता जी से लक्ष्मण जी बोले कि, पन्नग, तुर, गन्धर्व, देवता, मनुष्य, राक्षस , कोई भी तुम्हारे पति (श्रीरामचन्द्र जी) को नहीं जीत सकता । इसमें कुछ भी सन्देह मत करना ।।१०।। 

हे सीते ! हे शोभने ! देवताओं, मनुष्यों, गन्ध, पक्षियों, राक्षसों, पिशाचों किन्नरों, मृगों, भयङ्कर वानरों में कोई भी ऐसा नहीं. जो इन्द्र के समान पराक्रमी श्रीराम चन्द्र के समाने रण क्षेत्र में खड़ा रह सके । युद्धक्षेत्र में श्री रामचन्द्र जी अजेय हैं। अतः तुमको ऐसा कहना उचित नहीं ||११|| १२||१३||

श्रीरामचन्द्र की अनुपस्थिति में, मैं तुम्हें इस वन में अकेली छोड़ कर नहीं जा सकता। बड़े बड़े बलवानों की भी यह शक्ति नहीं कि, वे श्रीराम चन्द्र।जी के बल को रोक सकें ॥१४॥
 
त्रिभिर्लेोकैः समुद्युक्तः सेश्वरैरपि सामरैः । 
हृदयं निर्वृतं तेऽस्तु सन्तापस्त्यज्यतामयम् ||१५|| 

अगर तीनों लोक और समस्त देवताओं सहित इन्द्र इकट्ठे हो जाएँ , तो भी श्रीराम चन्द्र जी का सामना नहीं कर सकते । यतः तुम सन्ताप को दूर कर, आनन्दित हो ॥ १५ ॥ 

न च तस्य स्वरो व्यक्तं मायया केनचित्कृतः ॥१६॥
आगमिष्यति ते भर्ता शीघ्रं हत्वा मृगोत्तमम् ॥

उस उत्तम मृग को मार तुम्हारे पति शीघ्र आ जायगे । जो शब्द तुमने सुना है, वह श्रीरामचन्द्र जी का नहीं है, यह तो किसी का बनावटी शब्द है ॥१६॥

खरस्य निधनादेव जनस्थानवधं प्रति
राक्षसा विविधा वाचो विसृजन्ति महावने ॥१९॥

बल्कि गंधर्व नगर की तरह यह उस राक्षस की माया है। हे सीते ! महात्मा श्रीरामचन्द्र जी मुझको, तुम्हें धरोहर की तरह सौंप गये हैं । अतः हे वरारोहे ! मैं तुम्हें अकेला छोड़ कर जाना नहीं चाहता |  

हे वैदेही ! एक बात और है  जनस्थान निवासी खर आदि राक्षसों का वध करने से राक्षसों से हमारा वैर हो गया है । इस महावन में राक्षस लोग हम लोगों को धोखा देने के लिये भाँति भाँति की बोलियां बोला करते हैं ॥१७॥१८॥१६॥

सहारा वैदेहि न चिन्तयितुमर्हसि । 
लक्ष्मणेनैवमुक्ता सा क्रुद्धा संरक्तलोचना ।।२०।।

और साधुओं को पीड़ित करना राक्षसों का एक प्रकार का खेल है । अतः तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। जब लक्ष्मण ने इस प्रकार कहा, तब  सीता जी के नेत्र क्रोध के मारे लाल हो गये ॥२०॥

लक्ष्मण जी सीताजी जी इन बातों को सुनकर भी विचलित नहीं होते। उन्हें अपने अग्रज श्रीराम जी की शक्ति पर अपार आस्था है। उल्टे वो सीताजी को समझाने की कोशिश करने लगते हैं। लक्ष्मण जी की कोशिश होती है कि जिस प्रकार उनकी आस्था श्रीराम जी में हैं उसी तरह का विश्वास सीताजी में भी स्थापित हो जाए। 

लक्ष्मण जी सीताजी ये भी समझाते हैं कि खर इत्यादि राक्षसों का वध करने से सारे राक्षस उनके विरुद्ध हो गए हैं। इस कारण तरह तरह की ध्वनि निकाल कर ऊनलोगों को परेशान करने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु सीताजी पर  इसका ठीक विपरीत असर होता है। 

इन बातों को सुनकर सीताजी क्रोध में आ जाती हैं और उग्र होकर लक्ष्मण जी को अनगिनत बातें कहती हैं जिस कारण लक्ष्मण जी को मजबूरन सीताजी को अकेला छोड़कर जाना पड़ता है। वो आगे इस प्रकार कहते हैं।

मैं तो श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा मान, तुम्हें अकेली छोड़ कर, नहीं जाता था किन्तु हे बरानने , तुम्हारा मङ्गल हो , लो मैं श्रीरामचन्द्र के पास जाता हूँ ॥ ३३ ॥

रक्षन्तु त्वां विशालाक्षि समग्रा वनदेवताः। 
निमित्तानि हि घोराणि यानि प्रादुर्भवन्ति मे ॥३४॥

अपि त्वां सह रामेण पश्येयं पुनरागतः ॥३५॥ 

लक्ष्मणेनैवमुक्ता सा रुदन्ती जनकात्मजा । 
प्रत्युवाच ततो वाक्यं तीव्रं बाष्पपरिप्लुता ॥३६॥

हे विशालाचि ! समस्त वनदेवता तुम्हारी रक्षा करें। इस समय बड़े बुरे बुरे शकुन मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं ॥ ३४ ॥ क्या मैं श्रीरामचन्द्र सहित लौट, फिर तुम्हें ( यहाँ ) देख सकूँगा ॥३५॥

विशालनयना जनकनन्दिनी को ऐसे व्यार्त्तभाव से, उदास हो रोते हुए देख, लक्ष्मण ने उनको समझाया बुझाया, किन्तु जानकी जे अपने देवर से फिर कुछ भी न कहा (अर्थात रूठ गयीं )॥ ४०॥

ततस्तु सीतामभिवाद्य लक्ष्मणः 
कृताञ्जलिः किञ्चिदभिप्रणम्य च।

अन्वीक्षमाणो बहुशश्च मैथिलीं जगाम रामस्य समीपमात्मवान् ॥४१॥

तदनन्तर जितेन्द्रिय लक्ष्मण जी हाथ जोड़ और बहुत झुक कर सीता जी को प्रणाम कर और बार बार सीता को देखते हुए श्रीरामचन्द्र के पास चल दिये ॥४१॥

तथा परुषमुक्तस्तु कुपितो राघवानुजः 
स विकाङ्क्षन्भृशं रामं प्रतस्थे न चिरादिव ॥१॥

इस प्रकार जानकी की कटूक्तियों से कुपित हो, लक्ष्मण जी वहां से जाने की बिलकुल इच्छा न रहते भी, श्रीराम चन्द्र जी के पास तुरन्त चल दिये ॥१॥

जब लक्ष्मण जी के बार बार समझाने पर भी सीता जी नहीं मानती, उल्टे लक्ष्मण जी को बुरा भला कहने लगती हैं तब लक्ष्मण जी के बार और कोई उपाय नहीं रह जाता हैं सिवाए इसके कि सीताजी की आज्ञानुसार वो प्रभु श्रीराम के पास पहुंचकर उनकी रक्षा करें । हालांकि उनके मन में शंका के अनगिनत बादल मंडराने लगते हैं फिर भी लक्ष्मण जी सीताजी को अकेले छोड़कर जाने को बाध्य हो जाते हैं । इसके बाद क्या होता है, आइए देखते हैं।

इतने में एकान्त अवसर पा, रावण ने सन्यासी का भेष बनाया और वह तुरन्त सीता के सामने जा पहुँचा ॥२॥

काषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही । 
वामे चांसेऽवसज्ज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू ॥३॥ 

उस समय रावण स्वच्छ रुमा रङ्ग के कपड़े पहिने हुए था, उसके सिर पर चोटी थी, सिर पर छत्ता लगाये और पैरों में खड़ाऊ पहिने हुए था । उसके वाम कंधे पर त्रिदण्ड था और हाथ में कमण्डलु लिये हुए था ॥३॥

तदासाद्य दशग्रीवः क्षिमनन्तरमास्थितः । 
अभिचक्राम देहीं परिव्राजकरूपवृत् || २||

जब इस प्रकार रावण ने सीता जी की प्रशंसा की तब उस संन्यास वेषधारी रावण को आया हुआ देख, सीता जी ने उसका यथा विधि प्रातिथ्य किया ॥ ३२॥

सर्वैरतिथिसत्कारैः पूजयामास मैथिली
उपनीयासनं पूर्वं पाद्येनाभिनिमन्त्र्य च।

अब्रवीत्सिद्धमित्येव तदा तं सौम्यदर्शनम् ।। ३३ ।। 

सीता ने पहले उसे बैठने को आसन दिया,।फिर पैर धोने का जल दिया, फिर फल आदि भोज्य पदार्थ देते हुए कहा, यह सिद्ध किये हुए पदार्थ हैं ( अर्थात् भूंजे हुए अथवा पकाये हुए ) ॥ ३३ ॥

द्विजाति वेषेण समीक्ष्य मैथिली समागतं पात्र कुसुम्भ भ्धारिणम् । 
अशक्य मुद्वेष्टुमपायदर्शनं यद्ब्राह्मणवत्तदाऽङ्गना ॥ ३४ ॥

सीताजी को अकेले पाकर रावण सन्यासी का वेश बनाए हुए वहां पहुंचता है । रावण के सन्यासी वेश में स्वयं की प्रशंसा करते हुए देख सीताजी सर्वप्रथम उसका आदर करती हैं और खाने के लिए फल आदि भी प्रदान करती हैं। फिर सीताजी रावण से उसका परिचय जानना चाहती है। जब उत्तर में रावण अपना अभिमान भरा परिचय देता है। सीताजी जी प्रतिउत्तर में रावण को अपने पति श्रीराम चंद्र जी के अद्भुत पराक्रम का वर्णन करने लगती हैं।

अब आप अपना नाम, गोत्र और कुल ठीक ठीक बतलाइये और यह भी बतलाइये कि, आप अकेले इस दण्डकवन में क्यों फिरते हैं ॥ २४ ॥

एवं ब्रुवन्त्यां सीतायां रामपत्न्यां महाबलः ।
प्रत्युवाचोत्तरं तीव्रं रावणो राक्षसाधिपः ।। २५।। 

जब सीता जी ने ऐसे वचन कहे, तब महावली राक्षस नाथ रावण ने ये कठोर वचन कहे ॥ २५ ॥

येन वित्रासिता लोकाः सदेवासुरपन्नगाः ।
अहं स रावणो नाम सीते रक्षोगणेश्वरः || २६ ॥

हे सीते ! जिसके डर से देवताओं, असुरों और मनुष्यों सहित तीनों लोक थरथराते हैं, मैं वही राक्षसों का राजा रावण हूँ ॥ २६ ॥ 

सीता जी अपना परिचय देते हुए कहती जो सब शुभ लक्षणों से युक्त और वटवृक्ष की तरह सबको सदैव सुखदायी हैं, उन सत्यप्रतिज्ञ और महाभाग श्रीरामचन्द्र की मैं अनुगामिनी हूँ ३४ ॥

"कूपोदकं वटच्या युवतीनां स्तनद्वयम् । शीतकाले भवेत्युष्णमुष्णकाले च शीतलम् ॥" ]

महावाहुं महोरस्कं सिंहविक्रान्तगामिनम् नृसिंहं सिंहसङ्काशमहं राममनुव्रता ।। ३५ ।। 

महावाहु, चौड़ी छाती वाले, सिंह जैसी चाल चलने वाले, पुरुष सिंह, और सिंह से समान पराक्रमी श्रीरामचन्द्र की मैं अनुगामिनी हूँ || ३५ ॥

पूर्णचन्द्राननं रामं राजवत्सं जितेन्द्रियम्
पृथुकीर्त्ति महात्मानमहं राममनुव्रता ॥ ३६ ॥

मैं उन राजकुमार एवं जितेन्द्रिय श्रीराम की अनुगामिनी हूँ, जिनका मुख पूर्णमासी के चन्द्रमा के तुल्य है, जिनकी कीर्ति दिग दिगन्त व्यापिनी है और जो महात्मा हैं ॥ ३६॥

त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिच्छसि सुदुर्लभाम् 
नाहं शक्या त्वया स्प्रष्टुमादित्यस्य प्रथा यथा ॥ ३७ ॥ 

सो तू शृगाल के समान हो कर, सिंहनी के तुल्य मुझे चाहता है । किन्तु तू मुझे उसी प्रकार नहीं छू सकता, जिस प्रकार सूर्य की प्रभा को कोई नहीं छू सकता ॥ ३७॥ 

सीताजी रावण के अभिमान भरे शब्दों से डरती नहीं अपितु राम जी पराक्रम से उसे परिचय करवाते हुए उसे धमकाती भी है। स्वयं के लिए अपमान जनक शब्दों का प्रयोग होते देखा रावण क्रोध में आकर अपना रौद्र रूप प्रकट करता है और फिर सीताजी का बलपूर्वक अपहरण कर लेता है।

हे भीरु ! यदि तू मेरा तिरस्कार करेगी, तो पीछे तुझको वैसे ही पछताना पड़ेगा, जैसे उर्वशी अप्सरा राजा पुरूरवा के लात मार कर, पछतायी थी ॥१८॥

अङ्गुल्या न समो रामो मम युद्धे स मानुषः ।

तव भाग्येन सम्प्राप्तं भजस्व वरवर्णिनि ।।१९॥ 

राम मनुष्य है, वह युद्ध में मेरी एक अंगुली के वल के समान भी ( वलवान् ) नहीं है । (अर्थात् उसमें इतना भी बल नहीं, जितना मेरी एक अंगुली में है) अतः वह युद्ध में मेरा सामना कैसे कर सकता है। हे वरवर्णिनी ! इसे तू अपना सौभाग्य समझ कि, मैं यहाँ आया हूँ । अतः तू मुझे अङ्गीकार कर ॥ १६ ॥

एवमुक्ता तु वैदेही क्रुद्धा संरक्तलोचना । 
अब्रवीत्परुषं वाक्यं रहिते राक्षसाधिपम् ॥२०॥ 

रावण के ऐसे वचन सुन, सीता कुपित हो और लाल लाल नेत्र कर, उस निर्जन वन में रावण से कठोर वचन बोली ॥ २० ॥ 

कथं वैश्रवणं देवं सर्वभूतनमस्कृतम्
भ्रातरं व्यपदिश्य त्वमशुभं कर्तुमिच्छसि ॥२१॥

हे रावण ! तू सर्वदेवताओं के पूज्य कुवेर को अपना भाई बतला कर भी, ऐसा बुरा काम करने को ( क्यों ) उतारु हुआ है ? ॥२१॥

मैं प्रकाश में बैठा बैठा अपनी भुजाओं से इस पृथिवी को उठा सकता हूँ, और समुद्र को पी सकता हूँ और काल को संग्राम में मार सकता हूँ ॥३॥

अर्क रुन्ध्यां शरैस्तीक्ष्णैर्निर्भिन्द्यां हि महीतलम् । कामरूपिणमुन्मत्ते पश्य मां कामदं पतिम् ॥४॥ 

मैं अपने पैने बाणों से सूर्य की गति को रोक सकता हूँ और पृथिवी को विदीर्ण कर सकता हूँ । हे उन्मत्ते ! मुझ इच्छारूपधारी और मनोरथ पूर्ण करने वाले पति को देख । ( अर्थात् मुझे अपना पति बना ) ॥४॥

एवमुक्तवतस्तस्य सूर्यकल्पे शिखिप्रभे । क्रुद्धस्य 'हरिपर्यन्ते रक्ते नेत्र बभूवतुः ॥५॥

ऐसा कहते हुए रावण की पीली आँखे मारे क्रोध के प्रज्वलित भाग की तरह लाल हो गयीं ॥५॥ 
सद्यः सौम्यं परित्यज्य भिक्षुरूपं स रावणः । स्वं रूपं कालरूपार्थं भेजे वैश्रवणानुजः ॥६॥

उसी क्षण कुबेर के छोटे भाई रावण ने अपने उस संन्यासी भेष को त्याग, काल के समान भयङ्कर रूप धारण किया ॥६॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मिकी रामायण  के आरण्यक कांड के पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ( अर्थात 45 वें भाग) में इस घटनाक्रम में लक्ष्मण द्वारा सीताजी की रक्षा करने के लिए किसी भी प्रकार की लकीर या रेखा को खींचने का वर्णन नहीं आता है।

जब सीताजी रावण से उसका परिचय पूछती हैं तो वो सन्यासी वेश में हीं अपना सम्पूर्ण परिचय देता है। रावण यहां पर सीता जी के किसी लकीर से बाहर आने का इंतजार नहीं करता, बल्कि सीताजी के पूछने पर सन्यासी वेश में हीं अपना परिचय दे देता है।

रावण द्वारा स्वयं को राक्षस राज बताए जाने का सीता जी पर कोई असर नहीं होता।  सीताजी का यहां साहसी व्यक्तित्व रूप प्रकाशित होता है। वो रावण से डरती नहीं अपितु उसे धमकाती भी हैं। ऐसी साहसी स्त्री के लिए भला किसी रेखा की जरूरत हो भी क्या सकती थी।

लक्ष्मण रेखा के खींचे जाने की कहानी कब , कहाँ , कैसे और क्यों प्रचलित हो गई इसके बांरे में ना तो ठीक ठीक जानकारी हीं प्राप्त है और ना हीं कोई ठीक ठीक से अनुमान हीं लगा सकता है। 

अब कारण जो भी रहा हो लेकिन ये बात तो तय हीं हैं कि किसी ने इसके बारे में तथ्यों को खंगाला नहीं । सुनी सुनी बातों को मानने से बेहतर तो ये है कि प्रमाणिक ग्रंथों में इसकी तहकीकात की जाय , और जहाँ तक तथ्यों के प्रमाणिकता का सवाल है , वाल्मीकि रामायण से बेहतर ग्रन्थ भला कौन सा हो सकता है ?

और जब हम लक्ष्मण रेखा के सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण की जाँच पड़ताल करते हैं तो ये तथ्य  निर्विवादित रूप से सामने निकल कर आता है कि लक्ष्मण  रेखा कभी अस्तित्व में आई हीं नहीं  थी।  

वाल्मिकी रामायण के अरण्यक कांड इस तरह की लक्ष्मण रेखा खींचने का कोई जिक्र हीं नहीं आता है। लक्ष्मण रेखा की घटना जो कि आम बोल चाल की भाषा में सर्वव्याप्त है दरअसल कभी अस्तित्व में था हीं नहीं। लक्ष्मण रेखा की वास्तविक सच्चाई ये है कि लक्ष्मण रेखा कभी खींची हीं नहीं गई।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, September 11, 2022

वर्तमान से वक्त बचा लो [भाग6]

एक व्यक्ति का व्यक्तित्व उस व्यक्ति की सोच पर हीं निर्भर करता है। लेकिन केवल अच्छा विचार का होना हीं काफी नहीं है। अगर मानव कर्म न करे और केवल अच्छा सोचता हीं रह जाए तो क्या फायदा। बिना कर्म के मात्र अच्छे विचार रखने का क्या औचित्य? प्रमाद और आलस्य एक पुरुष के लिए सबसे बड़े शत्रु होते हैं। जिस व्यक्ति के विचार उसके आलस के अधीन होते हैं वो मनोवांछित लक्ष्य का संधान करने में प्रायः असफल हीं साबित होता है। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो" का षष्ठम और अंतिम भाग।
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वर्तमान से वक्त बचा लो 
[भाग षष्ठम]
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क्या रखा है वक्त गँवाने 
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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उन्हें सफलता मिलती जो 
श्रम करने को होते तत्पर,
उन्हें मिले क्या दिवास्वप्न में 
लिप्त हुए खोते अवसर?
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प्राप्त नहीं निज हाथों में 
निज आलस के अपिधान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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ना आशा ना विषमय तृष्णा 
ना झूठे अभिमान में,
बोध कदापि मिले नहीं जो 
तत्तपर  मत्सर पान में?
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मुदित भाव ले हर्षित हो तुम 
औरों के उत्थान में ,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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तुम सृष्टि की अनुपम रचना 
तुममें ईश्वर रहते हैं,
अग्नि वायु जल धरती सारे 
तुझमें हीं तो बसते हैं।
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ज्ञान प्राप्त हो जाए जग का 
निज के अनुसंधान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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क्या रखा है वक्त गँवाने 
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday, September 5, 2022

डर आजादी का

 


एक बाग में एक मोर और एक मैना रहते थे। दोनों में बड़ी गहरी दोस्ती थी। दिन हो या कि रात, काम हो या कि आराम, दोनों समय निकाल हीं लेते थे मिलने के लिए।

बरसात के मौसम में उनकी दोस्ती और रंग लाती थी। बादलों के मौसम में मोर अपने रंग बिरंगे पंख फैला कर नाचने लगता तो मैना गाने लगता। मौसम में चारों तरफ आनंद हीं आनंद फैल जाता।

उन्हीं दिनों उस बाग के मालिक का बेटा घूमने आया था। मोर और मैना की जुगल बंदी देख कर भाव विभोर हो उठा। अब तो वो बच्चा यदा कदा उन दोनों को देखने बाग आ हीं जाता।

इधर मोर तो बादल का गुलाम था। वो तो बादल के आसमान में छाने पर हीं नाचता। इस कारण बच्चे को काफी दिन इंतजार करना पड़ता। परंतु मैना बच्चे को खुश करने के लिए उसकी आवाज की हू ब हू नकल करने लगता।

मैना के अपने आवाज की इस तरह नकल करते देख बच्चा खुश हो गया। वो बार बार मैना को बोलता और मैना उसकी नकल करता। इस तरह मैना बच्चे के करीब होता गया और मोर से उसकी दूरी बढ़ती चली गई।

मोर बार बार मैना को समझाने की कोशिश करता कि वो दूसरों की आवाज की नकल करना छोड़ दे, परंतु मैना के कानों पर जूं नहीं रेंगती। मोर अपने स्वभाव पर चलता रहा और मैना नकल उतरने में लगा रहा।

समय बीतने के साथ बच्चा बड़ा हो गया। उसे पढ़ने के लिए शहर से दूर जाना पड़ा। वो मैना से इतना प्यार हो गया था कि वो उसके बिना अकेले रह हीं नहीं सकता था।

बच्चा अपने पिताजी से उस मैना को भी साथ ले जाने की जिद करने लगा। आखिर कितनी बार मना करता , था तो आखिर पिता हीं। लिहाजा उसके पिताजी ने मैना को भी अपने बच्चे के साथ कर दिया, परंतु पिंजरे में डालकर।

शहर में बच्चा अकेला था। तिस पर से पढ़ाई लिखाई का बोझ। अब अपनी पढ़ाई लिखाई का ध्यान रखता कि मैना का। पिंजड़े में मैना को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता था। मैना के सुरक्षा का भी तो ध्यान रखना था।

दूसरे की नकल करने की कीमत चुकानी पड़ी मैना को। जब तक मैना को अपनी भूल का एहसास होता, तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब पछताए क्या होत है जब चिड़िया चुग गई खेत। मन मसोस कर मैना को पिंजड़े में रहना पड़ा।

कहते हैं समय हर घाव को भर देता है। मैना के चले जाने पर मोर कुछ समय के लिए तो आंसू बहाता रहा। पर आखिर कितने दिनों तक। आंसू बहाते रहने से जीवन तो नहीं चलता।

खाना खाने के लिए श्रम करना जरूरी था हीं। जीने के लिए बाहर निकलना था हीं मोर को। पापी पेट की क्षुधा सब कुछ भूलवा देती है। मोर अपने जीवन में व्यस्त हो चला। धीरे धीरे सब कुछ सामान्य हो गया।

इधर मैना भी समय बदलने के साथ साथ बदलता चला गया। शुरू शुरू में जो पिंजड़े में बंधे रहना उसे भी खराब लगता था। आजादी के दिन उसे याद आते थे। मोर के साथ बिताए गए दिन याद आते थे।

बादलों के आसमान में छाने पर मोर का अपना पंख प्रकार नाचना और उसका गाना , वाह क्या लम्हे हुआ करते थे। जब पूरा आसमान हीं उन दोनों का घर हुआ करता था। ना कोई रोकने वाला, ना कोई रोकने वाला।

अब पिंजड़े की दीवार के भीतर हीं उसकी पूरी दुनिया सिमट गई थी। मैना को एहसास हो चला था कि पुराने दिन तो लौटकर आने वाले नहीं। लिहाजा क्यों नहीं पिंजड़े के जीवन को हीं अपना लिया जाए।

लिहाजा पुराने दिनों को भूलकर अब नए जीवन की अच्छाइयों पर ध्यान देने लगा। अब बिना परिश्रम के मैना को समय पर खाना मिलता। अब वो किसी भी मांसाहारी पशु के हाथों नहीं मारा जा सकता था। समय बितने के सारी पिंजड़े के भीतर अब वो काफी सुरक्षित महसूस करता था।

और इसके बदले उसे करना हीं क्या था, बस अपने मालिक के कहने पर पूंछ हिलाना और उसके दोस्तों के सामने उनकी आवाज की नकल करना। और बदले में उसे मिलता था अपने मालिक का प्यार और प्रशंसा। आखिर उसे और क्या चाहिए था।

समय मानों पंख लगाकर उड़ रहा था। देखते हीं देखते उस बच्चे की पढ़ाई पूर्ण हो गई। डिग्री हासिल करने के बाद उसे अपने घर लौटना हीं था। जब वह अपने घर लौटा तो उस मैना को भी अपने साथ लाया।

बहुत दिनों के बाद मोर ने अपने दोस्त की आवाज सुनी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । वो तुरंत अपने मालिक के घर पहुंचा तो उसने देखा कि मैना उस बच्चे के आवाज की नकल कर उसे हंसा रहा था।

मोर छुप कर रात होने का इंतजार करने लगा ताकि वो मैना से अकेले में मिल सके। रात्रि होने पर जब मालिक का बच्चा सोने को चला गया तब मौका पाकर मोर मैना के पास पहुंच गया हाल चाल लेने।

इतने दिनों के बाद जब मैना अपने मित्र से मिला तो खुशी के मारे दोनों के आंखों से आंसू निकल पड़े। एक दूसरे का हाल चाल लेने के बाद मैना ने मोर से पूछा कि आखिर मालिक के बच्चे ने उसे हीं इस पिंजड़े में क्यों बंद कर रखा है, मोर को क्यों नहीं?

मोर ने कहा, देखो भाई मैं पहले भी कहता था , दूसरों की नकल मत करो, खास कर आदमी की तो कतई नहीं पर तुम माने कहां। मैं तो बस मौसम का गुलाम रहा। पर तुमने तो आदमी के आवाज की नकल उतरनी शुरू कर दी।

आदमी की फितरत से बिल्कुल अनजान तुम उस बच्चे के पीछे भागते हीं रहे। और ये आदमी तो है हीं ऐसे। अकेले रहने की हिम्मत नहीं और जिसके साथ भी रहता है उसी को अपना गुलाम बना लेता है।

आदमी समाज की, देश की, धर्म की , जात की, इतिहास की, परिवार की और न जाने किस किस की गुलामी पसंद करता है और दूसरों को भी ऐसे हीं जीने को बाध्य कर देता है। जो भी इसे पसंद आता है उसे अपने हिसाब से नियंत्रित करने लगता है।

कहने को तो आदमी आजादी के लिए लड़ाई करता है परंतु असल लड़ाई आजादी की नहीं, दरअसल आदमी की लड़ाई अपने ढंग से गुलामी करने और गुलामी करवाने की होती है।

देखो भाई मैना, मोर ने आगे बताया, आदमी आजादी की नहीं बल्कि खुद के द्वारा बनाई गई जंजीर में जीना चाहता है। तुमने आदमी की नकल की, आदमी ने तुम्हारे लिए भी खुद की बनाई हुई पिंजड़े की लकीर खींच दी।

खैर छोड़ो भी इन सारी बातों को। मोर ने आगे उत्साहित होकर मैना से कहा, चलो अब समय आ गया है आदमी की खींची गई लकीर को मिटाने का। चलो दोस्त, पूरा आसमान फिर से प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी।

ये कहते हुए मोर ने पिंजड़े के दरवाजे को खोला और मैना को अपने साथ चलने के लिए कहा। सोचा था मैना इस स्वर्णिम अवसर को हाथ से नहीं जाने देगा। सोचा था फिर दोनों साथ साथ खुले आसमान के नीचे गा सकेंगे।

परंतु ये क्या, मोर की आशा के विपरीत मैना ने हिचकिचाते हुए पिंजड़े के दरवाजे को बंद कर दिया । जो सोचा था वैसा हुआ नहीं । एक हीं दिन में मोर ने बेइंतहां खुशी और बेइंतहां हताशा दोनों की अनुभूति कर ली। मैना ने अपने पंखों को समेटते हुए मोर को वापस लौट जाने को कहा।

मैना ने कहा, भाई इतने दिनों तक पिंजड़े में रहने के कारण अब उड़ने की आदत चली गई है। दूसरी बात ये है कि पिंजड़े में खाना पीना भी बड़े आराम से मिल जाता है। मैं तो यहीं खुश हूं भाई। तुम लौट जाओ बाग में। और हां कभी कभी आते रहना मिलने के लिए।

मन मसोसते हुए मोर बाग में लौट गया। मोर को हंसी आ रही थी। उसको साफ साफ दिखाई पड़ रहा था कि इतने दिनों तक आदमी के साथ रहने के कारण शायद मैना को भी आदमी वाला रोग लग गया है। आदमी की नकल करते करते शायद मैना की अकल भी आदमी के जैसे हीं हो गई थी।

आदमी ना तो अकेले रह हीं सकता है और ना हीं औरों को अकेले रहने देता है । मैना भी आदमी की तरह आजादी से डरने लगा है। खुले आसमान में उड़ने के लिए आखिरकार आसमानों के खतरे भी तो उठाने पड़ते हैं।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, September 3, 2022

अंधे का बेटा अंधा

द्रौपदी के चीर हरण के अनेक कारणों में से एक कारण द्रौपदी द्वारा दुर्योधन का मजाक उड़ाए जाने को बताया गया है। 

महाभारत की कहानी पर आधारित अनगिनत टेलीविज़न सीरियल और फ़िल्में अनगिनत भाषाओँ में बनाई गई हैं और इन सारी कहानियों में द्रौपदी द्वारा दुर्योधन के मजाक उड़ाए जाने को दिखाया गया है।

कहानियों में ये दिखाया जाता है कि जब युद्धिष्ठिर राजसूय यज्ञ करते हैं तो अपने महल में अनगिनत राजाओं को आमंत्रित करते हैं । 

उनके आमंत्रण पर दुर्योधन भी मय द्वारा निर्मित पांडवों के महल को देखने पहुँचता है । मय द्वारा निर्मित पांडवों का वो महल बहुत हीं खुबसूरत था । उसमे बहुमूल्य रत्नों और शीशे का खुबसूरत प्रयोग किया गया था । 

वहाँ पे पर दरवाजों कहीं कहीं इस तरह का बनाया गया था कि दूर से तो खुला प्रतीत होता था , परन्तु वास्तव में वो बंद होता था। कहीं कहीं दरवाजा बंद प्रतीत होता था , परन्तु वो वास्तव में वहां पर दरवाजा होता हीं नहीं था ।

इसी प्रकार फर्श पर कहीं कहीं आभूषणों की इतनी खुबसूरत नक्काशी की गई थी कि जहाँ पानी नहीं था , वहाँ पानी प्रतीत होता था । तो कहीं पर पानी के ऊपर इतनी अच्छी कलाकृति और रंगों का प्रयोग किया गया था कि वहां पानी नहीं अपितु फर्श की प्रतीति होती थी।

आगे की घटनाक्रम ये दिखाया जाता है कि दुर्योधन दृष्टि भ्रम के कारण महल के दीवारों से जा टकराता है तो पानी से भरे हुए तालाब को फर्श समझकर उसमें जा गिरता है और इसी समय द्रौपदी उसका मजाक उड़ाते उसे अंधे का बेटा अँधा कहती है ।

द्रौपदी के चीर हरण के दौरान दुर्योधन और कर्ण के द्वारा द्रौपदी के लिए अपमानजनक शब्दों के प्रयोग के पीछे द्रौपदी द्वारा दुर्योधन का मजाक उड़ाये जाने को बताया जाता है। ऐसा तर्क दिया दिया जाता है कि दुर्योधन ने द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लेने के लिए किया था। 

लेकिन यदि हम महाभारत ग्रन्थ का अध्ययन करते हैं तो कुछ और हीं सत्य दृष्टिगोचित होता दिखाई पड़ता है। आश्चर्य की बात तो ये है कि महाभारत पर तथाकथित रूप से फिल्म बनाने वाले और टेलीविज़न सीरियल बनाने वाले ये दावा तक कर डालते हैं कि कहानी को प्रस्तुत करने में काफी सारी मेहनत की गई गई है ? 

लेकिन क्या वास्तव में उनका दावा वास्तव में महाभारत ग्रन्थ में लिखी गई तथ्यों पर आधारित है , या कि महाभारत ग्रन्थ में लिखी गई तथ्यों के विपरीत है, आईये देखते है । महाभारत ग्रन्थ के अनुसार जो घटनाएँ इस परिप्रेक्ष्य में वर्णित ही गई वो कुछ इस प्रकार हैं ।  

इस घटना का जिक्र महाभारत ग्रन्थ के सभा पर्व: के सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (अर्थात् 47 अध्याय के श्लोक संख्या 1 से श्लोक संख्या 15 में दुर्योधन के दृष्टि भ्रम का शिकार होना और लज्जित होकर हस्तिनापुर वापस लौट जाने की घटना का वर्णन किया गया है । 

इस अध्याय का शीर्षक कुछ इस प्रकार है :दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना और पग पग पर भ्रम के कारण उपहास का पात्र बनना तथा युधिष्ठिर के वैभव को देखकर उसका चिन्तित होना।

वैशम्पायन उवाच: वसन् दुर्योधनस्तस्यां सभायां पुरुषर्षभ। 
शनैर्ददर्श तां सर्वा सभां शकुनिना सह ॥ 1 ॥

वैशम्पायनजी कहते हैं:नरश्रेष्ठ जनमेजय : राजा दुर्योधन ने उस सभा भवन में निवास करते समय शकुनि के साथ धीरे-धीरे उस सारी सभा का निरीक्षण किया ॥ 1 ॥

तस्यां दिव्यानभिप्रायान् ददर्श कुरुनन्दनः | 
न दृष्टपूर्वा ये तेन नगरे नागसाहये ॥ 2 ॥

कुरु नन्दन दुर्योधन उस सभा में उन दिव्य अभिप्राय( दृश्यों ) को देखने लगा, जिन्हें उसने हस्तिनापुर में पहले कभी नहीं देखा था ॥ 2 ॥

स कदाचित् सभामध्ये धार्तराष्ट्रो महीपतिः। 
स्फाटिकं स्थलमासाद्य जलमित्यभिशङ्कया ॥ 3-4 ॥

एक दिन की बात है, राजा दुर्योधन उस सभा भवन में घूमता हुआ स्फटिक मणिमय स्थल पर जा पहुँचा और वहाँ जल की आशंका से उसने अपना वस्त्र ऊपर उठा लिया। इस प्रकार बुद्धि मोह हो जा नेसे उसका मन उदास हो गया और वह उस स्थान से लौटकर सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा ॥ 3-4 ॥

ततः स्थले निपतितो दुर्मना व्रीडितो नृपः। 
निःश्वसन् विमुखश्चापि परिचक्राम तां सभाम् ॥ 5 ॥

तदनन्तर वह स्थल में ही गिर पड़ा, इससे वह मन ही मन दुखी और लज्जित हो गया तथा वहाँ से हटकर लम्बी साँसें लेता हुआ सभा भवन में घूमने लगा ॥ 5 ॥

ततः स्फाटिकतोयां वै स्फाटिकाम्बुजशोभिताम् ।
वापी मत्वा स्थलमिव सवासाः प्रापतजले ॥ 6 ॥

तत्पश्चात स्फटिकमणि के समान स्वच्छ जल से भरी और स्फटिक मणिमय कमलों से सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्र सहित जल में गिर पड़ा ॥ 6 ॥

जले निपतितं दृष्टा भीमसेनो महाबलः । 
जहास जहसुश्चैव किंकराश्च सुयोधनम् ॥ 7 ॥

उसे जल में गिरा देख महाबली भीमसेन हँसने लगे ॥ 7 ॥ 

वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात् । 
तथागतं तु तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः ॥ 8 ॥

उनके सेवकों ने भी दुर्योधन की हँसी उड़ायी तथा राजाज्ञा से उन्होंने दुर्योधन को सुन्दर वस्त्र दिये ॥ 8 ॥ 

अर्जुनश्च यमौ चोभी सर्वे ते प्राहसंस्तदा । 
नामर्षयत् ततस्तेषामवहासममर्षणः ॥ 9 ॥

दुर्योधन की यह दुरवस्था देख महाबली भीमसेन, अर्जुन और नकुल सहदेव सभी उस समय जोर जोर से हँसने लगे। दुर्योधन स्वभाव से ही अमर्षशील था, अतः वह उनका उपहास न सह सका ॥ 9 ॥

आकारं रक्षमाणस्तु न स तान् समुदैक्षत,
पुनर्वसनमुत्क्षिप्य प्रतरिष्यन्निव स्थलम् ॥ 10 ॥

वह अपने चेहरे के भाव को छिगये रखने के लिये उनकी ओर दृष्टि नहीं डालता था। फिर स्थल में ही जल का भ्रम हो जाने से वह कपड़े उठाकर इस प्रकार चलने लगा, मानो तैरने की तैयारी कर रहा हो ॥ १० ॥

आरुरोह ततः सर्वे जहसुश्च पुनर्जनाः । 
द्वारं तु पिहिताकारं स्फाटिकं प्रेक्ष्य भूमिपः ।
प्रविशन्नाहतो मूर्ध्नि व्याघूर्णित इव स्थितः ॥ 11 ॥

इस प्रकार जब वह ऊपर चढ़ा, तब सब लोग उसकी भ्रान्ति पर हँसने लगे । उसके बाद राजा दुर्योधन ने एक स्फटिक मणि का बना हुआ दरवाजा देखा, जो वास्तव में बंद था, तो भी खुला दीखता था। उसमें प्रवेश करते ही उसका सिर टकरा गया और उसे चक्कर सा आ गया॥11॥

तादृशं च परं द्वारं स्फाटिकोरुकपाटकम् । 
विघट्टयन कराभ्यां तु निष्क्रम्याग्रे पपात ह ॥ 12 ॥

ठीक उसी तरह का एक दूसरा दरवाजा मिला, जिसमें स्फटिक मणि के बड़े बड़े किंवाड़ लगे थे । यद्यपि वह खुला था, तो भी दुर्योधन ने उसे बंद समझकर उस पर दोनों हाथों से धक्का देना चाहा। किंतु धक्के से वह स्वयं द्वार के बाहर निकलकर गिर पड़ा ॥ 12 ॥

द्वारं तु वितताकारं समापेदे पुनश्च सः । 
तद्वत्तं चेति मन्वानो द्वारस्थाना दुपारमत् ॥ 13 ॥

आगे जाने पर उसे एक बहुत बड़ा फाटक और मिला, परंतु कहीं पिछले दरवाजों की भाँति यहाँ भी कोई अप्रिय घटना न घटित हो इस भय से वह उस दरवाजे के इधर से ही लौट आया ॥ १३ ॥

एवं प्रलम्भान् विविधान प्राप्य तत्र विशाम्पते । 
पाण्डवेयाभ्यनुज्ञातस्ततो अप्रहृऐन मनसा दुर्योधनो नृपः ॥ 14 ॥ 
राजसूये महाकतौ प्रेक्ष्य तामद्भुतामृद्धिं जगाम गजसाह्वयम् ॥ 15॥

राजन, इस प्रकार बार बार धोखा खाकर राजा दुर्योधन राजसूय महायज्ञ में पाण्डवों के पास आयी हुई अद्भुत समृद्धि पर दृष्टि डालकर पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर की आज्ञा ले अप्रसन्न मन से हस्तिनापुर को चला गया ॥ 14-15 ॥

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्योधन के दृष्टि भ्रम का शिकार होने पर दुर्योधन का मजाक न केवल भीम हीं उड़ाते हैं, बल्कि उनके साथ साथ अर्जुन, नकुल और सहदेव भी दुर्योधन पर हंसते है ।

सबसे अपमान जनक बात तो ये थी कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के साथ साथ इन पांडवों के सेवक भी दुर्योधन को पानी में गिरा हुआ देखकर उसपर हंसने लगते है।

द्रौपदी का दुर्योधन को पानी में गिरा हुआ देखकर उसपर हंसना तथा उसको अंधे का बेटा अंधा कहकर मजाक उड़ाने का जिक्र कहीं भी नहीं आता है। ये कहानी बिल्कुल कोरी कल्पित है तथा इसका सत्य से कोई लेना नहीं है । 

तो फिर सवाल ये उठता है कि इस असत्य घटना को फैलाया किसने? यदि द्रौपदी ने दुर्योधन को अंधे का बेटा अंधा कहकर मजाक नहीं उड़ाया था, तो फिर इस बात को बताया किसने? इस असत्य और झूठी बात को फैलाया किसने?

इसका उत्तर शायद द्रौपदी के चीरहरण की घटना में छिपा हुआ है। ये सर्व ज्ञात है कि कर्ण ने द्रौपदी के चीरहरण की घटना के समय द्रौपदी को वैश्या कहकर संबोधित किया था और दुर्योधन ने उस अबला को निर्वस्त्र कर देने का आदेश दिया था।

कर्ण की दुश्मनी तो अर्जुन से थी, फिर उसने द्रौपदी के लिए इस तरह के अपमानजनक शब्दों का प्रयोग क्यों किया? दुर्योधन की घृणा पांडवों से थी तो फिर द्रौपदी के लिए इस तरह का अपमान जनक व्यवहार क्यों?

शायद दुर्योधन और कर्ण के इन निकृष्ट कदमों को उचित ठहराने के लिए ये मिथ्या फैलाई गई हो। जबकि ध्यान से देखा जाए तो पांडव , कौरव और कर्ण सारे के सारे पुरुषवादी प्रवृत्ति के शिकार हैं।

जहां पांडव द्रौपदी को एक वस्तु समझकर आपस में बांट लेते हैं, तो भीष्म पितामह अंबा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण एक वस्तु की तरह कर लेते हैं। 

वहीं पर दुर्योधन अपने मित्र कर्ण की सहायता से भानुमति का अपहरण कर लेता है, तो कृष्ण के पुत्र सांब दुर्योधन की बेटी का अपहरण कर लेते है।

पूरे महाभारत में स्त्री का उपयोग मात्र संतानोत्पत्ति के लिए किया जाता रहा है। धृत्तराष्ट्र, पांडु, विदुर, और पांचों पांडवों का जन्म इसी बात को तो साबित करता है।

शायद इसी पुरुषवादी प्रवृत्ति के शिकार महाभारत के ये दोनों पात्र दुर्योधन और कर्ण द्रौपदी के लिए इतना अपमानजनक व्यवहार मात्र उसे वस्तु की तरह समझकर हीं करते हैं।

और शायद पांडव भी द्रौपदी को जुए में हारे हुए एक वस्तु की तरह हीं समझकर दुर्योधन के इस कदम का विरोध नही करते। अगर पांडव द्रौपदी न समझकर एक पत्नी की तरह का व्यवहार करते तो यूं चुपचाप नहीं बैठते।

जहां पर द्रौपदी का सरेआम भरी सभा में अपमान किया जा रहा था वहां पर भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र आदि सारे बैठे हुए थे, लेकिन किसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया?कारण स्पष्ट है, उन सबके लिए द्रौपदी जुए में हारी गई एक वस्तु अलावा कुछ भी नहीं थी।

महाभारत में वर्णित इन घटनाओं से ये साफ जाहिर हो जाता है कि पुरुषवादी प्रवृत्ति ने हीं द्रौपदी के बारे में इस भ्रम को फैलाया था कि द्रौपदी ने दुर्योधन को अंधे का बेटा अंधा कहकर मजाक उड़ाया था, जबकि वास्तविकता तो ये है कि द्रौपदी ने ऐसा कभी नहीं कहा था।

वास्तविकता तो ये है कि दुर्योधन को पानी में गिरा हुआ देखकर द्रौपदी ने नहीं, अपितु भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और उनके सहचरों ने दुर्योधन का मजाक उड़ाया था।

आश्चर्य की बात तो ये है कि इस झूठी बात को अबतक सत्य मानकर फैलाया जाता रहा और द्रौपदी पर झूठे आरोप लगाए जाते रहे। क्या द्रौपदी का चीरहरण काफी नहीं था उस पात्र को व्यथित करने के लिए कि उसपर इस तरह के झूठे आरोप लगाए गए?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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