Sunday, October 26, 2025

ज्ञान, अनुभव और भक्ति

 गंगा और यमुना के पवित्र संगम के मध्य, जहाँ धरती हरी-भरी थी, नदियाँ नीली थीं और आकाश स्वर्णिम रंग में रंगा था, वहाँ एक प्राचीन वन फैला हुआ था — अद्वय वन। यह वन न तो कोई साधारण जंगल था, न ही कोई तीर्थस्थल। यहाँ न कोई भव्य मंदिर था, न कोई सोने-चाँदी की मूर्ति। बस एक सादा-सा कुटीर था, जिसके सामने एक छोटा दीपक रात-दिन जलता रहता था। उस दीपक की लौ ऐसी थी, मानो समय स्वयं उसकी रक्षा करता हो। हवा के झोंके उसे बुझा नहीं पाते थे, जैसे वह लौ प्रकृति की गोद में सदा के लिए सुरक्षित थी।

इस कुटीर में निवास करते थे मुनि अद्वय। उनकी आँखें ऐसी थीं, जैसे दो शांत झीलें हों, जिनमें झाँकने वाला अपने चेहरे का प्रतिबिंब तो देखता, पर वह चेहरा नहीं, उसकी आत्मा का साक्षात्कार होता। उनकी देह दुबली थी, पर उनकी उपस्थिति में एक ऐसी शक्ति थी, जो हृदय को बाँध लेती थी। लोग उन्हें ऋषि कहते, संत कहते, पर वे स्वयं को कुछ नहीं मानते थे। उनका एकमात्र परिचय था:
“मैं कुछ नहीं, बस एक सुनने वाला मौन हूँ।”

मुनि अद्वय का जीवन सादगी का प्रतीक था। वे नदियों के किनारे ध्यान में बैठते, वृक्षों से बातें करते, और हवा के साथ गूँजते। उनके शब्द सरल थे, पर उनमें गहराई ऐसी थी कि सुनने वाला अपने भीतर की गहराइयों में उतर जाता।

एक दिन अद्वय वन में एक युवा साधक आया, जिसका नाम था आरुण। वह लंबी यात्रा करके आया था, उसके कंधों पर प्रश्नों का बोझ था, और मन में सत्य को जानने की तीव्र प्यास। उसने मुनि अद्वय के चरणों में सिर झुकाया और पूछा,“गुरुदेव, संसार में सब लोग ईश्वर की पूजा करते हैं। मंदिरों में मूर्तियाँ हैं, यज्ञ होते हैं, भजन गाए जाते हैं। पर आप किसकी पूजा करते हैं?”

मुनि अद्वय ने उसकी ओर देखा। उनकी मुस्कान ऐसी थी, जैसे सूर्य की पहली किरण अंधेरे को चीर दे। उन्होंने कहा,“मैं सत्य की पूजा करता हूँ। पर सत्य किसी मंदिर में कैद नहीं, न किसी मूर्ति में बंधा है। वह हर श्वास में है, हर पत्ते की सरसराहट में, हर नदी की लहर में। जिस दिन तू इसे देख लेगा, पूजा कोई कर्मकांड नहीं रहेगी — तू स्वयं पूजा बन जाएगा।”

आरुण ने सिर झुका लिया, पर उसके मन में एक नया प्रश्न उठा। वह बोला,“क्या यह संभव है कि पूजा बिना देवता के हो?”

मुनि ने दीपक की ओर देखते हुए कहा,“जब तक देवता बाहर है, तू उसका दास है। जब वही देवता तेरे भीतर जागे, तभी तू मुक्त हो सकता है।”

उस क्षण वन में हवा का एक झोंका आया। दीपक की लौ थरथराई, पर बुझी नहीं। मानो प्रकृति स्वयं मुनि के शब्दों को साक्षी बन रही हो।

वर्ष बीतते गए। एक दिन मुनि अद्वय समाधि में लीन हो गए। उनका शरीर छूट गया, कुटीर खाली रह गया। पर उनकी वाणी हवा में गूँजती रही, जैसे वन का हर कण उनकी शिक्षाओं को संजोए हुए हो।

आरुण वन में ही रह गया। उसने मुनि की सिखाई साधना को अपनाया — मौन। पर मौन आसान नहीं था। उसके मन में विचारों की लहरें उठतीं, पुरानी यादें लौटतीं, भय और इच्छाएँ जागतीं। एक दिन वह निराश होकर चिल्ला उठा,“गुरुदेव, मैं मौन चाहता हूँ, पर मेरा मन शोर मचाता है! मुझे शांति नहीं मिलती!”

उसी क्षण, उसके भीतर से एक स्वर गूँजा, मानो मुनि अद्वय की आत्मा बोल रही हो:“मौन कोई वस्तु नहीं जो पकड़ में आए। वह तब उतरता है, जब ‘तू’ खो जाता है। अपने विचारों से लड़ना छोड़ दे। उन्हें देख, पर उनके पीछे मत भाग।”

आरुण ने यही किया। उसने अपने विचारों, भयों, और इच्छाओं को देखना शुरू किया। वह उन्हें थामने या ठुकराने की बजाय केवल साक्षी बन गया। धीरे-धीरे उसका मन शांत होने लगा। और एक दिन, एक अनोखा मौन उसके भीतर उतरा। यह मौन कोई खालीपन नहीं था — यह सजीव था, जैसे आकाश स्वयं बोल रहा हो।

उस मौन में आरुण ने अनुभव किया:“ईश्वर बाहर नहीं, भीतर है। वह कोई रूप नहीं, अनुभव है।”उसने आँखें खोलीं। नदी, वृक्ष, आकाश — सब वही थे, पर अब सब कुछ एक लय में बह रहा था। जीवन और मृत्यु, प्रकाश और अंधकार — सब एक ही साँस में समा गए थे।

कई वर्षों बाद, अद्वय वन में एक नया साधक आया — देवप्राण। वह अपने साथ भगवान सोमेश्वर की एक छोटी मूर्ति लाया था। उसने कुटीर के पास पत्थरों का एक छोटा मंदिर बनाया, दीपक जलाया, और आरुण से बोला,
“मुनिवर, मैं रोज़ पूजा करता हूँ, फिर भी मेरा मन शांत नहीं होता। मैं क्या करूँ?”

आरुण ने मुस्कुराते हुए पूछा,“तू पूजा करता है, पर किसलिए?”

देवप्राण ने उत्तर दिया,“भगवान को प्रसन्न करने के लिए। अगर वे खुश होंगे, तो मुझे मोक्ष मिलेगा।”

आरुण ने दीपक की ओर इशारा करते हुए कहा,“तू भक्ति को व्यापार बना रहा है। जहाँ भय है, वहाँ प्रेम नहीं। जहाँ लोभ है, वहाँ मुक्ति नहीं। यह दीपक तेरी भक्ति है। जब तू इसे अपने भय की हवा से ढँकता है, लौ काँपती है। जब तू भय हटाता है, लौ स्थिर हो जाती है। वह स्थिरता ध्यान है। भक्ति उसका हृदय है, ध्यान उसकी दृष्टि। दोनों एक ही ज्योति के दो छोर हैं।”

देवप्राण की आँखें नम हो गईं। उसने अपनी मूर्ति को नदी में प्रवाहित कर दिया और बोला,“अब मैं उसे बाहर नहीं पूजूँगा, क्योंकि वह मेरे भीतर जल उठा है।”

आरुण ने कहा,“अब तू अग्नि भी बन गया है, और दीपक भी।”

वर्षों बाद, जब आरुण वृद्ध हो चुका था, उसने अपने शिष्यों को बुलाया। एक पूर्णिमा की रात थी। नदी पर चाँद की रजत किरणें बिखरी थीं। उसने कहा,
“गुरुदेव अद्वय ने मुझसे कहा था — ‘ईश्वर को मत खोजो, उसे देखो। जब देखना भी मिट जाए, तब वही तुम हो।’ मैंने पहले पूजा में ईश्वर खोजा, फिर ध्यान में स्वयं को खोजा। अब दोनों मिट गए। अब केवल मौन है — जो सब कुछ है, और कुछ भी नहीं।”

उसी रात, आरुण ध्यान में लीन हो गया। कहते हैं, उस क्षण वन में चन्दन और वर्षा की मिली-जुली गंध फैली। दीपक की लौ स्थिर हो गई, और मौन में एक ध्वनि गूँजी:“सोऽहम्… अहं ब्रह्मास्मि…”

आज भी, जो अद्वय वन में जाता है, उसे हवा में मुनि अद्वय की वाणी सुनाई देती है:सत्य किसी मंदिर, मूर्ति, या कर्मकांड तक सीमित नहीं है। यह हर श्वास, हर पत्ते की सरसराहट, और हर नदी की लहर में विद्यमान है।

मौन का अर्थ है अपने विचारों, भावनाओं, और इच्छाओं को केवल देखना, उनके साथ तादात्म्य न करना। आरुण जब अपने विचारों से लड़ना बंद करता है और उन्हें साक्षी-भाव से देखता है, तब उसे सजीव मौन की प्राप्ति होती है।

ध्यान वह दृष्टि है, जो साधक को अपने भीतर की सच्चाई देखने में मदद करती है। कथा में दीपक की स्थिर लौ ध्यान का प्रतीक है। जब मन की हवा (भय, इच्छा) रुकती है, तब ध्यान की स्थिरता में सत्य का अनुभव होता है।

मुनि अद्वय और आरुण दोनों ही बाहरी कर्मकांडों से ऊपर उठकर सत्य को अनुभव करने की बात करते हैं।मुनि अद्वय की अंतिम वाणी — "ईश्वर हर उस श्वास में है जिसे तुम अभी ले रहे हो" — अद्वय दर्शन का सार है। यह हमें याद दिलाता है कि सत्य कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर और हमारे चारों ओर है। जब हम इसे देखना सीख लेते हैं, तब पूजा, ध्यान, और जीवन एक हो जाते हैं, और केवल मौन रह जाता है — वह मौन जो सब कुछ है, और कुछ भी नहीं।

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