Monday, January 31, 2022

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-32

 


इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले       

 

कुछ क्षण पहले शंकित था मन ना दृष्टित थी कोई आशा ,    

द्रोणपुत्र  के  पुरुषार्थ  से हुआ तिरोहित खौफ निराशा ।

 या मर जाये या मारे  चित्त में   कर के ये   दृढ निश्चय,

शत्रु शिविर को हुए अग्रसर  हार फले कि या हो जय।

 

याद किये फिर  अरिसिंधु में  मर के जो अशेष रहा,  

वो नर  हीं   विशेष रहा  हाँ  वो नर हीं  विशेष रहा ।

कि शत्रुसलिला  में जिस नर के  हाथों में तलवार रहे

या  क्षय  की  हो  दृढ प्रतीति परिलक्षित  संहार बहे। 

 

वो मानव जो झुके नहीं कतिपय निश्चित एक हार में,

डग योद्धा का डिगे नहीं अरि के   भीषण   प्रहार  में। 

ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित सर्वगर्भा का ओज बहे ,

अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का कर्तव्यों की हीं खोज रहे।

 

अकम्पत्व  का  हीं तन  पे  मन पे धारण पोशाक हो ,

रण डाकिनी के रक्त मज्जा  खेल  का मश्शाक  हो।

क्षण का  हीं  तो  मन   है ये क्षण  को हीं  टिका हुआ,

और तन का  क्या  मिट्टी  का  मिटटी में  मिटा हुआ।

 

पर हार का वरण भी करके  जो  रहा  अवशेष है,

जिस वीर  के  वीरत्व   का जन  में   स्मृति शेष है।  

सुवाड़वाग्नि  सिंधु  में  नर   मर  के   भी अशेष है

जीवन  वही  विशेष   है   मानव   वही  विशेष  है।

 

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित


दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-31

 


जिद चाहे सही हो या गलत  यदि उसमें अश्वत्थामा जैसा समर्पण हो तो उसे पूर्ण होने से कोई रोक नहीं सकता, यहाँ तक कि महादेव भी नहीं। जब पांडव पक्ष के बचे हुए योद्धाओं की रक्षा कर रहे जटाधर को अश्वत्थामा ने यज्ञाग्नि में अपना सिर काटकर हवनकुंड में अर्पित कर दिया  तब उनको भी अश्वत्थामा के हठ के आगे झुकना पड़ा और पांडव पक्ष के बाकी बचे हुए योद्धाओं को अश्वत्थामा के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए छोड़ देना पड़ा ।

 

क्या  यत्न  करता उस क्षण जब युक्ति समझ नहीं  आती थी,

त्रिकाग्निकाल से निज प्रज्ञा मुक्ति का  मार्ग  दिखाती  थी।   

अकिलेश्वर को हरना  दुश्कर कार्य जटिल ना साध्य कहीं,

जटिल राह थी कठिन लक्ष्य था  मार्ग अति  दू:साध्य कहीं।

 

अतिशय साहस संबल  संचय  करके भीषण लक्ष्य किया,

प्रण धरकर ये निश्चय लेकर निजमस्तक हव भक्ष्य किया।

अति  वेदना  थी तन  में  निज  मस्तक  अग्नि  धरने  में ,

पर निज प्रण अपूर्णित करके  भी  क्या  रखा लड़ने  में?

 

जो उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,

उस योद्धा का जीवन रण में  कोई  क्या  सम्मान रखे?

या अहन्त्य  को हरना था या शिव के  हाथों मरना था,

या शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था

 

हठ मेरा  वो सही गलत क्या इसका मुझको ज्ञान नहीं,

कपर्दिन  को  जिद  मेरी थी  कैसी पर था  भान कहीं।

हवन कुंड में जलने की पीड़ा सह कर वर प्राप्त किया,

मंजिल से  बाधा हट जाने का सुअवसर प्राप्त किया।

 

त्रिपुरान्तक के हट जाने से लक्ष्य  प्रबल आसान हुआ,

भीषण बाधा परिलक्षित थी निश्चय हीं अवसान हुआ।

गणादिप का संबल पा  था यही समय कुछ करने का,

या पांडवजन को मृत्यु देने  या उनसे  लड़ मरने  का।

 

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

 


दुर्योधन कब मिट पाया:भाग:30

 


अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि शिव जी के जल्दी प्रसन्न होने की प्रवृति का भान होने पर वो उनको प्रसन्न करने को अग्रसर हुआ परंतु प्रयास करने के लिए मात्र रात्रि भर का हीं समय बचा हुआ था। अब प्रश्न ये था कि इतने अल्प समय में शिवजी को प्रसन्न किया जाए भी तो कैसे?

 

वक्त नहीं था चिरकाल तक टिककर एक प्रयास करूँ ,
शिलाधिस्त हो तृणालंबितलक्ष्य सिद्ध उपवास करूँ।
एक पाद का दृढ़ालंबन  ना कल्पों हो सकता था ,
नहीं सहस्त्रों साल शैल वासी होना हो सकता था।

ना सुयोग था ऐसा अर्जुन जैसा मैं पुरुषार्थ रचाता,
भक्ति को हीं साध्य बनाके मैं कोई निजस्वार्थ फलाता।
अतिअल्प था काल शेष किसी ज्ञानी को कैसे लाता?
मंत्रोच्चारित यज्ञ रचाकर मन चाहा वर को पाता?

इधर क्षितिज पे दिनकर दृष्टित उधर शत्रु की बाहों में,

अस्त्र शस्त्र प्रचंड अति होते प्रकटित निगाहों में।
निज बाहू गांडीव पार्थ धर सज्जित होकर जाता,
निश्चिय हीं पौरुष परिलक्षित लज्जित करके हीं जाता।

भीमनकुल उद्भट योद्धा का भी कुछ कम था नाम नहीं,
धर्म राज और सहदेव से था कतिपय अनजान नहीं।
एक रात्रि हीं पहर बची थी उसी पहर का रोना था ,
शिवजी से वरदान प्राप्त कर निष्कंटक पथ होना था।

अगर रात्रि से पहले मैने महाकाल ना तुष्ट किया,
वचन नहीं पूरा होने को समझो बस अवयुष्ट किया।
महादेव को उस हीं पल में मन का मर्म बताना था,
जो कुछ भी करना था मुझको क्षणमें कर्म रचाना था।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित


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