भगवान की अदालत में आज सब हाज़िर थे —
न्याय, कानून, और आत्मा भी बेज़ार थी।
कोई वकील नहीं, कोई जिरह नहीं,
सिर्फ़ सन्नाटा था — जैसे किसी गवाही की अंतिम साँस हो कहीं।
भगवान ने देखा —
कानून खड़ा था, हाथ में ग्रंथ लिए,
पर अक्षर काँप रहे थे, अर्थ खो चुके थे।
न्याय झुका हुआ था,
गाउन मुरझाया, स्याही सूख चुकी थी,
और आत्मा —
बस शांत थी, जैसे किसी पुरानी सज़ा को स्वीकार करती हुई।
भगवान बोले —
“कहो, क्या मामला है?”
कानून बोला — “मैंने नियम बनाए,
पर आदमी ने रास्ते बना लिए।”
न्याय बोला — “मैंने फ़ैसले दिए,
पर वो ज़मीन पर उतरने से पहले ही अपील बन गए।”
आत्मा बोली — “मैंने सच्चाई रखी,
पर हर बार दस्तावेज़ अधूरा निकला।”
भगवान मुस्कुराए —
“तो दोष किसका है?”
कानून ने कहा — “मेरे शब्दों का।”
न्याय ने कहा — “मेरे विलंब का।”
आत्मा ने कहा — “उनकी चुप्पी का,
जो सही जानते हैं पर बोलते नहीं।”
कुछ देर मौन रहा —
फिर बादलों ने दस्तावेज़ पलटे,
हवा ने सील तोड़ी,
और ऊपर से आवाज़ आई —
“फ़ैसला सुरक्षित रखा जाता है।”
तभी धरती कांपी,
घंटा बजा —
और फ़ाइल बंद हो गई।
भगवान उठे, बोले —
“अब न्याय का नया संस्करण बनेगा,
जहाँ तारीख़ें नहीं होंगी,
सिर्फ़ सत्य होगा।”
आत्मा मुस्कुराई,
न्याय ने सिर झुकाया,
कानून ने किताब बंद की,
और सब लौट गए —
अपनी-अपनी अदालतों में।
पर उस दिन से
स्वर्ग में हर शाम
एक घंटा बजता है —
धीमे, बहुत धीमे —
जैसे कोई कह रहा हो,
“अभी सुनवाई बाक़ी है…”
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