Saturday, May 28, 2022

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग:37

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महाभारत युद्ध के समय द्रोणाचार्य की उम्र लगभग चार सौ साल की थी। उनका वर्ण श्यामल था, किंतु सर से कानों तक छूते दुग्ध की भाँति श्वेत केश उनके मुख मंडल की शोभा बढ़ाते थे। अति वृद्ध होने के बावजूद वो युद्ध में सोलह साल के तरुण की भांति हीं रण कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। गुरु द्रोण का पराक्रम ऐसा था कि उनका वध ठीक वैसे हीं असंभव माना जा रहा था जैसे कि सूरज का धरती पर गिर जाना, समुद्र के पानी का सुख जाना। फिर भी जो अनहोनी थी वो तो होकर हीं रही। छल प्रपंच का सहारा लेने वाले दुर्योधन का युद्ध में साथ देने वाले गुरु द्रोण का वध छल द्वारा होना स्वाभाविक हीं था।
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उम्र चारसौ श्यामलकाया
शौर्योगर्वित उज्ज्वल भाल,
आपाद मस्तक दुग्ध दृश्य
श्वेत प्रभा समकक्षी बाल।
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वो युद्धक थे अति वृद्ध पर
पांडव जिनसे चिंतित थे,
गुरुद्रोण सेअरिदल सैनिक
भय से आतुर कंपित थे।
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उनको वधना ऐसा जैसे
दिनकर धरती पर आ जाए,
सरिता हो जाए निर्जल कि
दुर्भिक्ष मही पर छा जाए।
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मेरुपर्वत दौड़ पड़े अचला
किंचित कहीं इधर उधर,
देवपति को हर ले क्षण में
सूरमा कोई कहाँ किधर?
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ऐसे हीं थे द्रोणाचार्य रण
कौशल में क्या ख्याति थी,
रोक सके उनको ऐसे कुछ
हीं योद्धा की जाति थी।
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शूरवीर कोई गुरु द्रोण का
मस्तक मर्दन कर लेगा,
ना कोई भी सोच सके
प्रयुत्सु गर्दन हर लेगा।
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किंतु जब स्वांग रचा द्रोण
का मस्तक भूमि पर लाए,
धृष्टद्युम्न हर्षित होकर जब
समरांगण में चिल्लाए।
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पवनपुत्र जब करते थे रण
भूमि में चंड अट्टाहस,
पांडव के दल बल में निश्चय
करते थे संचित साहस।
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गुरु द्रोण के जैसा जब
अवरक्षक जग को छोड़ चला,
जो अपनी छाया से रक्षण
करता था मग छोड़ छला।
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तब वो ऊर्जा कौरव दल में
जो भी किंचित छाई थी,
द्रोण के आहत होने से
निश्चय अवनति हीं आई थी।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, May 21, 2022

मेरे गाँव में होने लगा है शामिल थोड़ा शहर" का प्रथम भाग


इस सृष्टि में कोई भी वस्तु  बिना कीमत के नहीं आती, विकास भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक पारिवारिक उत्सव में शरीक होने के लिए गाँव गया था। सोचा था शहर की दौड़ धूप वाली जिंदगी से दूर एक शांति भरे माहौल में जा रहा हूँ। सोचा था गाँव के खेतों में हरियाली के दर्शन होंगे। सोचा था सुबह सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देगी, कोयल की कुक और चिड़ियों की चहचहाहट  सुनाई पड़ेगी। आम, महुए, अमरूद और कटहल के पेड़ों पर उनके फल दिखाई पड़ेंगे। परंतु अनुभूति इसके ठीक विपरीत हुई। शहरों की प्रगति का असर शायद गाँवों पर पड़ना शुरू हो गया है। इस कविता के माध्यम से मैं अपनी इन्हीं अनुभूतियों को साझा कर रहा हूँ।
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मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
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मचा हुआ है सड़कों  पे ,
वाहनों का शोर,
बुलडोजरों की गड़गड़ से,
भरी हुई भोर।
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अब माटी की सड़कों पे ,
कंक्रीट की नई लहर ,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
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मुर्गे के बांग से होती ,
दिन की शुरुआत थी,
तब घर घर में भूसा था ,
भैसों की नाद थी।
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अब गाएँ भी बछड़े भी ,
दिखते ना एक प्रहर, 
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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तब बैलों के गर्दन में ,
घंटी गीत गाती थी ,
बागों में कोयल तब कैसा ,
कुक सुनाती थी।
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अब बगिया में कोयल ना ,
महुआ ना कटहर,  
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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पहले सरसों के दाने सब ,
खेतों में छाते थे,
मटर की छीमी पौधों में ,
भर भर कर आते थे।
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अब खोया है पत्थरों में ,
मक्का और अरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
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महुआ के दानों  की  ,
खुशबू  की बात  क्या,
आमों के मंजर वो ,
झूमते दिन रात क्या।
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अब सरसों की कलियों में ,
गायन ना वो लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
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वो पानी में छप छप ,
कर  गरई पकड़ना , 
खेतों के जोतनी में,
हेंगी  पर   चलना।
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अब खेतों के रोपनी में ,
मोटर और  ट्रेक्टर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर। 
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फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर। 
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, May 15, 2022

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-36



द्रोण को सहसा अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु ये समाचार जब उन्होंने धर्मराज के मुख से सुना तब संदेह का कोई कारण नहीं बचा। इस समाचार को सुनकर गुरु द्रोणाचार्य के मन में इस संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उनके लिये जीत और हार का कोई मतलब नहीं रह गया था। इस निराशा भरी विरक्त अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य  ने अपने अस्त्रों और शस्त्रों  का त्याग कर दिया और  युद्ध के मैदान में ध्यानस्थ होकर बैठ गए। आगे क्या हुआ देखिए मेरी दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया के छत्तीसवें भाग में।

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भीम के हाथों मदकल,
अश्वत्थामा मृत पड़ा, 
धर्मराज ने  झूठ कहा,
मानव या कि गज मृत पड़ा।
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और कृष्ण ने उसी वक्त पर ,
पाञ्चजन्य  बजाया  था,
गुरु द्रोण को धर्मराज ने  ,
ना कोई सत्य बताया था।
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अर्द्धसत्य भी  असत्य से ,
तब घातक  बन जाता है,
धर्मराज जैसों की वाणी से ,
जब छन कर आता है।
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युद्धिष्ठिर के अर्द्धसत्य  को ,
गुरु द्रोण ने सच माना,
प्रेम पुत्र से करते थे कितना ,
जग ने ये पहचाना।
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होता  ना  विश्वास कदाचित  ,
अश्वत्थामा  मृत पड़ा,
प्राणों से भी जो था प्यारा ,
यमहाथों अधिकृत पड़ा।
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मान पुत्र  को मृत द्रोण का  ,
नाता जग से छूटा था,
अस्त्र शस्त्र त्यागे  थे वो ना ,
जाने  सब ये झूठा था।
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अगर पुत्र इस धरती पे  ना ,
युद्ध जीतकर क्या होगा,
जीवन का भी मतलब कैसा ,
हारजीत का क्या होगा?
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यम के द्वारे हीं जाकर किंचित ,
मैं फिर मिल पाऊँगा,
शस्त्र  त्याग कर बैठे शायद ,
मर कामिल हो पाऊँगा।
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धृष्टदयुम्न  के हाथों  ने  फिर  ,
कैसा वो  दुष्कर्म  रचा,
गुरु द्रोण को वधने में ,
नयनों  में ना कोई शर्म  बचा।
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शस्त्रहीन ध्यानस्थ द्रोण का ,
मस्तकमर्दन कर छल से,
पूर्ण किया था कर्म  असंभव ,
ना कर पाता जो बल से।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, May 7, 2022

अखबार-ए-खास

समाज के बेहतरी की दिशा में आप कोई कार्य करें ना करे परन्तु कार्य करने के प्रयासों का प्रचार जरुर करें। आपके झूठे वादों , भ्रमात्मक वायदों , आपके  प्रयासों की रिपोर्टिंग अखबार में होनी चाहिए। समस्या खत्म करने की दिशा में गर कोई करवाई ना की गई हो तो राह में आने वाली बाधाओं का भान आम जनता को कराना बहुत जरुरी है। आपके कार्य बेशक हातिमताई की तरह नहीं हो लेकिन आपके चाहनेवालों की नजर में आपको हातिमताई बने हीं रहना है।  कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि सारा मामला मार्केटिंग का रह गया है । जो अपनी  बेहतर ढंग से मार्केटिंग कर पाता है वो ही सफल हो पाता है, फिर चाहे वो राजनीति हो या कि व्यवसाय।
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वाह भैया क्या बात हो गए, 
अखबार-ए-सरताज हो गए।
कल तक भईया फूलचंद थे, 
आज हातिम के बाप हो गए।
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गढ्ढे में हीं रोड पड़ा था, 
पानी बदबू सड़ा पड़ा था,
नाली से पानी जो बहता ,
सड़कों पे सलता हीं रहता। 
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चलना मुश्किल हुआ बड़ा था, 
भईया को ना फिक्र पड़ा था।
नाक दबा के भईया चलते, 
पानी से बच बच कर रहते।
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पर चुनाव के दिन जब आते, 
कचड़े भईया के मन भाते,
टोपी धर सर हाथ कुदाल , 
जर्नलिस्ट लाते तत्काल ।
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झाड़ू वाड़ू लगा लगा के, 
कूड़े कचड़े हटा हटा के,
खुर्पी वुर्पी चला चला के, 
ठीक पोज़ में दिखा दिखा के।
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फ़ोटो खूब खिचाते भईया, 
सबपे छा जाते तब भईया,
पंद्रह लाख दे देंगे पैसे , 
फ्री वाई फाई के हीं जैसे,
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रोजगार की बातें करते, 
झाड़ू जाके चौक लगाते।
वादे कर आते फिर ऐसे,
जनता के मन भाते वैसे। 
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अपने मन की बात बताते,
अखबारों में न्यूज़ छपाते ।
सपने सब्ज दिखलाते भईया , 
जनता को भरमाते भईया,
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अच्छे हैं भईया जतलाकर ,
पार्टी को ये सब दिखलाकर।
जन प्रत्याशी  खास हो गए, 
वाह भैया क्या बात हो गए।
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अखबार-ए-सरताज हो गए, 
कल तक भईया फूलचंद थे,
आज हातिम के बाप हो गए, 
वाह भैया क्या बात हो गए।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

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