लोक अदालत लगी थी,
मंच पर न्याय बैठा था —
सफेद विग, थकी आँखें,
और गाउन में लिपटा था।
जनता आई — थकी, टूटी, मगर जागी हुई,
हाथ में अर्ज़ियाँ, आँखों में आग थी कुछ बाकी हुई।
एक किसान बोला —
“मालिक, मेरा खेत गया, केस नहीं गया।”
न्याय मुस्कुराया — “कानून का रास्ता लंबा है।”
किसान बोला — “साहब, मैं तो मर गया,
अब मेरा पोता आगे है,
वो भी थका है, अब किसका नंबर है?”
एक औरत उठी —
“मेरे पति के केस में साक्ष्य खो गए,
फाइल मिल गई, पर इंसाफ सो गए।
कहा गया ‘विवाद समाप्त’ —
पर मेरे आँसू आज भी लंबित हैं।”
न्याय ने कहा —
“मैं अंधा हूँ, पर सुनता हूँ।”
भीड़ में से किसी ने कहा —
“सुनते तो हो, पर सुनवाई कब होती है?”
कोने में बैठा एक जवान बोला —
“साहब, आपने न्याय दिया, पर वक्त नहीं दिया।
मेरी जवानी कोर्टरूम में तारीख़ों की तरह बीत गई —
हर अगली तारीख़ में एक सफेद बाल बढ़ गया।”
न्याय चुप था —
फाइलें फड़फड़ा रहीं थीं, जैसे कबूतर पिंजरे में।
पंख थे, उड़ान नहीं।
क़लम थी, पर स्याही सूखी हुई थी।
फिर जनता ने कहा —
“साहब, हम अपराधी नहीं, बस याचक हैं।
हम आपकी मूर्ति नहीं, आपकी पुकार चाहते हैं।”
न्याय ने धीरे से सिर झुका दिया,
गाउन उतार दिया,
और बोला —
“मैं दोषी नहीं, पर थका हुआ हूँ।
मैं न्याय हूँ —
पर अब मुझे भी न्याय चाहिए।”
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