जंजीर
जहाँ आदम की जात और बाते हों पीर की।
प्यादे की चाल और बातें वजीर की।
खेत हो किसानों के गेहूं अमीर की।
अमन के नाम पर बातें हो तीर की।
देख कहीं तो क्या हिंद आ गये है हम?
कि चीखती पुकार पर बाते जंजीर की।
अजय अमिताभ सुमन
इस ब्लॉग पे प्रस्तुत सारी रचनाओं (लेख/हास्य व्ययंग/ कहानी/कविता) का लेखक मैं हूँ तथा ये मेरे द्वारा लिखी गयी है। मेरी ये रचना मूल है । मेरे बिना लिखित स्वीकीर्ति के कोई भी इस रचना का, या इसके किसी भी हिस्से का इस्तेमाल किसी भी तरीके से नही कर सकता। यदि कोई इस तरह का काम मेरे बिना लिखित स्वीकीर्ति के करता है तो ये मेरे अधिकारों का उल्लंघन माना जायेगा जो की मुझे कानूनन प्राप्त है। (अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित :Ajay Amitabh Suman:All Rights Reserved)
जंजीर
जहाँ आदम की जात और बाते हों पीर की।
प्यादे की चाल और बातें वजीर की।
खेत हो किसानों के गेहूं अमीर की।
अमन के नाम पर बातें हो तीर की।
देख कहीं तो क्या हिंद आ गये है हम?
कि चीखती पुकार पर बाते जंजीर की।
अजय अमिताभ सुमन
पुराना सा कोई मंजर, सीने में खल गया,
ये उठा दर्द और जी मचल गया।
बेफिक्री के आलम में यादों का खंजर,
चला तो क्या बुरा था, कि तू संभल गया,
अजय अमिताभ सुमन
मैदान में शिकस्त की,
फिर से गुंजाइश हो,
उस शख्स के हौसले की,
फिर क्या आजमाइश हो?
कोई जीत भी जाए,
पर वो हारेगा क्या?
कि लड़खड़ाकर जिसको,
संभलने की ख्वाहिश हो।
अजय अमिताभ सुमन
आसां नहीं समझना हर बात आदमी के,
कि हंसने पर हो जाते वारदात आदमी के।
बुझते नहीं कफन से,अरमां दफ़न दफ़न से,
जलते हैं तन बदन से, आलात आदमी के।
कि दिन में है बेचैनी और रातों को उलझन,
संभले नहीं संभलते हालात आदमी के।
खुदा भी इससे हारा, इसे चाहिए जग सारा,
जग बदले पर बदले ना , जात आदमी के।
अजय अमिताभ सुमन
=======
जबतक श्रम का सम्मान नहीं
तबतक पथ पर विश्राम नहीं जबतक श्रम का सम्मान नहीं।
धूल शूल सब कंकड़ पत्थर सुख दुख अनुभव सभी आवश्यक।
फूल की खुशबू प्यारी तन को शूल चुभन मन अति आवश्यक।
फले नहीं हों स्वअनुभव जो जीवन पथ पर धूप छांव के।
क्या राही बन सकता कोई घिसे नहीं पद छाप पांव के?
बिना क्षुधा के फल क्या बंधु, बिना बीज के हल क्या सिंधु?
बिना पसीना फल के मिल जाने में है गुणगान नहीं।
कि हाथों में सोना होता पर इसकी पहचान नहीं।
अजय अमिताभ सुमन
ओ परबत के मूल निवासी,
भोले भाले शिव कैलाशी।
जब जब होता व्याकुल जग से,
तब तुझको देखे अविनाशी।
भव तम को मन मुड़ जाता हैं ,
घन जग बंधन जुड़ जाता हैं।
अंधकार तब होता डग में ,
काँटे बिछ जाते हैं पग में।
विचलित मन अब तुझे पुकारे,
तमस हरो हे अपरिभाषी।
ओ परबत के मूल निवासी,
भोले भाले शिव कैलाशी।
शिव शक्ति हीं राह हमारी,
शिव की भक्ति चाह हमारी।
एक लक्ष्य हीं मेरा तय हो ,
शिव कदमों में निजमन लय हो।
यही चाह ले इत उत घुमुं ,
अमरनाथ बदरीनाथ काशी।
ओ परबत के मूल निवासी,
भोले भाले शिव कैलाशी।
अजय अमिताभ सुमन
बह रही है ज्ञान गंगा, तू भी इसमें हाथ धो लेहै
तेरी खिदमत में कितने, डिग्री की दुकान खोले
भेद नहीं करती ये गंगा, कला व विज्ञानं मेंमचा हुआ क्या खेल?
गणित परीक्षा में कर आया,
तू क्यों अव्वल फेल?
रिंकू बोला अजब कहानी,
पर पापा मुझको बतलानी,
टीचर से रिश्ता मेरा ,
ऐसा वैसा कैसा समझानी।
प्रश्न पत्र में टीचर ने थे,
ऐसे प्रश्न बिठाए,
काम ना आती अपनी बुद्धि ,
कैसे जुगत भिड़ाए।
गुस्से में हमने भी आकर ,
क्या क्या था लिख डाला,
एक प्रश्न के चार थे उत्तर ,
सबका सब टिक डाला।
गणित पत्र में वही प्रश्न थे ,
उनको जो भाता था,
उत्तर में लिख डाले मैंने ,
जो मुझको आता था।
मैथ के पेपर में धरती का ,
नक्शा डाला गोल,
टीचर की हीं गलती थी क्यों,
पढ़ा नहीं भूगोल?
अजय अमिताभ सुमन