गंगा और यमुना के पवित्र संगम के बीच, जहाँ धरती हरी-भरी थी, नदियाँ नीली लहरों में बहती थीं और आकाश तारों से जड़ा था, वहाँ एक प्राचीन वन फैला था वन। यह वन केवल प्रकृति का आलिंगन नहीं था, बल्कि सत्य की खोज का एक जीवंत केंद्र था। यहाँ न कोई भव्य मंदिर था, न कोई चमकीली मूर्ति। बस एक सादा-सा कुटीर था, जिसके सामने एक दीपक अनवरत जलता था, मानो वह सृष्टि के शाश्वत नियमों की साक्षी हो। वन में निवास करते थे ऋषि देवप्राण, जिनकी आँखें शांत सरोवरों-सी थीं। उनमें झाँकने वाला अपने चेहरे का प्रतिबिंब नहीं, बल्कि अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता था। उनकी देह सादगी से भरी थी, पर उनकी उपस्थिति में एक ऐसी शक्ति थी, जो मन को शांत कर देती थी।
एक दिन, एक युवा साधक, शोधक, ऋषि देवप्राण के पास आया। उसका मन जिज्ञासा से भरा था। उसने चरणों में सिर झुकाकर पूछा,“गुरुदेव, यह विशाल ब्रह्मांड, यह तारों से भरा आकाश, यह सूर्य, चंद्र, नदियाँ, और हमारा जीवन—यह सब कौन चला रहा है? क्या कोई ईश्वर है, जो इस सृष्टि का नियंता है?”
ऋषि देवप्राण ने दीपक की ओर इशारा किया और कहा,“शोधक, इस दीपक की लौ देख। यह हर क्षण बदल रही है, पर हमें लगता है कि यह एक ही है। क्या कोई ईश्वर इस लौ को जला रहा है? नहीं। यह तेल और बाती के कारण जलती है। जब तेल खत्म होगा, लौ बुझ जाएगी। यही नियम इस ब्रह्मांड को चला रहा है—कारण और परिणाम का नियम। जब एक कारण होता है, तब परिणाम होता है। जब कारण नहीं, तब परिणाम भी नहीं।”
शोधक ने आश्चर्य से पूछा,“गुरुदेव, यह नियम क्या है?”ऋषि ने समझाया,“यह सृष्टि का मूल सत्य है। बीज बोया जाए, तो अंकुर निकलता है। अंकुर की देखभाल हो, तो वृक्ष बनता है। वृक्ष फल देता है। यदि बीज न बोया जाए, तो कुछ भी नहीं होगा। सूर्य उगता है, क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। चंद्रमा की कलाएँ बदलती हैं, क्योंकि उसकी स्थिति सूर्य और पृथ्वी के सापेक्ष बदलती है। यह सब नियमों की एक अनवरत श्रृंखला है, न कि किसी बाहरी शक्ति का खेल।”
शोधक के मन में एक और प्रश्न उठा।“गुरुदेव, यदि सब कुछ कारण और परिणाम से चलता है, तो हमारी चेतना, हमारा ‘मैं’ क्या है? क्या हम भी इस नियम का हिस्सा हैं?”
ऋषि देवप्राण ने शांत स्वर में कहा, “शोधक, तू जो ‘मैं’ मानता है, वह रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान—इन पाँच तत्वों का मेल है। यह ‘मैं’ स्थायी नहीं, बल्कि हर क्षण बदल रहा है, जैसे नदी की धारा। तू अपने को अलग मानता है, पर यह भ्रम है। तू इस सृष्टि का हिस्सा है, और सृष्टि तुझ में समाई है। जब तू इस भ्रम से मुक्त होगा, तब तुझे सत्य का अनुभव होगा।”
एक रात, जब चाँद की किरणें नदी पर बिखर रही थीं, शोधक ने पूछा,“गुरुदेव, यदि कोई ईश्वर नहीं, तो हमारे कर्मों का फल कौन देता है? न्याय कौन करता है?”
ऋषि ने नदी की ओर देखते हुए कहा,“शोधक, कर्म स्वयं फल देता है। जैसे आग में हाथ डालने से जलन होती है, वैसे ही करुणा और सत्य का मार्ग चुनने से मन को शांति मिलती है। लोभ और द्वेष चुनने से दुख मिलता है। यह कोई बाहरी शक्ति का दंड या पुरस्कार नहीं, बल्कि कारण और परिणाम की स्वाभाविक प्रक्रिया है। तू अपने कर्मों से अपने जीवन का निर्माता है।”
वर्ष बीत गए। एक दिन ऋषि देवप्राण समाधि में लीन हो गए। उनका कुटीर खाली रह गया, पर उनकी शिक्षाएँ वन की हवा में गूँजती रहीं। शोधक वन में रह गया और उसने ऋषि की सिखाई साधना—मौन और साक्षी-भाव—को अपनाया। पर उसका मन शांत नहीं था। विचार, भय, और इच्छाएँ उसे परेशान करती थीं। एक दिन वह निराश होकर बोला, “गुरुदेव, मैं मौन चाहता हूँ, पर मेरा मन शोर मचाता है!”
तब उसके भीतर से ऋषि की वाणी गूँजी,“मौन कोई वस्तु नहीं, जो तुझे मिलेगी। यह तब आता है, जब तू अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है। अपने विचारों से मत लड़, उन्हें देख। वे आएँगे और जाएँगे, जैसे नदी में लहरें। तू केवल साक्षी बन।”
शोधक ने ऐसा ही किया। उसने अपने विचारों को देखना शुरू किया, बिना उनसे जुड़े। धीरे-धीरे उसका मन शांत हुआ। एक दिन उसे वह मौन मिला, जो सजीव था। उस मौन में उसने अनुभव किया कि वह और सृष्टि एक हैं। नदी, वृक्ष, आकाश—सब एक ही लय में बह रहे थे। उसने समझा,“यह सृष्टि कोई नहीं चला रहा। यह स्वयं चल रही है, और मैं इसका हिस्सा हूँ।”
कई वर्ष बाद, एक नया साधक अद्वय वन में आया। उसने शोधक से पूछा,“मुनिवर, यदि सब कुछ कारण और परिणाम से चलता है, तो क्या मेरा जीवन पहले से तय है? क्या मेरे पास स्वतंत्रता है?”
शोधक ने मुस्कुराते हुए कहा,“नदी का बहाव देख। वह अपने नियम से बहती है, पर नाविक तय करता है कि नाव को कहाँ ले जाना है। इसी तरह, तू सृष्टि के नियमों का हिस्सा है, पर तेरे कर्म तेरा मार्ग चुनते हैं। अच्छे कर्म चुन, और तू शांति की ओर जाएगा। गलत कर्म चुन, और दुख तेरा परिणाम होगा। यह तेरा चुनाव है।”
साधक ने पूछा,“पर मुनिवर, मेरे कर्मों का फल कौन देता है?”
शोधक ने दीपक की ओर इशारा किया,“यह लौ देख। यह जलती है, क्योंकि तेल और बाती है। यदि तू गुस्से में किसी को बुरा कहता है, तो तेरा मन पहले जलता है। यदि तू करुणा से किसी की मदद करता है, तो तेरा हृदय सुकून पाता है। यह कर्म का फल है, न कि किसी बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप।”
साधक की आँखें खुल गईं। उसने कहा,“मुनिवर, अब मैं समझा। मैं अपने कर्मों से अपने भाग्य का निर्माण करूँगा।”
शोधक ने कहा,“तू अब केवल साधक नहीं, अपने जीवन का निर्माता है।”
उसी रात, शोधक समाधि में लीन हो गया। वन में चंदन और वर्षा की गंध फैली, और दीपक की लौ स्थिर हो गई। हवा में एक ध्वनि गूँजी—“सोऽहम्… मैं यह सृष्टि हूँ।”
आज भी ऋषि देवप्राण की वाणी सुनाई देती है:“यह सृष्टि कोई नहीं चला रहा। यह स्वयं चल रही है—कारण और परिणाम के नियम से। तू अपने कर्मों से अपना मार्ग बनाता है। जब तू इस नियम को समझ लेगा, तब तू दुख से मुक्त हो जाएगा। यही सत्य है, यही धर्म है।”
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