Sunday, May 24, 2020

ना ईश बुद्ध सुकरातों से



ना ईश बुद्ध सुकरातों से,मानवता का उद्धार हुआ,
नव जागरण फलित हुआ ,ना कोई जीर्णोंद्धार हुआ।
क्यों भ्रांति बनाये बैठे हो,खुद अवगुणों को पहचानों,
पर आलम्बन ना है श्रेयकर,निज संकल्पों को हीं मानो।
रत्नाकर के मुनि बनने से,बेहतर कोई और प्रमाण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

शिशु का चलना गिरना पड़ना,है सृष्टि के नियमानुसार,
बिना गिरे धावक बन जाये,बात न कोई करे स्वीकार।
जीवन में गिर गिर कर हीं,कोई नर सीख पाता है ज्ञान,
मात्र जीत जो करे सुनिश्चित,नहीं कोई ऐसा विज्ञान।
हाय सफलता रटते रहने,में कोई गुण गान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

बुद्धि प्रखर हो बात श्रेयकर,पर दिल के दरवाजे खोल,
ज्ञान बहुत पर हृदय शुष्क है,मुख से तो दो मीठे बोल।
अहम भाव का खुद में जगना,है कोई वरदान नहीं,
औरों को अपमानित करने,से निंदित कोई काम नहीं।
याद रहे ना इंसान बनते,और बनते भगवान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

Saturday, May 23, 2020

तक्षक



तुम्हें चाहिए क्या आजादी , सबपे रोब जमाने की ,
यदि कोई तुझपे तन जाए , क्या बन्दुक चलाने की ?
ये शोर शराबा कैसा है ,क्या प्रस्तुति अभिव्यक्ति की ?
या अवचेतन में चाह सुप्त है , संपुजन अति शक्ति की .
लोकतंत्र ने माना तुझको , कितने हीं अधिकार दिए ,
तुम यदा कदा करते मनमानी , सब हमने स्वीकार किए .
हाँ माना की लोकतंत्र की , तुमपे है प्राचीर टिकी ,
तेरे चौड़े सीने पे हीं तो , भारत की दीवार टिकी .
हाँ ये ज्ञात भी हमको है , तुम बलिदानी भी देते हो ,
हम अति प्रशंसा करते है , कभी क़ुरबानी भी देते हो .
जब तुम क़ुरबानी देते हो , तब तब हम शीश नवाते हैं ,
जब एक सिपाही मर जाता , लगता हम भी मर जाते हैं .
पर तुम्हीं कहो जब शक्ति से , कोई अनुचित अभिमान रचे ,
तब तुम्हीं कहो उस राष्ट्र में कैसे ,प्रशासन सम्मान फले.
और कहाँ का अनुशासन है , ये क्या बात चलाई है ?
गोली अधिवक्ताओं के सीने पे, तुमने हीं तो चलाई है.
हम तेरे भरोसे हीं रहते , कहते रहते तुम रक्षक हो ,
हाय दिवस आज अति काला है , हड़ताल कर रहे तक्षक हैं ,
एक नाग भरोसे इस देश का , भला कहो कैसे होगा ?
जब रक्षक हीं तक्षक बन जाए , राम भरोसे सब होगा .

देशभक्त कौन ?



हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई ,या जैन या बौद्ध की कौम,
चलो बताऊँ सबसे बेहतर ,देश भक्त है आखिर कौन।
जाति धर्म के नाम पे इनमें , कोई ना संघर्ष रचे ,
इनके मंदिर मुल्ला आते,पंडा भी कोई कहाँ बचे।
टैक्स बढ़े कितना भी फिर भी, कौम नहीं कतराती है ,
मदिरालय से मदिरा बिना मोल भाव के ले आती है।
एक चीज की अभिलाषा बस, एक चीज के ये अनुरागी,
एक बोतल हीं प्यारी इनको, त्यज्य अन्यथा हैं वैरागी।
नहीं कदापि इनको प्रियकर,क्रांति आग जलाने में ,
इन्हें प्रियकर खुद हीं मरना,खुद में आग लगाने में।
बस मदिरा में स्थित रहते, ना कोई अनुचित कृत्य रचे,
दो तीन बोतल भाँग चढ़ा ली, सड़कों पर फिर नृत्य रचे।
किडनी अपना गला गला कर,नितदिन प्राण गवाँते है ,
विदित तुम्हें हो लीवर अपना, देकर देश बचाते हैं।
शांति भाव से पीते रहते ,मदिरा कौम के वासी सारे,
सबके साथ की बातें करते ,बस बोतल के रासी प्यारे।
प्रतिक्षण क़ुरबानी देते है, पर रहते हैं ये अति मौन ,
इस देश में देशभक्त बस ,मदिरालय के वासी कौम।

तुझमें कितना देश बचा है



तुझे ईश्क है कौम से कितना, जग जाहिर हो जाने दो,
तुझे रश्क है मुल्क से कितना, जग जाहिर हो जाने दो।

खंजर ले दिलमें ढूंढ रहे, किसमें कितना भगवान बचा,
कि खुद मर के तुम मारोगे, ये जग जाहिर हो जाने दो।


अगर भरोसा खुद पे होता, फ़िर क्यूँ डर छिप जाते हो,
सौदागर नफरत के तुम हो ,जग जाहिर हो जाने दो।


ना तुममे ईमान बचा है, ना कोई इंसान बचा,
जो तुम्हे बचाते मरोगे, ये जग जाहिर हो जाने दो।


पैगम्बर की फिक्र नही है ,अल्लाह का भी जिक्र नहीं,
कि जेहन में शैतान बसा है ,जग जाहिर हो जाने दो।


माना सारे बुरे नहीं हैं , हैं कुछ अच्छे हैं सच्चे भी,
तुम सबपे दाग लगाओगे , ये जग जाहिर हो जाने दो।


अगर रूह जन्नत को जाती , क्या कह मुँह दिखाओगे,
कि थोड़ा सा ईमान बचा है, जग जाहिर हो जाने दो।


यही वक्त जब मंथन का है, राष्ट्र बड़ा कि धर्म बड़ा,
थोड़ा सा तुममें देश बचा है, जग जाहिर हो जाने दो।

कोरोना दूर भगाएँ हम



घर में रहकर आराम करें हम ,नवजीवन प्रदान करें हम
कभी राष्ट्र पे आक्रान्ताओं का हीं भीषण शासन था,
ना खेत हमारे होते थे ना फसल हमारा राशन था,
गाँधी , नेहरू की कितनी रातें जेलों में खो जाती थीं,
कितनी हीं लक्ष्मीबाई जाने आगों में सो जाती थीं,
सालों साल बिताने पर यूँ आजादी का साल मिला,
पर इसका अबतक कैसा यूँ तुमने इस्तेमाल किया?
जो भी चाहे खा जाते हो, जो भी चाहे गा जाते हो,
फिर रातों को चलने फिरने की ऐसी माँग सुनते हो।
बस कंक्रीटों के शहर बने औ यहाँ धुआँ है मचा शोर,
कि गंगा यमुना काली है यहाँ भीड़ है वहाँ की दौड़।
ना खुद पे कोई शासन है ना मन पे कोई जोर चले,
जंगल जंगल कट जाते हैं जाने कैसी ये दौड़ चले।
जब तुमने धरती माता के आँचल को बर्बाद किया,
तभी कोरोना आया है धरती माँ ने ईजाद किया।
देख कोरोना आजादी का तुमको मोल बताता है,
गली गली हर शहर शहर ,ये अपना ढ़ोल बजाता है।
जो खुली हवा की साँसे है, उनकी कीमत पहचान करो।
ये आजादी जो मिली हुई है, थोड़ा सा सम्मान करो,
ये बात सही है कोरोना, तुमपे थोड़ा शासन चाहे,
मन इधर उधर जो होता है थोड़ा सा प्रसाशन चाहे।
कुछ दिवस निरंतर घर में हीं होकर खुद को आबाद करो,
निज बंधन हीं अभी श्रेयकर है ना खुद को तुम बर्बाद करो।
सारे निज घर में रहकर अपना स्व धर्म निभाएँ हम,
मोल आजादी का चुका चुकाकर कोरोना भगाएँ हम।

चलते नहीं है सारे बाजार में



झूठ हीं फैलाना कि सच हीं में यकीनन,
कैसी कैसी बारीकियाँ बाजार के साथ।
औकात पे नजर हैं जज्बात बेअसर हैं ,
शतरंजी चाल बाजियाँ करार के साथ।


दास्ताने क़ुसूर दिखा के क्या मिलेगा,
छिप जातें गुनाह हर अखबार के साथ।
नसीहत-ए-बाजार में आँसू बावक्त आज,
दाम हर दुआ की बीमार के साथ।


दाग जो हैं पैसे से होते बेदाग आज ,
आबरू बिकती  दुकानदार के साथ।
सच्ची जुबाँ की है मोल क्या तोल क्या,
गिरवी न माँगे क्या क्या उधार के साथ।


आन में भी क्या है कि शान में भी क्या ,
ना जीत से है मतलब ना हार के साथ।
फायदा नुकसान की हीं बात जानता है,
यही कायदा कानून है बाजार के साथ।


सीख लो बारीकियाँ ,ये कायदा, ये फायदा,
हँसकर भी क्या मिलेगा लाचार के साथ।
बाज़ार में खड़े हो जमीर रख के आना,
चलते नहीं हैं सारे खरीददार के साथ।

सपना प्राप्त हुआ किसको?



ये कविता एक बुजुर्ग , बुद्धिमान मंत्री और उसके एक अविवाहित राजकुमार के बीच वार्तालाप पर आधारित है. राजकुमार हताशा की स्थिती में महल के प्राचीर पर बैठा है . मंत्री जब राजकुमार से हताशा का कारण पूछते हैं , तब राजकुमार उनको कारण बताता है. फिर उत्तर देते हुए मंत्री राजकुमार की हताशा और इस जग के मिथ्यापन के बीच समानता को कैसे उजागर करते हैं, आइये देखते हैं इस कविता में .
युवराज हे क्या कारण, क्यों खोये निज विश्वास?
मुखमंडल पे श्यामल बादल ,क्यूँ तुम हुए निराश?
चुप चाप खोये से रहते ,ये कैसा कौतुक है?
इस राष्ट्र के भावी शासक,पे आया क्या दुःख है?
आप मंत्री वर बुद्धि ज्ञानी ,मैं ज्ञान आयु में आधा ,
ना निराश हूँ लेकिन दिल में,सिंचित है छोटी एक बाधा.
पर आपसे कह दूँ ऐसे ,कैसे थोड़ा सा घबड़ाऊँ
पितातुल्य हैं श्रेयकर मेरे,इसीलिए थोड़ा सकुचाऊँ .
अहो कुँवर मुझसे कहने में, आन पड़ी ये कैसी बाधा?
जो भी विपदा तेरी राजन, हर लूँगा है मेरा वादा .
तब जाकर थोड़ा सकुचा के, कहता है युव राज,
मेरे दिल पे एक तरुणी का, चलने लगा है राज .
वो तरुणी मेरे मन पर ,हर दम यूँ छाई रहती है ,
पर उसको ना पाऊँ मैं,किंचित परछाई लगती है.
हे मंत्री वर उस तरुणी का, कैसे भी पहचान करें,
उसी प्रेम का राही मैं हूँ, इसका एक निदान करें .
नाम देश ना ज्ञात कुँवर को , पर तदवीर बताया,
आठ साल की कन्या का,उनको तस्वीर दिखाया.
उस तरुणी के मृदु चित्र , का मंत्री ने संज्ञान लिया ,
विस्मित होकर बोले फिर, ये कैसा अभियान दिया .
अहो कुँवर तेरा भी कैसा,अद्भुत है ये काम
ये तस्वीर तुम्हारी हीं,क्या वांछित है परिणाम?
तेरी माता को पुत्र था, पुत्री की भी चाहत थी ,
एक कुँवर से तुष्ट नहीं न, मात्र पुत्र से राहत थी .
चाहत जो थी पुत्री की , माता ने यूँ साकार किया,
नथुनी लहंगे सजा सजा तुझे ,पुत्री का आकार दिया.
छिपा कहीं रखा था जिसको, उस पुत्री का चित्र यही है,
तुम प्रेम में पड़ गये खुद के , उलझन ये विचित्र यही है .
उस कन्या को कहो कहाँ, कैसे तुझको ले आऊं मैं ?
अद्भुत माया ईश्वर की , तुझको कैसे समझाऊँ मैं ?
तुम्हीं कहो ये चित्र सही पर , ये चित्र तो सही नहीं ,
मन का प्रेम तो सच्चा तेरा , पर प्रेम वो कहीं नहीं .
कुँवर प्रेम ये तेरा वैसा , जैसा मैं जग से करता हूँ ,
खुद हीं से मैं निर्मित करता खुद हीं में विस्मित रहता हूँ .
भाव तुम्हारा हीं ठगता ,इससे हीं व्याप्त रहा जग तो ,
हाँ अपना पर सपना है,ये सपना प्राप्त हुआ किसको?

यम याचन




ये कविता एक आत्मा और यमराज के बीच वार्तालाप पर आधारित है।आत्मा का प्रवेश जब माता के गर्भ में होता है, तभी से यमराज उसका पीछा करने लगते है। वो आत्मा यमराज से यम लोक न जाने का अनेक कारण देती है। इसी तरह मौत बाल्यावस्था से लेकर बुढ़ापे तक आत्मा का पीछा करती है और आत्मा हरदम विनती कर मृत्यु को टालती रहती है। ये कविता जीव के वासना के अतृप्त रहने की प्रकृति को दिखाती है।
अभी भ्रूण को हूँ स्थापित , अस्थि मज्जा बनने को,
आँखों का निर्माण चल रहा,धड़कन भी है चलने को,
अभी दिवस क्या बिता हे यम, आ पहुँचे इस द्वार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, इतनी सी दरकार ।
माता के तन पर फलता हूँ, घुटनों के बल पर रहता हूँ,
बंदर मामा पहन पजामा, ऐसे गीत सुना करता हूँ,
इतने सारे खेल खिलौने ,खेलूँ तो एक बार ,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, विनती करें स्वीकार।
मृग नयनी का आना जाना,बातें बहुत सुहाती है,
प्रेम सुधा रग में संचारित ,जब जब वो मुस्काती है।
मुझको भी किंचित करने दें, अधरों का व्यापार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, दिल की यही पुकार।
बीबी का हूँ मात्र सहारा ,बच्चों का हूँ एक किनारा,
करने हैं कई कार्य अधूरे, पर काल से मैं तो हारा,
यम आएँ आप बाद में बेशक , जीवन रहा उधार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, फिर छोडूँ संसार।
धर्म पताका लह राना है, सत्य प्रतिष्ठा कर जाना है,
प्रेम आदि का रक्षण बाकी, समन्याय जय कर जाना है।
छिपी हुई नयनों में कितनी , अभिलाषाएँ हज़ार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, यम याचन इस बार।
देख नहीं पाता हूँ तन से, किंचित चाह करूँ पर मन से,
निरासक्त ना मैं हो पाऊँ , या इस तन से , या इस मन से।
एक तथ्य जो अटल सत्य है, करता हूँ मैं स्वीकार ,
कभी नहीं ईक्क्षा की सिंचित,जाऊँ मैं यम द्वार।

जिन्हें चाह है इस जीवन में



जिन्हें चाह है इस जीवन में, स्वर्णिम भोर उजाले की,
उन  राहों पे स्वागत करते,घटा टोप अन्धियारे भी।
इन घटाटोप अंधियारों का, संज्ञान अति आवश्यक है,
गर तम से मन में घन व्याप्त हो,सारे श्रम निरर्थक है।
ऐसी टेड़ी सी गलियों में,लुकछिप कर जाना त्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

इस सृष्टि में हर व्यक्ति को, आजादी अभिव्यक्ति की,
व्यक्ति का निजस्वार्थ फलित हो,नही राह ये सृष्टि की।
जिस नदिया की नौका जाके,नदिया के हीं धार बहे ,
उस नौका को किधर फ़िक्र कि,कोई ना पतवार रहे?
लहरों से लड़ना भिड़ना हीं, उस नौका का परित्राण नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं।
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

इस जीवन में आये हो तो,अरिदल के भी वाण चलेंगे,
जिह्वा से अग्नि  की वर्षा , वाणि  से अपमान फलेंगे।
आंखों में चिंगारी तो क्या, मन मे उनके विष गरल हो,
उनके जैसा ना बन जाना,भाव जगे वो देख सरल हो।
निज-ह्रदय प्रेम से रहे आप्त,इससे बेहतर उत्थान नहीं,
एक रोध का टिक जाना हीं,विच्छेदित अवधान नहीं,
एक फूल का मिट जाना हीं,उपवन का अवसान नहीं।

Saturday, May 9, 2020

कृष्ण:योगी भी, भोगी भी

कौन हैं श्री कृष्ण? नायक या खलनायक?स्त्रियों के साथ ठिठोली करने वाले एक ग्वाले या उनके रक्षक? गुरु या छलिया? योगी या भोगी?लोग श्रीकृष्ण जैसे व्यक्ति को कितना समझ पा रहें है? मेरे एक मित्र ने सोशल मीडिया पे वायरल हो रहे एक मैसेज दिखाया। इसमें भगवान श्रीकृष्ण को काफी नकारात्मक रूप से दर्शाया गया है। उनके जीवन की झांकी जिस तरह से प्रस्तुत की गई थी उसका अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ।

"1.उन्होंने नग्न लड़कियों के कपड़े चुराए,

2.माखन की चोरी की,

3. कंकड़ मार कर गोपियों के साथ छेड़खानी की,

4.अनेक युवतियों के साथ रासलीला किए,

5.राधा का इस्तेमाल करके फेक दिए,

6.रुक्मिणी का अपहरण कर शादी किए,

7. जरासंध से हारकर भाग गए,

8. 16000 लड़कियों से शादी किए,

9. अपनी बहन सुभद्रा को बड़े भाई बलराम के ईक्छा के विरुद्ध अर्जुन के साथ भगवा दिए,

10.महान वीर बर्बरीक को मार दिए,

11. दुर्योधन के पास जाकर संधि प्रस्ताव गलत तरीके से प्रस्तुत कर उसकी क्रोधाग्नि को भड़काए,

12.दुर्योधन के साथ छल कर उसे केला का पत्ता पहनकर माता गांधारी के पास भेजा ताकि जांघ का हिस्सा कमजोर रहे,

13.अर्जुन को बहकाकर महाभारत युद्ध लड़वाए,

14.अपना वचन भंग कर भीष्म के खिलाफ शस्त्र उठा लिए,

15.कर्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन,जरासंध , जयद्रथ आदि का वध गलत तरीके से करवाए

16.और अंत मे एक शिकारी के हाथों साधारण व्यक्ति की भाँति मारे गए।"

मेरे मित्र काफी उत्साहित होकर इन सारे तथ्यों को मेरे सामने प्रस्तुत कर रहे थे। काफी सारे लोग मजाक में हीं सही, उनकी बातों का अनुमोदन कर रहे थे। उन्हें मुझसे भी अनुमोदन की अपेक्षा थी। मुझे मैसेज पढ़कर अति आश्चर्य हुआ।आजकल सोसल मीडिया ज्ञान के प्रसारण का बहुत सशक्त माध्यम बन गई है। परंतु इससे अति भ्रामक सूचनाएं भी प्रसारित की जा रही हैं। इधर गीतकार भी ऐसे गीत लिख रहे हैं जिससे नकारात्मकता हीं फैलती है:

"वो करे तो रासलीला, हम करें तो कैरेक्टर ढीला"

इस तरह के गीत भी आजकल श्रीकृष्ण को गलत तरीके से समझ कर लिखे जा रहे हैं। मुझे इस तरह की मानसिकता वाले लोगो पर तरस आता है।ऐसे माहौल में, जहां भगवान श्रीकृष्ण को गाली देना एक फैशन स्टेटमेंट बन गया है,मैंने सोचा, उनके व्यक्तित्व को सही तरीके से प्रस्तुत किया जाना जरूरी है। इससे उनके बारे मे किये जा रहे भ्रामक प्रचार को फैलने से रोका जा सकता है।

सबसे पहली बात श्रीकृष्ण अपरिमित, असीमित हैं। उनके बारे में लिखना सूरज को दिया दिखाने के समान है। मेरे जैसे सीमित योग्यता वाला व्यक्ति यह कल्पना भी कैसे कर सकता है कृष्ण की संपूर्णता को व्यक्त करने का। मैं अपने इस धृष्टता के लिए सबसे पहले क्षमा मांगकर हीं शुरुआत करना श्रेयकर समझता हूं।

भगवान श्रीकृष्ण को समझना बहुत ही दुरूह और दुशाध्य कार्य है। राधा को वो असीमित प्रेम करते है। जब भी श्री कृष्ण के प्रेम की बात की जाती है तो राधा का हीं नाम आता है, उनकी पत्नी रुक्मिणी या सत्यभामा का नहीं। उनका प्रेम राधा के प्रति वासना मुक्त है। आप कहीं भी जाएंगे तो आपको कृष्ण रुक्मणी या कृष्ण सत्यभामा का मंदिर नजर नहीं आता। हर जगह कृष्ण और राधा का ही नाम आता है। हर जगह कृष्ण और राधा के ही मंदिर नजर आते हैं। यहां तक कि मंदिरों में आपको कृष्ण और राधा की ही मूर्तियां नजर आएंगी ना कि रुक्मणी कृष्ण और सत्यभामा कृष्ण के । कृष्ण जानते थे कि यदि वह राधा के प्रेम में ही रह गए तो आने वाले दिनों में उन्हें भविष्य में जो बड़े-बड़े काम करने हैं, वह उन्हें पूर्ण करने से वंचित रह जाएंगे या उन कामों को करने में बाधा आएगी। इसी कारण से कृष्ण अपनी प्रेमिका राधा को छोड़ देते हैं और जीवन में आगे बढ़ जाते हैं। कृष्ण का राधा के प्रति प्रेम वासना से मुक्त है। कृष्ण जब अपने जीवन में आगे बढ़ जाते हैं तो राधा की तरफ फिर पीछे मुड़कर नहीं देखते और ना हीं राधा उनके पीछे कभी आती हैं। ऊपरी तौर से कृष्ण भले हीं राधा के प्रति आसक्त दिखते हों लेकिन अन्तरतम में वो निरासक्त हैं।

कृष्ण पर यह भी आरोप लगता है कि वह बचपन में जवान नग्न लड़कियों के कपड़े चुराते हैं । लोग यह भूल जाते हैं कि इसका उद्देश्य केवल यही था कि लड़कियां यह जाने कि तालाब में बिल्कुल नग्न होकर नहीं नहाना चाहिए। उन्हें यह सबक सिखाना था। उन्हें यह शिक्षा देनी थी ।यदि वह बचपन में लड़कियों के कपड़े चुराते हैं ,माखन खाते हैं, या लड़कियों के मटको को फोड़ते हैं तो इसका कोई इतना ही मतलब है कि अपने इस तरह के नटखट कामों से उनका का दिल बहलाते थे ।

श्रीकृष्ण को लोग यह देखते हैं कि बचपन में वह लड़कियों के कपड़े चुराता है। उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब द्रोपती का चीर हरण हो रहा होता है तो यह कृष्ण ही है जो कि द्रौपदी के मान-सम्मान की रक्षा करते हैं।

वह ना केवल मनुष्य का ख्याल रखते हैं बल्कि अपने साथ जाने वाली गायों का भी ख्याल रखते हैं। जब उनकी बांसुरी उनके होठों पर लग जाती तो सारी गाएं उनके पास आकर मंत्रमुग्ध होकर सुनने बैठ जाती।कृष्ण दुष्टों को छोड़ते भी नहीं है । चाहे वो आदमी हो , स्त्री हो ,देवता हो या कि जानवर। उन्हें बचपन में मारने की इच्छा से जब पुतना अपने स्तन में जहर लगाकर आती है तो कृष्ण उसके स्तन से हीं उसके प्राण हर लेते हैं । जब कालिया नाग आकर यमुना नदी में अपने विष फैला देता है , तो फिर उस का मान मर्दन करते हैं। शिशुपाल जब मर्यादा का उल्लंघन करता है तो उसका वध करने में भी नहीं चूकते। कृष्ण देवताओं को भी सबक सिखाते हैं। एक समय आता है जब कृष्ण इन्द्र को सबक सिखाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लेते हैं।

ये बात ठीक है कि वह बहुत सारी गोपियों के साथ रासलीला करते हैं । पर कृष्ण को कभी भी किसी स्त्री की जरूरत नहीं थी। वास्तव में सारी गोपियाँ ही कृष्ण से प्रेम करती थी। गोपियों के प्रेम को तुष्ट करने के लिए कृष्ण अपनी योग माया से उन सारी गोपियों के साथ प्रेम लीला करते थे ,रास रचाते थे। इनमें वासना का कोई भी तत्व मौजूद नहीं था। अपितु ये करुणा वश किया जाने वाला प्रेम था।

इस बात पर भी कृष्ण की आलोचना होती है कि वो रुक्मिणी से शादी उसका अपहरण करके करते हैं ।वास्तविकता यह है कि रुक्मणी कृष्ण से अति प्रेम करती थी, और कृष्ण रुक्मणी की प्रेम की तुष्टि के लिए ही उसकी इच्छा के अनुसार उसका अपहरण कर शादी करते हैं । इस बात के लिए भी कृष्ण को बहुत आश्चर्य से देखा जाता है कि उनकी 16,000 रानियां थी ।पर बहुत कम लोगों को ये ज्ञात है कि नरकासुर के पास 16,000 लड़कियां बंदी थी। उनसे शादी करके कृष्ण ने उन पर उपकार किया और उन्हें समाज में सम्मान जनक दर्जा प्रदान किया। वो प्रेम के समर्थक हैं।

जब उनको ये ज्ञात हुआ कि उनकी बहन सुभद्रा अर्जुन से प्रेम करती है ,तो वह अपने भाई बलराम की इच्छा के विरुद्ध जाकर सुभद्रा की सहायता करते हैं और अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह सुभद्रा का अपहरण करके उससे शादी करें।

लोग इस बात को बहुत जोर देकर कहते हैं कि वो जरासंध से डरकर युद्ध में भाग गए थे । लोग यह समझते हैं कि कृष्ण मथुरा से भागकर द्वारका केवल जरासंध के भय से गए थे। लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि बचपन में यह वही कृष्ण थे जिन्होंने अपने कानी उंगली पर पूरे गोवर्धन पर्वत को उठा रखा था। इस तरह का शक्तिशाली व्यक्ति क्यों भय खाता। कृष्ण सर्वशक्तिमान है । उन्हें भूत, वर्तमान और भविष्य की जानकारी है। उन्हें यह ज्ञात है कि जरासंध की मृत्यु केवल भीम के द्वारा ही होने वाली है। भविष्य में होने वाली घटनाओं पर कोई भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहते ।इसीलिए अपनी पूरी प्रजा को बचाने के लिए वह मथुरा से द्वारका चले जाते हैं ।इसके द्वारा कृष्ण यह भी शिक्षा देते हैं कि एक आदमी को केवल जीत के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए ।जरूरत पड़ने पर प्रजा की भलाई के लिए हार को भी स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है। जिस कृष्ण में मृत परीक्षित को भी जिंदा करने की शक्ति है, वो ही प्रजा के हितों के रक्षार्थ रणछोड़ नाम को भी धारण करने से नहीं हिचकिचाता।

कृष्ण पर इस बात का भी आरोप लगता है कि उन्होंने अर्जुन को बहकाकर युद्ध करवाया। कृष्ण यह जानते थे कि पांडव धर्म के प्रतीक थे और कौरव अधर्म के।जिस अर्जुन का मन डावाँडोल हो रहा था उस समय कृष्ण ने अर्जुन के मन की तमाम विगतियों को दूर किया।एक योद्धा का धर्म केवल युद्ध करना होता है, और कृष्ण ने अर्जुन को यह बताकर बिल्कुल सही काम किया ।

कृष्ण ने महात्मा बर्बरीक का वध कर दिया। गुरु द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, महाबली कर्ण ,दुर्योधन जरासंध ,जयद्रथ ,इन सब का वध गलत तरीके से करवाया।इसका मुख्य कारण यह था कि ये सारे अधर्म का साथ दे रहे थे। इनकी मृत्यु अपरिहार्य थी।

यदि कृष्ण दुर्योधन के साथ छल करते हैं तो इसका कुल कारण यह है कि दुर्योधन जीवन भर छल और प्रपंच को ही प्राथमिकता देता है। यह वही दुर्योधन है जो बचपन में भीम को जहर देकर मारने की कोशिश करता है। यह वही दुर्योधन है जो लक्षा गृह में षड्यंत्र कर पांडवों को जला कर मार देने की कोशिश करता है।ऐसे व्यक्ति के सामने धर्म का पाठ पढ़ाने से कुछ नहीं मिलता। कृष्ण के सामने सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि किस तरह से धर्म का रक्षण हो। इसी कारण से कृष्ण दुर्योधन के साथ छल करने में नहीं चूकते।

जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था और उस समय जब सारे योद्धा सबसे पूजनीय व्यक्ति को चुन रहे थे तो भीष्म पितामह ने स्वयं हीं कृष्ण का नाम क्यों आगे कर दिया सबसे पूजनीय व्यक्ति के रूप में ? जब कृष्ण ने सारे लोगों के सामने शिशुपाल का वध कर दिया तो किसी की भी हिम्मत क्यों नहीं हुई एक भी शब्द बोलने की। जाहिर सी बात है वो सर्व शक्तिशाली पुरुष हैं।

भीष्म पितामह अपने वचन में बंध कर चीरहरण का प्रतिरोध नहीं करते हैं। भीष्म पितामह अपने वचन को प्रमुखता देते हैं । तो कृष्ण अपने वचन को प्रमुखता नहीं देते हैं। वह महाभारत युद्ध होने से पहले उन्होंने प्रण लेते हैं कि महाभारत युद्ध में कभी भी वह शस्त्र नहीं उठाएंगे ।लेकिन जब उन्होंने देखा कि भीष्म पितामह अपने वाणों से पांडवों की सेना का विध्वंस करते ही चले जा रहे हैं ,तो कृष्ण अपना प्रण छोड़ कर शस्त्र उठा लेते हैं।यहाँ वो भीष्म को ये शिक्षा देते है कि धर्म का मान रखना ज्यादा जरूरी है, बजाए कि प्रण के।

जहां तक कृष्ण का एक शिकारी के वाण से घायल होकर मरने का सवाल है तो यहां पर मैं यह कहना चाहता हूं कि जो भी शरीर धारण करता है उसका एक न एक दिन तो देह का त्याग जरूर करना होता है । लेकिन एक व्यक्ति की मृत्यु किस तरह से होती है उससे व्यक्ति की महानता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। गौतम बुद्ध की मृत्यु मांस खाने से हुई थी। ईसा मसीह को सूली पर लटका कर मार दिया गया था। रामजी ने भी जल समाधि ली थी। जो भी महान पुरुष हुए हैं उनकी मृत्यु भी बिल्कुल साधारण तरीके से हुई है। कृष्ण जी यदि मानव का शरीर धारण किए हैं तो शरीर का जाना तय हीं था। केवल इस बात से श्रीकृष्ण की महानता कम नहीं हो जाती कि उनकी मृत्यु एक शिकार शिकारी के वाण के लगने से हुई थी।

लोग इस बात के लिए भी श्रीकृष्ण को कुछ हद तक दोषी मानते हैं कि साडी विभूतियों के होते हुए भी उन्होंने अभिमन्यु के प्राणों की रक्षा नहीं की । श्रीकृष्ण के पास जरुर क्षमता थी , परन्तु समय में घटने वाली घटनाओं के साथ उन्होंने कभी छेड़खानी नहीं की । अभिमन्यु की मृत्यु उसी प्रकार होनी थी , इसीलिए उन्होंने एसा होने दिया ।  वरना सोचने वाली बात ये है कि जो श्रीकृष्ण मृत परीक्षित को जीवित कर सकते हैं , वो भला अभिमन्यु की रक्षा क्यों नहीं कर सकते थे ?

यदि श्रीकृष्ण नहीं होते तो क्या पांडवों के लिए महाभारत जितना संभव था ? यदि श्रीकृष्ण नहीं होते तो क्या पांडवों के लिए महाभारत जितना संभव था ? अर्जुन को कर्ण के वाणों से बचाना संभव था ? जब अस्वत्थामा ने वैष्णवास्त्र चलाया तब भीम के प्राणों की रक्षा कृष्ण ने हीं की थी । अर्जुन के वाणों की रक्षा श्री कृष्ण ने हीं थी ।  श्री कृष्ण की महिमा इस बात से भी जाहिर होती है , जब भीष्म पर कुपित होकर श्रीकृष्ण ने रथ का पहिया उठा लिया था , तब भीष्म उनके सामने हाथ जोड़कर क्यों बैठ जाते हैं ? ये वो ही भीष्म हैं जिन्हें विष्णु के अवतार भगवान परशुराम भी नहीं हरा पातें हैं ।  वो महाबली भीष्म पितामह बार बार श्रीकृष्ण के सामने क्यों झुक जातें हैं ?   

श्रीकृष्ण इतने ताकतवर हैं कि छोटी सी उम्र में हीं अनेक असुरों का वध खेल खेल में कर देते हैं। जब मामा कंस के पास जाते हैं तो मल्लयुद्ध में अनेक पराक्रमी असुरों को पराजित कर देते हैं। अर्जुन को महाभारत युद्ध की शुरुआत में जब गीता ज्ञान देते हैं तो सारे उपनिषदों और वेदों का सार प्रस्तुत कर देते हैं । और जब अपनी विभूतियों का प्रदर्शन करते हैं तो उनके विश्व रूप में सारा ब्रह्मांड समाये हुए दिखाई पड़ता है । अनेक ग्रह , तारे , आकाश गंगा उनके विश्व रूप में प्रकट होते हैं।

महाभारत के अंत में सारे पांडवों में इस बात की चर्चा हो रही थी कि महाभारत युद्ध को जीतने का श्रेय किसके पास है, और सारे के सारे लोग जब बर्बरीक के पास पहुंचे तो बर्बरीक ने कहा मैंने तो पूरे महाभारत में यही देखा कि कृष्ण हीं लड़ रहे हैं ।मैंने देखा कि कृष्ण ही कृष्ण को काट रहे हैं। कृष्ण ही कटवा रहे हैं। कृष्ण हीं योद्धा है , कृष्ण हीं मरने वाले व्यक्ति हैं । कृष्ण के बारे में बचा खुचा संदेह तब खत्म हो जाता है जब वो अर्जुन के मन मे चल रहे द्वंद्व को खत्म करने के लिए गीता ज्ञान देते है और अपने सम्पूर्ण विभूतियों को अपने योगमाया द्वारा प्रकट करते हैं। महाभारत के रचयिता श्रीकृष्ण के बारे में ऐसा इसलिए लिखते हैं क्यों कि श्रीकृष्ण निर्विवाद रूप से अपने समय के सर्वश्रेष्ठ , सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व हैं ।

कृष्ण पंडितों के सामने पंडित हैं ,दुर्योधन के सामने दुर्योधन, शकुनि के सामने शकुनि। सूरज तो रोज ही होता है, लेकिन देखने वाला व्यक्ति अपनी यदि आंख बंद कर ले तो वह बिल्कुल कह सकता है कि सूरज नहीं है ।या यदि देखने वाला व्यक्ति अपनी आंख में लाल रंग का चश्मा पहन ले तो वह यह कह सकता है कि सूरज का रंग हमेशा के लिए लाल ही हैं। उसी तरीके से यदि कोई व्यक्ति किसी को गलत तरीके से देखना चाहता है तो उसे केवल दोष नजर आएगा।इसमें कृष्ण काकोई दोष नहीं है, बल्कि देखने वाले के नजरिये का दोष है।

कृष्ण शत्रुओं के शत्रु ,और मित्रों के मित्र हैं। वह शकनियों के शकुनि दुर्योधन के दुर्योधन हैं ।सुदामा के मित्र ,राधा के प्रेमी, रुकमणी के पति, एक राजनेता ,एक राजा, नर्तक ,योद्धा, कूटनीतिज्ञ, योगी, भोगी ,गायक ,माखन चोर ,मुरलीधर ,सुदर्शन चक्र धारी, शास्त्र , रणछोड़ । उनके सामने एक ही लक्ष्य था वह था धर्म की स्थापना ।

धर्म की स्थापना के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार थे। वह भोगिराज भी थे और योगीराज भी। ये तो आदमी की दशा पे निर्भर करता है कि वो कृष्ण को योगी माने या भोगी। योद्धा या रणछोड़ , गायक , नर्तक या की कुशल राजनीतिज्ञ। इतिहास में कृष्ण जेसे व्यक्तित्व का मिलना लगभग नामुमकिन है ,क्योंकि कृष्ण एक साथ सारे विपरीत गुण को परिपूर्णता में परिलक्षित करते हैं।

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