Friday, December 14, 2018

हिप हिप हुर्रे

पिछले एक घंटे से उसके हाथ मोबाइल पर जमे हुए थे। पबजी गेम में उसकी शिकारी निगाहें दुश्मनों को बड़ी मुश्तैदी से साफ कर रहीं थी। तकरीबन आधे घंटे की मशक्कत के बाद वो जोर जोर से चिल्लाने लगा। हुर्रे, हुर्रे, हिप हिप हुर्रे आखिकार लेबल 30 पार कर हीं लिया।  डेढ़ घंटे की जद्दोजहद के बाद उसने पबजी गेम का 30 वां लेबल पार कर लिया था। उसी जीत का जश्न मना रहा था। हुर्रे, हुर्रे, हिप हिप हुर्रे।
 
कड़ी मेहनत के बाद फ्लैट की बॉलकोनी में जाकर आती जाती कारों को निहारने लगा। एक कार, फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी::::::::::::::::::।कबूतर की तरह अपने फ्लैट नुमा घोसले से बाहर आकर आसमान में उड़ते हुए कभी कबूतरों को देखता, कभी लम्बी लम्बी अट्टालिकाओं के बीच आँख मिचौली करते सूरज को । चेहरे पे जीत की खुमारी छाई हुई थी। सीने में अहम की दहकती हुई ज्वाला प्रज्वलित थी , पर अहम का प्रक्षेपण गौण। किसपे करे अपने मान का अभिमानखुद हीं खेल, खुद हीं खिलाड़ी, खुद हीं दर्शक, खुद हीं शिकारी। अलबत्ता जीत का सेलिब्रेशन डिजिटल हो गया था। व्हाट्सएप्प, फेसबुक और इंस्टाग्राम पे अपनी जीत का स्टेटस अपडेट कर फ्रिज से कोक और पिज्जा निकाली और खाने लगा। व्हाट्सएप्प, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर उसके दोस्तों के कंमेंट और डिजिटल मिठाइयाँ आने लगीं। वो भी उनका जवाब डिजिटल इमोजी से देने लगा।
 
थोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजी। वो जाकर दरवाजा खोला। सामने मैथ के टीचर थे। वो झुँझला उठा। शीट मैन,  सर को भी अभी आना था ।झुंझलाते हुए 10 किलो का स्कूल बैग  लेकर स्टडी रूम में मैथ के टीचर के साथ चल पड़ा।
 
शाम के बज रहे थे। मुमुक्षु अपने बेटे सत्यकाम को मैथ टीचर के साथ स्टडी रूम में जाते हुए देख रहा था। उसका बेटा सत्यकाम  एक नामी गिरामी इंटरनेशनल स्कूल में  पढ़ता था। उसकी दिनचर्या रोजाना तकरीबन 6.30 सुबह शुरू हो जाती। मुमुक्षु की पत्नी अपने बेटे को सुबह 6.30 से हीं उठाने का प्रयत्न करने लगती। वो थोड़ा और, थोड़ा और करके 5-5 मिनट की मोहलत लेते रहता। लगभग 7.15 बिछावन से उसका मोह भंग होता। फिर आनन फानन में मुंह धोता, नहाता, कपड़ा पहनता और स्कूल के 10 किलो का बस्ता लेकर अपने पापा मुमुक्षु के साथ 8 बजे तक स्कूल पहुंच जाता।
 
फल, हरी सब्जियों से उसकी जैसे जन्मजात दुश्मनी थी। सत्यकाम की माँ लंच में उसके लिए पिज्जा, बर्गर या फ्रेंच फ्राई रख देती। दोपहर को लगभग 2.30 बजे स्कूल से होमवर्क के बोझ के साथ लौट जाता। घर आकर रोटी दाल और सब्जी के साथ सलाद खाता और फिर उसकी निगाएँ मोबाइल पे टिक जाती। बीच बीच मे कार्टून चैनल भी चला देता। इतने में 4 बज जाते।
 
मुमुक्षु के पास सत्यकाम को पढ़ाने के लिए समय नहीं था। केवल स्कूल की पढ़ाई के भरोसे स्कूल में अव्वल आना टेढ़ी खीर थी। लिहाजा होम ट्यूशन लगा रखे थे। 
 
शाम को 4 बजे मैथ टिचर 1 घंटे के लिए आते थे। 5 बजे लौट जाते। फिर आधे घंटे का ब्रेक। फिर 6 से 7 बजे तक साइंस टीचर। फिर आधे घंटे ब्रेक। 7 बजे टी. वी. पे सत्यकाम का प्रिय डोरेमन का कार्टून आता था। वो डोरेमन देखते हुए रोटी सब्जी खाता।फिर 8 से 9.30 तक होम वर्क कराने वाले टीचर का समय था। तकरीबन इसी समय मुमुक्षु आफिस से घर आता था। होम वर्क पूरा करके सत्यकाम फिर 1 घंटे के लिए मोबाइल पे लग जाता। और दुघ पीकर लगभग 11 बजे सो जाता फिर सुबह तैयार होकर स्कूल जाने के लिए।
 
आज रात को सत्यकाम पे जीत की खुमारी शायद ज्यादा हीं चढ़ी हुई थी। शायद जीत का आनंद उसके होम वर्क के बोझ से ज्यादा भारी पड़ रहा था। रात को सपने में दो तीन बार उठ कर उसने हिप हिप हुर्रे की भाव भंगिमा बनाई।
 
मुमुक्षु को उसका खुद का बचपन , गांव में उगती सुरज की सुनहली किरण , मुर्गे की बांग, चिड़ियों की चहचहाहट, सरसों के खेत की भीनी भीनी खुशबूं याद आने लगीं। कोयल की मधुर पुकार उसे सुबह सुबह उठा देती। नहा धोकर बाहर निकलता तो उसके दोस्तों की टोली घर के बाहर इन्तेजार करती मिलती। फिर सब साथ चल पड़ते महुआ बीनने। मोती के दानों की तरह घास के बीच झिलमिल झिलमिल करते महुए के फल बच्चों का इन्तेजार करती।
 
अपने पीतल के थाली को सब सूरज की रोशनी में रख देते। जब पीतल की थाली गर्म हो जाती तो उससे अपने बोरे की इस्त्री करके सारे बच्चे स्कूल नंगे पांव पहुंच जाते। भृंग राज के पत्तों से स्लेट को बिल्कुल साफ रखा जाता। कोई कोई भाग्यवान हीं चप्पल पहनता और उसे बच्चों में विशिष्ट माना जाता। भटकुइयां के बेर मुमुक्षु और उसके दोस्तों के प्रिय आहार हुआ करते
 
इधर मास्टरजी पहला क्लास ख़त्म के क्या जाते, मुमुक्षु अपने दोस्तों के साथ रफ्फूचक्कर हो जाता। शैतानों की टोली जामुन के पेड़ पे धमा कौचडी मचाती मिलती। बंदरों की तरह एक डाल से दूसरे दाल और उछलते हुए बंदरों के जामुन को हजम कर जाते। और तो और बारिश के मौसम में जब स्कूल में पानी जमता तब तीन महीने की छुट्टी तय हो जाती। मुमुक्षु को एक एक कर अपने बचपन के दिन याद आने लगे।
 
बारिश की मौसम में स्कूल की छुट्टियों में वो अपने दोस्तों के साथ चील चिलोर, आइस बाइस, कबड्डी, चीका, गिल्ली डंडा खेलता। शीशम और तरकुल के पत्तों को चबाकर पान की तरह मुँह लाल करता। आम की आँठी से सिटी बजातता ।मक्के के खेत में बने मचान पे बच्चों की टोली जमती और पास के हीं खेतों से मुली , मिर्च , टमाटर निकाल कर भोज किया जाता
 
होली में होलिका के लिए मुमुक्षु की टोली गाँव के सारे पुराने लकड़ियों को दीमक की तरह चट कर जाते। होली के कुछ दिन पहले उसकी टोली का आतंक इतना बढ़ जाता कि बूढों की खटिया भी होलिका के दहन में खप जाती । होलिका दहन पर लुकार भांजना,  ठंडी में घुर के  पास बैठकर आग तापना, पुआल की चटाई पे अपने दोस्तों के साथ सोना, ये सारी बातें धीरे धीरे मुमुक्षु के मानस पटल पे एक एक करके याद आने लगी।
 
अभी सत्यकाम के हाथों में सारे क्रिकेट के मैच लाइव आते है। तब मुमुक्षु को अपने दोस्तों के साथ पांडेय जी के खिड़की के पीछे चोरों की तरह देखता। हालाकि उस चोरी में भी अति आनंद की पुर्ति होती। महाबीरी झंडा में गदका खेलना, कठपुतलियों का नाच देखना, शहर जाकर सर्कस का आनंद लेना।
 
आज तो अँधेरा क्या होता है , ये किसी को बताना भी मुश्किल था। गाँव में जब मुमुक्षु अमवस्या की रात में बरगद के पेड़ के चारो तरफ जुगनुओं की बारात देखता तो ऐसा लगता कि सारे तारे जमीं पे आ गए हैं। बारिश के मौसम में मेढकों की टर्र टर्र और झींगुर की झंकार से सारा वातावरण गुंजायमान हो उठता।
 
जामुन के पेड़ से कलाबाजियां खाते हुए तलाब में छलांग लगाना, गांज पर से धान की पुआल पे कूदना, पिताकी की मार से बचने के लिए मड़ई में जाकर छुपना, आम के टिकोड़ों और पीपल के कलियों को नमक से साथ खाना, बरगद के पेड़ पर दोला पाति खेलना और फगुआ में झूम झूम के फगुआ के गीत गाना।  क्या दिन थे वो। 
 
मुमुक्षु को अनायास अपनी वो पिटाई भी याद आ गई जब वो अपने दोस्तों के साथ पीपल के डंठल को बीड़ी बनाकर पी रहा था। बरसात के मौसम में कागज के नाव को बहाना, पीले पीले मेढकों को भगाना, खेतों में मछलियों को पकड़ना, गिल्ली डंटा खेलना, पतंग उड़ाना। जीतने पे चिल्लाना और हारने पे हिप हिप हुर्रे करके दोस्तों को चिढ़ाना। तब जीत भी साथ साथ होती, हार भी साथ साथ।
 
अब सब कुछ बदल गया है। सब कुछ डिजिटल भी है और सिंगल भी।
 
 
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, December 8, 2018

बिछिया

बिछिया 

अनिमेश आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था । बचपन से हीं अनिमेश के पिताजी ने ये उसे ये शिक्षा प्रदान कर रखी थी कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए एक आदमी का योग्य होना बहुत जरुरी है। अनिमेश अपने पिता की सिखाई हुई बात का बड़ा सम्मान करता था । उसकी दैनिक दिनचर्या किताबों से शुरू होकर किताबों पे हीं बंद होती थी । हालाँकि खेलने कूदने में भी अच्छा था। 

नवम्बर का महिना चल रहा था। आठवीं कक्षा की परीक्षा दिसम्बर में होने वाली थी। परीक्षा काफी नजदीक थी। अनिमेश अपनी किताबों में मशगुल था। ठण्ड पड़नी शुरू हो गयी थी।  वो रजाई में दुबक कर अपनी होने वाली वार्षिक परीक्षा की तैयारी कर रहा था। इसी बीच उसकी माँ बाजार जा रही थी। अनिमेश की माँ ने उसको 2000 रूपये दिए और बाजार चली गयी । वो रूपये अनिमेश को अपने चाचाजी को देने थे। 

 अनिमेश के चाचाजी गाँव में किसान थे। कड़ाके की ठण्ड पड़ने के कारण फसल खराब हो रही थी।  फसल में खाद और कीटनाशक डालना बहुत जरुरी था।  अनिमेश के बड़े चाचाजी दिल्ली में प्राइवेट नौकरी कर रहे थे।  उन्होंने हीं वो 2000 रूपये गाँव की खेती के लिए भेजवाए थे।  अनिमेश की माँ ने वो 2000 रूपये अनिमेश को दिए ताकि वो अपने गाँव के चाचाजी को दे सके। अनिमेश पढने में मशगुल था। उसने रुपयों को किताबों में रखा और फिर परीक्षा की तैयारी में मशगुल हो था। 

इसी बीच बिछिया आई और घर में झाड़ू पोछा लगाकर चली गई। जब गाँव से चाचाजी पैसा लेने आये तो अनिमेश ने उन रुपयों को किताबों से निकालने की कोशिश की। पर वो गायब हो चुके थे । अनिमेश के मम्मी पापा ने भी लाख कोशिश की पर वो रूपये मिल नहीं पाए । या तो वो जमीं में चले गए थे या आसमां में गायब हो गये थे। खोजने की सारी कोशिशें बेकार गयीं। खैर अनिमेश के पापा ने 2000 रूपये खुद हीं निकाल कर गाँव के चाचाजी को दे दिए। रुपयों के गायब होने पे सबको गुस्सा था ।अनिमेश पे शक करने का सवाल हीं नही था। काफी मेहनती , आज्ञाकारी और ईमानदार बच्चा था। स्कुल में दिए गए हर होम वर्क को पुरा करता। वो वैसे हीं पढाई लिखाई में काफी गंभीर था , तिस पर से उसकी परीक्षा नजदीक थी। इस कारण अनिमेश के पिताजी ने अनिमेश ने ज्यादा पूछ ताछ नहीं ही।

बिछिया लगभग 50 वर्ष की मुसलमान अधेड़ महिला थी। उसका रंग काला था। बिच्छु की तरह काला होने के कारण सारे लोग उसे बिछिया हीं कह के पुकारते थे। उसके नाम की तरह उसके चेहरे पे भी कोई आकर्षण नहीं था। साधारण सी साडी और बेतरतीब बाल और कोई साज श्रृंगार नहीं। तिस पर से साधारण नाक नक्श। इसी कारण से वो अपने पति का प्रेम पाने में असक्षम रही। उसकी शादी के दो साल बाद हीं उसके पति ने दूसरी शादी कर ली। जाहिर सी बात है , बिछिया को कोई बच्चा नहीं था। नई दुल्हन उसके साथ नौकरानी का व्यव्हार करती। 

बिछिया बेचारी अकेली घुट घुट कर जी रही थी। अकेलेपन में उसे बीडी का साथ मिला। बीडी पीकर अपने सारा गम भुला देती। जब बीड़ी के लिए रूपये कम पड़ते तो कभी कभार अपने पति के जेब पर हाथ साफ़ कर देती। दो तीन बार उसकी चोरी पकड़ी गयी। अब सजा के तौर पर उसे अपनी जीविका खुद हीं चलानी थी। उसने झाड़ू पोछा का काम करना शुरू कर दिया। इसी बीच उसका बीडी पीना जारी रहा।

पर आखिर में रूपये गये कहाँ? अनिमेश चुरा नहीं  सकता। घर में बिछिया के आलावा कोई और आया नही। हो ना हो , जरुर ये रूपये बिछिया ने हीं चुराये है।सबकी शक की नजर बिछिया पे गयी।  किसी कौए को कोई बच्चा पकड़ कर छोड़ देता है तो बाकि सारे कौए उसे बिरादरी से बाहर कर देते है और उस कौए को सारे मिलकर मार डालते है। वो ही हाल बिछिया का हो गया था। सारे लोग उसके पीछे हाथ धोकर पीछे पड़ गए । 

किसी को पडोसी से नफरत थी । कोई मकान मालिक से परेशान था । कोई अपनी गरीबी से परेशान था । किसी की प्रोमोशन काफी समय से रुकी हुई थी । सबको अपना गुस्सा निकालने का बहाना मिल गया था। बिछिया मंदिर का घंटा बन गयी थी। जिसकी जैसी इक्छा हुई , घंटी बजाने चला आया। काफी  पूछताछ की गई उससे। काफी  जलील किया गया। उसके कपड़े तक उतार लिए गए । कुछ नही पता चला। हाँ बीड़ी के 8-10 पैकेट जरूर मिले। शक पक्का हो गया।चोर बिछिया ही थी। रूपये न मिलने थे, न मिले।

दिसम्बर आया। परीक्षा आयी और चली गई । जनवरी में रिजल्ट भी आ गया। अनिमेश स्कूल में फर्स्ट आया था। अनिमेश के पिताजी ने खुश होकर अनिमेश को साईकिल खरीद दी । स्कूल में 26 जनवरी मनाने की तैयारी चल रही थी । अनिमेश के मम्मी पापा गाँव गए थे। परीक्षा के कारण अनिमेश अपने कमरे की सफाई पर ध्यान नहीं दे पाया था। अब छुट्टियाँ आ रही थी। वो अपने किताबों को साफ़ करने में गया । सफाई के दौरान अनिमेश  को वो 2000 रूपये किताबों के नीचे पड़े मिले। अनिमेश की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। तुरंत साईकिल उठा कर गाँव गया और 2000 रूपये अपनी माँ माँ को दे दिए।

बिछिया के बारे में पूछा। मालूम चला वो आजकल काम पे नहीं आ रही थी। परीक्षा के कारण अनिमेश को ये बात ख्याल में आई हीं नहीं कि जाने कबसे बिछिया ने काम करना बंद कर रखा था। अनिमेश जल्दी से जल्दी बिछिया से मिलकर माफ़ी मांगना चाह रहा था। वो साईकिल उठाकर बिछिया के घर पर जल्दी जल्दी पहुँचने की कोशिश कर रहा था । और उसके घर का पता ऐसा हो गया जैसे की सुरसा का मुंह । जितनी जल्दी पहुँचने की कोशिश करता , उतना हीं अटपटे रास्तों के बीच उसकी मंजिल दूर होती जाती।खैर उसका सफ़र आख़िरकार ख़त्म हुआ। उसकी साईकिल बीछिया के घर के सामने रुक गई । उसका सीना आत्म ग्लानि से भरा हुआ था । उसकी धड़कन तेज थी । वो सोच रहा था कि वो बिछिया का सामना कैसे करेगा। बिछिया उसे माफ़ करेगी भी या नहीं । उसने मन ही मन सोचा कि बिछिया अगर माफ़ नहीं करेगी तो पैर पकड़ लेगा। उसकी माँ ने तो अनिमेश को कितनी हीं बार माफ़ किया है । फिर बिछिया माफ़ क्यों नहीं करेगी ? और उसने कोई गलती भी तो नहीं ही। 

तभी एक कडकती आवाज ने उसकी विचारों के श्रृंखला को तोड़ दिया । अच्छा ही हुआ, उस चोर को खुदा ने अपने पास बुला लिया। ये आवाज बिछिया के पति की थी । उसके पति ने कहा , खुदा ने उसके पापों की सजा दे दी । हुक्का पीते हुए उसने कहा 2000 रूपये कम थोड़े न होते हैं बाबूजी । इतना रुपया चुराकर कहाँ जाती । अल्लाह को सब मालूम है । बिछिया को बी. हो गया था। उस चोर को बचा कर भी मैं क्या कर लेता। और उसपर से मुझे परिवार भी तो चलाना होता है। अनिमेश सीने में पश्चाताप की अग्नि लिए घर लौट आया। उसके पिताजी ने पूछा , अरे ये साईकिल चला के क्यों नही आ रहे हो ? ये साईकिल को डुगरा के क्यों आ रहे हो? दरअसल अनिमेश अपने भाव में इतना खो गया था कि उसे याद हीं नहीं रहा कि को साईकिल लेकर पैदल हीं चला आ रहा है। उसने बिछिया के बारे में तहकीकात की। 

अधेड़ थी बिछिया । कितना अपमान बर्दास्त करती ? मन पे किए गये वार तन पर असर दिखाने लगे। उपर से बीड़ी की बुरी लत। बिछिया बार बीमार पड़ने लगी। खांसी के दौरे पड़ने लगे। काम करना मुश्किल हो गया। घर पे हीं रहने लगी। हालांकि उसके पति ने अपनी हैसियत के हिसाब से उसका ईलाज कराया। पर ज़माने की जिल्लत ने बिछिया में जीने की ईक्छा को मार दिया था। तिस पर से उसके पति की खीज और बच्चों का उपहास। बिछिया अपने सीने पे चोरी का ईल्जाम लिए हुए इस संसार से गुजर गई थी।

अनिमेश के ह्रदय की पश्चाताप की अग्नि शांत नहीं हुई है। 4o साल गुजर गए हैं बिछिया के गुजरे हुए। आज तक रुकी हुई है वो माफी


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित 




 बिछिया

Thursday, December 6, 2018

मर्सिडीज बेंज वाला गरीब

राजेश दिल्ली में एक वकील के पास ड्राईवर की नौकरी करता था  रोज सुबह समय से साहब के पास पहुंचकर उनकी  मर्सिडीज बेंज की सफाई करता और साहब जहाँ कहते ,उनको ले जाता अपने काम में पूरी तरह ईमानदार था क्या ठंडी , क्या बरसात , क्या धुप , क्या गर्मी  बिल्कुल सुबह आठ बजे पहुँच जाता और गाड़ी को चमका देता  

राजेश की ईमानदारी और कर्मठता उसके चरित्र का हिस्सा था इधर आठ बजे और उधर राजेश हाजिर कई बार तो साहब भी अपनी घड़ी का टाइम राजेश के आने पर आठ सेट कर लेते थे कई बार तो ऐसा लगता कड़ी मेहनत, अनुशासन और राजेश पर्यायवाची शब्द हैं कुल मिला कर यही जमा पुंजी उसके पिता ने उसको दिया था साहब भी उसके इस गुण के कायल थे

दिसम्बर का महीना था पापी पेट का सवाल था रोजाना राजेश को सुबह सुबह निकलना पड़ता सुबह सुबह आने के कारण उसको ठण्ड लग गयी उपर से बर्फ सी ठंडी पानी से गाड़ी की सफाई ने रही सही कसर पुरी कर दी पिछले पाँच दिनों से बीमार था पांच दिनों तक दवाई लेने और घर पर आराम करने के बाद वो स्वस्थ हो गया ठीक होने के बात ड्यूटी ज्वाइन कर ली  फिर वो ही सुबह आना फिर वो ही बर्फ जैसे ठंडे पानी से साहब के मर्सिडीज बेंज की धुलाई ठंडी का असर उसके शरीर पर दिखता था , साहब की गाड़ी पर नहीं बिल्कुल चमकाकर रखा था बेंज को

महिना गुजर गया साहब से पगार लेने का वक्त आया साहब ने बताया कि ओवर टाइम मिलाकर उसके 9122 रूपये बनते है राजेश ने कहा , साहब मेरे इससे तो ज्यादा पैसे बनते हैं साहब ने जवाब दिया  तुम पिछले महीने पाँच दिन बीमार थे तुम्हारे बदले किसी और को ड्राइवरी के लिए 5 दिनों के तक रखना पड़ा उसके पैसे कौन भरेगा. वो तो तुम्हारे हीं पगार से काटेंगे न  

मरता क्या ना करता ? उसने चुप चाप स्वीकार कर लिया साहब ने उसे 9200 रूपये देते हुए राजेश से पूछा,  तुम्हारे पास 22 रूपये खुल्ले है क्या? राजेश ने कहा खुल्ले नहीं हैं साहब ने कहा , ठीक है , सौ रूपये लौटा दो बाकि 22 रूपये अगले महीने दे दूंगा राजेश ने कहा , साहब बीमारी में पैसे खर्च हो गये बाकि पैसे भी दे देते तो अच्छा था साहब ने कहा , अरे भाई एक तुम हीं तो नहीं हो मेरे पास  तुमको दे दूंगा , तो बाकि सारे लोग भी मुंह उठाकर पहुँच जायेंगे राजेश के घर पे बीबी, माँ , बीमार बाप और दो बच्चे थे पुरे परिवार की जिम्मेदारी राजेश के कन्धों पे थी मन मसोसकर 9100 रूपये लेकर लौट पड़ा

मेट्रो का किराया भी काफी बढ़ गया था मेट्रो स्टेशन से उतरकर वो आगे को चल पड़ा तक़रीबन २ किलोमीटर आगे चौराहे से उसके घर के लिए रिक्शा मिलता था पैसे बचाने के लिए मेट्रो से चौराहे तक वो पैदल हीं चल पड़ाउसका घर चौराहे से तकरीबन चार किलोमीटर की दुरी पे था उसे चौराहे से रिक्शा करना पड़ता था किराया 10 रूपया होता था रिक्शा वाले का रोज की तरह उस दिन भी चौराहे तक आकर उसने एक रिक्शा लिया और घर की तरफ चल पड़ा रिक्शे से उतरकर उसने रिक्शेवाले को 100 रूपये पकड़ा दिएरिक्शेवाले के पास खुल्ले नहीं थे उसने आस पास की दुकानों से खुल्ले कराने की कोशिश कीपान वाले के पास गया , मूंगफली वाले के पास गया ,ठेले वाले के पास गया पर सौ के नोट देखकर सबने हाथ खड़े कर दिए खुल्ला नहीं हो  पाया आखिर में रिक्शा वाले ने वो सौ रूपये  राजेश को लौटा दिए  राजेश ने उसका मोबाइल नंबर माँगा ताकि वो बाद में उसके दस रूपये लौटा सके पर रिक्शेवाले ने मना कर दिया रिक्शेवाले ने कहा , भाई कभी न कभी तो मिल हीं जाओगे तुम हीं याद रखनाकभी मिलोगे तो पैसे लौटा देना। फिर उस भयंकर सर्दी में अपनी गमछी से चेहरे पे आये पसीने को पोंछते हुए चला गया

राजेश को अपने मालिक की बातें  याद आ रही थी साहब बोल रहे थे मेरा मकान , मेरी मर्सिडीज बेंज सब तो यहीं है तुम्हारे 22  रूपये लेकर कहाँ जाऊंगा? तुम्हारे 22 रूपये बचाने के लिए अपने घर और अपने  मर्सिडीज बेंज को थोड़े हीं न बेच दूंगाये  22  रूपये अगले महीने की सेलरी में एडजस्ट कर दूंगा   

राजेश के जेहन में ये बात घुमने लगी एक तो ये रिक्शा वाला था जिसने खुल्ले नहीं मिलने पे अपना 10 रुपया छोड़ दिया और एक उसके साहब थे जिन्होंने खुल्ले नहीं मिलने पे उसके 22  रूपये रख लिए , अगले महीने देने के लिए  एक सबक  राजेश को समझ आ गयी। मर्सिडीज बेंज पाने के लिए दिल में साहब की तरह गरीबी को बचाए  रखना बहुत जरूरी है। ज्यादा बड़ा दिल रख कर क्या बन लोगे, महज एक रिक्शे वाला।




अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित 

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