Saturday, July 24, 2021

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-14


इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् तेरहवें भाग में अभिमन्यु के गलत तरीके से किये गए वध में जयद्रथ द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका और तदुपरांत केशव और अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए रचे गए प्रपंच के बारे में चर्चा की गई थी। कविता के  वर्तमान प्रकरण अर्थात् चौदहवें भाग में देखिए कैसे प्रतिशोध की भावना से वशीभूत होकर अर्जुन ने जयद्रथ का वध इस तरह से किया कि उसका सर धड़ से अलग होकर उसके तपस्वी पिता की गोद में गिरा और उसके पिता का सर टुकड़ों में विभक्त हो गया। प्रतिशोध की भवना से ग्रस्त होकर अगर अर्जुन जयद्रथ के निर्दोष तपस्वी पिता का वध करने में कोई भी संकोच नहीं करता , तो फिर प्रतिशोध की उसी अग्नि में दहकते हुए अश्वत्थामा से जो कुछ भी दुष्कृत्य रचे गए , भला वो अधर्म कैसे हो सकते थे? प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का चौदहवाँ भाग।

निरपराध थे  पिता  जयद्रथ  के पर   वाण चलाता था,
ध्यान  मग्न  थे परम  तपस्वी पर  संधान लगाता था।
प्रभुलीन के चरणों में गिरा कटा हुआ जयद्रथ का सिर ,
देख पुत्र का  शीर्ष विक्षेपण  पिता हुए थे अति अधीर।

और भाग्य  का खेला ऐसा मस्तक फटा तात का ऐसे,
खरबूजे का फल हाथ से  भू पर  गिरा हुआ हो  जैसे।
छल प्रपंच जग जाहिर अर्जुन केशव से बल पाता था ,
पूर्ण हुआ प्रतिशोध मान कर चित में मान सजाता था।

गर भ्राता  का  ह्रदय  फाड़ना  कृत्य  नहीं  बुरा  होता,
नरपशु भीम का प्रति शोध रक्त पीकर  हीं पूरा होता।
चिर प्रतिशोध की अग्नि जो पांचाली में थी धधक रही ,
रक्त पिपासु चित उसका था शोला  बनके भड़क रही।

ऐसी ज्वाला भड़क रही जबतक ना  चीत्कार हुआ,
दु:शासन का रक्त लगाकर जबतक ना श्रृंगार हुआ।
तबतक केश खुले रखकर शोला बनकर जलती थी ,
यदि धर्म था अगन चित में ले करके  जो फलती थी।

दु:शासन उर रक्त हरने  में, जयद्रथ जनक के  वधने में ,
केशव अर्जुन  ना  कुकर्मी  गर  छल प्रपंच के  रचने में।
तो   कैसा   अधर्म   रचा   मैंने वो धर्म स्वीकार किया। , 
प्रतिशोध की वो अग्नि हीं निज चित्त अंगीकार किया?

गर  प्रतिशोध हीं ले लेने का मतलब धर्म विजय होता ,
चाहे  कैसे  भी  ले  लो  पर  धर्म पुण्य  ना  क्षय होता।
गर  वैसा  दुष्कर्म  रचाकर  पांडव  विजयी  कहलाते,
तो किस मुँह से कपटी सारे मुझको कपटी कह पाते?

कविता के अगले भाग अर्थात् पन्द्रहवें भाग में देखिए अश्वत्थामा आगे बताता है कि अर्जुन ने अपने शिष्य सात्यकि के प्राण बचाने के लिए भूरिश्रवा का वध कैसे बिना चेतावनी दिए कर दिया।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday, July 19, 2021

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-13

 

इस दीर्घ रचना के पिछले भाग अर्थात् बारहवें  भाग में आपने देखा अश्वत्थामा ने दुर्योधन को पाँच कटे हुए नर कंकाल  समर्पित करते हुए क्या कहा। आगे देखिए वो कैसे अपने पिता गुरु द्रोणाचार्य के अनुचित तरीके के किये गए वध के बारे में दुर्योधन ,कृतवर्मा और कृपाचार्य को याद दिलाता है। फिर तर्क प्रस्तुत करता है कि उल्लू  दिन में  अपने शत्रु को हरा नहीं सकता इसीलिए वो रात में हीं  घात लगाकर अपने शिकार पर प्रहार करता है। पांडव के पक्ष में अभी भी पाँचों पांडव , श्रीकृष्ण , शिखंडी , ध्रीष्टदयुम्न आदि और अनगिनत सैनिक मौजूद थे जिनसे दिन में लड़कर अश्वत्थामा जीत नहीं सकता था । इसीलिए उसने  उल्लू से सबक सीखकर रात में हीं घात लगाकर पड़ाव पक्ष पे प्रहार कर नरसंहार रचाया। और देखिए अभिमन्यु के गलत तरीके से किये गए वध में जयद्रथ द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका और तदुपरांत केशव और अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए रचे गए प्रपंच। प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का  तेरहवां भाग।

पिता मेरे गुरु द्रोणाचार्य थे चक्रव्हयू के  अद्भुत ज्ञाता,
शास्त्र शस्त्र गूढ़ ज्ञान के ज्ञानी रणशिल्प के परिज्ञाता।
धर्मराज ना टिक पाते थे भीम नाकुलादि पांडव भ्राता ,
पार्थ  कृष्ण को अभिज्ञान था वो  कैसे संग्राम   विज्ञाता।
  
इसीलिए  तो  यदुनंदन  ने कुत्सित  मनोव्यापार  किया ,
संग युधिष्ठिर कपट रचा कर प्राणों पे अधिकार किया।
अस्वत्थामा  मृत  हुआ  है   गज  या  नर  कर  उच्चारण,
किस मुँह धर्म का दंभ भरें वो   दे   सत्य  पर सम्भाषण।

धर्मराज का धर्म लुप्त  जब गुरु ने असत्य स्वीकारा था,
और  कहाँ  था  धर्म ज्ञान  जब छल से शीश उतारा था ।
एक  निहथ्थे   गुरु   द्रोण   पर  पापी  करता  था  प्रहार ,
धृष्टद्युम्न  के  अप्कर्मों  पर  हुआ   कौन  सा  धर्माचार ?

अधर्म राह का करके पालन और असत्य का उच्चारण ,
धर्मराज  से  धर्म  लुप्त था  और  कृष्ण  से  सत्य   हरण। 
निज  स्वार्थ   सिद्धि   हेतु पांडव  से जो कुछ  कर्म  हुआ ,
हे कृपाचार्य गुरु द्रोणाचार्य को छलने में क्या धर्म हुआ ?

बगुलाभक्तों के चित में क्या छिपी हुई होती है आशा,
छलिया बुझे जाने  माने किचित छल प्रपंच  की भाषा।
युद्ध  जभी कोई  होता है  एक  विजेता  एक  मरता  है ,
विजय पक्ष की आंकी जाती समर कोई कैसे लड़ता है?

हे  कृपाचार्य  हे  कृतवर्मा  ना  सोंचे  कैसा काम  हुआ ?
हे  दुर्योधन ना अब   देखो ना  युद्धोचित  अंजाम हुआ?
हे  कृतवर्मा  धर्म   रक्षण की    बात हुई  है आज वृथा ,
धर्म न्याय का क्षरण हुआ  है रुदन करती आज पृथा।

गज कोई क्या मगरमच्छ से जल में लड़ सकता है क्या?
जो जल का है चपल खिलाड़ी उनपे अड़ सकता है क्या?
शत्रु  प्रबल  हो   आगे  से  लड़ने  में  ना  बुद्धि का काम , 
रात्रि प्रहर में हीं उल्लू अरिदल का करते काम तमाम।

उल्लूक सा  दौर्वृत्य  रचाकर  ना  मन  में  शर्माता   हूँ , 
कायराणा  कृत्य  हमारा  पर मन हीं मन  मुस्काता हूँ ।  
ये बात सही है छुप छुप के हीं रातों को संहार किया ,
कोई  योद्धा जगा नहीं  था बच  बच के प्रहार किया।

फ़िक्र  नहीं  है  इस  बात की ना  योद्धा  कहलाऊँगा,
दाग  रहेगा  गुरु पुत्र  पे   कायर   सा  फल  पाऊँगा।
इस दुष्कृत्य  को बाद हमारे समय  भला कह पायेगा?
अश्वत्थामा  के चरित्र  को  काल  भला  सह  पायेगा?

जब भी कोई नर या नारी प्रतिशोध का करता  निश्चय ,
बुद्धि लुप्त हो हीं  जाती  है और ज्ञान का होता है क्षय। 
मुझको  याद  करेगा  कोई  कैसे    इस का ज्ञान नहीं ,
प्रतिशोध  तो  ले  हीं  डाला बचा हुआ बस भान यहीं ।

गुरु  द्रोण  ने पांडव को हरने हेतु जब चक्र रचा,
चक्रव्यहू के पहले वृत्त में जयद्रथ ने कुचक्र रचा।
कुचक्र  रचा  था  ऐसा  कि  पांडव  पार ना पाते थे ,
गर  ना  होता जयद्रथ  अभिमन्यु  मार ना पाते थे।  

भीम युधिष्ठिर जयद्रथ पे उस दिन अड़ न पाते थे ,
पार्थ कहीं थे फंसे नहीं सहदेव नकुल लड़ पाते थे।  
अभिमन्यु तो चला गया फंसा हुआ उसके अन्दर ,
वध फला अभिमन्यु का बना जयद्रथ काल कंदर।   

अगर पुत्र के  मरने पर अर्जुन को क्रोध हुआ अतिशय,
चित्त में अग्नि प्रतिघात की फलित हुई थी क्षोभ प्रलय।
अभिमन्यु  का  वध अगर ना युद्ध नियामानुसार हुआ ,
तो जयद्रध को हरने में वो कौन युद्ध का नियम फला?

जयद्रथ  तो  अभिमन्यु  के  वध  में  मात्र  सहायक था ,
छल  से वध रचने वालों में  योद्धा था  अधिनायक था।
जयद्रथ  को  छल  से  मारा  तथ्य  समझ में आता  हैं ,
पर  पिता  को वधने में क्या पुण्य समझ ना आता है।   

सुदूर किसी गिरी केअंतर और किसी तरुवर के नीचे,
तात जयद्रथ परम तपस्वी चित्त में परम ब्रह्म को सींचे।
मन में तन में ईश जगा के मुख में बस प्रभु की वाणी ,
कहीं  तपस्या  लीन  मगन  थे  पर पार्थ वो अभिमानी।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, July 10, 2021

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-12

 

इस दीर्घ रचना के पिछले भाग अर्थात् ग्यारहवें भाग में आपने देखा कि युद्ध के अंत में भीम द्वारा जंघा तोड़ दिए जाने के बाद दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में  हिंसक जानवरों के बीच पड़ा हुआ था। आगे देखिए जंगली शिकारी पशु बड़े धैर्य के साथ दुर्योधन की मृत्यु का इन्तेजार कर रहे थे और उनके बीच फंसे हुए दुर्योधन को मृत्यु की आहट को देखते रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। परंतु होनी को तो कुछ और हीं मंजूर थी । उसी समय हाथों में  पांच कटे हुए  नर कपाल लिए अश्वत्थामा का आगमन हुआ  और दुर्योधन की मृत्यु का इन्तेजार कर रहे वन पशुओं की ईक्छाएँ धरी की धरी रह गई। आइये देखते हैं अश्वत्थामा ने दुर्योधन को पाँच कटे हुए नर कंकाल  समर्पित करते हुए क्या कहा?  प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का  बारहवां भाग।  

आश्वस्त रहा सिंहों की भाँति  गज सा मस्त रहा जीवन में,
तन चींटी  से  बचा रहा था आज वो ही योद्धा उस क्षण में।
पड़ा   हुआ  था  दुर्योधन  होकर  वन   पशुओं  से  लाचार,
कभी शिकारी बन वन फिरता  आज बना था वो शिकार।

मरना   तो   सबको   होता एक दिन वो  बेशक मर जाता,
योद्धा   था  ये   बेहतर    होता   रण   क्षेत्र   में अड़  जाता।
या  मस्तक  कटता  उस  रण  में और देह को देता त्याग ,
या झुलसाता शीश अरि का निकल रही जो उससे आग।

पर  वीरोचित एक   योद्धा  का उसको  ना  सम्मान मिला ,
कुकर्म रहा  फलने  को बाकी नहीं शीघ्र परित्राण मिला।
टूट  पड़ी थी  जंघा   उसकी   उसने    बेबस  कर   डाला,
मिलना  था अपकर्ष फलित  सम्मान रहित मृत्यु प्याला। 

जंगल  के  पशु  जंगल के घातक   नियमों से  चलते  है,
उन्हें ज्ञात  क्या  धैर्य प्रतीक्षा  गुण  जो मानव  बसते  हैं।
पर जाने क्या पाठ पढ़ाया मानव के उस मांसल तन ने ,
हिंसक  सारे बैठ पड़े थे दमन  भूख  का करके मन में।

सोच  रहे  सब  वन  देवी   कब निज  पहचान कराएगी?
नर  के  मांसल भोजन का कब तक  रसपान कराएगी?
कब  तक कैसे इस नर का हम सब  भक्षण कर पाएंगे?
कब  तक  चोटिल   घायल  बाहु नर   रक्षण कर पाएंगे?

पैर हिलाना मुश्किल था अति उठ बैठ ना चल पाता था ,
हाथ  उठाना  था  मुश्किल  जो  बोया था  फल पाता था।
घुप्प अँधेरा नीरव  रात्रि में  सरक सरक  के चलते सांप , 
हौले  आहट  त्वरित  हो रहे  यम के वो  मद्धम पदचाप।

पर  दुर्योधन  के  जीवन  में  कुछ  पल  अभी बचे   होंगे ,
या    गिद्ध,  शृगालों   के  कति पय   दुर्भाग्य   रहे   होंगे।
गिद्ध, श्वान  की  ना होनी थी  विचलित रह  गया व्याधा,
चाह  अभी   ना   फलित हुई   ना फलित   रहा  इरादा।

उल्लू  के सम  कृत रचा  कर महादेव की कृपा पाकर,
कौन आ रहा सन्मुख  उसके देखा जख्मी  घबड़ाकर?
धर्म   पुण्य   का    संहारक   अधर्म   अतुलित  अगाधा , 
दक्षिण   से अवतरित हो रहा  था  अश्वत्थामा  विराधा।

एक  हाथ   में  शस्त्र सजा के  दूजे  कर नर मुंड लिए,
दिख  रहा  था   अश्वत्थामा   जैसे  नर्तक  तुण्ड  जिए।
बोला  मित्र  दुर्योधन   तूझको  कैसे  गर्वित  करता हूँ,
पांडव कपाल सहर्ष तेरे चरणों को अर्पित करता हूँ।

भीम , युधिष्ठिर धर्मयुद्ध ना करते बस  छल हीं करते थे ,
नकुल और सहदेव विधर्मी छल से हीं बच कर रहते थे।
जिस  पार्थ ने भीष्म  पितामह का अनुचित संहार किया,
कर्ण मित्र जब विवश हुए छलसे  कैसे वो प्रहार किया।

वध  करना  हीं  था दु:शासन का  भीम  तो  कर देता,
केश  रक्त  के   प्यासे   पांचाली  चरणों   में धर देता।
कृपाचार्य क्या बात हुई दु:शासन का रक्त पी पीकर,
पशुवत कृत्य रचाकर निजको कैसे कहता है वो नर। 

कविता के अगले भाग , अर्थात् तेरहवें भाग में देखिए कैसे अश्वत्थामा ने अपने द्वारा रात्रि में छल से किये गए हत्याओं , दुष्कर्मों को  उचित ठहराने के लिए दुर्योधन , कृपाचार्य और कृतवर्मा के सामने कैसे कैसे तर्क प्रस्तुत किए?

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

Thursday, July 8, 2021

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-11

इस दीर्घ कविता के दसवें भाग में दुर्योधन  द्वारा श्रीकृष्ण को हरने का असफल प्रयास और उस असफल प्रयास के प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा स्वयं के  विभूतियों के प्रदर्शन का वर्णन किया गया है।अर्जुन सरल था तो उसके प्रति कृष्ण मित्रवत व्यवहार रखते थे, वहीं  कपटी दुर्योधन के लिए वो महा कुटिल थे। इस भाग में देखिए , युद्ध के अंत में भीम द्वारा जंघा तोड़ दिए जाने के बाद मरणासन्न अवस्था में दुर्योधन  हिंसक जानवरों के बीच पड़ा हुआ था। जानवर की वृत्ति रखने वाला योद्धा स्वयं को जानवरों के बीच असहाय महसूस कर रहा था । अधर्म का आचरण करने वाले व्यक्ति का अंजाम जैसा होना चाहिए , कुछ इसी तरह का अंजाम दुर्योधन का हुआ था। प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का  ग्यारहवां भाग। 

छल प्रपंच  का अर्जन करके कपटी  दुर्योधन फलता,
तिनका तिनका अनल दबाकर सीने में जलता रहता।
धृतराष्ट्र  सुत  कलुसित  मन लेकर जीता था जीवन में,
ज्यों नागों का राजा सीधा फन करके चलता हो वन में।

बाल्य काल में जो भ्राता  को विष का पान कराता था,
लाक्षा  गृह  में पांडव सब मर जाए जाल बिछाता था।
श्यामा  ने  तो  खेल खेल  में थोड़ा सा परिहास किया ,
ना  कोई  था  कपट  रचा ना वहमी  ने विश्वास किया।
 
वो  हास ना  समझ  सका  था  परिहास का ज्ञान नहीं ,
भाभी  के  परिहासों से चोटिल होता  अभिमान कहीं?
जो श्यामा के हंसने को समझा था अवसर अड़ने को ,
हँसना तो  मात्र बहाना था वो  था हीं तत्पर लड़ने को।

भला  खेल में   भी  कोई  क्या  घन  षड्यंत्र रचाता   है?
था खेल  युद्ध ना  आडम्बर   मिथ्या प्रपंच    चलाता है?
भरी सभा में पांचाली  का कर सकता जो   वस्त्र हरण,
आखिर वोहीं तो सोच सके कैसे हरि का हो तेजहरण।

चिंगारी  तो  लहक  रही थी बस एक तिनका काफी था ,
ना  सवाल  था संधि का  कोई ना सवाल था माफ़ी का।
जो जलता हो क्रोध अनल में आखिर जग को क्या देता?
वो  तो  काँटों  का  था  पौधा  यदु नंदन   को क्या  देता ?

भीष्म द्रोण  जब साथ खड़े थे उसको भय कैसे होता?
और मित्र  हो अंग राज  तब  जग में  क्षय कैसे  होता?
कोई  होता और  समक्ष   दुर्योधन  को  फलना हीं था,
पर  हरि  हो  जाएं विपक्ष  तब अहंकार हरना  हीं था।

भीष्म, द्रोण और कर्ण का रक्षण काम न कोई आया ,
छल के पासे  फेंक फेंक कर  शकुनी  तब पछताया । 
काम ना आई ममता माँ की कपट काम ना आता था ,
जब   भीम  ने छल  से  जंघा  तोड़ी    तब   गुर्राता   था।         

आज वोही कपटी अभिमानी भू पे पड़ा हुआ था  ऐसे,
धुल धूसरित हो जाती हो  दूब  धरा पर  सड़ के जैसे।
अति भयावह दृश्य गजब था उस काले अंधियारे का,
ना कोई ज्योति गोचित ना परिचय था उजियारे का।

उल्लू  सारे  वृक्ष  पर बैठे  आस  लगाए  थे  भक्षण  को,
जिह्वा उनकी आग उगलती ना आता कोई रक्षण को।
निशा  अंधेरी  तिमिर  गहन और  कुत्ते घात लगाते थे,
गिद्ध  शृगाल  थे  प्रतिद्वंदी  सब लड़ते थे चिल्लाते  थे।

जो जीवन भर जंगल के पशुओं जैसा करता व्यवहार,
घात  लगा  कर शत्रु की  गर्दन   पे रखता था   तलवार।  
लोमड़  जैसी  आंखे  जिसकी और गिद्धों से थे आचार,
वो हीं  दुर्योधन पड़ा हुआ था  गिद्धों   के आगे  लाचार।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-10

 दीर्घ कविता के इस भाग में दुर्योधन के बचपन के कुसंस्कारों का संछिप्त परिचय  , दुर्योधन  द्वारा श्रीकृष्ण को हरने का असफल प्रयास और उस असफल प्रयास के प्रतिउत्तर में श्रीकृष्ण वासुदेव द्वारा स्वयं के  विभूतियों के प्रदर्शन का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एक दर्पण की भांति है, जिसमे पात्र को वो वैसे  हीं दिखाई पड़ते हैं  , जैसा कि वो स्वयं है। दुर्योधन जैसे कुकर्मी और कपटी व्यक्ति के लिए वो छलिया है जबकि अर्जुन जैसे सरल ह्रदय व्यक्ति के लिए एक सखा ।  युद्ध शुरू होने से पहले जब अर्जुन और दुर्योधन दोनों गिरिधर की सहायता प्राप्त करने हेतु उनके पास पहुँचते हैं तो यदुनंदन दुर्योधन के साथ छल करने में नहीं हिचकते। प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का दसवाँ भाग।


किसी मनुज में अकारण अभिमान यूँ हीं न जलता है ,
तुम जैसा वृक्ष लगाते हो वैसा हीं तो फल फलता है ।  
कभी चमेली की कलियों  पे मिर्ची ना तीखी आती है  ,
सुगंध चमेली का  गहना वो इसका हीं फल पाती है।

जो बाल्यकाल में भ्राता को विष देने का साहस करता,
कि लाक्षागृह में धर्म राज जल जाएं दु:साहस करता।
जो हास न समझ सके और   परिहास का ज्ञान नहीं ,
भाभी के परिहासों से चोटिल होता  अभिमान कहीं?

दुर्योधन की मति मारी थी  न इतना भी विश्वास किया,
वो हर लेगा गिरधारी को असफल किंतु प्रयास किया।
ये बात सत्य है  श्रीकृष्ण  को कोई हर सकता था क्या?
पर  बात तथ्य है दु:साहस ये दुर्योधन  कर सकता था।

कहीं उपस्थित वसु देव और कहीं उपस्थित देव यक्ष,
सुर असुर भी  नर  पिशाच  भी माधव  में होते  प्रत्यक्ष।
एक भुजा में पार्थ उपस्थित  दूजे  में सुशोभित हलधर ,
भीम ,नकुल,सहदेव,युधिष्ठिर नानादि आयुध गदा धर।

रिपु भंजक  की  उष्ण नासिका से उद्भट सी श्वांस चले,
अति कुपित हो अति वेग से माधव मुख अट्टहास फले।
उनमें  स्थित  थे   महादेव  ब्रह्मा  विष्णु क्षीर सागर भी ,
क्या सलिला क्या जलधि जलधर चंद्रदेव दिवाकर भी।

देदीप्यमान उन हाथों  में शारंग शरासन,  गदा , शंख ,
चक्र खडग नंदक चमके जैसे विषधर का तीक्ष्ण डंक।
रुद्र  प्रचंड  थे   केशव  में,  केशव में दृष्टित  नाग पाल ,
आदित्य सूर्य और इन्द्रदेव भी  दृष्टित  सारे लोकपाल।

परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था ,
अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।
धूमकेतु   भी   ग्रह   नक्षत्र और   सूरज  तारे   रचते   थे,
जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।

कहीं प्रतिष्ठित  सूर्य  पुत्र  अश्विनी  अश्व  धारण  करके,
दीखते  ऐसे  कृष्ण  मुरारी  सकल विश्व  हारण करते।
रोम  कूप से बिजली कड़के गर्जन करता विष  भुजंग,
दुर्योधन  ना सह पाता था   देख  रूप गिरिधर  प्रचंड ?

कभी  ब्रज  वल्लभ के हाथों से  अभिनुतन सृष्टि रचती,
कभी प्रेम पुष्प की वर्षा होती बागों में कलियां खिलती।
कहीं आनन  से अग्नि वर्षा  फलित  हो  रहा था संहार,
कहीं हृदय  से सृजन करते थे इस जग  के पालन हार।

जब वक्र दॄष्टि कर देते थे संसार उधर जल पड़ता था,
वो अक्र  वृष्टि कर देते थे संहार उधर फल पड़ता था।
स्वासों का आना जाना सब जीवन प्राणों का आधार,
सबमें व्याप्त दिखे केशव हरिकी हीं लीलामय संसार।

परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था ,
अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।
धूमकेतु   भी   ग्रह   नक्षत्र  भी  सूरज  तारे   रचते   थे,
जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।

सृजन तांडव का नृत्य दृश्य  माधव  में हीं सबने देखा,
क्या  सृष्टि का  जन्म चक्र क्या मृत्यु का लेखा जोखा।
हरि में दृष्टित थी पृथा हरी हरि ने खुद में आकाश लिया,
जो दिखता था था स्वप्नवत पर सबने हीं विश्वास किया।

देख विश्वरूप श्री कृष्ण का किंचित क्षण को घबराए,
पर वो भी क्या दुर्योधन जो नीति धर्म युक्त हो पाए।
लौट  चले  फिर  श्री कृष्ण करके दुर्योधन सावधान,
जो लिखा भाग्य में होने को ये युद्ध हरेगा महा प्राण।

बंदी  करने  को  इक्छुक था हरि पर क्या  निर्देश फले ?
जो   दुनिया  को   रचते  रहते  उनपे क्या  आदेश फले ?
ये  बात  सत्य   है  प्रभु  कृष्ण  दुर्योधन  से  छल करते थे,
षडयंत्र  रचा  करता  आजीवन  वैसा  हीं  फल रचते  थे।

ऐसा कौन सा पापी था जिसको हरि ने था छला नहीं,
और कौन था पूण्य जीव जो श्री हरि से था फला नहीं।
शीश पास जब पार्थ पड़े था दुर्योधन नयनों के आगे  ,
श्रीकृष्ण ने बदली करवट छल से पड़े पार्थ के आगे।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-9

 देह ओज से अनल फला आँखों से ज्योति विकट चली,

जल  जाते सारे शूर कक्ष में ऐसी  द्युति   निकट जली।
प्रत्यक्ष हो गए अन्धक  तत्क्षण वृशिवंश के सारे  वीर,
वसुगण सारे उर उपस्थित ले निज बाहू  तरकश तीर।

रिपु भंजक  की  उष्ण नासिका से उद्भट सी श्वांस चले,
अति कुपित हो अति वेग से माधव मुख अट्टहास फले।
उनमें  स्थित  थे   महादेव  ब्रह्मा  विष्णु क्षीर सागर भी ,
क्या सलिला क्या जलधि जलधर चंद्रदेव दिवाकर भी।

देदीप्यमान उन हाथों में शारंग शरासन, गदा , शंख ,
चक्र खडग नंदक चमके जैसे विषधर का तीक्ष्ण डंक।
रुद्र प्रचंड थे केशव में, केशव में यक्ष वसु नाग पाल ,
आदित्य अश्विनी इन्द्रदेव और दृष्टित सारे लोकपाल।

एक भुजा में पार्थ उपस्थित दूजे में सुशोभित हलधर ,
भीम ,नकुल,सहदेव,युधिष्ठिर नानादि आयुध गदा धर।
रोम कूप से बिजली कड़के गर्जन करता विष भुजंग,
क्या दुर्योधन में शक्ति थी जो दे सकता हरि को दंड?

परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था ,
अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।
धूमकेतु भी ग्रह नक्षत्र और   सूरज तारे रचते थे,
जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-8

 शायद  प्रस्फुटित होने अबतक  प्रेम बीज जो गुप्त   रहा,

कृष्ण  संधि   हेतु  हीं आये थे पर दुर्योधन तो सुप्त  रहा।
वो  दुर्बुद्धि   भी कैसा  था  कि    दूत  धर्म का ज्ञान नहीं, 
अविवेक  जड़ बुद्धि का  बस    देता   रहा  प्रमाण कहीं।

शठ शकुनि से कुटिल मंत्रणा करके हरने को तैयार,
दुर्योधन समझा था उनको एक अकेला नर  लाचार।
उसकी नजरों में ब्रज नंदन  राज दंड  के अधिकारी,
भीष्म नहीं कुछ कह पाते थे उनकी अपनी लाचारी।

धृतराष्ट्र विदुर जो समझाते थे उनका अविश्वास किया,
दु:शासन का मन भयकम्पित उसको यूँ विश्वास दिया।
जिन हाथों संसार फला था उन हाथों को हरने को,
दुर्योधन ने सोच लिया था ब्रज नन्दन को धरने को।

नभपे लिखने को लकीर कोई लिखना चाहे क्या होगा?
हरि पे धरने को जंजीर कोई रखना चाहे क्या होगा?
दीप्ति जीत हीं जाती है वन चाहे कितना भी घन हो,
शक्ति विजय हीं होता है चाहे कितना भी घन तम हो।

दुर्योधन जड़ बुद्धि हरि से लड़ कर अब पछताता था,
रौद्र कृष्ण का रूप देखकर लोमड़ सा भरमाता था।
राज कक्ष में कृष्ण खड़े जैसे कोई पर्वत अड़ा हुआ,
दुर्योधन का व्यूहबद्ध दल बल अत्यधिक डरा हुआ।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित 

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-7


है तथ्य विदित ये क्रोध अगन उर में लेकर हीं जलता था ,
दुर्योधन   के  अव  चेतन  में   सुविचार कब   फलता   था।
पर  निज स्वार्थ  सिद्धि  को  तत्तपर रहता कौरव  कुमार,
वक्त  पड़े   तो  कुटिल   बुद्धि  युक्त   करता  था व्यापार।

राजसभा   में  जिस  दुर्योधन  ने  सबका  अपमान किया,
वो ही वक्त के पड़ने पर गिरिधर  की ओर प्रस्थान किया।
था  किशन  कन्हैया की शक्ति का दुर्योधन को भान कहीं,
इसीलिए  याचक  बनकर पहुंचा  तज के अभिमान वही।

अर्जुन ईक्छुक मित्र लाभ को माधव कृपा जरूरी थी,
पर दुर्योधन याचक बन पहुँचा था क्या मजबूरी थी?
शायद केशव को जान रहा तभी तो वो याचन करता था,
एक तरफ जब पार्थ खड़े थे दुर्योधन भी झुकता था।

हाँ हाँ दुर्योधन ब्रजवल्लभ माधव कृपा का अभिलाषी ,
जान चुका उनका वैभव यदुनन्दन केशव अविनाशी।
पर गोविन्द भी ऐसे ना जो मिल जाए आडम्बर से,
किसी झील की काली मिट्टी छुप सकती क्या अम्बर से।

दुर्योधन के कुकर्मों का किंचित केशव को भान रहा,
भरी सभा में पांचाली संग कैसा वो दुष्काम रहा।
ब्रजवल्लभ को याद रहा कैसा उसने आदेश दिया,
प्रज्ञा लुप्त हुई उसकी कैसा उसने निर्देश दिया।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-6

एक  हाथ में चक्र हैं  जिनके मुरली मधुर बजाते हैं,
गोवर्धन  धारी डर  कर  भगने  का खेल दिखातें है।
जैसे  गज  शिशु से  कोई  डरने का  खेल रचाता है,
कारक बन कर कर्ता  का कारण से मेल कराता है।

ऐसे  शक्ति  पुंज  कृष्ण  जब  शिशुपाल  मस्तक हरते थे,
जितने  सारे  वीर  सभा में थे सब चुप कुछ ना कहते थे।
राज    सभा   में  द्रोण, भीष्म थे  कर्ण  तनय  अंशु माली,
एक तथ्य था  निर्विवादित श्याम  श्रेष्ठ   सर्व  बल शाली।

वो व्याप्त है नभ में जल में चल में थल में भूतल में,
बीत गया जो पल आज जो आने वाले उस कल में।
उनसे हीं बनता है जग ये वो हीं तो बसते हैं जग में,
जग के डग डग में शामिल हैं शामिल जग के रग रग में।

कंस आदि जो नरा धम थे कैसे क्षण में प्राण लिए,
जान रहा था दुर्योधन पर मन में था अभि मान लिए।
निज दर्प में पागल था उस क्षण क्या कहता था ज्ञान नही,
दुर्योधन ना कहता कुछ भी कहता था अभिमान कहीं।

गिरिधर में अतुलित शक्ति थी दुर्योधन ये जान रहा,
ज्ञात कृष्ण से लड़ने पर क्या पूतना का परिणाम रहा?
श्रीकृष्ण से जो भिड़ता था होता उसका त्राण नहीं ,
पर दुर्योधन पर मद भारी था लेता संज्ञान नहीं।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-5

कभी गोपी के वस्त्र चुराकर मर्यादा के पाठ पढ़ाए,
पांचाली के वस्त्र बढ़ाकर चीर हरण से उसे बचाए।
इस जग को रचने वाले कभी कहलाये थे माखनचोर,
कभी गोवर्धन पर्वत धारी कभी युद्ध तजते रणछोड़।

जब  कान्हा के होठों पे  मुरली  गैया  मुस्काती थीं,
गोपी सारी लाज वाज तज कर दौड़े आ जाती थीं।
किया  प्रेम  इतना  राधा  से कहलाये थे राधेश्याम,
पर भव  सागर तारण हेतू त्याग  चले थे राधे धाम।

पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी ,
कंस आदि के मर्दन कर्ता कृष्ण अति बलशाली।
वो कान्हा थे योगि राज पर भोगी बनकर नृत्य करें,
जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।

सारंग धारी कृष्ण हरि ने वत्सासुर संहार किया ,
बकासुर और अघासुर के प्राणों का व्यापार किया।
मात्र तर्जनी से हीं तो गिरि धर ने गिरि उठाया था,
कभी देवाधि पति इंद्र को घुटनों तले झुकाया था।

जब पापी कुचक्र रचे तब हीं वो चक्र चलाते हैं,
कुटिल दर्प सर्वत्र फले तब दृष्टि वक्र उठाते हैं।
उरग जिनसे थर्र थर्र काँपे पर्वत जिनके हाथों नाचे,
इन्द्रदेव भी कंपित होते हैं नतमस्तक जिनके आगे।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-4


कार्य दूत का जो होता है अंगद ने अंजाम दिया ,
अपने स्वामी रामचंद्र के शक्ति का प्रमाण दिया।
कार्य दूत का वही कृष्ण ले दुर्योधन के पास गए,
जैसे कोई अर्णव उदधि खुद प्यासे अन्यास गए।

जब रावण ने अंगद को वानर जैसा उपहास किया,
तब कैसे वानर ने बल से रावण का परिहास किया।
ज्ञानी रावण के विवेक पर दुर्बुद्धि अति भारी थी,
दुर्योधन भी ज्ञान शून्य था सुबुद्धि मति मारी थी।

ऐसा न था श्री कृष्ण की शक्ति अजय का ज्ञान नहीं ,
अभिमानी था मुर्ख नहीं कि हरि से था अंजान नहीं।
कंस कहानी ज्ञात उसे भी मामा ने क्या काम किया,
शिशुओं का हन्ता पापी उसने कैसा दुष्काम किया।

जब पापों का संचय होता धर्म खड़ा होकर रोता था,
मामा कंस का जय होता सत्य पुण्य क्षय खोता था।
कृष्ण पक्ष के कृष्ण रात्रि में कृष्ण अति अँधियारे थे ,
तब विधर्मी कंस संहारक गिरिधर वहीं पधारे थे।

जग के तारण हार श्याम को माता कैसे बचाती थी ,
आँखों में काजल का टीका धर आशीष दिलाती थी।
और कान्हा भी लुकके छिपके माखन दही छुपाते थे ,
मिटटी को मुख में रखकर संपूर्ण ब्रह्मांड दिखाते थे।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग-3

 

प्रभु राम की पत्नी का जिसने मनमानी हरण किया,
उस अज्ञानी साथ राम ने प्रथम शांति का वरण किया।
ज्ञात उन्हें था अभिमानी को मर्यादा का ज्ञान नहीं,
वध करना था न्याय युक्त बेहतर कोई इससे त्राण नहीं।

फिर भी मर्यादा प्रभु राम ने एक अवसर प्रदान किया,
रण तो होने को ही था पर अंतिम एक निदान दिया।
रावण भी दुर्योधन तुल्य हीं निरा मूर्ख था अभिमानी,
पर मर्यादा पुरुष राम थे निज के प्रज्ञा की हीं मानी।

था विदित राम को कि रण में भाग्य मनुज का सोता है,
नर जो भी लड़ते कटते है अम्बर शोणित भर रोता है।
इसी हेतु तो प्रभु राम ने अंतिम एक प्रयास किया,
सन्धि में था संशय किंतु किंचित एक कयास किया।

दूत बना के भेजा किस को रावण सम जो बलशाली,
वानर श्रेष्ठ वो अंगद जिसका पिता रहा वानर बालि।
महावानर बालि जिसकी क़दमों में रावण रहता था,
अंगद के पलने में जाने नित क्रीड़ा कर फलता था।

उसी बालि के पुत्र दूत बली अंगद को ये काम दिया,
पैर डिगा ना पाया रावण क्या अद्भुत पैगाम दिया।
दूत बली अंगद हो जिसका सोचो राजा क्या होगा,
पैर दूत का हिलता ना रावण रण में फिर क्या होगा?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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