भगवान की अदालत स्थगित हुई,
घंटा थमा, बादल लौट गए।
स्वर्ग में सब शांत था —
पर धरती पर भीड़ थी,
लोग अब भी लाइन में थे,
अपने-अपने फ़ैसलों की फोटोकॉपी लिए।
किसी ने कहा —
“ऊपर तो सुनवाई हो गई,
अब नीचे क्या बाकी है?”
एक बूढ़े वकील ने हँसकर कहा —
“यहाँ हर फ़ैसले की अपील होती है,
यहाँ न्याय भी रीव्यू पेटिशन डालता है।”
कोर्ट के बाहर एक बच्चा खेल रहा था —
उसकी जेब में चॉक थी,
वह ज़मीन पर बना रहा था —
‘न्यायालय’ लिखा हुआ एक छोटा सा चौखट।
कोई वादी नहीं, कोई वकील नहीं,
सिर्फ़ वह और उसकी हँसी।
शायद यही था असली न्याय —
जहाँ नियम नहीं, बस निष्कपटता थी।
शहर में अफ़वाह चली —
कि भगवान ने फैसला तो लिखा,
पर हस्ताक्षर नहीं किए।
कहा जाता है —
वो अब भी सोच रहे हैं,
कि न्याय को लागू कौन करेगा —
मानव, या मानवता?
रात गहरी हुई,
अदालतों की लाइटें बुझ गईं,
पर एक खिड़की अब भी खुली थी —
जहाँ एक क्लर्क फाइलें सहेज रहा था।
उसने धीरे से कहा —
“इतने फ़ैसले लिखे गए,
पर किसी फ़ाइल में ‘करुणा’ की धारा अब तक नहीं डली।”
आसमान ने यह सुना,
और एक तारा गिरा —
शायद यह भी किसी केस की
“कॉस्ट ऑफ डिले” थी।
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