Monday, October 20, 2025

आत्मा की अपील

 कहा गया — “सत्यमेव जयते।”

पर सत्य कहीं फाइलों में अटका था,
पन्नों के बीच दबा हुआ,
जैसे पुराना नोट — अब चलन से बाहर।

आत्मा आई थी सुप्रीम अदालत में,
एक अर्जी लेकर —
“महोदय, मैंने मनुष्य के भीतर न्याय खोजा था,
पर पाया कि न्याय खुद ज़मानत पर बाहर है।”

मुख्य न्यायाधीश ने पूछा —
“तुम कौन?”
आत्मा बोली —
“वही जो हर अपराध में छिपी होती है,
हर शपथ में बुलाई जाती है,
पर किसी साक्ष्य में नहीं मिलती।”

पीठ के सदस्य बोले —
“क्या चाहती हो?”
आत्मा बोली —
“बस इतना कि जब इंसाफ दिया जाए,
तो उसे सुना भी जाए।”

वकील खड़े हुए —
कोई संविधान गिना रहा था, कोई धारा,
कोई मिसाल, कोई नज़ीर।
आत्मा मुस्कुराई —
“आप लोग कानून के इतने पास हैं,
कि इंसान से बहुत दूर चले गए हैं।”

जज ने कलम उठाई,
फैसले का मसौदा शुरू किया,
लिखा —
“न्यायालय आत्मा की याचिका स्वीकार करता है,
पर कार्यान्वयन की तारीख़ बाद में घोषित की जाएगी।”

भीड़ शांत थी,
घंटा बजा — अदालत स्थगित।
आत्मा बाहर निकली,
आसमान की ओर देखा,
और बोली —
“शुक्र है, ऊपर वाले दरबार में अभी तारीख़ नहीं लगती।”

फिर वह उड़ गई —
जैसे किसी पुरानी अपील की तरह,
जो कभी डिसमिस नहीं होती,
बस मुल्तवी रहती है...
अनंत काल तक।

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