Saturday, April 30, 2022

दुर्योधन कब मिट पाया:भाग:35


किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य जब मृत्यु के निकट पहुँच कर भी पूर्ण  हो जाता है  तब उसकी  मृत्यु उसे ज्यादा परेशान नहीं कर पाती। अश्वत्थामा भी दुर्योधनको एक शांति पूर्ण  मृत्यु  प्रदान  करने  की  ईक्छा से उसको स्वयं  द्वारा  पांडवों के मारे जाने का समाचार  सुनाता है, जिसके  लिए दुर्योधन ने आजीवन कामना की  थी । युद्ध भूमि में   घायल   पड़ा    दुर्योधन   जब  अश्वत्थामा के मुख से पांडवों के  हनन की बात सुनता है तो  उसके  मानस   पटल  पर सहसा अतित के वो  दृश्य  उभरने लगते हैं जो गुरु द्रोणाचार्य के वध होने के वक्त घटित हुए थे।  अब आगे क्या हुआ , देखते हैं मेरी दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" के इस 35 वें भाग में।   
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जिस मानव का सिद्ध मनोरथ
मृत्यु     क्षण      होता    संभव, 
उस मानव का हृदय आप्त ना
हो   होता        ये      असंभव। 
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ना   जाने किस   भाँति आखिर
पूण्य   रचा    इन  हाथों       ने ,
कर्ण   भीष्म  न  कर  पाए  वो
कर्म   रचा    निज     हाथों ने।
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मुझको भी विश्वास ना होता
है  पर   सच    बतलाता  हूँ,
जिसकी   चिर   प्रतीक्षा  थी
तुमको  वो बात सुनाता  हूँ।
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तुमसे  पहले  तेरे  शत्रु का 
शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड  अर्पित  करता हूँ,
अधम शत्रु का निजकर से।
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सुन मित्र की बातें दुर्योधन के
मुख     पे    मुस्कान    फली,
मनो वांछित   सुनने  को   हीं
किंचित उसमें थी जान बची।
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कैसी  भी  थी  काया  उसकी  
कैसी   भी    वो    जीर्ण  बची ,
पर मन के अंतर तम  में  तो 
अभिलाषा  कुछ  क्षीण  बची।
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क्या  कर  सकता  अश्वत्थामा
कुरु  कुंवर  को   ज्ञात    रहा,
कैसे    कैसे    अस्त्र     शस्त्र  
अश्वत्थामा    को   प्राप्त  रहा।
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उभर   चले  थे  मानस पट पे
दृश्य   कैसे   ना    मन   माने ,
गुरु  द्रोण  के  वधने  में  क्या
धर्म  हुआ   था    सब   जाने।
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लाख  बुरा  था  दुर्योधन  पर 
सच  पे   ना   अभिमान रहा ,
धर्मराज  सा   सच पे सच में
ना  इतना    सम्मान    रहा।
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जो छलता था दुर्योधन पर
ताल थोक कर हँस हँस के,
छला गया छलिया के जाले
में उस दिन  फँस फँस  के।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday, April 25, 2022

किस राह के हो अनुरागी

 


ईश्वर किसी एक धर्म , किसी एक पंथ या किसी एक मार्ग का गुलाम नहीं। अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने से ज्यादा अप्रासंगिक मान्यता कोई और हो हीं नहीं सकती । परम तत्व को किसी एक धर्म या पंथ में बाँधने की कोशिश करने वालों को ये ज्ञात होना चाहिए कि ईश्वर इतना छोटा नहीं है कि उसे किसी स्थान , मार्ग , पंथ , प्रतिमा या किताब में बांधा जा सके। वास्तविकता तो ये है कि ईश्वर इतना विराट है कि कोई किसी भी राह चले सारे के सारे मार्ग उसी की दिशा में अग्रसित होते हैं।


किस राह के हो अनुरागी ,
देहासक्त हो या कि त्यागी?
जीवन का क्या हेतु परंतु ,
चित्त में इसका भान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

है प्रयास में अणुता तो क्या,
ना राह में ऋजुता तो क्या?
प्रभु की अभिलाषा में किंतु ,
ना हो लघुता ध्यान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

कितनी प्रज्ञा धूमिल हुई है ?
अंतस्यंज्ञा घूर्मिल हुई है ?
अंतर पथ अवरोध पड़ा ,
कैसा किंतु अनुमान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

बुद्धि शुद्धि या तय कर लो ,
वाक्शुद्धि चित्त लय कर लो ,
दिशा भ्रांत हो बैठो ना मन,
संशुद्धि संधान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

कर्मयोग कहीं राह सही है ,
भक्ति की कहीं चाह बड़ी है,
जिसकी जैसी रही प्रकृत्ति ,
वैसा हीं निदान रहे।
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, April 17, 2022

सत्य भाष

सत्य भाष पर जब भी मानव,
देता रहता अतुलित जोर।
समझो मिथ्या हुई है हावी,
और हुआ है सत कमजोर।

अजय अमिताभ सुमन

Friday, April 15, 2022

क्यों सत अंतस दृश्य नहीं

सृष्टि के कण कण में व्याप्त होने के बावजूद परम तत्व, ईश्वर  या सत , आप उसे जिस भी नाम से पुकार लें, एक मानव की अंतर दृष्टि में क्यों नहीं आता? सुख की अनुभूति प्रदान करने की सम्भावना से परिपूर्ण होने के बावजूद ये संसार , जो कि परम ब्रह्म से ओत प्रोत है , आप्त है ,व्याप्त है, पर्याप्त है, मानव को अप्राप्त क्यों है? सत जो कि मानव को आनंद, परमानन्द से ओत प्रोत कर सकता है, मानव के लिए संताप देने का कारण कैसे बन जाता है?  इस गूढ़ तथ्य पर विवेचन करती हुई  प्रस्तुत है मेरी कविता "क्यों सत अंतस दृश्य नहीं?"

क्यों सत अंतस दृश्य नहीं,
क्यों भव उत्पीड़क ऋश्य मही?   
कारण है जो भी सृष्टि में, 
जल, थल ,अग्नि या वृष्टि में।
..............
जो है दृष्टि में दृश्य मही, 
ना वो सत सम सादृश्य कहीं। 
ज्यों मीन रही है सागर में, 
ज्यों मिट्टी होती गागर में।
...............
ज्यों अग्नि में है ताप फला, 
ज्यों वायु में आकाश चला।
ज्यों कस्तूरी ले निज तन में, 
ढूंढे मृग इत उत घन वन में। 
...............
सत गुप्त कहाँ अनुदर्शन को, 
नर सुप्त किन्तु विमर्शन को।
अभिदर्शन का कोई भान नहीं, 
सत उद्दर्शन का ज्ञान नहीं।
................
नीर भांति लब्ध रहा तन को,
पर ना उपलब्ध रहा मन को।
सत आप्त रहा ,पर्याप्त रहा, 
जगव्याप्त किंतु अनवाप्त रहा।
.................
ना ऐसा भी है कुछ जग में, 
सत से विचलित हो जो जग में।
सत में हीं सृष्टि दृश्य रही,
सत से कुछ भी अस्पृश्य नहीं।
.................
मानव ये जिसमे व्यस्त रहा,
कभी तुष्ट रुष्ट कभी त्रस्त रहा।
माया साया मृग तृष्णा थी, 
नर को ईक्छित वितृष्णा थी।
................. 
किस भांति माया को जकड़े , 
छाया को हाथों से पकड़े?
जो पार अवस्थित ईक्छा के, 
वरने को कैसी दीक्षा ले?
.................. 
मानव शासित प्रतिबिम्ब देख, 
किंतु सत सत है बिम्ब एक।
मानव दृष्टि में दर्पण है, 
ना अभिलाषा का तर्पण है।
..................
फिर सत परिदर्शन कैसे हो , 
दर्पण में क्या अभिदर्शन हो ?
इस भांति सत विमृश्य रहा, 
अपरिभाषित अदृश्य रहा।
...................
अजय अमिताभ सुमन: 
सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, April 10, 2022

साँप की हँसी होती कैसी

जब देश के किसी हिस्से में हिंसा की आग भड़की हो , अपने हीं देश के वासी अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए हो  और जब अपने हीं देश मे पराये बन गए इन बंजारों की बात की जाए तो क्या किसी व्यक्ति के लिए ये हँसने या आलोचना करने का अवसर हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को जो इन परिस्थितियों में भी विष वमन करने से नहीं चूकते  क्या इन्हें  सर्प की उपाधि देना अनुचित है ? ऐसे हीं महान विभूतियों के चरण कमलों में सादर नमन करती हुई प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "साँप की हँसी होती कैसी"?

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साँप की हँसी होती कैसी,
शोक मुदित पिशाच के जैसी।
जब देश पे दाग लगा हो,
रक्त पिपासु काग लगा हो।
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जब अपने हीं भाग रहे हो,
नर अंतर यम जाग रहे हो।
नारी के तन करते टुकड़े,
बच्चे भय से रहते अकड़े।
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जब अपने घर छोड़ के भागे,
बंजारे बन फिरे अभागे।
और इनकी बात चली तब,
बंजारों की बात चली जब।
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तब कोई जो हँस सकता हो,
विषदंतों से डंस सकता हो।
जिनके उर में दया नहीं हो,
ममता करुणा हया नहीं हो।
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जो नफरत की समझे भाषा,
पीड़ा में वोटों की आशा।
चंड प्रचंड अभिशाप के जैसी,
ऐसे नरपशु आप के जैसी।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, April 3, 2022

बुद्ध और आपमें कौन सही

भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी आम लोगों के बीच अहिंसा का प्रचार करते थे। महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि जब कोई आपको थप्पड़ मारता है तो आप जवाबी कार्रवाई करने के बजाय आप अपना दूसरा गाल भी आगे कर दें। महात्मा गांधी प्रत्येक के भीतर वास करने वाले ईश्वर में दृढ़ता से विश्वास करते थे। उनका मानना था यदि आप अपने स्वयं के अहिंसक विश्वासों में विश्वास करते हैं तो आप अपने विरोधी को मित्र में बदल सकते हैं।

उनकी सत्य और अहिंसा की वाही नीति थी, जिसने पूरी भारतीय आबादी को झकझोर कर रख दिया और अंततः उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के आन्दोलन का नेतृत्व किया। भगवान बुद्ध और गांधी जी नक्शे कदम पर चलना आज भी प्रासंगिक है? क्या दयालु और करुणावान बनकर आज भी किया जा सकता है ?

गौतम बुद्ध ने दिखाया कि कैसे प्रेम, दया और अहिंसा का मार्ग किसी व्यक्ति के हृदय को बदल सकता है। अंगुलिमाल एक क्रूर डाकू था। वह घने जंगल में रहता था और सभी आने जाने वालों को आतंकित किया करता था। वह अपने वन क्षेत्र में आने वाले सभी लोगों को लूटता था, और उन्हें मारकर उनकी उंगली काटकर माला में डाल देता था। उसके भय से लोगों ने उस क्षेत्र में यात्रा करना बंद कर दिया था ।

जब भगवान बुद्ध ने यह सुना तो उन्होंने उस वन में जाने का निश्चय किया जहां अंगुलिमाल ठहरा हुआ था । उनके सभी शिष्यों ने उन्हें उस क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की जहां अंगुलिमाल रहता था , लेकिन बुद्ध ने उनकी बात नहीं मानी और जंगल के उस क्षेत्र में आगे बढ़ते रहे जहाँ पे अंगुलिमाल रहता था ।

जब अंगुलिमाल गौतम बुद्ध से मिला तो वो गौतम बुद्ध के व्यक्तित्व से निकले प्रेम और स्नेह की आभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। उनकी मात्र उपस्थिति से अंगुलिमाल का हृदय बदल गया और उसने न केवल गौतम बुद्ध को नमन किया, बल्कि अपनी मृत्यु तक बुद्ध द्वारा सुझाए गए करुणा और प्रेम के मार्ग का अनुसरण किया।

महात्मा गांधी ने अपने पूरे जीवन में न केवल अहिंसा, प्रेम और करुणा का उपदेश दिया, बल्कि वे इसके जीवंत उदाहरण भी बने। समस्या यह है कि बुद्ध या गांधी द्वारा सुझाया गया मार्ग प्रशंसनीय तो है, लेकिन इसे अपने जीवन में अमल में लाना अत्यंत कठिन है।

एक सामान्य व्यक्ति के पास उतनी आध्यात्मिक ऊंचाई नहीं होती जितनी कि बुद्ध या गांधी की थी। उनमें एक अलग आभा थी। उनकी मौजूदगी ही किसी का भी दिल बदलने के लिए काफी थी। अहिंसा का मार्ग बुद्ध या गांधी जैसे व्यक्तियों पर लागू हो सकता है। लेकिन आम व्यक्ति के लिए क्या रास्ता है?

स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं के आधार पर उनके साथ अलग व्यवहार करते थे। स्वामी प्रेमानंद बहुत मृदुभाषी थे और कभी भी किसी से बहस नहीं करते थे क्योंकि उन्होंने स्वामी रामकृष्ण परमहंस की इस शिक्षा को आत्मसात कर लिया था कि ईश्वर सबके हृदय में निवास करता है। प्रेमानंद ने कभी किसी को नाराज नहीं किया।

एक बार काली मंदिर में एक बिच्छू मिला । रामकृष्ण परमहंस ने प्रेमानंद को बुलवाकर बिच्छू को मारकर बाहर फेंकने का निर्देश दिया। परन्तु प्रेमानंद जी ने बिच्छू को जीवित छोड़ दिया और उसे घास में फेंक दिया। इससे रामकृष्ण क्रोधित हो गए। उन्होंने प्रेमानंद को सलाह दी कि यदि भगवान बिच्छू के रूप में प्रकट होते हैं, तो उनके साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए। आप जहरीले सांपों और बिच्छुओं से प्यार नहीं कर सकते।

यह कहानी हमें सिखाती है कि संभावित खतरनाक स्थिति से कैसे निपटा जाए। जब कोई बाघ, शेर और सांपों से घिरे जंगल में फंसे हो, तो क्या अहिंसा और प्रेम का मार्ग चुन सकता है? अगर कोई बाघ, शेर और सांप से प्यार करने लगे तो उसका परिणाम क्या हो सकता है ये आसानी से समझा जा सकता है ।

सवाल ये नहीं है कि ये आदर्श जो की भगवान बुद्ध और महात्मा गाँधी जी द्वारा सुझाये गए अपने आप में उपयोगी है या नहीं ? सवाल ये है कि क्या ये आपके अध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए सहयोगी है ? क्या आप इन शिक्षाओं का अनुपालन करने में समर्थ है ?

महात्मा गांधी और गौतम बुद्ध की शिक्षाओं पर चलकर कोई अपना जीवन नहीं जी सकता। वे लोग ऐसी स्थिति में जीवित रह सकते थे क्योंकि उनकी आभा इतनी मजबूत थी कि ये जानवर भी बुद्ध को नुकसान पहुंचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते थे।

ऐसा कहा जाता है कि महर्षि रमण बाघों के साथ रहते थे। उन्होंने सांपों से भी दोस्ती की। लेकिन, क्या एक सामान्य मनुष्य के लिए ऐसे गुण विकसित करना संभव है? अहिंसा, प्रेम और सहानुभूति के रास्ते पर चलना चाहिए, लेकिन सभी परिस्थितियों में नहीं, जैसा कि ये महान लोग चला करते हैं।

उन्होंने अपना समय ऐसी आध्यात्मिक ऊंचाइयों को विकसित करने और पोषित करने में लगाया। उस ऊंचाई तक पहुंचे बिना उनकी नकल करना खतरनाक है। बुद्ध के मार्ग को समझना सीखना चाहिए और जितना हो सके उस पर चलने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन उसका अक्षरशः पालन तब तक नहीं करना चाहिए जब तक व्यक्ति उस शिखर पर नहीं पहुंच जाता।

Saturday, April 2, 2022

क्या क्या काम बताओगे तुम

मर्यादा पालन करने की शिक्षा लेनी हो तो प्रभु श्रीराम से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। कौन सी ऐसी मर्यादा थी जिसका पालन उन्होंने नहीं किया ? जनहित को उन्होंने  हमेशा निज हित सर्वदा उपर रखा। परंतु कुछ संस्थाएं उनके नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतू कर रही हैं। निजहित को जनहित के उपर रखना उनके द्वारा अपनाये गए आदर्शो के विपरीत है। राम नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतु करने की प्रवृत्ति  के विरुद्ध प्रस्तुत है मेरी कविता "क्या क्या काम बताओगे तुम"।

क्या क्या काम बताओगे तुम, 
राम नाम पे राम नाम पे?
अपना काम चलाओगे तुम, 
राम नाम पे राम नाम पे?
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डीजल का भी दाम बढ़ा है,
धनिया ,भिंडी भाव चढ़ा है।
कुछ तो राशन सस्ता कर दो ,
राम नाम पे, राम नाम पे।
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कहने को तो छोटी रोटी, 
पर खुद पर जब आ जाये।
सिंहासन ना चल पाता फिर , 
राम नाम पे राम नाम पे।
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पूजा भक्ति बहुत भली पर, 
रोजी रोटी काम दिखाओ।
क्या क्या  चुप कराओगे तुम ,
राम नाम पे राम नाम पे।
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माना जनता बहली जाती,
कुछ दिन काम चलाते जाओ।
पर कब तक तुम फुसलाओगे,
राम नाम पे राम नाम पे?
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

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