हिमालय की गोद में, जहाँ गंगा की धारा चट्टानों को चीरती हुई उतरती थी, वहीं ऋषिकेश से कुछ दूर एक शांत आश्रम था। उस आश्रम में मुनि वशिष्ठानंद अपने शिष्यों को आत्मज्ञान का उपदेश देते थे। एक दिन, सांझ के समय जब गंगा की लहरों पर सूर्य की किरणें सुनहरी छाया डाल रही थीं, एक युवा ब्रह्मचारी मुनि के चरणों में आकर बैठा। उसकी आँखों में तीव्र जिज्ञासा थी।
उसने कहा, “गुरुदेव, मैं एक बात जानना चाहता हूँ। जब यह शरीर समाप्त हो जाता है, तब आत्मा कहाँ जाती है? क्या वह स्वर्ग में पहुँचती है, या यमलोक में जाती है, या फिर किसी और लोक में भटकती है?”
मुनि वशिष्ठानंद ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। उन्होंने कहा, “पुत्र, तुम्हारा प्रश्न नदी की गहराई पूछने जैसा है, जब तुम अभी तैरना ही नहीं जानते। पहले यह जानो कि यह नदी कहाँ से बहती है।”
युवा शिष्य ने विनम्र स्वर में कहा, “गुरुदेव, कृपा कर यह रहस्य स्पष्ट करें।”
मुनि बोले, “पहले मैं तुमसे एक प्रश्न पूछूँ। यदि किसी के घर में आग लग जाए, और वह यह जानने में समय बिताने लगे कि आग किस दिशा से आई, किसने लगाई, और किस पदार्थ से लगी— तो क्या उसका घर बच सकेगा?”
शिष्य ने उत्तर दिया, “नहीं गुरुदेव, जब तक वह आग बुझाएगा नहीं, सब भस्म हो जाएगा।”
मुनि बोले, “वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है, यह प्रश्न उस जली हुई गृहस्थी की तरह है। जब तक तुम यह नहीं समझते कि जीवन में आग क्यों लगती है— तब तक कोई उत्तर तुम्हें शांति नहीं देगा।”
उन्होंने कुछ क्षण मौन रहकर कहा, “जीवन एक निरंतर प्रवाह है। यह शरीर मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। जब यह मिट्टी में मिल जाता है, तो यह अंत नहीं, केवल परिवर्तन है। आत्मा स्थिर सत्ता नहीं, चेतना की धारा है— जो कर्मों और संकल्पों से चलती है।”
शिष्य ने पूछा, “गुरुदेव, क्या इसका अर्थ है कि मैं मृत्यु के बाद वही नहीं रहूँगा?”
मुनि ने गंगा की ओर इशारा किया। “देखो इस नदी को। क्या तुम कह सकते हो कि यह वही जल है जो सुबह बह रहा था? नहीं। फिर भी यह वही गंगा है। जल बदलता है, पर धारा बनी रहती है। वैसे ही, देह बदलती है, पर चेतना की धारा चलती रहती है।”
शिष्य ने गहरी सांस ली और कहा, “गुरुदेव, यदि चेतना चलती रहती है तो वह कहाँ जाती है?”
मुनि मुस्कुराए, “जहाँ उसके कर्म उसे ले जाते हैं। कर्म ही वह नाव है जो चेतना को एक तट से दूसरे तट तक ले जाती है। अच्छे कर्म शांत तट तक पहुँचाते हैं, बुरे कर्म अशांत लहरों में भटकाते हैं।”
उन्होंने आगे कहा, “कल्पना करो दो यात्री हैं। दोनों ने अपने थैले में वस्तुएँ भरीं। एक ने दया, सत्य और सेवा भरी। दूसरे ने छल, क्रोध और अहंकार। जब मृत्यु रूपी सराय आई, तो पहले यात्री ने अपने पुण्य के आधार पर शांति का लोक पाया। दूसरा यात्री अपने पापों के बोझ से अंधकार में गिर गया। यही पुनर्जन्म का रहस्य है। आत्मा कहीं जाती नहीं, बस कर्म की धारा उसे नए रूप में प्रवाहित कर देती है।”
शिष्य ने सिर झुकाकर पूछा, “तो क्या स्वर्ग और नरक भी हैं, गुरुदेव?”
मुनि ने कहा, “हाँ पुत्र, हैं— पर वे स्थान नहीं, अवस्थाएँ हैं। जब मन लोभ, द्वेष और मोह से भरा होता है, तब वही चेतना अंधकार में गिरती है। जब मन करुणा और संतोष से भरा होता है, तब वह उजाले में खिलता है। नरक और स्वर्ग मन के भीतर हैं, बाहर नहीं।”
थोड़ी देर तक मौन छाया रहा। गंगा की लहरें जैसे उस मौन को संगीतमय कर रही थीं।
मुनि ने आगे कहा, “मुक्ति का अर्थ है— इस प्रवाह को रोक देना। जब ज्ञान का सूर्य उदित होता है, तब अज्ञान की छाया मिट जाती है। तब न मृत्यु शेष रहती है, न जन्म। केवल शांति— परम शांति।”
शिष्य ने गद्गद स्वर में कहा, “गुरुदेव, यह कर्म कैसे निष्क्रिय होते हैं?”
मुनि ने एक कथा कही—
“एक बार दो किसान थे। एक किसान ने अपने खेत को नित्य जल दिया, खरपतवार निकाली, और देखभाल की। दूसरा आलसी था, उसने बीज तो बो दिए पर पानी न दिया। पहले किसान का खेत हरा-भरा हुआ, दूसरे का बंजर। वैसे ही, यदि तुम अपने मन को लोभ और मोह से सींचोगे तो जन्म का चक्र बढ़ेगा। यदि तुम उसे वैराग्य और विवेक से सुखाओगे तो कर्म निष्क्रिय हो जाएँगे।”
शिष्य मौन बैठा रहा। फिर धीरे से पूछा, “गुरुदेव, जब यह सब मिट जाएगा तो मैं कहाँ रहूँगा?”
मुनि ने कहा, “जब दीपक की लौ बुझती है, तो क्या तुम कहते हो कि लौ कहीं चली गई? नहीं। वह बस शांत हो गई। वैसे ही जब चेतना अपने कर्मों की जड़ काट देती है, तब वह ना जाती है ना लौटती है— बस मुक्त हो जाती है। यही मुक्ति है, यही समाधि है।”
रात का समय हो चला था। गंगा की लहरें मद्धम स्वर में बह रही थीं। आकाश में पूर्णिमा का चाँद था। मुनि वशिष्ठानंद ने कहा, “पुत्र, मृत्यु से डरना मत। वह जीवन का दूसरा द्वार है। पर उससे पहले जीवन को जानो। यदि तुम हर क्षण सजगता, करुणा और सत्य से जियोगे तो मृत्यु तुम्हारे लिए भय नहीं, विश्राम बन जाएगी।”
युवा ब्रह्मचारी ने नम्रता से कहा, “गुरुदेव, अब मैं समझ गया— प्रश्न यह नहीं कि मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है, बल्कि यह कि मैं यहाँ रहते हुए अपने मन को कितना निर्मल बना सकता हूँ।”
मुनि मुस्कुराए और बोले, “यही ब्रह्मज्ञान का प्रारंभ है। जब यह समझ दृढ़ हो जाती है, तब व्यक्ति देखता है कि जीवन और मृत्यु केवल लहरें हैं— सागर तो एक ही है।”
रात के उस मौन में, गंगा का स्वर और मुनि की वाणी मिलकर जैसे ब्रह्म की गूंज बन गए। शिष्य ध्यान में बैठ गया। उसके भीतर पहली बार मृत्यु नहीं, बल्कि अमरता का अनुभव जागा।
No comments:
Post a Comment