Wednesday, November 29, 2023

बह रही है ज्ञान गंगा

बह रही है ज्ञान गंगा, तू भी इसमें हाथ धो लेहै

 तेरी खिदमत में कितने, डिग्री की दुकान खोले

भेद नहीं करती ये गंगा, कला व विज्ञानं में
कोई मेहनत की जरुरत, है नहीं स्नान में
ले ले प्रतिष्ठा डूब दे दे गंग के प्रधान बोले
है तेरी खिदमत में कितने, डिग्री की दुकान खोले
गंग तट पर भीर बहुत है पर न तू घबराना
खोल पाप की गठरी वही पञ्च डूब दे आना
जा के विमला गंग तरन की थोरी सि सामान लेले
है तेरी खिदमत में कितने, डिग्री की दुकान खोले
जब प्रतिष्ठा की डिग्रीया तेरे हाथ आएगी
माँ शारदे तेरी प्रगति देख कर जल जाएगी
बहुत कर चुकी फेल वो सबको अब तो थोरा वो भी रोले
है तेरी खिदमत में कितने, डिग्री की दुकान खोले;

पंकज बनगमिया

Sunday, November 26, 2023

क्यों पढ़ा नहीं भूगोल?


पापा पूछे रिंकू बेटा, 

मचा हुआ क्या खेल?


गणित परीक्षा में कर आया, 

तू क्यों अव्वल फेल?


रिंकू बोला अजब कहानी, 

पर पापा मुझको बतलानी,


टीचर से रिश्ता मेरा ,

ऐसा वैसा कैसा समझानी।


प्रश्न पत्र में टीचर ने थे, 

ऐसे प्रश्न बिठाए,


काम ना आती अपनी बुद्धि , 

कैसे जुगत भिड़ाए।


गुस्से में हमने भी आकर , 

क्या क्या था लिख डाला,


एक प्रश्न के चार थे उत्तर , 

सबका सब टिक डाला।


गणित पत्र में वही प्रश्न थे , 

उनको जो भाता था,


उत्तर में लिख डाले मैंने , 

जो मुझको आता था।


मैथ के पेपर में धरती का , 

नक्शा डाला गोल,


टीचर की हीं गलती थी क्यों, 

पढ़ा नहीं भूगोल?


अजय अमिताभ सुमन 

Sunday, November 19, 2023

परम तत्व का हूँ अनुरागी

ना पद मद मुद्रा परित्यागी,
परम तत्व का पर अनुरागी।

इस जग का इतिहास रहा है,
चित्त चाहत का ग्रास रहा है।

अभिलाषा अकराल गहन है,
मन है चंचल दास रहा है।

सरल नहीं भव सागर गाथा, 
मूलतत्व की जटिल है काथा।

परम ब्रह्म चिन्हित ना आशा, 
किंतु मैं तो रहा हीं प्यासा।  

मृगतृष्णा सा मंजर जग का,
अहंकार खंजर सम रग का।

अक्ष समक्ष है कंटक मग का, 
किन्तु मैं कंट भंजक पग का।

पोथी ज्ञान मन मंडित करता,
अभिमान चित्त रंजित करता।

जगत ज्ञान मन व्यंजित करता, 
आत्मज्ञान भ्रम खंडित करता।

हर क्षण हूँ मैं धन का लोभी,
चित्त का वसन है तन का भोगी।

ये भी सच अभिलाषी पद का ,
जानूं मद क्षण भंगुर जग का।

पद मद हेतु श्रम करता हूँ,
सर्व निरर्थक भ्रम करता हूँ।

जग में हूँ ना जग वैरागी ,
पर जग भ्रम खंडन का रागी।

देहाशक्त मैं ना हूँ त्यागी,
परम तत्व का पर अनुरागी।

अजय अमिताभ सुमन 

Saturday, November 11, 2023

मृदा मात्र गुबार नहीं हूँ

पंचमहाभूत सार नहीं हूँ, 
मृदा मात्र गुबार नहीं हूँ।

माता गर्भाशय अभ्यन्तर,
भ्रूण स्थापित रहा निरंतर।

झूले में मैं हीं खिलता था, 
कदम बढ़ाते गिर पड़ता था। 

मुझमें हीं थी हँसी ठिठोली,
बाल्य काल के वो हमजोली।

मैं हीं तो था तरुणाई में,
यौवन की उस अंगड़ाई में। 

दिवा स्वप्न मन को आते थे,
उड़न खटोले तन भाते थे।

प्रौढ़ उम्र में तन के ताने,
बुढ़ापे में शकल ठिकाने।

बचपन से पचपन तक अबतक,
बदल रहा तन मेरा अबतक।

भ्रूण वृद्ध मन का सपना है,
रूप रंग तन का गहना है।

ये तन मन हीं मात्र नहीं हूँ,
बदल रहा जो गात्र नहीं हूँ।

तन मन से अति दूर तदनंतर,
मैं अबदला रहा अनंतर।

अजय अमिताभ सुमन 

Saturday, November 4, 2023

अनुसंधान सत का

कलतक जो जीवन जाना था,
है जीवन क्या अनजाना था। 
छद्म तथ्य  से  लड़ते लड़ते,
पथ  अन्वेषण  करते करते,
दिवस साल अतीत हुए कब,
हफ्ते मास व्यतीत  हुए जब,
जाना जो अब तक जाना था,
वो सत ना था पहचाना  था।
इस जग का तो कथ्य यही है,
जग  अंतर  नेपथ्य यही है,
जिसकी यहाँ प्रतीति होती ,
ह्रदय रूष्ट कभी प्रीति होती।
नयनों को  दिखता जो पग में,
कहाँ कभी टिकता वो जग में।
जग परिलक्षित बस माया है,
स्वप्न दृश्य सम भ्रम काया है,
मरू  में  पानी  दृष्टित  जैसे,
चित्त  में  सृष्टि  सृष्टित  वैसे,
जग भ्रम है अनुमान हो कैसे?
सत का  अनुसंधान  हो कैसे?

अजय अमिताभ सुमन 

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