विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
कर्मभूमि पर चलता दंगल,
जीवन रोटी का एक जंगल।
जंग जसने रोटी से ठानी,
याद दिला दे उसको नानी।
बेअसर सब गीत चालीसा,
टोना टोटका कोई फंडा।
विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
जो पंगा ले आफत आए,
सोते-जगते शामत छाए।
कभी सांप को रस्सी जाने,
कभी नीम को लस्सी माने।
माथे की नसें सब फूलीं,
आंखों में तारे हमजोली ।
कोई उपाय ना कोई ढंग,
किस भांति पेट भरे संग!
सोचो कर के कोई धंधा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी रोटी चले हथौड़े,
माथे पर अब बम ये फोड़े।
उड़ते बाल बचे जो थोड़े,
बने कबूतर, सब ही छोड़े।
कंघी कंघा का क्या काम?
जब माथा बने गोल मैदान!
तेल चमेली, रजनी गंधा,
हार गए रोटी का फंदा ।
बस माथे पर चमके चंदा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी रोटी सबको भाए,
जो ना पाए वो पछताए।
जो पाए वो भी घबराए,
ना छुट्टी ना चैन समाए।
छुट्टी मांगी आफत आई,
छुट्टी मिली शामत छाई।
वेतन आया तो घट के हीं
मूड खुशी का है फट के हीं।
यही गम , यही है फंदा,
ना लो रोटी से तुम पंगा।
रोजी रोटी के चक्कर में,
जीने के हीं घन चक्कर में ,
कैसे-कैसे रूप बदलते ।
बीन बजाते बस हम रहते,
भैंस चुगाली करती रहती।
कैसे-कैसे रूप बदलते ।
बीन बजाते बस हम रहते,
भैंस चुगाली करती रहती।
ना कुछ कहती सुनती रहती ,
ऑफिस में राग भैरवी गाए,
बॉस पीछे से गुस्सा लाए।
माथे में ताले लग जाते,
सब विचार पंखे खा जाते।
बुद्धि मंदी, बंदा मंदा,
ना लो भाई इससे पंगा।
ना लो भाई इससे पंगा।
या दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे प्यारा मासिक भत्ता।
सपनों में आता सैलरी स्लिप,
जागो तो गायब वो चिप-चिप।
आंखो पर मोटा चश्मा खिलता,
चालीस में अस्सी सा दिखता।
वेतन का बबुआ ऐसा चक्कर,
पूरा दिमाग बने घनचक्कर।
कमर टूटी, हिला है कंधा,
ना लो भाई इससे पंगा।
विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा!
ऑफिस में राग भैरवी गाए,
बॉस पीछे से गुस्सा लाए।
माथे में ताले लग जाते,
सब विचार पंखे खा जाते।
बुद्धि मंदी, बंदा मंदा,
ना लो भाई इससे पंगा।
ना लो भाई इससे पंगा।
या दिल्ली हो या कलकत्ता,
सबसे प्यारा मासिक भत्ता।
सपनों में आता सैलरी स्लिप,
जागो तो गायब वो चिप-चिप।
आंखो पर मोटा चश्मा खिलता,
चालीस में अस्सी सा दिखता।
वेतन का बबुआ ऐसा चक्कर,
पूरा दिमाग बने घनचक्कर।
कमर टूटी, हिला है कंधा,
ना लो भाई इससे पंगा।
विजयी विश्व है चंडा डंडा,
ना लो रोटी से तुम पंगा!
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