न्यायालय की दीवारें
ऊँची हैं, ठंडी हैं,
वहाँ हर कोई बराबर है —
बस फर्क इतना है
कि कोई बराबरी के लिए
बीस साल तक खड़ा रहता है,
और कोई
सीधे चेंबर का दरवाज़ा खोल देता है।
कहा जाता है —
न्याय अंधा होता है।
अब तो वह
चश्मा लगाकर भी फाइलें नहीं देख पाता।
कागज़ पीले पड़ चुके हैं,
सील की स्याही सूख चुकी है,
पर तारीख़ अब भी गीली है।
गवाह कहता है —
“मैंने सब अपनी आँखों से देखा।”
जज मुस्कुराते हैं —
“बताओ, कब देखा था?”
गवाह चुप हो जाता है,
कैलेंडर पलटता है,
और धीरे से कहता है —
“जब मेरे बाल काले थे, साहब।”
यहाँ समय का कोई अर्थ नहीं।
यहाँ मिनट नहीं गिने जाते,
यहाँ पीढ़ियाँ गिनी जाती हैं।
बाप केस करता है,
बेटा तारीख़ें लेता है,
पोता फैसला सुनता है —
वो भी तब,
जब खेत बिक चुका होता है,
और पता चलता है
कि ज़मीन अब किसी मॉल के नीचे है।
फैसला आता है —
“न्याय हुआ।”
और लोग तालियाँ नहीं बजाते,
बस खामोश खड़े रहते हैं,
जैसे किसी ने
लंबे सपने से जगाया हो
बिना वजह।
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