Monday, October 20, 2025

स्थायी आदेश

 अब न्याय न काली गाउन पहनता है,

न हथौड़ा उठाता है।
अब वह सड़क किनारे चाय पीते मज़दूर के पास बैठा है,
जो अपने दिन की कमाई में भी
बराबरी का हिसाब रखता है।

वह मंदिरों के बाहर नहीं,
कस्बे की पुरानी लाइब्रेरी में दिखता है,
जहाँ बच्चे किताबें बदलते हैं,
बिना जात पूछे, बिना दस्तख़त किए।

कानून अब भी चलता है —
धीरे, पुरानी फाइलों के साथ,
पर न्याय ने नया रास्ता ले लिया है —
वह अब सुनवाई नहीं करता,
वह सुनता है।

वह माँ की झिड़की में है,
जो बच्चे को कहती है — “सही बोलो।”
वह किसान की हथेली में है,
जो आधा अनाज पड़ोसी के घर भेज देता है।
वह बस कंडक्टर के ईमान में है,
जो कहता है — “एक रुपया ज़्यादा मत दो, टिकट का भाव यही है।”

न्याय अब फैसला नहीं सुनाता,
वह खुद फैसला बन गया है।
न उसे अदालत चाहिए, न तारीख़ें,
बस थोड़ा सा हृदय चाहिए,
जहाँ सत्य अब भी जगह पा सके।

कभी-कभी, जब रात गहरी होती है,
पुरानी अदालतों की दीवारें उसे पुकारती हैं —
“कहाँ हो?”
वह हवा में कहता है —
“मैं यहाँ हूँ, उन बच्चों के बीच,
जो अब सच बोलने से डरते नहीं।”

और उस पल,
धरती पर पहली बार
एक ऐसा सन्नाटा उतरता है
जो अन्याय का नहीं, न्याय का होता है।

यह वही न्याय है
जो कभी गाउन में था,
फिर भगवान के दरबार में गया,
फिर आत्मा की अपील बना,
और अब —
मानवता के हृदय में स्थायी आदेश के रूप में टँक गया है।

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