Saturday, December 19, 2020

जीव और जगत

जीव  तुझमें  और जगत में, है  फरक  किस बात  की,
ज्यों  थोड़ा  सा  फर्क शामिल,मेघ और  बरसात   की।

वाटिका    विस्तार    सारा ,  फूल   में   बिखरा हुआ,
त्यों  वीणा   का  सार   सारा,  राग  में   निखरा  हुआ।

चाँदनी   है  क्या  असल  में ,  चाँद  का   प्रतिबिंब  है,
जीव    की    वैसी    प्रतीति , गर्भ   धारित   डिम्ब  है।

या   रहो   तुम    धुल बन कर ,कालिमा कढ़ते  रहो,
या  जलो  तुम  मोम बनकर  , धवलिमा गढ़ते  रहो।

पर   परिक्षण  में   लगो   या,  स्वयम   के  उत्थान में,
या निरिक्षण निज का हो चित ,रत रहे निज त्राण में।

माँग तेरी क्या परम से , या   कि  दिन  की ,रात  की,
जीव  तुझमें  और  जगत में,बस फरक इस बात की।

Wednesday, December 16, 2020

गेहूँ के दाने

 


गेहूँ के दाने

गेहूँ      के   दाने    क्या   होते,
हल  हलधर  के परिचय देते,
देते    परिचय  रक्त   बहा  है ,
क्या हलधर का वक्त रहा है।

मौसम   कितना  सख्त रहा है ,
और हलधर कब पस्त रहा है,
स्वेदों के  कितने मोती बिखरे,
धार   कुदालों   के  हैं निखरे।

खेतों    ने  कई   वार  सहें  हैं,
छप्पड़  कितनी  बार ढ़हें  हैं,
धुंध   थपेड़ों   से   लड़   जाते ,
ढ़ह ढ़ह कर पर ये गढ़ जाते।

हार   नहीं   जीवन  से  माने ,
रार   यहीं   मरण   से   ठाने,
नहीं अपेक्षण भिक्षण का है,
हर डग पग पे रण हीं माँगे।

हलधर दाने सब लड़ते हैं,
मौसम  पे  डटकर अढ़ते हैं,
जीर्ण  देह दाने भी क्षीण पर,
मिट्टी में जीवन  गढ़तें हैं।

बिखर  धरा पर जब उग  जाते ,
दाने    दुःख  सारे    हर जाते,
जब    दानों  से   उगते   मोती,
हलधर के सीने   की ज्योति।

शुष्क होठ की प्यास  बुझाते ,
हलधर   में   विश्वास  जगाते,
मरु   भूमि   के  तरुवर  जैसे,
गेहूँ       के     दाने    हैं   होते।


अजय अमिताभ सुमन 


Thursday, December 10, 2020

विलय


श्वांसों का लय जीवन  में तय है,
पर  क्या नर  का  ये परिचय है?

जन्म  मरण  क्यों , ज्ञात नही है,
ज्ञान  अस्त  कोई  प्रात  नहीं है।

मन  का  बस विस्तार अजय है,
हे   मानव   ये    कैसा   क्षय  है?

अकारण    मन   संचय  आतुर,
हृदय फलित विषयी मन नासूर।

निज  बंधन  व्यापार  बढ़ा  कर,
तन पर मन पर बोझ चढ़ा  कर।

क्या हासिल अर्जित कर लोगे?
नाम  थोड़ा   संचित कर लोगे।

इस  नाम का  मतलब  है क्या?
देखो  मन  का करतब है  क्या?

सोचो   कैसे   मन   आप्त  हो,
दूर   अंधेरा   त्राण   प्राप्त  हो।

जब तक मन  के पार ना जाओ,
ना निज का परिचय कर पाओ।

तब तक क्या रखा जग जय में,
जीवन तो निज मन के क्षय  में।

अजय अमिताभ सुमन

Friday, December 4, 2020

मुल्क

जाति , धर्म, मजहब की पहचान  भी रखो,
अल्लाह जेहन में ठीक ,भगवान भी रखो।

एक  बाग़ किसी फूल के बाप का नहीं,
गुलाब उड़हुल ठीक है आम भी रखो।

पर ये क्या बात है  गली , नुक्कड़ एक से,
एक सी पोशाक एक सा मकान भी रखो।

दुनिया ये चीज ठीक है सच से  चलती नहीं,
झूठ है मुकम्मल पर थोड़ा ईमान भी रखो।

खुश हो रहे हो ठीक है  तुम जीत की जश्न में,
औरों की हार का का थोड़ा सा मान भी रखो।

ऐसे  हीं  ना राष्ट्र  कोई थोड़े  ना चलता है,
जेहन में मुल्क अपना हिंदुस्तान भी रखो।

अजय अमिताभ सुमन

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