एक दिन, बहुत समय बाद,
न्याय ने गाउन उतारा,
विग उतारी, हथौड़ा रख दिया,
और कहा —
“चलो, ज़रा नीचे चलते हैं,
देखें अब इंसान कैसा है।”
वह धरती पर उतरा —
किसी जज की तरह नहीं,
बस एक साधारण आदमी की तरह —
माथे पर पसीना, जेब में बस उम्मीद।
पहला दृश्य —
एक अदालत, जहाँ तारीख़ें पंखुड़ियों की तरह बिखरी थीं।
लोग कतार में थे —
किसी को वकील की फीस भारी लगी,
किसी को सच बोलना।
क्लर्क ने उसे देखा, बोला —
“तुम्हारा केस कौन-सा नंबर है?”
न्याय मुस्कुराया — “मेरा तो कोई केस नहीं,
बस सुनवाई की तलाश है।”
वह आगे बढ़ा —
एक सरकारी दफ्तर में, जहाँ
हर फ़ाइल पर लिखा था — “न्याय लंबित”।
वह बोला — “कितनी देर और?”
दफ्तर हँसा —
“जब तक लोग सच से ज़्यादा स्टांप पेपर पर भरोसा करेंगे।”
फिर वह भीड़ में चला गया —
जहाँ लोग बहस कर रहे थे —
“कानून क्या कहता है?”
पर कोई नहीं पूछ रहा था —
“इंसान क्या कहता है?”
न्याय थक गया।
बैठ गया एक पेड़ के नीचे —
जहाँ एक बच्ची खेल रही थी,
मिट्टी से गुड़िया बना रही थी,
और उन्हें बराबर बाँट रही थी।
न्याय ने पूछा — “क्यों?”
बच्ची बोली —
“क्योंकि सबको थोड़ा-थोड़ा मिलना चाहिए।”
न्याय रो पड़ा।
इतने बरसों बाद
उसे पहली बार
फैसले में सच्चाई मिली।
वह उठा,
आसमान की ओर देखा,
और धीरे से बोला —
“मैं वापस नहीं जाऊँगा।
अब से न्याय गाउन में नहीं,
बच्चे की मुस्कान में रहेगा।”
तभी बादलों ने दस्तावेज़ मोड़े,
तारे गवाही देने लगे,
और धरती ने कहा —
“आख़िरकार, सुनवाई पूरी हुई।”
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