Saturday, July 16, 2022

कैसे बना दुर्योधन का शरीर वज्र का


महाभारत के अंतिम पल में जब भीम और दुर्योधन के बीच  निर्णायक युद्ध चल रहा था तब भीम की अनगिनत कोशिशों के बावजूद दुर्योधन के शरीर को कोई भी हानि नहीं पहुंच रही थी। भीम द्वारा दुर्योधन के शरीर पर गदा से बार बार प्रहार करने के बावजूद दुर्योधन का शरीर जस का तस बना हुआ था।  इसका कारण ये था कि दुर्योधन के शरीर के कमर से ऊपर का हिस्सा वज्र की भांति मजबूत था।

जब भीम दुर्योधन को किसी भी प्रकार हरा नहीं पा रहे थे तब भगवान श्रीकृष्ण द्वारा निर्देशित किए जाने पर युद्ध की मर्यादा का उल्लंघन करते हुए छल द्वारा भीम ने  दुर्योधन की जांघ पर प्रहार किया जिस कारण दुर्योधन घायल हो गिर पड़ा और अंततोगत्वा उसकी मृत्यु हो गई। प्रश्न ये उठता है कि आम मानव का शरीर तो वज्र का बना नहीं होता , फिर  दुर्योधन का शरीर वज्र का कैसे बन गया था? उसका शरीर वज्रधारी किस प्रकार बना?

आम किदवंती है कि जब महाभारत का युद्ध अपने अंतिम  दौर में चल रहा था और कौरवों में केवल दुर्योधन हीं बच गया था तब कौरवों की माता गांधारी ने अपने बचे हुए एकमात्र पुत्र दुर्योधन की जान बचाने के लिए उससे कहा वो उनके सामने निर्वस्त्र होकर आ जाये।

किदवंती ये कहती हैं की दुर्योधन की माता गांधारी सत्यवती नारी थी। जब उनको ये ज्ञात हुआ कि उनके पति घृतराष्ट्र अंधे हैं, तो उन्होंने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिया।

उनकी सतित्त्व के कारण उनकी आंखों में दिव्य शक्ति आ गई थी। उनकी आंखों में इतनी ऊर्जा समाई हुई थी कि उनकी दृष्टि जिसपर भी पड़ती, वो वज्र की भांति मजबूत हो जाता। माता गांधारी अपनी इसी दिव्य शक्ति का उपयोग कर दुर्योधन का शरीर वज्र का बनाना चाहती थी। 

इसी उद्देश्य से माता गांधारी ने दुर्योधन को अपने सामने पूर्ण रूप से निर्वस्त्र होकर आने को कहा था ताकि दुर्योधन का शरीर पूर्ण रूप से वज्र की तरह मजबूत हो जाए और उसपर किसी भी भांति के अस्त्रों या शस्त्रों का प्रभाव न हो सके। 

ऐसा माना जाता है की अपनी माता की बात मानकर दुर्योधन नग्न अवस्था में हीं अपनी माता गांधारी से मिलने चल पड़ा था। परन्तु मार्ग में ही दुर्योधन की मुलाकात श्रीकृष्ण से हुई। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के साथ इस तरीके से मजाक किया कि दुर्योधन पूर्ण नग्न अवस्था में अपनी माता के पास नहीं जा सका।

ऐसा कहा जाता है कि जब अपनी माता की आज्ञानुसार दुर्योधन जा रहा था तो  भगवान श्रीकृष्ण ने उसे रास्ते में हीं रोक लिया और दुर्योधन से मजाक करते हुए  कहा  कि माता गांधारी के पास इस तरह नग्न अवस्था में मिलने क्यों जा रहे हो ? तुम कोई छोटे से बच्चे तो हो नहीं, फिर इस तरह का व्यवहार क्यों?

जब दुर्योधन ने पूरी बात बताई तब श्रीकृष्ण जी ने उसको अपने कमर के निचले हिस्से को पत्तों से ढक लेने के लिए कहा । इससे माता की आज्ञा का पालन भी हो जाएगा और दुर्योधन जग हंसाई  से भी बच जायेगा। दुर्योधन को श्रीकृष्ण की बात उचित हीं लगी।

दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण की छल पूर्ण बातों का शिकार हो गया।  श्रीकृष्ण की सलाह अनुसार उसने अपने कमर के निचले हिस्से को पत्तों से ढँक लिया और उसी अवस्था में माता फिर गांधारी के समक्ष उपस्थित हुआ। 

उसके बाद दुर्योधन की माता ने जैसे हीं अपने नेत्र खोले, उनकी दृष्टि दुर्योधन के नग्न शरीर पर पड़ी जिसकी वजह से उसका शरीर वज्र के समान कठोर हो गया। परंतु उसके जांघ मजबूत नहीं हो सके क्योकि उसकी माता  गांधारी की दृष्टि पत्तों के कारण कमर के निचले भाग पर नहीं पड़ सकी। इस कारण उसके कमर का निचला भाग कमजोर रह गया । इस तरह की कहानी हर जगह मिलती है।

किन्तु जब हम महाभारत का अध्ययन करते हैं , तो दूसरी हीं बात निकल कर आती है । पांडवों के वनवास के दौरान जब दुर्योधन को चित्रसेन नामक गंधर्व ने बंदी बना लिया था और फिर अर्जुन ने चित्रसेन से युद्ध कर दुर्योधन को छुड़ा लिया था , तब दुर्योधन आत्म ग्लानि से भर गया और आमरण अनशन पर बैठ गया।

इस बात का वर्णन महाभारत में घोषयात्रा पर्व के विपक्षाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः में मिलता है। घोषणा पर्व में इस बात का जिक्र आता है कि दुर्योधन के आमरण अनशन पर बैठ जाने के बाद उसको कर्ण , दु:शासन और शकुनी आदि उसे अनेक प्रकार से समझाने की कोशिश करते हैं फिर भी दुर्योधन नहीं मानता।

दुर्योधन की ये अवस्था देखकर दानव घबरा जाते है कि अगर दुर्योधन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो  उनका पक्ष इस दुनिया में कमजोर हो जायेगा। इस कारण वो दुर्योधन को पाताल लोक ले जाते है और उसको नाना प्रकार से समझाने की कोशिश करते हैं । इसका जिक्र कुछ इस प्रकार आता है। दानव दुर्योधन से कहते हैं:

भोः सुयोधन राजेन्द्र भरतानां कुलोहह । 

शूरैः परिवृतो नित्यं तथैव च महात्मभिः ॥ १ ॥ 

अकार्षीः साहस मिदं कस्मात् प्रायोपवेशनम् । 

आरमत्यागी हाधोयाति वाच्यतां चायशस्करीम्॥२॥

दानव बोले-भारतवंश का भार वहन करने वाले महाराज दुर्योधन ! आप सदा शूरवीरों तथा महामना पुरुषों से घिरे रहते हैं। फिर आपने यह आमरण उपवास करने का साहस क्यों किया है? आत्म हत्या करने वाला पुरुष तो अधो गतिको प्राप्त होता है और लोक में उसकी निन्दा होती है, जो अवश फैलाने वाली है॥ 

न हि कार्यविरुडेपु बहुपापेषु कर्मसु । 

मूलघातिपुसश्यन्ते बुद्धिमन्तो भवविधाः ॥ ३ ॥

जो अभी कार्यों के विरुद्ध पढ़ते हों,  जिनमें बहुत पाप भरे हो तथा जो अपना विनाश करनेवाले हो, ऐसे आत्महत्या आदि अक्षम विचार आप-जैसे बुद्धिमान पुरुष को शोभा नहीं देता ॥३॥ 

नियच्छनां मति राजन धर्मार्थसुखनाशिनीम्।

श्रूयतां तु प्रभो तश्यं दिव्यतां चारमनो नृप। 

यशःप्रतापपीयी शां हर्षवर्धनीम् ॥ ४॥

निर्मार्ण च शरीरमा तातो धैर्यमवाप्नुहि ॥ ५ ॥

प्रभो ! एक रहस्य की बात सुनिये । नरेश्वर राजन ! आपका यह आत्म हत्या सम्बन्धी विचार धर्म , अर्थ पराक्रम का नाश करने वाला तथा शत्रुओ का हर्ष बढ़ाने वाला है । 

दुर्योधन को फिर भी निराश होते देख दानव आगे बताते हैं कि दानवों ने अति श्रम करके दुर्योधन का वज्रधारी शरीर भगवान शिव की आराधना करके प्राप्त किया था।  

पूर्वकायश्च पूर्वस्ते निर्मितो वज्रसंचयैः ॥ ६ ॥

राजन् ! पूर्वकाल में हमलोगों ने तपस्या द्वारा भगवान शंकर की आराधना करके आपको प्राप्त किया था । आपके शरीर का पूर्वभाग-जो नाभि से ऊपर है वज्र समूहसे बना हुआ है ।। ६ ॥ 

अस्त्रैरभेद्यः शस्त्रैश्चाप्यधः कायश्च तेऽनघ । 

कृतः पुष्पमयो देव्या रूपतः स्त्रीमनोहरः॥ ७ ॥

वह किसी भी अस्त्र-शस्त्र से विदीर्ण नहीं हो सकता। अनघ ! उसी प्रकार आपका नाभि से नीचे का शरीर पार्वती देवी ने पुष्प मय बनाया है, जो अपने रूप-सौन्दर्यसे स्त्रियों के मनको मोहने वाला है ।। ७ ॥ 

एवमीश्वरसंयुक्तस्तव देहो नृपोत्तम । 

देव्या च राजशार्दूल दिव्यस्त्वं हि न मानुषः ॥ ८ ॥

नृप श्रेष्ठ ! इस प्रकार आपका शरीर देवी पार्वती के साथ साक्षात भगवान महेश्वर ने संघटित किया है । अतः राज सिंह ! आप मनुष्य नहीं, दिव्य पुरुष हैं ॥ ८ ॥   

इस प्रकार हम देखते हैं कि दुर्योधन के शरीर का पूर्वभाग-जो नाभि से ऊपर था , उसको भगवान शिव ने दानवों के आराधना करने पर वज्र का बनाया था और उसके शरीर के कमर से निचला भाग पार्वती देवी ने बनाया था , जो कि स्त्रियों के अनुकूल कोमल था।

दानव फिर दुर्योधन को आने वाले समय में इंद्र द्वारा छल से कर्ण के कवच कुंडल मांगे जाने की भी बात बताते हैं ।

शात्वैतच्छद्मना वज्री रक्षार्थ सव्यसाचिनः। 

कुण्डले कवचं चैव कर्णस्यापहरिष्यति ॥२२॥

इस बात को समझकर वज्र धारी इन्द्र अर्जुन की रक्षा के लिये छल करके कर्ण के कुण्डल और कवचका अपहरण कर लेंगे ॥ २२ ॥ 

तस्मादस्माभिरप्यत्र दैत्याः शतसहस्रशः। 

नियुक्ता राक्षसाश्चैव ये ते संशप्तका इति ॥ २३ ॥ 

प्रख्यातास्तेऽर्जुनं वीरं हनिष्यन्ति च मा शुचः। 

असपत्ना त्वयाहीयं भोक्तव्या वसुधा नृप ॥ २४ ॥

इसीलिये हमलोगों ने भी एक लाख दैत्यों तथा राक्षसों को इस काममें लगा रखा है, जो संशप्तक नाम से विख्यात हैं। वे वीर अर्जुनको मार डालेंगे । अतः आप शोक न करें। नरेश्वर ! आपको इस पृथ्वीका निष्कंटक राज्य भोगना है ॥ 

मा विषादं गमस्तस्मान्नैतत्त्वय्युपपद्यते। 

विनष्टे त्वयि चास्माकं पक्षो हीयेत कौरव ॥२५॥

अतः कुरुनन्दन ! आप विषाद न करें । यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके नष्ट हो जाने पर तो हमारे पक्ष का ही नाश हो जायगा ॥ २५ ॥  

यच्च तेऽन्तर्गतं वीर भयमर्जुनसम्भवम् । 

तत्रापि विहितोऽस्माभिर्वधोपायोऽर्जुनस्य वै ॥ १९ ॥

वीर ! आपके भीतर जो अर्जुनका भय समाया हुआ है, वह भी निकाल देना चाहिये, क्योंकि हमलोगों ने अर्जुनके वध का उपाय भी कर लिया है ।। १९ ।।

हतस्य नरकस्यात्मा कर्णमूर्तिमुपाश्रितः । 

तद् वैरं संस्मरन् वीर योत्स्यते केशवार्जुनौ ॥ २० ॥

श्रीकृष्ण के हाथों जो नरकासुर मारा गया है, उसकी आत्मा कर्ण के शरीर में घुस गयी है। वीरवर ! वह (नरकासुर ) उस वैर को याद करके श्रीकृष्ण और अर्जुन से युद्ध करेगा |

इस प्रकार दुर्योधन को बहुत पहले हीं ज्ञात हो गया था कि कर्ण के साथ छल किया जायेगा । दुर्योधन को ये भी ज्ञात हो गया था कि कर्ण के शरीर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा मारे गए राक्षस नरकासुर का वास हो जायेगा जो दुर्योधन की तरफ से प्रचंड रूप से लड़ेगा।

इस प्रकार इस बात के लिए कर्ण को दोष नहीं दिया जा सकता कि इंद्र के द्वारा कवच कुंडल मांगे जाने पर उसने  दुर्योधन की हित का ध्यान दिए बिना कवच और कुंडल  इंद्र को समर्पित कर दिया।

अपितु दुर्योधन को स्वयं हीं भविष्य में घटने वाली इस बात से कर्ण को चेता देना चाहिए था। खैर कर्ण को ये बात पता चल हीं गई थी, क्योंकि उसके पिता सूर्य ने इस बात के लिए कर्ण को पहले हीं सावधान कर दिया था।

नरकासुर के बारे में पुराणों में लिखा गया है कि वो प्राग ज्योति नरेश था। इस क्षेत्र को आज कल आसाम के नाम से जाना जाता है।नरकासुर को वरदान प्राप्त था कि वो किसी नर द्वारा नहीं मारा जा सकता था।

इसी कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से नरकासुर का वध किया था। दानव दुर्योधन को उसी नरकासुर के बारे में बताते हैं कि उसकी आत्मा कर्ण में प्रविष्ट होकर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन से अपना बैर साधेगी। दानव दुर्योधन को आगे बताते हैं।

राजन् ! दैत्यों तथा राक्षसों के समुदाय क्षत्रिय योनि में उत्पन्न हुए हैं, जो आपके शत्रुओं के साथ पराक्रम पूर्वक युद्ध करेंगे। वे महाबली वीर दैत्य आपके शत्रुओं पर गदा, मुसल, शूल तथा अन्य छोटे-बड़े अस्त्र-शस्त्रों द्वारा प्रहार करेंगे || 

जब दानवों ने दुर्योधन को ये भी बताया कि उन्होंने उसकी सहायता के लिए लाखों दैत्यों और राक्षसों को लगा रखा है , तब उसका विश्वास लौट आया और उसने आमरण अनशन का विचार त्याग दिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महाभारत के घोषणा पर्व में दुर्योधन के कमर से उपरी भाग के शरीर का वज्र से बना हुआ होने का कारण दानवों द्वारा शिव की आराधना के कारण बताया गया है जिसे भगवान शिव ने दानवों की उपासना करने पर बनाया था।

और दुर्योधन के शरीर का निचला भाग कोमल था क्योकि उसे माता पार्वती ने स्त्रियों को मोहने के लिए बनाया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि माता गांधारी की दिव्य  दृष्टि के कारण नहीं अपितु भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा के कारण , जो कि दानवों की तपस्या के कारण मिली थी, दुर्योधन का शारीर वज्र का बना था।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित 

Monday, July 11, 2022

गुमान



खुद की धड़कन से अनजान, 
फिर किस बात का गुमान?

इतिहास गवाह है , पत्थर की कंदराओं में रहने वाला आदिम पुरुष ने अतुलनीय उपलब्धि हासिल की है। समय के साथ साथ न केवल उसने स्वयं को बदलते हुए मौसम के अनुसार ढाला अपितु समय की मांग के अनुसार पेड़ों पर जो उसने अपना बसेरा बनाया था , उसका त्याग कर जमीन पर उतर आया।

एक चौपाए से दो पैरों पर खड़े होने की दास्तान , मुठ्ठी में लकड़ी पकड़ सकने की शक्ति का विकास , पहिए की खोज और अग्नि का नियंत्रित उपयोग इसके महत्वपूर्ण खोजों में से एक है।

पत्थरों के टुकड़ों पे जीने वाला, कच्चा मांस खाने वाला आदि पुरुष, जल से डरने वाला आदि पुरुष , चांद, सूरज, आंधी , तूफान से डरने वाला आदमी समय बीतने के साथ  समंदर की गहराइयों में उतर गया।

कभी चांद की पूजा करने वाला मानव चांद पर चढ़ गया, आसमान के बादलों की गड़गड़ाहट से डरने वाला आदमी अब बादलों को चीरकर प्रतिदिन हीं यात्रा कर रहा है। कितना अद्भुत विकास रहा है आदिम पुरुष का।

पहले हर समस्या को भगवान के आश्रय डालने वाला आदमी आज खुद ईश्वर के अनुसंधान में जुटा पड़ा है।पूरी सृष्टि के जन्म की गुत्थी को सुलझाने में व्यस्त है आज आदमी।

कितनी भारी विडंबना है। चांद, तारों, ग्रहों की खोज करने वाला आदमी आज खुद से अनजान है। हंसी के पीछे छुपाए हुए दर्द को , प्रशंसा के पीछे छुपी हुई वैमनस्य की भावना को समझने में आज भी नाकाम है आदमी। 

आकाश में उड़ान भरने वाले आदमी के हौसले कब और क्यों जमीन पर अचानक गिर पड़ते हैं, गगनचुंबी इमारतों में रहनेवाले आदमी के लिए क्यों महल भी कम पड़ते हैं?

इस विकास पर कैसा घमंड? पलक छपकते हीं इस दुनिया के दूसरे कोने पर बैठे आदमी से बात करने में सक्षम आदमी क्यों एक हीं कमरे में बैठे साथी के बीच दिलों के दूरियों को पाट नहीं पाता?

गणित की अनगिनत गुत्थियों को सुलझाने वाले आदमी के पास अभी भी क्यों इस बात का जवाब नहीं है कि एक हीं व्यक्ति किसी के लिए अति प्रेम का वस्तु होता है तो दूसरे के लिए वोही घृणा का पात्र कैसे बन जाता है?

इस विकास पर किस तरह का अभिमान, कि आदमी को आज भी इस बात का ज्ञान नहीं कि आदमी स्वयं में क्या है? क्या ये विडंबना नहीं है कि पूरी दुनिया को जानने की कोशिश करने वाला आदमी आज भी खुद से अनजान है।

खुद की सांसों की नाप लेने में असक्षम आदमी दुनिया की माप लेने में व्यस्त है और इस बात का अभिमान भी है। कितनी आश्चर्य की बात है?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित 

न्याय सम्राट अशोक का

कुछ साल पहले की बात है। दिल्ली हाई कोर्ट के एक माननीय न्यायधीश रिटायर हो रहे थे। दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन की तरफ से उनके सम्मान में एक पार्टी आयोजित की गई थी। जब माननीय न्यायाधीश महोदय अपने कार्यकाल का अनुभव प्रस्तुत कर रहे थे तो बातों बातों में उन्होंने एक कहानी सुनाई। ये कहानी बहुत हीं प्रासंगिक है। ये कहानी सम्राट अशोक से संबंधित है।

सम्राट अशोक यदा कदा रात को वेश बदलकर अपने राज्य का दौरा करते थे। वेश बदलकर राज्य का दौरा करने का मकसद ये था कि वो जान सकें कि उनके राज्य में उनके आधीन राज्याधिकारी प्रजा के साथ किस तरह का व्यवहार कर रहे हैं?एक बार रात को वो अपना वेश बदल कर बाहर निकले। जब राज्य का दौरा कर वो वापस अपने महल में आए तो महल के दरवाजे पर खड़े दो द्वारपालों ने उन्हें रोक लिया। 

जब सम्राट अशोक ने अपना परिचय दिया तब भी दोनों द्वारपाल नहीं माने। उन दोनों द्वारपालो ने सम्राट अशोक को बताया कि उनकी नियुक्ति अभी नई नई हुई है। वो सम्राट अशोक को नहीं पहचानते। इसलिए सम्राट अशोक को थोड़ी देर इंतजार करने के लिए कहा।

एक द्वारपाल अपने उच्च अधिकारी से मिलने चला गया ताकि उचित आदेश ले कर आगे की कार्यवाही पूरा कर सके। रात्रि का पहर था, उच्च अधिकारी सो रहा था , इसलिए उसे जगाकर लाने में देरी हो रही थी।इधर सम्राट अशोक लंबे समय तक महल के दरवाजे के बाहर खड़े खड़े परेशान हो रहे थे। जब उन्होंने जबरदस्ती महल के भीतर जाने की कोशिश की तो द्वारपाल ने उन्हें धक्का दे दिया।

गुस्से में आकर सम्राट अशोक ने उस द्वारपाल की हत्या कर दी। जबतक उच्च अधिकारी दूसरे द्वारपाल के साथ महल के दरवाजे पर आया तबतक सम्राट अशोक के हाथ में रक्तरंजित तलवार और द्वारपाल का प्राणहीन शहरी पड़ा था। अगले दिन द्वारपाल की मृत्यु का समाचार चारो तरफ फैल गया। महल के एक एक अधिकारी को ज्ञात हो गया की द्वारपाल की हत्या सम्राट अशोक के हाथों हो गई है।

नियमानुसार सम्राट अशोक को हीं मामले की शुरुआत करनी थी। उस हत्या के मामले में तहकीकात करनी थी।लिहाजा उन्होंने उसी उच्च अधिकारी को मामले की तहकीकात करने की जिम्मेदारी सौंपी। सम्राट अशोक के पास असीमित ताकत थी। वो मामले को रफा दफा भी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने असीमित शक्ति के साथ साथ अपनी जिम्मेदारी भी समझी। उन्हें पता था कि वो ही उच्च अधिकारी सही गवाही दे सकता है, इसलिए उसी को चुना।

जब मामले की तहकीकात कर लेने के बाद उच्च अधिकारी ने दरबार लगाने की मांग की , तब सम्राट अशोक ने नियत समय दरबार लगाया।उस भरे दरबार में उच्च अधिकारी ने पूरी घटना का वर्णन किया। और बताया कि उस द्वारपाल का हत्यारा सम्राट अशोक हीं है। हालांकि उस वध में सम्राट अशोक के साथ साथ अनेपक्षित परिस्थियां भी जिम्मेदार थी। सम्राट अशोक ने बड़ी विनम्रता के साथ उस आरोप को स्वीकार किया।

इस कहानी को सुनाकर माननीय न्यायाधीश ने बताया कि आजीवन उन्होंने अपने कोर्ट को वैसे हीं चलाया। ऐसा देखा जाता है कि मामले की सुनवाई के दौरान कुछ माननीय न्यायधीश अनावश्यक टिप्पणियां करते रहते है। एडवोकेट और पार्टी को अनावश्यक रूप से डांटते रहते हैं।ये उचित नहीं। एक न्यायाधीश के।सहिष्णु होना बहुत जरूरी है। यदि माननीय न्यायधीश डर का माहौल कर दे तो फिर एक तानाशाह और न्यायधीश में अंतर क्या रह पाएगा।

उन्होंने आगे कहा कि न्यायधीश तो ऐसा होना चाहिए कि आम आदमी उसके पास आकर अपनी बात खुलकर रख रखे। यहां तक कि उसके खिलाफ भी बोल सके।एक न्यायधीश ईश्वर नहीं होता। फिर भी यदि ईश्वर के हाथों भी गलती हो जाती है तो फिर एक न्यायधीश की क्या औकात? एक न्यायधीश को न्यायिक प्रक्रिया के दौरान अनावशक टिप्पणी करने से बचना चाहिए। और यदि अनावश्यक टिप्पणी करते हैं तो जनता की बीच उठी आवाज को सुनने को क्षमता भी होनी चाहिए।

माननीय न्यायाधीश ईश्वर तो होते नहीं। आखिर हैं तो ये भी एक इंसान हीं। यदि आप ईश्वर की तरह शक्ति और सम्मान चाहते हो तो। ईश्वर की तरह व्यवहार भी करो। हालांकि गलतियां ईश्वर से भी तो हो जाती है। तो ईश्वर की तरह असीमित धीरज भी तो रखो।कोई भी न्याय व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकता। यहां तक कि न्यायधीश भी। कौन नहीं जानता भगवान शिव को भी अपने वरदान के कारण हीं भस्मासुर से भयभीत होकर भागना पड़ा था। असीमित शक्ति बिना किसी जिम्मेदारी के अत्यंत घातक सिद्ध होती है।

उन्होंने आगे कहा, अपने न्यायिक जीवन में उन्होंने सम्राट अशोक के उसी न्याय व्यवस्था को अपनाया। अदालती।करवाई के दौरान अनावश्यक टिप्पणियों से बचने की कोशिश करना और यदि अनचाहे उनसे  इस तरह की  टिप्पणी हो गई हो तो उसके खिलाफ आती प्रतिरोधात्मक स्वर को धैर्य के साथ सुनना। 

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

तुझे शर्म नहीं आती?

जून का अंतिम महीना चल रहा था । मौसम विभाग ने आने वाले दो तीन दिनों के भीतर मानसून के आने की सम्भावना व्यक्त की थी । चिलचिलाती गर्मी से तो राहत मिल गई थी , परन्तु आकाश में छाये बादल वातावरण की गर्मी को बाहर नहीं जाने दे रहे थे । इस कारण उमस बहुत ज्यादा हो चली थी । तिस पर से नमी ने बुरा हाल कर रखा था । कूलर और ए.सी.का भी असर कम हो चला था।

शाम को जब नाश्ता करने के लिए ऑफिस से बाहर  निकला तो इसी उमस भरी गर्मी से पाला पड़ा । पसीना सूखने का नाम हीं नहीं ले रहा था । चिपचिपाहट से परेशानी और बढ़ चली थी।

वो तो भला हो ए. सी. और काम के प्रेशर का , कि दिन कब बित जाता है , पता हीं नहीं चलता । काम करते करते शाम को भूख तो लग हीं जाती थी । घर से लाया हुआ खाना लंच में हीं निबट जाता था । लिहाजा पापी पेट की क्षुधा को आप्त करने के लिए बाहर निकलना हीं पड़ता था ।

सड़कों  के किनारों पर मक्के के भुने हुए दाने बेचते हुए अनगिनत रेड़ी वाले मिल जाते थे । शाम का नाश्ता मक्के के भुने हुए दाने हीं हो चले । पेट और मन दोनों की क्षुधा को कुछ क्षण के लिए आप्त करने के लिए पर्याप्त थे।

ग्राहक को पास आते देखकर रेड़ी वालों में होड़ सी मच गयी । एक तो गर्मी ऊपर से रेड़ी वालों का शोर , शराबा । मै आगे बढ़ता हीं चला गया । थोड़ी दूर पर एक रेड़ी वाला बड़े शांत भाव से बैठा हुआ दिखाई पड़ा । उसे कोई हड़बड़ी नहीं थी शायद।

उसके पास के मक्के काफी अच्छी गुणवत्ता के दिखाई पड़े । और उसपर से वो शोर भी नहीं मचा रहा था । उसे अपने भुट्टे की गुणवत्ता पर भरोसा था शायद। इधर शोर मचाते हुए अन्य रेड़ी वालों से थोड़ी चिढ़ भी हो गई थी। लिहाजा मैंने उसी से मक्का लेने का फैसला किया। भुट्टे का आर्डर देकर मै खड़ा हो गया। 

भुट्टे वाला भुट्टे को गर्म करते हुए मुझसे पूछा , भाई साहब , ये जो महाराष्ट्र में जो हो रहा है , उसके बारे में क्या सोचते हैं ? उद्धव ठाकरे की सरकार ठीक उसी तरह से चली गई जिस तरह लगभग ढाई साल पहले बी.जे. पी. की सरकार गई थी । इतिहास दुहरा रहा है अपने आपको । है ना ये बड़ी आश्चर्य जनक बात?

उसने शायद मुझसे सहमति भरे उत्तर की अपेक्षा रखी थी। मुझे जोरो की भूख लगी थी । मैंने कहा , अरे भाई अब सरकार किसकी आती है , किसकी जाती , इससे तुझको क्या ? तुझे तो भुट्टा ही भूनना है । अपना जो काम है करो ना । इधर उधर दिमाग क्यों लगाते हो?देश और राज्य का सारा बोझ तुम हीं उठा लोगे क्या? मैंने तिरछी नजरों से उसे देखते हुए कहा।

मेरी बात उसको चुभ गई थी शायद । उसने तुनकते हुए कहा , भाई साहब , ये तो प्रजातंत्र है , एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है । उसपर से क्या एक नागरिक को राजनैतिक रूप से सचेत रहने का अधिकार है या नहीं ? आस पास की जो घटनाएं घट रही हैं देश में, उसके बारे में पता तो चल हीं जाता है।

मैं समझ गया। मुझे भी अपनी बात कुछ उचित नहीं लगी। उसको शांत करने के लिए समझने हुए मैंने कहा , मैंने कहा मना किया है । जानकारी भी होनी चाहिए और एक निश्चित राय भी रखनी चाहिए। परन्तु इससे तुमको क्या ? इस बात का ध्यान रखो, पैसा तो तुम्हें भुट्टा बेचने से हीं आ रहा है ना तुम्हे। काम तो यही करना है तुझे । इसी में अपना दिल लगाओ। यही उचित है तुम्हारे लिए।

उसने कहा , अभी भुट्टा भुन रहा हूँ , कोई जरुरी तो नहीं , जीवन भर यही करता रहूँगा । ग्रेजुएट हूँ । शोर्टहैण्ड  भी सीख रहा हूँ । कहीं न कहीं तो नौकरी लग हीं जाएगी । और नहीं तो किसी कोर्ट में हीं जाकर अपनी दुकान लगाकर बैठ जाऊंगा । गुजारे लायक तो कमा हीं लूँगा ।

गरीब पैदा हुआ हूँ । इसमें मेरे क्या दोष है ? मेरे उपर अपने भाईयों की  जिम्मेदारी भी  है इसीलिए ऐसा करना पड़ रहा है ।  परन्तु समस्याएँ किसको नहीं होती ? मुझे तो आगे बढ़ना हीं है मुझे । उसने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा।

उसके आत्मविश्वास पर मुझे ख़ुशी भी हुई और अफ़सोस भी । तबतक उसने भुट्टा गरम कर दिया था । मैंने उसे पैसा लिया और भुट्टा लेकर आगे बढ़ने लगा । पर एक बात मुझे अबतक कचोट रही थी । इस तरह का पढ़ा लिखा लड़का क्या कर रहा था वहाँ पर । 

आखिकार मुझसे रहा नहीं गया । चलते चलते मैंने उससे पूछ हीं लिया , तुझे शर्म नहीं आती , ग्रेजुएट होकर इस तरह भुट्टा बेचने पर ?

उसके उत्तर ने मुझे निरुत्तर कर दिया ।

भुट्टे वाले ने कहा , भाई साहब किसी को धोखा दिया नहीं  , झूठ बोला नहीं और मेरे उपर लोन भी नहीं है , फिर काहे का शर्म ? मेहनत और ईमानदारी से हीं तो कमा रहा हूँ , कोई गलत काम तो नहीं कर रहा । लोगो को चुना तो नहीं लगा रहा ?

ऑफिस में काम करते वक्त उसकी बातें यदा कदा मुझे सोचने पर मजबूर कर हीं देती हैं ,   किसी को धोखा दिया नहीं  , झूठ बोला नहीं और मेरे उपर लोन भी नहीं है , फिर काहे का शर्म ? 

उसके उत्तर ने मुझे कुछ बेचैन सा कर दिया। क्या ऑफिस में ऊँचे ओहदे पर बैठा आदमी हर आदमी झूठ नहीं बोलता , धोखा नहीं देता , बेईमानी नहीं करता ? और यदि करता है तो फिर उसे शर्म क्यों नहीं आती ?

दूसरों की बात तो छोड़ो , महत्वपूर्ण बात तो ये थी  क्या मैंने अपने जीवन में  कभी झूठ नहीं बोला ,  किसी को धोखा नहीं दिया , कभी बेईमानी नहीं की ? और अगर की तो क्या कभी शर्म आई मुझे ? और उत्तर तो स्पष्टत्या नकारात्मक ही था।

मैंने शायद उसको आंकने में भूल कर दी थी । हालाँकि इस भूल में भी मैंने जीवन का एक सबक तो सिख हीं लिया । किसी को उसके काम और ओहदे से मापना हमेशा सही नहीं होता । एक व्यक्ति की चारित्रिक मजबूती उसको सही तरीके से परिभाषित करती है ।

किसी दुसरे को उपदेश देने से पहले ये जरुरी हो जाता है की आप स्वयम को आईने में एक बार जरुर देख लें । उपदेश , जो कि आप किसी और को प्रदान कर रहें हैं , कहीं उसकी जरुरत आपको तो नहीं ?   

अजय अमिताभ सुमन :सर्वाधिकार सुरक्षित 

Saturday, July 9, 2022

वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में[तृतीय भाग ]

प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए संसार को कोसना सर्वथा व्यर्थ है। संसार ना तो किसी का दुश्मन है और ना हीं किसी का मित्र। संसार का आपके प्रति अनुकूल या प्रतिकूल बने रहना बिल्कुल आप पर निर्भर करता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि आप स्वयं के लिए किस तरह के संसार का चुनाव  करते हैं। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का तृतीय भाग।
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वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में
तृतीय भाग 
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क्या रखा है वक्त गँवाने 
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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स्व संशय पर आत्म प्रशंसा 
अति अपेक्षित  होती है,
तभी आवश्यक श्लाघा की 
प्रज्ञा अनपेक्षित सोती है।
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दुर्बलता हीं तो परिलक्षित 
निज का निज से गान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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जो कहते हो वो करते हो 
जो करते हो वो बनते हो,
तेरे वाक्य जो तुझसे बनते 
वैसा हीं जीवन गढ़ते हो।
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सोचो प्राप्त हुआ क्या तुझको 
औरों के अपमान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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तेरी जिह्वा, तेरी बुद्धि , 
तेरी प्रज्ञा और  विचार,
जैसा भी तुम धारण करते 
वैसा हीं रचते संसार।
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क्या गर्भित करते हो क्या 
धारण करते निज प्राण में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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क्या रखा है वक्त गँवाने 
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो 
तुम निज के निर्माण में।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

Tuesday, July 5, 2022

राजनैतिक जगत के कॉरपोरेट मंत्र

 

राजनीति और कॉरपोरेट जगत के काम करने के तरीके में एक समानता है। राजनीति हो या कि कॉरपोरेट घराने , दोनों के सफलता का राज यही है कि शीर्ष पर आसीन लोग सबको अपने साथ ले कर चल सकने में सक्षम है या नहीं?

इसके लिए ये जरूरी है कि मैनेजमेंट के शीर्ष पर रहने वाले व्यक्तियों के दरवाजे स्वयं के साथ काम करने वालों के लिए खुले हो।

अकड़ कर रहने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। आपका बड़ा होना इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टी का एक साधारण सा कार्यकर्ता आपसे बिना रोक टोक के मिल सकता है या नहीं?

यदि नेता अपने साथ काम करने वालों की बजाय कुछ गिने चुने खुशामद करने वालों के बीच हीं घिरे रहना पसंद करने लगे, तो इसका क्या दुष्परिणाम हो सकता है, राजनीति में घटने वाली आजकल की घटनाओं से ये साफ जाहिर होता है।

ठीक यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। खुशामद करने वाले और जी हुजूरी करने वाले सदस्यों की बात सुनने के अलावा यदि प्रतिरोध का स्वर ऊंचा करने वालों की बातों को न सुना जाए तो इसमें उस घराने का हित कतई नहीं होता।

एक संस्था की मजबूती इस बात पर निर्भर करती है कि भीतर से उठते हुए असंतोष के स्वर को समझने में वो कितनी सक्षम है?

दूसरी बात , संस्था को अपने मूलभूत वैचारिक सिद्धानों से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। हरेक राजनैतिक पार्टी का आधार कुछ आधार भूत सिद्धांत होते हैं।

काम करने के कुछ विशेष तरीके होते हैं हर संस्था के। एक विशेष लक्ष्य और लक्ष्य प्राप्त करने हेतु अपनाए गए तरीकों में हरेक संस्था अलग होती है।

कभी कभी ऐसे मौके आते हैं जब सैद्धांतिक रूप से मतभेद रखने वाले पार्टियों के साथ सहयोग तात्कालिक रूप से लाभदायक सिद्ध होते हैं। परंतु इसके दूरगामी परिणाम हमेशा पार्टी के हितों के विरुद्ध हीं साबित होते हैं।

यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। हरेक कॉरपोरेट घरानों के काम करने के कुछ अपने विशेष तरीके और अपने मूलभूत आधार होते हैं। सबके अपने अपने कुछ मूलभूत सिद्धांत और वैचारिक आधार होते हैं।

इन सिद्धांतों का त्याग करके नए सहयोगी ढूंढने में कोई फायदा नहीं । याद रहे ये काम करने के ये वो हीं तरीके है जिस कारण एक संस्था का अस्तित्व इतने लंबे समय तक बना हुआ है। फिर मूलभूत सैद्धांतिक आधार से समझौता कर बनाए गए संबंध लंबे समय तक चल नहीं पाते ।

राजनीति में मिली जुली सरकारों का बनना और बिखरना और क्या साबित करता है? आखिकार राजनीति भी तो व्यक्तियों द्वारा हीं चलाई जाती रही है। दो भिन्न भिन्न प्रकार के पहियों पे चलने वाली गाड़ी आखिर कितने दिनों तक चल सकती है?

हरेक राजनैतिक पार्टी युवा पीढ़ी का बढ़ावा देना पसंद करती है। परंतु गर्म जोश के साथ साथ पुरानी पीढ़ी का साथ भी अति आवश्यक होता है सफलता के लिए।

जिस प्रकार देश , काल और परिस्थिति के अनुसार कभी त्वरित फैसले लेने जरूरी होते हैं तो कभी कभी किसी कदम के उठाने से पहले लंबे और गंभीर सोच विचार की जरूरत होती है।

एक हथियार का मजबूत होना जरूरी होता है परंतु इससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये कि हथियार से लक्ष्य का संधान करने वाले हाथ कितने सधे हुए है?

और यहां पे ये जरूरी हो जाता है कि उन हाथों ने बार बार इन तरह की परिस्थितियों का सामना किया है कि नहीं? उन हाथों को पर्याप्त अनुभव है या नहीं?

पुरानी पीढ़ी के अनुभव और नई पीढ़ी के जोश के बीच सामंजस्य स्थापित किए बिना ना तो कोई राजनैतिक पार्टी हीं आगे बढ़ सकती है और ना हीं कोई कॉरपोरेट घराना।

अक्सर ये देखा देता है कि सत्ता के नशे में संस्था के शीर्ष स्थानों पर विराजमान नेता सदस्यों से राय लिए बिना अपने फैसले थोपने लगते हैं। यदि सदस्यों पर फैसले लादने हैं तो थोड़ी बहुत उनकी भागीदारी भी बहुत जरूरी है।

यदि एक संस्था सदस्यों के कार्य के प्रति लगन की अपेक्षा करती है तो संस्था की भी जवाबदेही भी तो अपने कार्यकर्ता के प्रति होनी चाहिए। और ये काम अपने सदस्यों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किए बिना नहीं हो सकता।

याद रहे एक संस्था का सफल या असफल होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस संस्था में काम करने वाला हरेक सदस्य उस संस्था के प्रति कितना समर्पित है?

और अंतिम परंतु महत्वपूर्ण बात , बड़बोलेपन से बचना। राजनैतिक रूप से बड़बोलापन न तो केवल आपके नए नए प्रतिद्वंद्वियों को जन्म देता है, अपितु आपको कहीं ना कहीं अहंकारी भी साबित करता है।

ठीक यही बात कॉरपोरेट घरानों पर भी लागू होती है। किसी दूसरे के खिलाफ बोलकर या किसी और को नीचा दिखाकर आप स्वयं बड़े नहीं हो जाते।

बेहतर तो ये है कि बड़े बड़े बोल बोलने के स्थान पर आपके कर्म हीं आपकी आवाज हो । मितवादी और कर्म करनेवाले कहीं असफल नहीं होते, फिर चाहे ये राजनीति हो या कि कॉरपोरेट घराने।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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