प्रस्तावना: लेखक की आँखों से
(या कहिए, चश्मे के पीछे से दिखती वो दुनिया, जो अक्सर चाय की प्याली में डूब जाती है)
कहानी शुरू करने से पहले एक बात साफ़ कर दूँ — अगर आप उन लोगों में से हैं जो किताब में सीधे "प्लॉट" ढूंढते हैं, तो जनाब, ये कहानी वैसी नहीं है। ये कहानी उस तरह की है जैसे सर्दियों में रज़ाई से पैर निकालने का साहस — जिसमें डर भी है, मज़ा भी, और रिस्क तो पूछिए मत।
अब बात करें मेरे बारे में। मैं हूँ एक शिक्षक। और वो भी हिन्दी का। यानी वो प्राणी जिसे बच्चे “टीचर” कहने से पहले मोबाइल की ओर देखने का अधिकार समझते हैं। जिस दिन मैं बच्चों को रामचरितमानस पढ़ा रहा था, उसी दिन एक बच्चे ने पूछा — “सर, इसमें WiFi का पासवर्ड कहाँ है?”
मेरी ज़िंदगी में दो ही चीज़ें स्थायी हैं — ट्यूशन की घंटी और मेरी पत्नी का डायलॉग: “तुम्हें सबकुछ मज़ाक क्यों लगता है?” और मैं हर बार सोचता हूँ — क्योंकि ज़िंदगी ने गंभीरता से लिया नहीं, तो मैं क्यों लूँ?
मैं समाज में उस गुप्तचर की तरह घूमता हूँ जिसे किसी ने नियुक्त नहीं किया, पर जिसे सबकी बातें बहुत ज़रूरी लगती हैं। मैं शादी-ब्याह में इसीलिए जाता हूँ ताकि खाने के साथ इंसान भी परोसे जाएँ — उनके विचार, उनके पाखंड, उनके संवाद... और उनकी मुँह में रसमलाई फँसाकर बोले गई आधी बातें।
मेरे लेखन की शुरुआत भी ऐसे ही हुई। एक दिन एक पंडित जी मेरे घर आकर बोले —
“पुस्तकें पढ़ने से बुद्धि बढ़ती है।”
मैंने पूछा — “और अगर अपनी ही लिखी किताब पढ़ूँ?”
वो बोले — “तो आत्ममुग्धता बढ़ती है।”
बस, उसी दिन से मैं लेखक बन गया।
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अब बात करें कहानी की।
ये कहानी सात लोगों की है — जो सब एक जैसे दिखते हैं, लेकिन विचारों से एक-दूसरे के चचाजान के भी विरोधी हैं। जैसे एक कहे — "दूध पीओ, हड्डियाँ मजबूत होंगी" तो दूसरा कहे — "गाय की पीड़ा पर कोई डॉक्यूमेंट्री देखी है?" तीसरा बोले — "पीओ मत, NFT बना लो दूध का, डिजिटल रहेगा!"
और मज़े की बात ये है कि ये सब एक ही मेज़ पर बैठे हैं, एक ही कचौड़ी पर बहस कर रहे हैं — और एक-दूसरे को ‘भाई’ भी कह रहे हैं और ‘अंधा भक्त’, ‘पाखंडी’, ‘डिजिटल भूत’ भी।
और मैं?
मैं वहाँ हूँ जैसे डीजे वाले के पीछे खड़ा वो दोस्त जो खुद नाचता नहीं, पर सबकी स्टेप्स पर नज़र रखता है। ये कहानी मेरी देखी हुई है, पर मेरी नहीं है।
या यूँ कहें — मैं इस कहानी का सीसीटीवी कैमरा हूँ, जो बोलता भी है और हँसता भी।
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तो आइए, इन सात विचारधाराओं की भुजियों में तली हुई कहानी में डुबकी लगाते हैं।
ध्यान रखिए — इसमें कोई भी पात्र जाति या धर्म से नहीं पहचाना जा सकता।
पर विचारों से वो ऐसे चमकते हैं, जैसे सोशल मीडिया पर किसी की शादी में एक्स गर्लफ्रेंड की कॉमेंट।
शुरुआत करते हैं उस ऐतिहासिक दिन से, जब कचौड़ी एक दर्शन बन गई।
अध्याय 1:
कचौड़ी सम्मेलन
(या कहिए – वो ऐतिहासिक सभा, जहाँ विचार नहीं, कचौड़ियाँ टकराईं)
अब आप सोच रहे होंगे कि कोई बड़ा संवाद हो, कोई गंभीर बहस हो, तो वो संसद भवन में होनी चाहिए।
पर नहीं, जनाब! असली लोकतंत्र तो वहीं पनपता है जहाँ एक थाली में चार कचौड़ियाँ हों, और खाने वाले पाँच।
तो हुआ यूँ कि हमारे मोहल्ले की "जनसमर्पित जनसुविधा समिति" ने रविवार के दिन सामूहिक नाश्ता मिलन समारोह रखा। नाम ऐसा कि लगे कोई सरकारी योजना है, पर असल में ये उन बुजुर्गों की योजना थी जो रिटायरमेंट के बाद समाज सुधारना चाहते हैं – और शुरुआत उन्होंने कचौड़ी से की।
मैं वहाँ इसलिए गया क्योंकि घर में वही पुरानी लौकी की सब्ज़ी बनी थी, जिसे देखकर मेरी आत्मा तक कहती है — "भूखा रह ले, लेकिन ये मत खा!"
तो जैसे ही पहुँचा, देखा कि हॉल में सात कुर्सियाँ हैं, और उसपर विराजमान हैं – हमारे समाज के सात अनमोल रतन। किसी ने नहीं बताया कि ये लोग कौन हैं, पर उनके हावभाव, बातों और खाने के तरीकों से साफ था कि ये लोग चर्चा में हैं — चाहे मुद्दा कचौड़ी हो या कालचक्र।
मंच सज चुका था — आइए, पात्रों से मिलिए!
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1. समर – तर्कवादी
चेहरे पर ऐसा भाव जैसे हर चीज़ का प्रमेय चाहिए। प्लेट में कचौड़ी देखकर पहला सवाल —“इसमें ट्रांस फैट की मात्रा कितनी होगी?”पूरी कोशिश कर रहा था कि कचौड़ी को न्यूटन के तीसरे नियम से समझा जाए।“अगर मैंने काटा, तो प्रतिक्रिया में मेरा कोलेस्ट्रॉल क्यों बढ़ेगा?”
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2. लीना – सामाजिक कार्यकर्ता
जिन्होंने पहली कचौड़ी उठाने से पहले ही सवाल उठाया —
“सभी को बराबर कचौड़ी मिली है न? कोई सामाजिक असमानता तो नहीं?”सबको चुप देखकर आगे बोली —
“ये आयोजन पुरुषों ने तय किया है या संयुक्त रूप से? और तेल कौन-से ब्रांड का है?”
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3. बाबू – व्यंग्यकार
एक हाथ में प्लेट, दूसरे में नोटपैड। हर कचौड़ी में व्यंग्य खोज रहे थे।“ये कचौड़ी नहीं, लोकतंत्र की हालत है। बाहर कुरकुरी, अंदर गरम हवा!”हर बात को ऐसे घुमा के बोले, जैसे चाय में बिस्कुट डुबोते-डुबोते भगवत गीता की व्याख्या कर रहे हों।
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4. मोंटी – श्रद्धालु
खाने से पहले कचौड़ी को ऐसे देखा जैसे वो प्रसाद है।
“भगवान का धन्यवाद कि आज तामसिक भोजन मिला।”
जब बाबू ने कहा, “कचौड़ी का धर्म क्या है?” तो मोंटी गरजे —
“बोलना मत! इसमें पंचतत्व का संतुलन है!”
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5. ज़ोया – उदारवादी कलाकार
कचौड़ी को देख रही थी जैसे वो कैनवस हो।“इसकी गोलाई में प्रेम है, इसका रंग विरोध है। और यह आलू… यह प्रतिरोध है!”
फिर बोली, “मैं इसे खाऊँगी नहीं, स्केच बनाऊंगी।”
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6. कबीर – परंपरा प्रेमी
हर चीज़ में परंपरा तलाशते हैं।“कचौड़ी तलना एक संस्कृति है। पहले घरों में हाथ से तली जाती थी। अब... मशीन से!”
जब समर ने कहा कि “तेल में ट्रांस फैट है”, तो कबीर बोले —
“शुद्ध देसी घी से पाप भी पुण्य बनता है।”
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7. जॉय – तकनीक भक्त
एक हाथ में स्मार्टफोन, दूसरे में वीयरेबल घड़ी।
“मेरे फिटनेस बैंड ने अलर्ट भेजा है — एक कचौड़ी = 300 कैलोरी = 40 मिनट वॉक।”फिर बोला, “मैंने एक ऐप बनाया है — ‘Eat2Equal’। ये बताता है किसे कितनी कचौड़ी मिलनी चाहिए।”
(“ये बहस नहीं, ये तलना है — विचारों का!”)
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(स्थान – मोहल्ले की धर्मनिरपेक्ष धर्मशाला, प्रायोजक: ‘शुद्ध तेल वाले हलवाई’)
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( गोल टेबल पर विराजमान सात महापुरुष और महिलाएँ, जिनके सामने गर्मागर्म कचौड़ी और ठंडी-ठंडी वैचारिक लड़ाइयाँ सजी हैं)
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समर (तर्कवादी – दाढ़ी खुजाते हुए कचौड़ी को घूर रहा है जैसे ये कोई अपराधी हो)
> “इस गोल संरचना के केंद्र में उपस्थित ये आलू —
एक 'काल्पनिक संतुलन' है!कचौड़ी का घेरा सौरमंडल जैसा है, लेकिन इसका तला हुआ स्वरूप हृदयाघात का निमंत्रण है।
सवाल ये नहीं कि खाएँ या न खाएँ…सवाल ये है कि क्यों खाएँ?”
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मोंटी (श्रद्धालु – आँखें मूंदे कचौड़ी के ऊपर मंत्र बुदबुदाते हुए)
“हे तले हुए भोज्यपदार्थ की देवी!इस पवित्र कचौड़ी में तुम साक्षात् उपस्थित हो।परन्तु इसमें प्याज़...? अरे, ये तो सीधे-सीधे धर्म का अपमान है! प्याज़ का सेवन यानी… आत्मा की कुल्हाड़ी पर आस्था का हथौड़ा!”
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बाबू (व्यंग्यकार – कचौड़ी को चम्मच से कुरेदते हुए):“वाह! ये है 'तथाकथित लोकतांत्रिक नाश्ता'! बाहर से कुरकुरी, अंदर से खोखली – जैसे नेताजी के वादे। और प्याज़...? भाई साहब, ये प्याज़ नहीं, ये तो देश के बजट में छिपे करों की तरह है –काटते जाओ, रोते जाओ!”
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लीना (सामाजिक कार्यकर्ता – प्लेट गिनती करते हुए आवाज़ में बिजली भरकर) “मैं पूछती हूँ — क्यों मेरी प्लेट में सिर्फ एक कचौड़ी है जबकि समर की थाली में तीन? क्या ये ‘कचौड़ी पितृसत्ता’ है?क्या तेल भी अब लिंगभेदी हो गया है?
और...क्या महिलाओं को केवल दालमोठ तक सीमित रखना ही इस सभा का उद्देश्य है?”
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कबीर (परंपरा प्रेमी – शाल ओढ़े, मूँछों में ताव देते हुए)
“अरे बहन जी, चिल्लाइए मत!जब हम बच्चे थे, तब कचौड़ी लकड़ी के चूल्हे पर तली जाती थी।बिना LPG, बिना microwave, और बिना feminism! और हम ‘जय श्री तलेला’ कहकर खाते थे — और किसी को शिकायत न थी!”
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ज़ोया (उदारवादी कलाकार – एक स्केचबुक में कचौड़ी की आकृति बनाते हुए) “कचौड़ी में घेरा नहीं है… ये समाज का वलय है,इसकी परतें हमें हमारी ही मानसिक जटिलताओं की याद दिलाती हैं।जब ये फूटती है, तो अंदर से वही चीज़ निकलती है जो हमारे भीतर छुपी है — अलौकिक असंतोष!
मैं इसे ‘अभ्यंतर विघटन' की संज्ञा दूँगी।”
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जॉय (तकनीक भक्त – स्मार्ट घड़ी पर टैप करते हुए, जैसे NASA से कचौड़ी की रिपोर्ट आ रही हो) “आप सब पुरानी दुनिया में अटके हैं! मैं अभी एक ऐप बना रहा हूँ — ‘KachoriScope’ जो बताएगा कि किसकी कचौड़ी में कितनी ‘असहिष्णुता' है। और ये देखिए, लीना की कचौड़ी गायब है! डेटा बता रहा है — चोरी हुई है।
टाइमस्टैम्प के अनुसार समर ने अपनी प्लेट के नीचे कुछ छुपाया है…”
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अब शुरू होता है महामहिमीय मंथन — बहस का महायुद्ध!
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समर (भड़कते हुए, थोड़ी कचौड़ी की चटनी दाढ़ी पर लगाते हुए): “क्या आप मुझे चोर कह रहे हैं? मैं तर्क से जीता हूँ, चोरी से नहीं। और फिर, मैं तले हुए पदार्थों को नकारता हूँ —
खाया भी तो वैज्ञानिक परीक्षण के लिए!”
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लीना (तेज आवाज़ में): “तुम्हारा वैज्ञानिक परीक्षण, महिलाओं की थाली से होकर क्यों गुजरता है?तुम ‘समानता’ को सिर्फ तब याद करते हो जब तुम्हें अतिरिक्त मिले!क्या तुम्हारी थाली भी 'आरक्षण विरोधी' है?”
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बाबू (बीच में कूदते हुए, जैसे न्यूज डिबेट में हो): “बहन जी, मैं सुझाव दूँ — इस बहस को Supreme Court में ले चलें।
और कचौड़ी को संवैधानिक दर्जा दिलवाएँ! हर व्यक्ति को एक कचौड़ी –‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक कचौड़ी!’”
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कबीर (गुस्से से उठते हुए, जैसे अभी उपवास शुरू कर देंगे):
“ये सब पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव है! अब लोग कचौड़ी में जात पूछते हैं, धर्म ढूँढते हैं! अरे तली हुई चीज़ों को राजनीति से बचाओ!”
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ज़ोया (हल्के स्वर में, लेकिन वज्र सा प्रभाव):“तलना केवल रसोई का काम नहीं,यह तो हमारे समाज का स्थायी भाव है।
हर विचार, हर पहचान यहाँ रोज़ तली जाती है।कभी धर्म के तेल में, कभी जाति के मसाले में!”
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जॉय (शांत स्वर में, लेकिन तकनीकी रोबोटिक भाव में): “Breaking News:कचौड़ी सम्मेलन का सर्वर डाउन हो चुका है।सभी विचारधाराओं में सिस्टम इरर है।समाधान सुझाव:
सबको दो-दो कचौड़ी दो — और वाई-फाई ऑन कर दो।”
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मैं (लेखक – इस पूरी जलेबी जैसी उलझी सभा को देखता हुआ): “और मैं वहाँ बैठा सोच रहा था — इस देश में कचौड़ी से भी वाद विवाद हो सकता है… तो फिर आशा अभी बाकी है!
ये सभा नहीं, ये राष्ट्रीय चरित्र की तली हुई प्लेट थी!
जिसमें स्वाद कम था, मसाले ज़्यादा।”
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और तभी… कुछ ऐसा हुआ, जो सबका ध्यान बदल गया।
(लीना की कचौड़ी वास्तव में चोरी हो चुकी थी… और उस पर लगे उँगलियों के निशान, जॉय के ऐप ने कैप्चर कर लिए थे…)
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अध्याय 2: झगड़े का श्रीगणेश
(उपशीर्षक: जहाँ कचौड़ी सिर्फ गरम नहीं थी, माहौल भी खौलता था!)
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> पिछले अध्याय तक:
सात महापुरुषों और स्त्रियों ने कचौड़ी को देखकर भी उसे शांति से नहीं खाया।
हर कचौड़ी पर विचारधारा की चटनी लगी हुई थी।
और अब... जब एक कचौड़ी गायब मिली,
तो कचौड़ी सम्मेलन बदल गया —
"कचौड़ी संघर्ष समिति" में!
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दृश्य: धर्मशाला का ‘भोजन कक्ष’, अब ‘विचारों का युद्धक्षेत्र’ बन चुका है
बैकग्राउंड में हलवाई का चूल्हा धुआँ छोड़ रहा है।
लीना के चेहरे पर क्रांति की चमक है,
समर की आँखों में डाउट और गणितीय समीकरण तैर रहे हैं।
जॉय मोबाइल में सबूत खोज रहा है,
और मोंटी भगवान को सबका गवाह बना रहे हैं।
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(स्टेज पर पहली आवाज़: लीना – चीखते हुए, प्लेट हवा में उठाकर)
लीना:
> “ये क्या!
मेरी कचौड़ी?
वो कहाँ है?
मेरे अधिकार की तली हुई पहचान को किसने निगल लिया?”
बाबू (मुंह में कचौड़ी, आवाज़ में नाटक):
> “कचौड़ी गई, न्याय रोया।
प्लेट हुई खाली, सभ्यता सोई।
और आप पूछती हैं — ‘कौन खाया?’
मैडम, ये न पूछिए, क्यों खाया? पूछिए!
इस देश में पेट से बड़ा कोई तर्क नहीं है!”
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(समर – पलकें सिकोड़े, जैसे कचौड़ी का एक्स-रे देख लिया हो)
समर:
> “इस घटना में तीन संभावनाएँ हैं —
एक: प्राकृतिक वाष्पीकरण,
दो: माया,
तीन: चोरी।
और तीसरे की संभावना 87.3% है।”
लीना (आँखों में आँसू और आग):
> “87%?
मैं औरत हूँ, आँकड़ा नहीं!
मुझे कचौड़ी चाहिए, लॉजिक नहीं!”
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(कबीर – हाथ जोड़ते हुए, बीच में कूदते हैं जैसे शादी में मिठाई बचाने आए हों)
कबीर:
> “हे देवियों, हे सज्जनों!
ये जो हुआ, अपशकुन है।
किसी की कचौड़ी खा जाना —
ये तो वही हुआ जैसे व्रत में चुपके से समोसा खा लेना!”
मोंटी (धार्मिक मुद्रा में):
> “कचौड़ी देवी स्वयं इस सभा में उपस्थित थीं…
और अब उनका अपहरण हो चुका है।
ये अधर्म हुआ है!
मुझे तो संदेह है कि ये अधर्मवादी-तर्कवादी गठजोड़ है।”
समर (झल्लाते हुए):
> “देखिए, भगवान और भुजिया को विज्ञान में मत मिलाइए।
ये ईश्वरीय षड्यंत्र सिद्धांत अब पुराना हो चुका है।
मैं कह रहा हूँ – जॉय को स्कैन करने दीजिए,
उसका ऐप झूठ नहीं बोलता।”
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(जॉय – मोबाइल को प्लेट के ऊपर घुमाते हुए, जैसे RAW की छानबीन चल रही हो)
जॉय:
> “डेटा विश्लेषण से स्पष्ट है —
12:04:32 पर लीना की प्लेट में दो कचौड़ियाँ थीं,
12:05:11 पर एक गायब हो गई।
फेस रिकग्निशन अल्गोरिद्म कहता है:
बाबू जी, आपके चेहरे पर भोजन अपराध की भाव-भंगिमा पाई गई है!”
बाबू (हँसते हुए, पर थोड़ा घबराए हुए):
> “क्या मतलब?
मेरे चेहरे पर ‘कचौड़ी चोर’ लिखा है?
मैं तो बस... स्वाद के आंकलन हेतु एक कौर ले रहा था।
और वैसे भी, मैं क्या अकेला हूं जिसे भूख लगती है?
आपकी AI को Aloo-Injustice कहिए!”
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(ज़ोया – एक कोने से बोली, आँखें बंद किए हुए, जैसे कोई संत ध्यान में कुछ देख ले)
ज़ोया:
> “ये कचौड़ी की घटना नहीं है...
ये एक प्रतिरोध है।
शायद वो कचौड़ी खुद को खिला देना चाहती थी –
ताकि बाकी बचे लोगों को सामूहिक अपराधबोध हो।
ये कला है, क्रांति है, और
पिघलता हुआ तेल हमारे समाज की गर्मी का प्रतीक है!”
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(और अब... महाभारत प्रारंभ!)
लीना:
> “मुझे मेरी कचौड़ी दो वरना ये आंदोलन अनशन में बदल जाएगा!”
समर:
“चलो सबकी प्लेट की छानबीन करते हैं – CSI: Kachori Squad एक्टिवेट करो।”
मोंटी:
“पहले भगवती की कसम खिलवाओ, फिर पूछो – किसने खाई?”
बाबू:
“मैं कहता हूँ, सब एक-एक प्लेट उलट दें – और फिर करें न्याय!”
कबीर:
“पहले सब तोंद दिखाएँ – जहाँ कचौड़ी जाएगी, वहीं से सुराग मिलेगा।”
जॉय:
“मोबाइल उठाओ, कचौड़ी-सेल्फी खींचो। जिससे सबसे ज्यादा crumbs गिरें हैं, वही दोषी है।”
ज़ोया:
“मैं इस पूरे दृश्य को इंस्टॉलेशन आर्ट में बदल दूँगी – नाम होगा: ‘Who Ate Her Identity?’”
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मैं (लेखक):
> और मैं वहीं बैठा सोच रहा था...
"ये सब मेरी आँखों के सामने हो रहा है?
ये क्या… लोकतंत्र की गली है या हलवाई की थाली?"
मुझे पहली बार समझ आया —
झगड़ा तब शुरू नहीं होता जब विचार टकराते हैं,
झगड़ा तब होता है जब भूख के साथ विचार टकराते हैं!
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अंत में... कबीर की तोंद में से कुछ अत्यधिक गर्म आलू की गंध निकली —
और सभा का ध्यान उस दिशा में मुड़ गया।
जांच गहराई से जारी थी...
संघर्ष अभी जारी है…
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अध्याय 3: कचौड़ी की जाँच — तोंद, टोपी और ट्रुथ-टेक्नोलॉजी
(उपशीर्षक: “जहाँ न्याय का तराजू नहीं, तोंद तौलने वाली मशीन चली।”)
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> पिछले अध्याय तक:
कचौड़ी गायब थी।
लीना नाराज़ थी।
समर ने गणना की, जॉय ने स्कैन किया,
और अब... संदेह की उँगली सीधा जाकर ठहरी कबीर की तोंद पर।
पर तोंद का क्या दोष?
वो तो बस अनुभव और स्वाद की गठजोड़ से बनी एक जीवित जीवाश्म थी!
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दृश्य – वही धर्मशाला, पर अब ‘CSI: कचौड़ी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन’ का हेडक्वार्टर
हवा में गर्म तेल की खुशबू,
और तोंद की आभा चारों ओर फैली हुई है।
जॉय के मोबाइल की टॉर्च अब ‘फॉरेंसिक लाइट’ बन चुकी है।
कबीर चुप हैं — पर उनकी तोंद मुखर है।
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(जॉय – पूरी गंभीरता से, जैसे हलवाई की थाली पर कोई सर्जरी कर रहा हो)
जॉय (मोबाइल घुमाते हुए):
> “मैंने ‘Gastric Pressure Mapping’ तकनीक लागू की है।
यह बताएगा कि किसकी आंतरिक प्रणाली में सबसे अधिक ‘कचौड़िक भार’ विद्यमान है।”
बाबू (मुस्कराते हुए):
> “मतलब अब तोंद ही गवाह बनेगी?
अरे भाई, मेरी तोंद तो भावनाओं की गहराई है।
इसमें अतीत की पूरियाँ, वर्तमान की पकौड़ियाँ और भविष्य की जलेबियाँ हैं!”
समर:
> “ये तोंद नहीं, भोजन भंडारण का लोकतांत्रिक केंद्र है।
परंतु सटीक निरीक्षण हेतु,
कृपया सब लोग खड़े हो जाएँ…
और अपने-अपने पेट को 45 डिग्री झुकाकर दिखाएँ।”
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(पात्र खड़े होते हैं — मंच पर एक हास्यास्पद दृश्य)
मोंटी की तोंद गोल, जैसे कपालभाति से पवित्र।
बाबू की तोंद लहरदार, जैसे तर्कों की नदी।
जॉय की तोंद स्किनी, पर मोबाइल का बैग भारी।
ज़ोया की पेट-रेखा बिलकुल कला की रेखा जैसी।
कबीर की तोंद — ओह, कबीर की तोंद...
वो ऐसी कि लगे, जैसे ‘पुरातन तंदूरी गुब्बारा’ हो।
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(लीना – हाथ में चम्मच लिए, जैसे कोई खोजकर्ता हो)
लीना (गुस्से में):
> “तो आप सब मुझे मूर्ख समझते हैं?
मैं स्त्री हूँ, पर जासूसी में अबला नहीं!
मैंने खुद इस तोंद की छाया का विश्लेषण किया है —
और वहाँ जो स्पॉट था,
वो सरसों तेल में डूबा हुआ था!”
कबीर (घबराकर):
> “ये तोंद तो वर्षों से तेल झेलती आई है।
इसमें अब कोई नया धब्बा कहां से आया?”
जॉय (आँखें सिकोड़कर):
> “मेरे Thermal Imaging Device के अनुसार…
आपकी तोंद पर जो तापमान है,
वो हाल ही में तली गई कचौड़ी के संपर्क का संकेत देता है।”
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(बाबू – शायराना अंदाज़ में बात घुमाते हुए)
बाबू:
> “ये तापमान की बात है जनाब,
मोहब्बत में भी कभी-कभी बुखार आता है।
कचौड़ी हो या कसक,
पेट तक पहुंच जाए — तो गुनाह नहीं, कला है!”
ज़ोया (उंगलियाँ चटनी में डुबोते हुए):
> “अगर कोई कचौड़ी खा भी गया —
तो शायद वो आत्मा की भूख मिटा रहा था।
कला की भाषा में कहें,
ये एक ‘Digestive Protest’ था!”
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(और तभी...)
समर अपनी पॉकेट से कुछ निकालते हैं — एक वैज्ञानिक यंत्र!
नाम: ‘OilPrint Identifier’ — जो तोंद पर गिरे तेल से पता लगा सकता है कौन सी कचौड़ी थी।
समर (गर्व से):
> “अब सच सामने आएगा।
इस मशीन से मैं कबीर की तोंद पर लगे तेल के कणों को पढ़ सकता हूँ –
और यह बताएगी कि वह तेल प्याज़ वाली कचौड़ी का है या बिना प्याज़ की।”
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(कबीर – हड़बड़ाकर अपनी शॉल कसते हैं)
कबीर:
> “अरे भाई! ये तो निजता का उल्लंघन है।
तोंद अब सार्वजनिक दस्तावेज़ बन चुकी है क्या?”
लीना:
> “तोंद जब तक खाली थी, तुम्हारी थी।
पर अब वो सबकी साक्षी है!”
जॉय (मुस्कराकर):
> “Breaking News:
'KachoriLeaks' सामने आया है।
और उसके Source का नाम है: K-Bir।”
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(मैं – लेखक, अपनी डायरी में लिखते हुए, धीरे से मुस्कराते हुए)
> “सदियों बाद शायद लोग इस सभा की चर्चा करेंगे…
कि कैसे एक तली हुई कचौड़ी ने
जाति, धर्म, विज्ञान, कला, नारीवाद और भूख को एक मंच पर ला खड़ा किया।
और कैसे न्याय का पलड़ा तोंद से तोला गया…
मैं गवाह हूँ —
जहाँ गाली नहीं, तली दी जाती थी।
जहाँ बहस में सब गरम होते थे —
पर अंत में… चटनी साथ बैठा देती थी!”
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> पिछले अध्याय तक:
एक गायब कचौड़ी ने भूख, शंका और शक की आँधी खड़ी कर दी।
तोंदों की जाँच, तेल की स्कैनिंग, और भावनाओं का फ्राइंग हुआ।
लेकिन अब…
जब न्याय की आँच धीमी पड़ी,
और भूख फिर सिर उठाने लगी —
तो एक हलवाई ने इतिहास रच दिया!
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**दृश्य: वही धर्मशाला का भोजन कक्ष,
पर अब वहाँ लड़ाई नहीं, भूख की सामूहिक चुप्पी है।**
लीना ने बहस थाम ली है,
कबीर अब तोंद को कंबल से ढँक चुके हैं,
जॉय का मोबाइल चार्जर ढूँढ रहा है,
और समर ‘Data Overload’ से थककर चाय की चुस्कियों में Data ढूँढ रहा है।
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(पृष्ठभूमि में हलवाई, नायक की तरह उभरते हैं – जैसे MCU में कोई “Captain Chashni” हो)
हलवाई (अपने विशाल भगोने को घुमाते हुए):
> “ओह, इतने बहस तो चुनाव के बाद भी नहीं होते,
जितना तुम सबने एक कचौड़ी के लिए कर लिया!
पर अब वक्त है — सामूहिक समाधान का।”
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(मोंटी – धार्मिक भाव में, जैसे महाभारत के युद्ध के बाद कृष्ण शांतिदूत बन गए हों)
मोंटी (माथे पर चंदन लगाते हुए):
> “शांति का मार्ग एक ही है —
सबको कढ़ाही में डुबो दो!
मेरा मतलब है…
सब मिलकर एक ही कढ़ाही में तलें,
ताकि एकता के तेल में भूतपूर्व बैर गल जाएं।”
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(लीना – अब थोड़ा हँसकर, हाथ में कलछुल लेकर)
लीना:
> “वाह! क्रांति का नया मार्ग:
तल कर टकराव भूल जाना!
ठीक है, मैं प्याज़ काटती हूँ।
लेकिन चेतावनी दे दूँ —
अगर कोई फिर से मेरी कचौड़ी छुएगा,
तो अगली बार मैं तेल में न्याय तल दूँगी।”
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(समर – कैलकुलेटर लेकर)
समर:
> “मैं तेल का तापमान मापता हूँ —
ताकि कचौड़ी 100 डिग्री Celsius में भी समानता से तली जाए।
और सबका आकार Standard Deviation में फिट हो।”
जॉय:
> “मैं सबकी कचौड़ियों की Face ID रजिस्टर कर दूँगा,
ताकि कोई किसी की न खा सके —
और अगर खाए तो अलार्म बजे:
'कचौड़ी चोरी अलर्ट!'”
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(कबीर – अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए, हँसी में गुमाकर)
कबीर:
> “मुझे माफ करना मित्रों,
मेरी तोंद तो ‘भूतपूर्व शत्रुओं का संग्रहालय’ है।
अब से उसमें सिर्फ दोस्ती का पकवान संचित होगा।”
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(ज़ोया – एक चम्मच चटनी चखकर, गहराई से बोलती हैं)
ज़ोया:
> “ये चटनी…
ये सिर्फ इमली, पुदीना और मसाले नहीं है।
ये हमारी एकता का रस है —
थोड़ा तीखा, थोड़ा मीठा, और बहुत ज़्यादा बाँधने वाला।”
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**(और फिर…
तली जाती है सामूहिक कचौड़ी —
जिसे सबने मिलकर गूंथा, काटा, तला और फिर हँसी में बाँटा)**
कढ़ाही में उठता हुआ तेल का संगीत,
चटनी की खुशबू,
और सबकी हथेलियों पर लिपटी ताज़गी…
ये था ‘कचौड़ी-करार’,
जहाँ बिना कागज़, बिना हस्ताक्षर —
एक अदृश्य दोस्ती की डोर बंध गई थी।
---
मैं (लेखक – अपने डायरी में चाय डुबोते हुए)
> “आज मैंने देखा —
बहस चाहे कितनी भी गरम हो,
अगर सब मिलकर कुछ तल लें…
तो विचार भी कुरकुरे हो जाते हैं,
और मतभेद — चटनी में डूबकर, स्वाद बन जाते हैं।
‘धर्मनिरपेक्षता’ शायद यही है —
जब हम एक ही तेल में अपने अलग-अलग स्वाद लेकर आएं,
और मिलकर एक पकवान बन जाएं…
न कोई ज़्यादा फूला,
न कोई कम तला —
सबकी अलग खुशबू,
पर एक ही थाली।”
---
(पात्र अंत में तश्तरी में कचौड़ियाँ बाँटते हैं,
और एक-दूसरे को चटनी चखाने लगते हैं —
न बहस है, न आरोप।
सिर्फ स्वाद, हँसी और तली हुई दोस्ती।)
---
अध्याय 5: विचारों की बेलन – जब आटे से बना संविधान
(उपशीर्षक: “जब नफ़रत की गूँथाई बंद करके, सबने विचारों की रोटी बेलनी सीखी।”)
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> पिछले अध्याय तक:
कचौड़ी कांड के बाद दोस्ती की आंच में सबके रिश्ते तले गए।
तोंद पर शक हुआ, चटनी में मेल हुआ, और अब सबके पेट में शांति है।
पर मन?
वो अभी भी थोड़ा बिखरा है।
हलवाई ने अगली चुनौती दी —
“अब रोटियाँ बेलो! पर इस बार… विचारों से।”
और यहीं से शुरू हुआ…
गूँथाई, बेलन, और बेइंतिहा तर्कों की चकला-चकली।
---
दृश्य: वही धर्मशाला का रसोईघर
पर अब वह किचन कम, विचारों का संविधान सभा ज़्यादा लग रहा है।
हर पात्र के सामने आटे का लोथड़ा रखा है — साथ में एक बेलन, और मन में सवाल।
---
(हलवाई – आज पूरी गंभीरता में, जैसे खाना नहीं, संविधान गढ़ा जा रहा हो)
हलवाई:
> “आज से हर कोई अपनी रोटी खुद बेलेगा।
लेकिन ये रोटी सिर्फ गेहूं से नहीं —
अपने विचारों से गूंथी जाएगी।
और जो रोटी सबसे गोल, लचीली और सहनशील निकलेगी —
वही ‘लोक-रोटी’ कहलाएगी!”
लीना (हाथ में बेलन उठाते हुए):
> “मतलब आज विचारों की बेलन चलेगी?
तो सुन लो — मेरी रोटी में बराबरी का नमक होगा,
और घी की जगह आत्मनिर्भरता लगेगी।”
---
(समर – कन्वर्टर उठाते हुए)
समर:
> “मैं अपनी रोटी का क्षेत्रफल नापूंगा।
अगर कोई रोटी ‘एक वर्ग सेंटीमीटर भी असमान’ निकली —
तो वो संवैधानिक रूप से अमान्य घोषित कर दी जाएगी।”
जॉय (बेलन को मोबाइल स्टैंड की तरह इस्तेमाल करते हुए):
> “मैं तो बेलन को Bluetooth से जोड़कर
‘Smart Roti Tracker’ बना रहा हूँ।
इससे पता चलेगा कि आपकी रोटी
‘Inclusive’ है या ‘Burnt at the Edges’!”
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(बाबू – बेलन को कविता की तरह घुमाते हुए)
बाबू:
> “मेरी रोटी गोल नहीं,
थोड़ी टेढ़ी-मेढ़ी होगी…
जैसे ज़िंदगी।
और उस पर छेद होंगे —
ताकि हवा चल सके विचारों में।
ये संविधान नहीं,
स्वान्तंत्र्य की रोटी है!”
मोंटी (गंभीर मुद्रा में):
> “मेरी रोटी केवल तब पकेगी,
जब उस पर सनातन परंपरा की मुद्राएँ लगें।
पर ध्यान रहे —
उसमें 'अहिंसा' की भाप ज़रूर होगी।”
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(ज़ोया – मुस्कराते हुए, हल्दी छिड़कते हुए)
ज़ोया:
> “मैं अपनी रोटी को ‘संस्कृति की चादर’ में लपेटूँगी।
थोड़ी रंगीन, थोड़ी तीखी, और बहुत विविध।
लेकिन मेरी शर्त है —
हर रोटी में एक कोना ‘प्रेम’ का होना चाहिए!”
---
(और तभी… कबीर अपनी तोंद पर बेलन रखकर चिंतन मुद्रा में बैठ जाते हैं)
कबीर:
> “मैंने निर्णय लिया है —
इस बार रोटी नहीं बेलूँगा।
मैं सिर्फ सबकी रोटियों को चखूंगा —
ताकि तय कर सकूँ,
किसका विचार ज्यादा ‘पचने योग्य’ है।”
लीना:
> “मतलब तू खुद संविधान नहीं बनाएगा,
पर दूसरों के संविधान को Digest करने चला है?”
कबीर (गर्व से):
> “हाँ, मैं लोक-संविधान-टेस्टर हूँ।
और मेरी तोंद… विचारों की समीक्षा के लिए प्रमाणित है!”
---
(चूल्हे पर रोटियाँ चढ़ने लगती हैं)
कुछ जली, कुछ कच्ची, कुछ अति सेंकी गईं।
पर सबसे सुंदर वो थी —
जिसे सबने मिलकर बेलकर बनाया था:
गोल भी, नम्र भी, और हर एक की उँगली का निशान उस पर था।
---
(हलवाई — गर्व से मुस्कराते हुए)
हलवाई:
> “यही है असली संविधान —
जहाँ कोई रोटी छोटी-बड़ी नहीं,
कोई सेंकने वाला ऊँच-नीच नहीं,
और सबका आटा एक ही परात में गूंथा गया हो।”
---
(मैं – लेखक, अब बेलन के हत्थे से डायरी पन्ना पलटते हुए)
> “कभी संविधान बड़ी बड़ी किताबों से नहीं बनते —
वो बनते हैं चूल्हों के पास,
जहाँ सबके हाथ एक काम में लगें…
और विचार, आटे की तरह मिल जाएं।
आज मैंने देखा —
विचारों को अगर बेलन से बेलो,
और उसमें भेदभाव न हो,
तो वो रोटी नहीं,
साझा संस्कृति बन जाती है।”
---
अध्याय 6: भोजन का बहुमत — जब पकवानों ने वोटिंग की
(उपशीर्षक: “जब हर व्यंजन को लगा कि वही देश का स्वाद है… और चुनावी तवा गरम हुआ।”)
---
> पिछले अध्याय तक:
सबने विचारों की रोटियाँ बेलीं,
कुछ फूलीं, कुछ फट गईं, कुछ कच्ची रह गईं।
फिर हलवाई ने कहा —
अब असली लोकतंत्र शुरू होगा!
रोटी बेलना आसान था,
पर अब पकवानों का चुनाव होगा।
कौन बनेगा ‘राष्ट्रीय व्यंजन’?
कौन जीतेगा बहुमत?
कौन खाएगा वोट… और कौन गिरेगा सॉस में?
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दृश्य: धर्मशाला के मध्य हाल में चुनावी मंच सजा है
एक तरफ आलू टिक्की का मंच, दूसरी तरफ खिचड़ी का कैम्प।
गोलगप्पे वाले ने प्रचार वाहन बना लिया है — ठेले को!
और समोसा पार्टी ने तो घोषणापत्र तक छपवा लिया है!
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(हलवाई – अब मुख्य चुनाव अधिकारी)
हलवाई (सीटी बजाकर):
> “ध्यान दीजिए ध्यान दीजिए!
आज का दिन ऐतिहासिक है!
जैसे देश में चुनाव होते हैं,
वैसे ही आज भोजन का बहुमत तय करेगा —
‘राष्ट्रीय स्वाद-प्रतिनिधि’ कौन होगा!”
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(प्रत्याशी संख्या 1: समोसा)
समोसा (काग़ज़ों में लिपटा, मंच पर चढ़कर):
> “मेरे अंदर सिर्फ आलू नहीं,
बल्कि संघर्ष का स्वाद है!
मैं तला गया हूँ… पर कभी झुका नहीं!
मैं तिकोना हूँ… पर हमेशा सबको साथ लेकर चलता हूँ!
मेरी नीति स्पष्ट है —
हर थाली में दो समोसे!”
भीड़: "वाह! समोसा ज़िंदाबाद!"
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(प्रत्याशी संख्या 2: खिचड़ी)
खिचड़ी (एक भगोने से निकलती भाप के साथ):
> “मैं सरल हूँ, सादा हूँ,
पर सबको पचने वाली हूँ!
मेरे अंदर चावल भी है, दाल भी…
और थोड़ा-थोड़ा हर जाति-धर्म का मसाला भी!
अगर मुझे चुना गया,
तो हर घर में ‘एकजुटता का स्वाद’ होगा।
मैं खिचड़ी हूँ,
पर किसी की खिच-खिच नहीं होने दूँगी!”
भीड़: "खिचड़ी का ही ख्याल है!"
---
(प्रत्याशी संख्या 3: पनीर बटर मसाला)
पनीर (शाही अंदाज़ में):
> “मैं शाही हूँ, मलाईदार हूँ…
थोड़ा महंगा जरूर हूँ,
लेकिन स्वाद में लोकतंत्र का DNA हूँ!
मैं मिठास और मसाले का संतुलन हूँ —
जैसे संसद में समझौता!”
लीना:
> “लेकिन हर कोई तुझे अफोर्ड नहीं कर सकता!
महंगाई का क्या समाधान है?”
पनीर (गर्व से):
> “मैं GST से बाहर रहने की योजना लाऊँगा!”
---
(प्रत्याशी संख्या 4: गोलगप्पा)
गोलगप्पा (जल्दी-जल्दी बोलते हुए):
> “मैं हर नुक्कड़, हर गली का नायक हूँ!
मेरी पार्टी में न भाषा की बाधा है,
न भूख की सीमा!
मैं फूट-फूटकर लोगों को जोड़ता हूँ!
एक वोट दो, एक मीठा, एक तीखा,
और एक जीवनभर का स्वाद पाओ!”
बाबू:
> “पर तुझमें स्थिरता कहाँ है?
हर बार स्वाद बदलता है!”
गोलगप्पा:
> “वो ही तो असली लोकतंत्र है —
बदलते स्वाद के साथ भी अपनापन!”
---
अब सब पात्र वोट देने को तैयार…
(समर मोबाइल पर वोटिंग ऐप बना रहा है,
कबीर ने कूपन के बदले वोट खरीदने की योजना बनाई,
और मोंटी पोस्टर चिपका रहे हैं: “Vote for Vegetarian Unity”)
---
(चुनाव की प्रक्रिया शुरू — हलवाई मंच पर)
हलवाई:
> “अब हर कोई अपनी थाली लेकर वोट डालेगा!
और याद रखो —
वोट की गोपनीयता उतनी ही ज़रूरी है
जितनी कचौड़ी में आलू!”
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(वोटिंग के बाद… हलवाई परिणामों की घोषणा करते हैं)
हलवाई (ढोल बजाते हुए):
> “भाइयों और बहनों…
भारी मतदान और हल्के मसालों के बाद,
भोजन का बहुमत यह कहता है —
‘राष्ट्रीय व्यंजन का ताज जाएगा… खिचड़ी को!’”
भीड़: “खिचड़ी का ही ख्याल है! खिचड़ी सबकी माँ है!”
---
**(समोसा भाप छोड़ता है, पनीर नाराज़ होकर मलाई में डूब जाता है,
और गोलगप्पा खुद फूट जाता है — लोकतांत्रिक तरीके से!)**
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(ज़ोया – सबको समझाते हुए)
ज़ोया:
> “देखो, आज हमने सीखा —
स्वाद चाहे अलग हो,
पर जब सबकी भूख एक हो,
तो एकता की खिचड़ी ही सबसे बड़ा पकवान बनती है!”
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(मैं – लेखक, अब वोटिंग स्लिप को चाय की प्याली में डुबोते हुए)
> “आज देखा —
जब समोसे और पनीर जैसी ताक़तें भी
खिचड़ी के सामने झुक गईं,
तो असली जीत ‘सहजता’ की थी।
लोकतंत्र का असली स्वाद यही है —
जहाँ वोट, वोटर और व्यंजन —
तीनों गरम हों, पर संतुलन में रहें!”
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अध्याय 7: चाय-पर-चर्चा — जब उबाल में निकली सामाजिक सच्चाई
(उपशीर्षक: "जब पानी, पत्ती, दूध और शक्कर ने जात-पात छोड़ एक कप में घुल-मिलकर इंसानियत पी ली!")
---
> अब तक क्या हुआ:
विचार बेल लिए, संविधान सेंक लिया,
पकवानों का चुनाव हो गया,
खिचड़ी जीती, समोसा रूठा, पनीर भाव खा गया।
अब बारी है... थोड़ा सुस्ताने की, पर चाय के साथ।
क्योंकि भारत में क्रांति हो या कांड,
सबकी शुरुआत होती है एक कप चाय से।
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दृश्य: धर्मशाला के बरामदे में ‘आत्म-निर्भर चाय-स्टॉल’
नाम: “चाय-ग्रह – जहाँ विचार उबलते हैं”
नारा: “दूध कम हो सकता है, पर बहस नहीं!”
हलवाई अब “चाय मंत्री” घोषित हो चुके हैं।
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(हलवाई – केतली को मंत्रमुग्ध भाव से देखते हुए)
हलवाई:
> “चाय बनाना आसान नहीं है —
इसमें समाज छुपा है।
पानी है — जो सबको साथ बहाता है,
पत्ती है — जो कड़वाहट लाती है,
दूध है — जो सबको एकसार करता है,
और चीनी… चीनी है भाई —
बिना पूछे मीठा कर देती है!”
कबीर (केतली के ऊपर तोंद टिकाकर):
> “और मसाला...?
वो तो गुस्से की तरह है —
ज़्यादा डाला तो सबका मूड ख़राब।”
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(लीना – समाजशास्त्र की चाय बना रही है)
लीना:
> “मेरी चाय में शिक्षा की पत्ती है,
और समानता का दूध।
मगर दिक्कत ये है —
हर कोई अपने कप की ऊँचाई देखकर
स्वाद तय करता है!”
समर (गणित के चम्मच से चीनी नापते हुए):
> “तुम लोग इमोशनल हो।
चाय का तंत्र सीधा है —
Milk + Water + Leaves + Sugar = Integration
बस अनुपात सही होना चाहिए, समाज अपने आप सुलझेगा।”
---
(मोंटी – केतली को ध्यान से सुनते हुए)
मोंटी:
> “मैंने सुना है चाय भी धर्मों में बँटी है!
कोई काली पीता है, कोई ग्रीन, कोई अदरक वाली।
पर सच ये है —
चाय जब खौलती है, तो
जाति-पांति सब भाप बन के उड़ जाती है!”
ज़ोया:
> “हाँ… और जो भाप नहीं उड़ती,
वो कप की किनारी पर जमा होकर
सामाजिक दूरी बनाती है।”
---
अब शुरू होती है “चाय-पर-चर्चा”
---
चर्चा का विषय: "समाज में भेदभाव क्यों है?"
जॉय (मोबाइल पर ‘चाय मीटर’ चलाते हुए):
> “मेरी रिसर्च कहती है,
हर बार जब चाय दो लोगों को साथ लाती है,
कोई न कोई वहाँ ‘ब्रांड’ ढूँढने लगता है।”
बाबू (एक पुरानी स्टील की प्याली लेकर):
> “मेरी चाय प्याली टूटी हुई है,
पर सबसे ज़्यादा गूंज इसमें ही होती है।
समाज भी ऐसा ही है —
जो टूटे हैं, वही असली स्वाद लाते हैं!”
---
(और फिर शुरू होती है “चाय से प्रेरित बहस युद्ध”)
कबीर:
> “मैं ‘कड़क चाय’ का समर्थक हूँ —
जिसमें पत्ती ज़्यादा हो और दूध कम।
मतलब – कड़वा सच, ज़्यादा बोलो!”
लीना:
> “और मैं चाहती हूँ कि
हर कप में स्वाद बराबर हो।
चाहे वो नीली प्याली में हो या महंगी मग में!”
समर:
> “मैं तो सोच रहा हूँ…
चाय को वोटिंग से जोड़ दें।
जो चाय ज़्यादा पसंद, वही नीति बन जाए!”
जॉय (आशंका से):
> “तो क्या होगा अगर कोई ‘ड्राइ टी’ चुन ले?
बिना दूध, बिना चीनी, बिना इंसानियत?”
---
(अचानक चाय का उबाल बढ़ जाता है — और केतली छलक जाती है!)
केतली से सीधा उबलता पानी कबीर की तोंद पर पड़ता है!
कबीर उछलते हैं — एक हाथ में कप, एक हाथ में तोंद…
और लुंगी उड़कर सीधा हलवाई की चाय में गिर जाती है!
---
(हंसी का बवंडर!)
लीना: “लो! अब ये चाय नहीं, ‘लुंगी-चाय’ बन गई!”
जॉय: “अब इसे पीने से पहले ‘लुंगी परंपरा’ को समझना होगा!”
समर: “इसमें अब स्वाद नहीं, सिर्फ शर्म शेष है!”
---
(लेकिन फिर सब चुप हो जाते हैं… जब हलवाई बोलते हैं)
हलवाई (गंभीर होकर):
> “देखा तुमने?
जब तक चाय प्याले में थी — सब मत थे।
लेकिन जैसे ही चाय छलकी —
सब एक हो गए… हँसी में, मदद में,
और समझ में।”
---
(निष्कर्ष का प्याला)
ज़ोया (धीरे से कहती है):
> “शायद यही है समाज का सच —
जब तक हम कप देखकर स्वाद पहचानते हैं,
तब तक हम बँटे रहते हैं।
पर जब चाय छलकती है —
हम सब उसमें भीग जाते हैं… एक साथ!”
---
(मैं – लेखक, अब अपनी डायरी की जगह केतली में झाँकते हुए)
> “आज मैंने देखा —
हर समाज को एक उबाल की ज़रूरत होती है,
ताकि सच्चाई सतह पर आ सके।
जाति-पांति, धर्म, ऊँच-नीच — सब पत्तियाँ हैं,
पर जब तक वो उबालें नहीं,
इंसानियत की चाय नहीं बनती।”
---
अध्याय 8: बर्तन-बवाल — जब थालियों ने आरक्षण माँगा
(उपशीर्षक: "जब परोसने से पहले थालियाँ बोलीं — ‘हमें पहले परोसा जाए!’")
---
> पिछले अध्याय में:
चाय उबली, तोंद जली, लुंगी तैरी,
विचार भीग गए, और समाज थोड़ा समझदार हो गया।
लेकिन जैसे ही मिठाई आने को हुई —
धर्मशाला के बर्तनों में हलचल मच गई।
प्लेट, कटोरी, तश्तरी, लोटा, भगौना —
सबका स्वाभिमान जाग उठा।
क्योंकि जब खाने में समानता हो सकती है,
तो बर्तनों में भेदभाव क्यों?
---
दृश्य: धर्मशाला की रसोई के पीछे का बर्तन-स्टोर रूम
वहाँ की दीवार पर लिखा है: “खाने से पहले, बर्तनों से बात करो!”
हलवाई ने अब “बर्तन पंचायत” बुला ली है।
सभी पात्र अब सिर्फ भोजन नहीं, बर्तनों की आवाज़ भी सुन रहे हैं!
---
(बड़ा भगौना – खुद को रसोई का बाबा समझता है)
भगौना (अपना ढक्कन खोलते हुए):
> “मैं सालों से उबल रहा हूँ…
दाल में भी, समाज में भी।
लेकिन परोसा किसमें जाता है?
छोटे चम्मचों में!
तश्तरियों में!
जिन्हें तो बस दिखावे के लिए रखा जाता है!
मैं माँग करता हूँ —
मुझे आरक्षण मिले!
कम से कम मिठाई का हिस्सा तो मेरी भी थाली में पड़े!”
---
(स्टील की थाली – चकाचक, आत्म-गर्व से लिपटी)
थाली (चमचमाती हुई):
> “आरक्षण? अरे मुझे तो दिखाने भर के लिए सजाया जाता है।
सारा खाना मुझ पर फेंक दिया जाता है —
सब्ज़ी बहे, दाल टपके, चटनी छींटे…
और फिर कोई कहता है — ‘ये थाली तो गंदी हो गई!’
मैं थाली हूँ — मैं मांग करती हूँ कि
‘परोसने से पहले मुझे पूछा जाए,
मेरी सीमाओं का सम्मान किया जाए!’”
---
(कटोरी – थोड़ा तिरछा होकर)
कटोरी:
> “मुझे सदियों से ‘साइड आइटम’ की तरह देखा गया है!
कभी रायता, कभी खीर, कभी चटनी…
और जब खाना खत्म होता है,
तो कहा जाता है — ‘कटोरी फेंक दो, कौन धोएगा!’
मैं भी संविधान की एक अनुच्छेद बनवाना चाहती हूँ —
*‘कटोरी संरक्षण अधिनियम!’”
---
(लोटा – मंच पर चढ़ते हुए, खुद को “पारंपरिक मूल्य” बताता है)
लोटा:
> “मुझे पूजा में रखा जाता है,
पर भोजन में बहिष्कृत!
मैं माँग करता हूँ कि
‘हर खाने में कम से कम एक घूँट मेरे माध्यम से हो!’
और हाँ —
मुझे टॉयलेट के नाम से जोड़ा गया है,
वो घोर अपमान है!”
---
अब इंसानों में चर्चा छिड़ गई — “क्या बर्तनों को अधिकार दिए जाएं?”
कबीर (हँसते हुए):
> “अब बर्तन भी आंदोलन करेंगे?
कहीं ऐसा न हो कल को कढ़ाही बोले —
‘मुझे चूल्हे पर ना चढ़ाया जाए, मेरा भी सम्मान है!’”
लीना (गंभीर होकर):
> “अरे नहीं कबीर,
ये तो बहुत जरूरी मुद्दा है।
थाली और कटोरी में भी समाज बसा है —
कोई चमचमाती है, कोई पुरानी पड़ी है,
और सब पर खाना परोसा जाता है…
पर इज्ज़त केवल प्लेटों की होती है!”
---
(समर – बर्तनों के लिए 'डेटा रिपोर्ट' पढ़ता है)
समर:
> “सर्वे कहता है —
72% बार चम्मच गुम हो जाते हैं,
और सबसे पहले बर्तन धोने वाला दोषी ठहरता है!
हम इन बर्तनों के साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं करते,
बल्कि उपयोग की वस्तु समझते हैं।
मैं प्रस्ताव रखता हूँ —
‘बर्तन अधिकार विधेयक 2025’ लाया जाए!”
---
(तब हलवाई, अब 'संवैधानिक परोसक' बन चुके, बोलते हैं)
हलवाई:
> “देखिए साथियों,
रोटी सबके लिए सेंकी जाती है,
पर किसे किस प्लेट में मिलेगी,
ये तश्तरी तय करती है!
अगर एक थाली चीनी की है, एक स्टील की, एक पत्तल की —
तो क्या हम खाने की गरिमा को बाँट नहीं रहे?”
---
(इस बीच, एक हास्यपूर्ण घटना घटती है!)
जॉय गलती से सारे बर्तन गिरा देता है —
थाली छन-छन करती है, कटोरी लुढ़कती है, लोटा उछलकर कबीर के सिर पर चढ़ जाता है,
और भगौना तो सीधा हलवाई की टोपी में घुस जाता है!
---
(और अब… सब हँसी से लोटपोट!)
लीना:
> “लो! अब आरक्षण नहीं, क्रांति हो गई है बर्तनों में!”
मोंटी:
“अब संविधान में एक नया कॉलम चाहिए —
‘बर्तन पहचान पत्र’!”
जॉय:
“और सबसे नीचे लिखा होगा —
'सभी बर्तन बराबर हैं,
जब तक कोई बेसिन में गिरे नहीं!'”
---
(ज़ोया – धीरे से कहती है)
ज़ोया:
> “देखो…
बर्तन भी इंसानों की तरह ही हैं —
कोई चमकदार, कोई धूल भरा, कोई टूटा, कोई नया…
पर सबमें खाना परोसा जाता है,
और सबका पेट भरता है।
समाज को भी यही सीखनी चाहिए —
कौन कैसा है, ये नहीं —
किसने कितना दिया और झेला, ये ज़रूरी है!”
---
(मैं – लेखक, अब बर्तन धोते हुए)
> “कभी थाली में देखो,
उसमें सिर्फ खाना नहीं होता —
ताने, भेदभाव, परंपराएँ और अधिकार भी होते हैं!
और जब बर्तन बोलते हैं,
तो इंसान को अपनी आवाज़ सुननी पड़ती है।”
---
अध्याय 9: झाड़ू बनाम झाड़ूवाला — जब सफाई में भी गंदगी मिली
(उपशीर्षक: “जब झाड़ू बोली – ‘मैं स्वच्छता की देवी हूँ!’ और झाड़ूवाला बोला – ‘पर पूजा में कभी मुझे नहीं बैठाया!’”)
---
> पिछले अध्याय में:
थालियाँ गरजीं, कटोरियाँ लड़ पड़ीं,
और भगौना तो संविधान की प्रस्तावना बना बैठा!
पर अब धर्मशाला की रसोई के पीछे
एक और क्रांति सिर उठाने लगी थी —
"साफ़-सफ़ाई की क्रांति!"
क्योंकि जहाँ खाना बनता है, वहाँ गंदगी भी होती है।
और जहाँ गंदगी होती है, वहाँ झाड़ू…
और जहाँ झाड़ू होती है, वहाँ राजनीति!
---
दृश्य: धर्मशाला के बाहर – कचरे के ढेर के पास एक बैठक
बैठक का नाम:
"संपूर्ण सफाई समिति: हम गंदगी से लड़ते हैं, एक-दूसरे से भी"
उपस्थित सदस्य:
झाड़ू (बाँसवाली, वरिष्ठ)
झाड़ूवाला (गुस्सैल, श्रमिक नेता)
डस्टबिन (स्वाभिमानी)
फिनाइल की बोतल (सख़्त बदबूदार)
और हमारे पुराने मित्र – लेखक और बाकी पंगत मंडली, जो बस तमाशा देखने आए हैं।
---
(झाड़ू – मंच पर चढ़कर खुद को "ग्लोबल आइकन" घोषित करती है)
झाड़ू (गर्व से):
> “मैं ‘स्वच्छ भारत’ का प्रतीक हूँ,
मैं हर फोटो में हाथों में होती हूँ —
चाहे मंत्री जी हों या फिल्म स्टार!
मैं कोई आम झाड़ू नहीं…
मैं संविधानिक सफाई की प्रतिनिधि हूँ!
पर मुझे आज शिकायत है —
मुझे चलाने वाला कभी मंच पर नहीं चढ़ता!”
---
(झाड़ूवाला – बुरी तरह झल्लाया हुआ)
झाड़ूवाला (झाड़ू घसीटते हुए):
> “हाँ! यही तो मेरा मुद्दा है!
हर जगह पोस्टर में तुम हो,
टीवी में तुम, भाषण में तुम…
और मैं?
मैं तो बस ‘लगा दो झाड़ू’ में अटक गया हूँ!”
“अब से मैं भी अपने नाम के आगे ‘वाला’ नहीं लगाऊँगा —
‘साफ़-संभ्रांत मानव’ कहलाऊँगा!”
---
(डस्टबिन – भावुक होकर)
डस्टबिन (पेट पकड़ते हुए):
> “सालों से मुझे सब भरते आए हैं…
लेकिन कोई नहीं सोचता —
मेरी भी कोई ‘कैपेसिटी’ है!
समाज में भी यही होता है —
जो भी गंदा, जो भी अनुपयोगी —
बस मुझमें डाल दो!
पर कचरा भी कभी-कभी कहना चाहता है —
‘मैं भी किसी ज़माने में काम का था!’”
---
(फिनाइल की बोतल – कटाक्ष करते हुए)
फिनाइल:
> “गंदगी मुझसे डरती है,
लेकिन लोग मुझसे भी ज्यादा नाक सिकोड़ते हैं।
समाज में जो कटु सत्य है —
वो फिनाइल जैसा ही है,
साफ़ करता है… पर बदबू के साथ आता है।”
---
अब शुरू होती है “सफाई की बहस” — झाड़ू बनाम झाड़ूवाला
---
लीना (सामाजिक चेतना से ओतप्रोत):
> “झाड़ू को प्रतीक बना दिया,
और झाड़ूवाले को अदृश्य!
ये ठीक वैसा है,
जैसे संविधान पढ़ा जाता है,
पर बनाने वालों का नाम कोई नहीं जानता।”
कबीर:
> “समाज को गंदगी नहीं दिखती,
पर उसे साफ़ करने वाला नीचा दिखता है?
यही तो है…
'सफाई में भी भेदभाव!'”
---
(तभी हलवाई आते हैं – हाथ में एक झाड़ू और दूसरे में झाड़ूवाले की पगार की रसीद)
हलवाई (फैसला सुनाते हुए):
> “आज से झाड़ू और झाड़ूवाले को समान रूप से पूजा जाएगा।
दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं,
जैसे समाज और सेवा,
या जैसे पकौड़ी और चटनी।”
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(लेकिन अब भी कुछ हास्य बाकी है!)
जॉय गलती से डस्टबिन उलट देता है —
सड़ा हुआ समोसा, खट्टी इमरती, और एक आधा पान फिसलकर
सीधा कबीर के जूतों में घुस जाता है!
मोंटी:
> “लो! अब तो तुम्हारे विचार भी ‘झाड़ूवाले’ हो गए!”
ज़ोया:
> “और जूते अब ‘संविधान के प्रारूप’ जैसे लग रहे हैं —
गंदे, पर जरूरी!”
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(अंत में लेखक की आत्मा बोलती है, झाड़ू के सहारे टेक लगाकर)
> “समाज की सबसे बड़ी विडंबना ये है —
गंदगी से नफरत नहीं होती,
गंदगी साफ़ करने वाले से होती है।
जब झाड़ू राष्ट्रीय प्रतीक बन सकती है,
तो झाड़ूवाले को राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं?
और सबसे बड़ी बात —
सफाई सिर्फ सड़कों की नहीं,
सोच की भी होनी चाहिए!”
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अध्याय 10: घंटी का विद्रोह — जब स्कूल की घंटी ने कह दिया, “अब मैं नहीं बजूँगी!”
*(उपशीर्षक: “जब समय खुद समय से नाराज़ हो गया”)
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> पिछले अध्याय में:
झाड़ू ने आत्मसम्मान पाया,
डस्टबिन ने दिल की बात कह डाली,
और झाड़ूवाले ने ‘सफाई क्रांति’ की घंटी बजा दी।
पर इस बार…
घंटी खुद बजने से इनकार कर रही है!
और जैसे ही स्कूल की पहली घंटी ने हड़ताल की,
शिक्षा प्रणाली, समय-सारणी और बच्चों की भूख –
सब एक साथ भटक गए!
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दृश्य: विद्यालय का प्रांगण – प्रार्थना सभा के समय
स्थान: ‘सर्वधर्म समभाव विद्या निकेतन’
दिन: सोमवार (जो पहले से ही बदनाम होता है)
समय: 8:00 AM (पर घंटी नहीं बजी!)
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(मुख्य पात्र – 'घंटी' – अब ‘घोषित विद्रोही’)
घंटी (ज़ोर से चिल्लाती है पर बजती नहीं):
> “मैं सालों से सबकी इच्छाओं के विरुद्ध बजती रही हूँ!
कभी ‘अभी पीरियड शुरू हुआ है!’
कभी ‘खेल का समय खत्म हुआ!’
पर आज…
मैं कहती हूँ —
अब और नहीं बजूँगी!
मैं इंसानों की ‘अनावश्यक अनुशासन की प्रतीक’ नहीं बन सकती!”
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(प्रिंसिपल मिस्टर घसीटाराम – पहली बार बिना घंटी के स्कूल में)
प्रिंसिपल (घड़ी देखकर गुस्से में):
> “घंटी नहीं बजी?
इसका मतलब है —
आज पूरा स्कूल ‘स्वतंत्र विचार दिवस’ मनाने वाला है!”
टीचर मुरारी (कानों में उँगली डालते हुए):
> “बच्चों की चिल्ल-पों सुनकर तो लग रहा है
घंटी नहीं, भूचाल आ गया है!”
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अब बच्चों की बमचक शुरू
मोंटी (पीरियड शेड्यूल का पन्ना फाड़ते हुए):
> “घंटी नहीं, मतलब मैथ्स नहीं!
आज से हर दिन ‘घंटीरहित गणराज्य’ घोषित करो!”
लीना (डायरी में टाइम टेबल जलाती हुई):
> “अब से मेरी बॉडी क्लॉक ही मेरी क्लास क्लॉक है!”
कबीर (दर्शन के मूड में):
> “ये समय का अंत नहीं,
ये ‘असमय की शुरुआत’ है!”
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(लेकिन ज़ोया – घंटी के अधिकार की पक्षधर – नाराज़!)
ज़ोया:
> “अरे रुक जाओ!
घंटी बजती थी, तो दिन चलता था…
क्लास में अनुशासन आता था,
ये घंटी नहीं,
समाज की रीढ़ थी!”
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अब घंटी का इंटरव्यू शुरू होता है – पत्रकार ‘समर’ के साथ
समर:
> “तो बताइए मिस घंटी,
आपने विद्रोह क्यों किया?”
घंटी (गंभीर स्वर में):
> “क्योंकि मैं ‘तटस्थ’ नहीं रह पाई।
पीरियड खत्म होते ही सब मुझे दोष देते थे,
‘अभी तो समझ आया था!’
और शुरू होते ही –
‘घंटी ने जल्दी बजा दी!’
मुझे कभी ‘समय का साक्षी’ नहीं,
सज़ा का प्रतीक माना गया।”
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(अब शिक्षक मंडली बैठकर घंटी मनोविज्ञान पर बहस करती है)
टीचर मुरारी:
> “घंटी ने इतनी पढ़ाई करवा दी है,
कि अब उसे भी पीएचडी इन क्लास ट्रिगरिंग मिलनी चाहिए!”
टीचर लीला:
> “कभी तो सोचिए,
घंटी भी इंसान होती तो
सालों से पोस्टिंग बदलवाने की दरख्वास्त दे चुकी होती!”
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(अब एक हास्यपूर्ण घटना घटती है)
जॉय गलती से घंटी के नीचे खड़ा होकर ज़ोर से छींकता है —
घंटी सहमकर टन-टन बज जाती है!
बच्चे समझते हैं रेसस शुरू हो गया,
और 5वीं के बच्चे पूरे स्कूल में 'चिप्स-क्रांति' छेड़ देते हैं।
प्रिंसिपल (कागज़ में सिर मारते हुए):
> “अब तो लग रहा है,
अगला अध्याय ‘समोसे की संसद’ होगा!”
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(अंत में लेखक – घंटी को कान से लगाकर बोलते हैं)
> “समय वही होता है जो हमें दिशा दे,
न कि सिर्फ पीरियड बदले।
घंटी को हमने ‘डर’ बना दिया,
जबकि वो तो बस ‘अनुशासन का आमंत्रण’ थी।
जब तक हमारी सोच में
हर साउंड एक सज़ा बने रहेगा,
तब तक…
कोई घंटी बजना नहीं चाहेगी!”
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अध्याय 11 (समापन): चप्पल न्यायालय — जब फुटवियर ने इंसाफ माँगा
(उपशीर्षक: “जब पैर तले दबा हर भाव, एक दिन मंच पर आ खड़ा हुआ!”)
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> पिछले अध्यायों में:
कचौड़ी से संविधान बना,
घंटी विद्रोही हुई,
झाड़ू ने सम्मान माँगा,
और थालियों ने आरक्षण!
सबने समाज को, सिस्टम को और ‘समरसता’ को अलग-अलग कोण से घेरा…
पर अंतिम प्रहार होना बाकी था —
"चप्पल का केस!"
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दृश्य: धर्मशाला का आँगन, आज ‘फुटवियर फोरम’ की विशेष सुनवाई
न्यायपीठ:
जूता जज (दाएँ पैर वाला, थोड़ा घिसा हुआ लेकिन अनुभव-सम्पन्न)
चप्पल वादी (पुरानी लेकिन भावुक)
मोज़ा गवाह (जो हमेशा जूते के अंदर रहा है, अब बाहर आया है!)
लेखक, सभी पुराने पात्रों के साथ दर्शक दीर्घा में
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(चप्पल – भावुक उद्घाटन भाषण देती है)
चप्पल:
> “मुझे सालों तक दरवाज़े के बाहर रखा गया,
गंदा बोलकर तिरस्कृत किया गया,
पर हर त्यौहार पर मेरे बिना प्रवेश वर्जित रहा!
मैं घर के अंदर नहीं,
हर रिश्ते की सीमा रेखा बन गई थी।
लेकिन क्या कभी किसी ने पूछा —
‘मेरी भी कोई भावना है?’
क्यों मुझे ठोकर मारना ही संवाद का माध्यम बना दिया गया?”
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(जूता जज – ठंडे स्वर में, चमड़े को सीधा करते हुए)
जूता जज:
> “चप्पल जी, अदालत आपको सुनेगी…
पर पहले यह स्पष्ट करें —
क्या आपने कभी खुद को ‘जोड़ों’ में देखा है?”
चप्पल:
> “मैंने खुद को हमेशा ‘जोड़ा’ माना,
लेकिन समाज ने मुझे ‘कमज़ोर तल’ का प्रतिनिधि बना दिया।
कभी किसी नेता के पाँव की तस्वीर देखी है?
चप्पल नहीं, केवल जूते होते हैं!
जैसे बुद्धिजीवी की भाषा में 'स्वच्छता' होती है,
पर श्रमिक गायब होता है!”
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(अब गवाह पेश होता है – मोज़ा)
मोज़ा (कंपकंपाता हुआ):
> “मैंने वर्षों तक जूते के अंदर सब कुछ सहा…
बदबू, पसीना, सड़क…
पर आज कहता हूँ —
चप्पल ने हमेशा बाहरी दबाव झेला,
लेकिन कभी शिकायत नहीं की!”
“क्योंकि असली सेवा वही करता है
जिसे देखे बिना हम चलते हैं…”
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(अब पुराने सभी पात्र उठ खड़े होते हैं – समरसता की एक रैली-सी बन जाती है)
घंटी:
> “जब मैं नहीं बजी थी,
तब सबने जाना — मेरी ज़रूरत क्या है!”
झाड़ूवाला:
> “जब झाड़ू चली,
तब समझ आया – गंदगी सिर्फ बाहर नहीं, सोच में भी है!”
थाली:
> “जब सबने एक ही कढ़ाही से खाया,
तब लगा – स्वाद का कोई धर्म नहीं होता!”
कबीर (दर्शन भाव में):
> “और जब चप्पल ने न्याय माँगा,
तब असली लोकतंत्र खड़ा हुआ!”
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(अब लेखक खड़ा होता है – अंत के भाव के साथ)
> “मैंने ये सब अपनी आँखों से देखा…
एक धर्मशाला में,
जहाँ खाना सिर्फ पेट नहीं भरता था,
विचार भी पकते थे।
कचौड़ी से लेकर झाड़ू तक,
थालियों की आरक्षण नीति से लेकर
घंटी की चुप्पी तक…
सबने हमें बताया —
समाज तब तक पूर्ण नहीं हो सकता,
जब तक उसका सबसे दबा हिस्सा
मंच पर खड़ा न हो जाए।”
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(और अंत में सभी पात्र एक साथ बोलते हैं – एक स्वर में)
“निरपेक्षता वही है —
जहाँ झाड़ू, चप्पल, थाली, घंटी, घंटा, पकवान,
सब मिलकर एक कढ़ाही में
समरसता की खिचड़ी पकाएँ —
बिना किसी जाति, धर्म, वर्ग या दर्प के।”
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समापन टिप्पणी:
" जहाँ जाति, धर्म, वर्ग, भाषा या पोशाक किसी गौरव या शर्म का कारण न बने —जहाँ जूते और चप्पल को कर्म के आधार पर समान माना जाए ,वहाँ संविधान सही में लागू हुआ मानिए!
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"समाप्त – पर हँसी जारी रहे!"
लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन