हिमालय की वादियों में बसा था एक शांत तपोवन — बर्फ से आच्छादित चोटियों के बीच, घने देवदारु वृक्षों की छाया में, एक मौन गूँजता था जो केवल साधकों को सुनाई देता था। वहाँ निवास करते थे स्वामी पुरुषोत्तम — एक वृद्ध, शांत, किन्तु तेजस्वी संन्यासी। उनके नेत्रों में एक ऐसी गहराई थी जो शब्दों से परे थी।
वहां साधकों की एक पूरी परंपरा थी। कुछ ध्यान में रत रहते, कुछ मौन व्रत में, पर उनमें सबसे भिन्न था एक युवक — आर्यन।युवक था, पर उसका चित्त तीव्र था। विज्ञान और तर्क में दीक्षित, दर्शन और गणित दोनों का साधक। उसका हृदय श्रद्धालु था, पर मस्तिष्क तर्क का कैदी।
एक दिन जब गुरुदेव ने शांत स्वर में कहा —"यह संसार एक माया है। जो दिखाई दे रहा है, वह वस्तुतः सत्य नहीं है।"
तो बाकी शिष्य मौन हो गए। पर आर्यन के भीतर कुछ काँपा।वह उठा, और गम्भीर पर संयमित स्वर में बोला:"गुरुदेव, यदि यह संसार असत्य है, तो यह पत्थर मेरे पाँव को क्यों घायल करता है? अग्नि मेरी त्वचा क्यों झुलसाती है? मेरी भूख, मेरा दुख — क्या वे भी केवल माया हैं? और यदि हाँ, तो क्यों मैं उन्हें ऐसे अनुभव करता हूँ जैसे वे पूर्णतः सत्य हों?"
स्वामी पुरुषोत्तम ने कुछ नहीं कहा। वे उसकी आँखों में देख रहे थे — वहाँ संशय नहीं, बल्कि आग थी। वह कोई सामान्य शंका नहीं थी — यह तो एक आंतरिक संग्राम की प्रस्तावना थी।
आर्यन ने लगातार कई दिनों तक तर्कों की बौछार की —"यदि संसार केवल माया है, तो उसकी गणितीय संरचना इतनी सटीक क्यों है? यदि केवल भ्रम है, तो प्रकाश की गति, गुरुत्वाकर्षण, और समय की रेखा क्यों एक निश्चित क्रम में चलते हैं? ये नियम कौन तय करता है, और क्यों माया उनमें त्रुटि नहीं करती?"
गुरु मौन रहते, कभी मंद मुस्कान के साथ, कभी केवल दृष्टि से उत्तर देते। पर एक दिन उन्होंने कहा —"आर्यन, जो स्थिर प्रतीत होता है, वह भी केवल चित्त का भ्रम हो सकता है। जैसे स्वप्न में तुम एक यथार्थ जीते हो, वैसे ही यह संसार भी एक विस्तारित स्वप्न हो सकता है — सामूहिक, स्थूल, और कर्मों से बँधा हुआ।"
आर्यन ने प्रत्युत्तर दिया —"परंतु गुरुदेव, स्वप्न टूटता है। यह संसार नहीं टूटता। यह दीवार आज भी वहीं है, वह वृक्ष कल भी वहीं था। इसका निरंतर अस्तित्व इसका प्रमाण है कि यह स्वप्न नहीं।"
स्वामी पुरुषोत्तम का मुख थोड़ी देर के लिए गंभीर हो गया। उन्होंने नेत्र मूँद लिए। फिर धीरे से कहा —"यदि तुमने किसी गहन साधना से यह जाना होता कि देखने वाला कौन है, तो तुम यह प्रश्न ही न पूछते। किंतु तुम्हारे अनुभव अभी बाहर तक सीमित हैं, भीतर अभी तुम गए नहीं।"
ठीक उसी सप्ताह कुछ घटनाएँ घटने लगीं — ऐसी घटनाएँ, जिन्हें न तर्क समझा सका, न विज्ञान पकड़ सका।
सबसे पहले — उस रात घोर अंधकार छाया था। आकाशगंगा स्पष्ट दिख रही थी। एकाएक आर्यन ने देखा कि पास का जलकुंड, जो सदैव स्थिर रहता था, उसमें लहरें बिना किसी कारण के उठ रही थीं। कोई वायु नहीं थी, कोई कंकड़ नहीं फेंका गया था। परंतु जल था कि जैसे स्वयं किसी स्मृति से काँप उठा हो।
एक और दिन, आश्रम में एक वृद्ध महिला आई। कोई नहीं जानता था वह कौन है। पर वह प्रत्येक शिष्य का नाम जानती थी, उनकी कहानियाँ जानती थी — यहाँ तक कि आर्यन का वह सपना भी सुनाया जो उसने कभी किसी से साझा नहीं किया था।
जब आर्यन ने पूछा —"आप कौन हैं?"
तो वृद्धा ने मुस्कराकर कहा —"जो माया को समझते हैं, उनके लिए समय और स्थान दीवार नहीं होते।"और वह अंतर्धान हो गई।
अब आर्यन भीतर से विचलित होने लगा था।"क्या यह मेरा भ्रम है? या मस्तिष्क का खेल? या कोई ऐसी सत्ता है जो मेरी परीक्षा ले रही है?"
गुरु ने कहा —"तुम्हारे प्रश्न ही द्वार बनेंगे, यदि तुम उन्हें खोलना सीखो। अभी तुम हर प्रश्न को ताला बना कर रखते हो, जिससे तुम स्वयं बंद हो गए हो।"
आर्यन ने गहराई से सुना। अब उसका स्वर कम प्रतिरोधी था, और अधिक जिज्ञासु।
गुरु ने कहा:"आर्यन, यदि तुम इस संसार को यथार्थ मानते हो, तो उसका मूल स्रोत खोजो। वह प्रथम अनुभव जो तुम्हें 'मैं हूँ' कहता है — वह कहाँ से उत्पन्न होता है?"आर्यन स्तब्ध था। यह प्रश्न किसी वैज्ञानिक प्रमेय से नहीं सुलझ सकता था।
अगले दिन भोर में, हिमालय की शीत हवा में लिपटे गुरु और शिष्य एक छोटे पहाड़ी कस्बे की ओर चले। पहाड़ियों से उतरते हुए सूर्य की किरणें अभी क्षितिज से झाँक ही रही थीं। आर्यन को कुछ अचरज हुआ — यह तपस्वी गुरु किसी नगर की ओर क्यों चल पड़े? उसकी जिज्ञासा बनी रही।
थोड़ी देर में वे उस कस्बे के बड़े सरकारी अस्पताल पहुँचे — एक पुरानी ईमारत, जिसमें जीवन और मृत्यु का संघर्ष प्रतिक्षण घटता रहता था। स्वामी पुरुषोत्तम सीधा उसे ट्रॉमा सेंटर में ले गए — आपात चिकित्सा कक्ष में, जहाँ जीवन के अंतिम धागों को पकड़ने की होड़ लगी रहती है।
अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि वहाँ एक युवक को स्ट्रेचर पर लाया गया। उसका चेहरा रक्त से लथपथ था। एक भयंकर सड़क दुर्घटना। उसका पैर कुचला हुआ था, पसलियाँ टूटी हुईं, शरीर काँप रहा था, और मशीनें उसके प्राणों की अंतिम ध्वनि दर्ज कर रही थीं।
डॉक्टरों की टीम तत्पर थी। नर्सें दौड़ रही थीं। ऑक्सीजन दी जा रही थी। रक्त, मांस और पीड़ा का दृश्य असहनीय था।
गुरु ने आर्यन से कहा —"ध्यान से देख, आर्यन। यह शरीर टूटा है। मांस फटा है। यह रक्त बह रहा है। यह तेरा सत्य है, है न?"
आर्यन की आँखें भीग गईं, पर मुख कठोर था।"हाँ, गुरुदेव। यह दुखद है — परंतु वास्तविक। यह माया नहीं हो सकती। ये आँसू, ये चीत्कार, ये टूटता हुआ शरीर — यह कोई भ्रम नहीं है। यह जीवन है। यही सच्चाई है।"
गुरु चुप रहे।
आर्यन आगे बोला:"यदि संसार माया है, तो इस युवक की पीड़ा को मैं इतना गहराई से क्यों महसूस कर पा रहा हूँ? माया केवल आभास होती है। परंतु यह करुणा, यह वेदना, यह शारीरिक यंत्रणा — ये भाव यदि असत्य हैं, तो मेरे भीतर यह कंपन क्यों है? क्यों यह दृश्य मुझे भीतर तक तोड़ देता है? क्या माया इतनी गहन और निर्दयी हो सकती है कि वह हमें केवल भ्रम में रोने और मरने पर विवश करे?"
गुरु ने एक लंबा मौन लिया। वे उस युवक की ओर देखते रहे, जो अब ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा था।
फिर उन्होंने कहा:"आर्यन, तेरा तर्क भावुक है, पर अधूरा। यह शरीर टूटा है — यह दृश्य सत्य है, पर केवल एक तल तक। यह तेरा इंद्रिय-ग्रहण है। तू देख, सुन, छू रहा है — पर यह केवल 'देखने वाला' का अनुभव है। वह कौन है जो इस पीड़ा को देख रहा है? वह कौन है जो भीतर यह कह रहा है — यह सत्य है? उसे जान, तभी तू जान पाएगा कि यह कितना सत्य है और कितना प्रतीत सत्य।"
आर्यन ने उत्तर दिया:"पर गुरुदेव, जब अनुभव इतना तीव्र हो, तो वह कैसे असत्य हो सकता है?"
गुरु मुस्कराए नहीं, गंभीर हो गए।"जब तू स्वप्न में गिरता है, तो तेरा ह्रदय धड़कता है, शरीर काँपता है। क्या वह गिरना सत्य था? नहीं। पर अनुभूति तो थी। इसी प्रकार संसार की पीड़ा, दुःख, सुख — सब अनुभव तो हैं, पर उनका आधार क्या है, यह जानना ही ज्ञान है। तू अभी आधार को ही सत्य कह बैठा है।"
आर्यन फिर बोला:"तो क्या यह भी उपेक्षा है? पीड़ा को झूठा कह देना क्या करुणा की हत्या नहीं है?"
गुरु ने उसकी आँखों में देखा — पहली बार कुछ कठोरता से।"यह कहना कि पीड़ा माया है, करुणा का विरोध नहीं है। यह जानना कि शरीर टूट सकता है, पर आत्मा नहीं — यह सच्ची करुणा की शुरुआत है। अन्यथा तू केवल पीड़ा का अभिनय कर रहा है, अनुभव नहीं। जो आत्मा को जानता है, वह मरते हुए को केवल नहीं रोता — वह उसे उसकी अमरता का बोध कराता है।"
आर्यन अब चुप था। पर उसकी चुप्पी में द्वंद्व साफ था।
गुरु ने कहा — "चल, अब तुझे कुछ और दिखाना है। अब तुझे दिखाना है कि मृत्यु भी माया की भाषा में बोलती है।"
वे एक ICU में पहुँचे। वहाँ एक महिला लेटी थी — ब्रेन डेड (मस्तिष्क मृत्यु)। उसका हृदय धड़क रहा था, पर EEG (मस्तिष्क तरंग) सीधी रेखा दिखा रही थी। न कोई प्रतिक्रिया, न कोई चेतना। मशीनें साँस ले रही थीं।
गुरु ने पूछा:"क्या यह महिला जीवित है?"
आर्यन बोला:"जैविक रूप से हाँ, पर चेतना नहीं है।"
गुरु ने तीखा प्रश्न किया:"तो शरीर और जीवन में भेद हुआ न? शरीर ज़िंदा है, पर जीवन चला गया। तेरा तर्क यहीं टूटता है — शरीर ही जीवन नहीं। चेतना जब तक है, अनुभव है। चेतना हट गई, सब समाप्त।"
गुरु ने आर्यन को एक और वार्ड में ले गए। वहाँ एक छोटी बच्ची को बेहोशी की हालत में लाया गया था — निम्न रक्त शर्करा के कारण वह कोमा में चली गई थी।
कुछ घंटों बाद डॉक्टरों ने जब IV ग्लूकोज़ दिया, बच्ची धीरे-धीरे होश में आई। उसकी माँ उसे पुकार रही थी। पहले बच्ची कुछ नहीं समझी, फिर उसकी आँखें चमकीं — "माँ!"
गुरु ने धीरे से आर्यन से पूछा: "जब वह कोमा में थी — क्या वह संसार को अनुभव कर रही थी?"
"नहीं।"
"जब वह होश में आई — तो वही माँ, वही कमरा, वही डॉक्टर — फिर से 'वास्तविक' हो गए। क्यों?"
आर्यन ने कहा:"क्योंकि चेतना लौट आई थी।"
गुरु ने गहराई से देखा —"बस यही बात तुझे समझनी है। संसार की 'वास्तविकता' चेतना पर निर्भर है — चेतना के बिना न माँ है, न कष्ट है, न प्रेम है। संसार, परिस्थितियाँ, सब कुछ केवल चेतना में घट रहा है — उसी की सीमा तक यह 'सत्य' है। चेतना न हो, तो ब्रह्मांड केवल एक मौन, अंधा यंत्र है — कोई 'मैं' नहीं, कोई 'तू' नहीं।"
आर्यन ने गहरी साँस ली। उसकी दृष्टि अभी भी बच्ची पर थी। वह बोला:"गुरुदेव, मैं मानता हूँ कि चेतना के बिना अनुभव नहीं। पर चेतना भी शरीर की क्रियाविधियों से उत्पन्न होती है। मस्तिष्क के न्यूरॉन्स, विद्युत संकेत, हार्मोन — ये सब मिलकर चेतना का निर्माण करते हैं। चेतना कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, बल्कि जैविक प्रक्रिया है। इसलिए मैं अब भी यही मानता हूँ कि चेतना मस्तिष्क की देन है — आत्मा की नहीं।"
गुरु ने उसकी बात पूरी गंभीरता से सुनी।"तो तू कहता है कि चेतना शरीर से उत्पन्न होती है, आत्मा से नहीं?"
"हाँ, आर्यन ने उत्तर दिया ।"
ICU, कोमा, EEG की सीधी रेखा और माँ की पुकार से गुजरने के बाद, गुरु ने आर्यन को अब एक और दिशा में मोड़ दिया — मस्तिष्क और चेतना के रिश्ते की गहराई को देखने के लिए।
वे उसे एक शहरी मानसिक आरोग्य केंद्र में ले गए। वहाँ सफेद दीवारों वाले एक शांत कमरे में एक युवा रोगी बैठा था। उसकी आँखें चंचल थीं, और उसका चेहरा किसी अज्ञात भय से भरा हुआ।
वह धीरे-धीरे बड़बड़ा रहा था —"कोई है… कोई मेरी दीवारों में छिपा है। मेरी माँ मुझे धीरे-धीरे ज़हर दे रही है। मैं जानता हूँ… वे सब मुझे मारना चाहते हैं…"
गुरु ने आर्यन की ओर देखा और पूछा —"क्या यह युवक झूठ बोल रहा है?"
आर्यन ने युवक को ध्यान से देखा। फिर उत्तर दिया:"नहीं, गुरुदेव। वह झूठ नहीं बोल रहा। उसकी अनुभूति सच्ची है — वह वास्तव में डर रहा है। पर वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। उसकी माँ उसे ज़हर नहीं दे रही, दीवार में कोई नहीं है।"
गुरु मुस्कराए नहीं, बल्कि दृष्टि और भी तीव्र हो गई।"यही माया है, आर्यन। अनुभूति हो — पर सत्य न हो। विश्वास इतना गहरा हो कि मन और शरीर दोनों उसके अनुसार प्रतिक्रिया देने लगें। और जान ले — जो तू 'सामान्य चेतना' कहता है, वह भी एक ढाँचा है — चेतना द्वारा निर्मित।
जो यह युवक देख रहा है, वह केवल उसका ब्रह्मांड है। जो तू देख रहा है, वह तेरा। तुम दोनों अपने-अपने 'स्वप्न' में हो। फर्क इतना है कि उसके स्वप्न को विज्ञान 'बीमारी' कहता है, और तेरे स्वप्न को 'यथार्थ'। पर दोनों के मूल में है — 'अनुभव के सत्य होने का भ्रम'।
आर्यन ने कुछ कहना चाहा, पर शब्द अटके रह गए।"गुरुदेव, यदि माया इतनी गहरी है, तो फिर सत्य क्या है? क्या कोई एक सार्वभौमिक अनुभव नहीं है, जिसे सब पहचानें?"
गुरु ने उत्तर नहीं दिया। बस कहा —"चल, अब अंतिम द्वार पर चलें।"
अब वे दोनों एक शीतल, मौन गलियारे में पहुँचे — अस्पताल का शवगृह (mortuary)। वहाँ दीवारों पर नंबर लगे थे। स्टील की मेज़ों पर लेटे थे शरीर — जिनमें जीवन की कोई गति नहीं थी, पर जो अभी कल तक जीवन का अभिनय कर रहे थे।
एक वृद्ध का शव सामने था। डॉक्टर ने दिखाया —"यह आज सुबह तक बात कर रहा था, खाना खा रहा था। अब शरीर गर्म है, पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। ECG फ्लैट।"
गुरु ने पूछा —"आर्यन, क्या यह देह अब कुछ है?"
"बस एक शरीर…"
"कल यह रोया, हँसा, गुस्सा हुआ। आज यह मौन है। तो कौन गया?"
"प्राण… चेतना… वह जो अनुभव करता था…"
गुरु गंभीर हो उठे —"तो क्या यही तेरा सत्य था — जो इस देह के साथ ही चला गया? क्या जो जाता है, वह सत्य है? या जो कभी नहीं जाता — वही है सत्य?"
आर्यन अब उत्तर नहीं दे पाया। उसकी आँखों में कोई चमत्कार नहीं था, न कोई रोमांच। पर भीतर एक गूढ़ मौन उतर चुका था। एक ऐसी शांति, जो अनुभव से नहीं — आत्मा के स्पर्श से आती है।
पर अभी भी उसकी चेतना पूरी तरह मुक्त नहीं हुई थी। तर्क की अंतिम चिंगारी बाकी थी।
आर्यन ने धीमे स्वर में कहा:"गुरुदेव, मैं यह समझने लगा हूँ कि अनुभूति और यथार्थ में अंतर हो सकता है। परंतु यह जो दृश्य है — यह जो आकाश, यह पृथ्वी, यह शरीर, यह समय — ये सब यदि केवल चेतना की कल्पना हैं, तो फिर इनकी इतनी सामूहिकता क्यों है? हम सब एक जैसा ही क्यों अनुभव कर रहे हैं? यह समरसता कहाँ से आती है?"
गुरु अब मुस्कराए —"शब्दों में यह प्रश्न जितना मासूम लगता है, उतना ही यह गहन है। और इसका उत्तर तुझे तर्क से नहीं मिलेगा, अनुभव से मिलेगा। अब समय आ गया है — माया के रूप को स्वयं देखने का।"
"कैसे?" आर्यन ने पूछा।
गुरु ने अपनी आँखें बंद कीं। उनका स्वर अब केवल कानों में नहीं, चित्त में सुनाई दे रहा था।
"तू अपने शरीर को त्यागे बिना, चेतना को उसके बाहर जाने दे — वह यात्रा कर, जहाँ मस्तिष्क मौन हो जाता है, और माया स्वयं अपना रूप प्रकट करती है। उसे देखने के लिए आँखें नहीं, मौन चाहिए। तुझे अब अनुभव करना है — 'जागते हुए सपना'।"
शवगृह की उस अंतिम शांति से लौटकर, हिमालय की गोद में वह रात जैसे किसी अन्य लोक से उतर आई थी। आकाश पर चंद्रमा एक शांत साक्षी बन कर टंगा था। गुरु और आर्यन लौट आए थे अपने तपोवन — पर अब वह वही आर्यन न था, जिसने पहली बार माया को केवल 'दर्शन' की एक थ्योरी माना था। अब वह भीतर तक हिल चुका था — किन्तु अभी भी कोई अंतिम दरार बची हुई थी, कोई एक द्वार जिसे तर्क अब भी बंद किए बैठा था।
स्वामी पुरुषोत्तम ने कहा —"आर्यन, अब अंतिम अभ्यास का समय आ गया है। अब शब्द नहीं, अनुभव बोलेगा। अब चेतना को शरीर की सीमाओं से परे भेजने की साधना होगी। तुम जगे रहोगे, पर अनुभव करोगे कि यह 'जाग्रति' भी एक स्वप्न है।"
आर्यन ने आँखें बंद कीं।गुरु का निर्देश — आत्मा की यात्रा का द्वार
गुरु ने एक विशेष योग-निद्रा मुद्रा में आर्यन को बैठाया। एक लंबा मंत्रोच्चार, धीमी स्वासें, और क्रमशः गहराता मौन...
"सुन, आर्यन," गुरु का स्वर अब उसके भीतर गूंजने लगा था —"अपने शरीर को अनुभव मत कर। अपने विचारों को भी नहीं। केवल उस 'दृष्टा' को देख जो सब देख रहा है। वह जो भीतर बैठा है, केवल 'जानने' के लिए — उसी के साथ चल।"
धीरे-धीरे आर्यन की इंद्रियाँ मौन हुईं — पहले श्रवण, फिर स्पर्श, फिर शब्द। विचार एक शांत जल की तरह स्थिर होने लगे। केवल एक 'मैं' बचा — बिना गुण के, बिना आकार के।
और तभी...कुछ घटा।
आर्यन को लगा कि उसका शरीर वहीं है — पर उसकी चेतना किसी और तल पर पहुँच चुकी है। वह अपने शरीर को देख पा रहा था, पर अपने भीतर से बाहर की ओर। यह कोई स्वप्न नहीं था — वह पूर्ण होश में था।
वह अपने कमरे में था — पर कमरे की दीवारें अब विचारों से बनी प्रतीत होती थीं। गुरुदेव वहीं बैठे थे — पर जैसे वे प्रकाश से बने हों, उनकी आकृति स्थिर नहीं थी। पर सब कुछ सुस्पष्ट था।
फिर उसने देखा — आश्रम के अन्य शिष्य भी अपने-अपने कक्षों में ध्यान में थे। और चौंकाने वाली बात यह थी कि वह उनके अनुभव भी देख पा रहा था — उनकी यादें, उनके विचार, उनकी अनुभूतियाँ। जैसे सबके मन एक ही सपने में जुड़े हों।
आर्यन ने बुदबुदाया — "यह कैसा स्वप्न है जो सब एक साथ देख रहे हैं?"
तभी, उसकी चेतना ऊपर उठने लगी। वह एक शुद्ध बिंदु बन गया — जो न समय में था, न स्थान में।
माया का स्व-प्रकट होना — सामूहिक स्वप्न का उद्घाटन
वह अब एक गहरे अंतरिक्ष-जैसे क्षेत्र में था — बिना रंग, बिना रेखा। पर वहाँ कंपन था — चेतना का कंपन। और उसी कंपन से एक स्वर उभरा — कोई दृश्य नहीं, केवल सार्वभौमिक नाद:
"मैं माया हूँ।"
आर्यन स्तब्ध।
"कौन?"
"मैं वह हूँ जिसे तुम संसार कहते हो। जिसे तुम पदार्थ कहते हो। मैं ही नियम हूँ, मैं ही भाषा, मैं ही विज्ञान — मैं ही भ्रम।"
"पर तू एक भ्रम है, फिर तू बोल कैसे रही है?"
"क्योंकि भ्रम तब तक पूर्ण होता है जब तक वह स्वयं को भी सम्मिलित कर लेता है। मैं तुम्हारे अनुभव में सत्य हूँ — इसलिए मैं 'हूँ'।"
आर्यन ने कहा —"तू अकेली नहीं है, सब तुझे अनुभव कर रहे हैं। फिर क्या हम सब एक साथ एक ही भ्रम में हैं?"
"हाँ। यह जाग्रत स्वप्न है।"
"परंतु स्वप्न तो निजी होता है — यह तो सामूहिक है!"
"क्योंकि चेतना का एक स्तर ऐसा है जहाँ अनेक 'व्यक्तिगत चेतनाएँ' एक ही नियमित संरचना में अनुभव करती हैं। यह वह स्तर है जहाँ माया सामूहिक हो जाती है — समय, स्थान, मृत्यु, विज्ञान — ये सब एक जैसी लगती हैं सबको।"
"तो ये नियम — गुरुत्वाकर्षण, ताप, प्रकाश — ये सब?"
"मेरे द्वारा बनाए गए हैं — ताकि स्वप्न यथार्थ लगे। क्योंकि अगर सब कुछ बिखरा होता, तो अनुभव टिकता नहीं। मैं नियम देती हूँ — ताकि भ्रम दीवार जैसा लगे।"
आर्यन ने पूछा —"तो सत्य क्या है? यदि तू नहीं?"
"सत्य वह है जो मुझे देख सकता है। जो मेरा निर्माण नहीं, साक्षी है। जिसे मेरी आवश्यकता नहीं। वह स्वयं में पूर्ण है। उसे तुम्हारे अनुभव, तुम्हारी यादें, तुम्हारे शरीर — किसी की आवश्यकता नहीं। वही ब्रह्म है।"
"और मैं?"
"तू वही है — बस भूल गया है।"जाग्रति की वापसी — पर अब कुछ बदला हुआ था
आर्यन की चेतना धीरे-धीरे नीचे उतरी। शरीर का अनुभव लौटा। आँखें खुलीं।
वही कमरा। वही रात्रि। वही गुरु।
पर अब — कमरे की दीवारें दीवार नहीं थीं। जैसे वह जानता था कि वे प्रतीति की ईंटों से बनी हैं।
गुरु ने पूछा — "देख आया?"
आर्यन ने कोई उत्तर नहीं दिया। आर्यन मौन हो गया। उसकी आंखों में कोई चमत्कार नहीं था — पर उसके भीतर एक ‘गूढ़ शांति’ आ गई थी।
गुरु ने कहा: "माया का अर्थ है — 'जिसे मापा नहीं जा सके' संसार की अनुभूतियाँ तुझे वास्तविक लगती हैं क्योंकि तू चेतन है। पर जो मूल चेतना है — वही अंतिम सत्य है। जब तू उसे पकड़ता है, तब समझ आता है कि संसार सत्य नहीं, केवल संदर्भ है।"
आर्यन सिर झुकाता है। "गुरुदेव, अब मुझे उत्तर मिल गया — शब्दों से नहीं, अनुभवों से।"
गुरु बोले: "अब तेरी तर्क की शक्ति — साधना की ओर मोड़। क्योंकि जिस चेतना को तूने समझा, अब उसे जीना है।"
चेतना के चार द्वार — जब आर्यन ने सत्य के स्वरूप को जाना
"वह जो जानता है — उसे कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती।क्योंकि जानने वाला जब 'स्वयं' को जान ले,तो शेष सब — केवल दृश्य हो जाते हैं।" – स्वामी पुरुषोत्तम
गहन ध्यान की उस यात्रा के बाद, आर्यन के भीतर अब प्रश्नों की आग शांत हो गई थी। यह कोई स्थूल परिवर्तन नहीं था — बल्कि एक गहरे मौन का जन्म हुआ था, जो हर दृश्य और विचार को केवल आते-जाते देखता था।
अब वह शिष्य न था जो ज्ञान बटोरना चाहता था,वह साधक था जो स्वयं को मिटाकर केवल 'देखना' चाहता था।
स्वामी पुरुषोत्तम ने देखा — समय आ गया है उसे चेतना के चार स्तर दिखाने का।प्रथम द्वार: जाग्रत — जागे हुए भ्रम की दुनिया
गुरु ने कहा —"आर्यन, तू अब भी 'जागा हुआ' प्रतीत होता है — पर क्या तू जानता है कि ये जागरण भी एक प्रकार का स्वप्न है?"
आर्यन मौन रहा।गुरु ने उसे एक साधारण दिनचर्या दिखलाई — लोग आ जा रहे थे, बातचीत कर रहे थे, भोजन कर रहे थे, हँस रहे थे, रो रहे थे।
गुरु बोले —"देख, ये सब 'जागे हुए लोग' हैं। पर क्या वे जान रहे हैं कि वे देख रहे हैं?"
"नहीं," आर्यन बोला, "वे देख रहे हैं, पर इस देखने को देख नहीं रहे।"
गुरु मुस्कराए —"यही पहला द्वार है — जाग्रत अवस्था। यहाँ व्यक्ति बाहर की दुनिया को 'वास्तविक' समझता है। वह सोचता है कि यही एकमात्र यथार्थ है। वही रिश्ते, वही समय, वही मृत्यु — सब 'अटल' लगते हैं। लेकिन यह केवल इसलिए लगता है क्योंकि चेतना सिर्फ बाहर प्रवाहित हो रही है, भीतर नहीं।"
"और यह भी स्वप्न ही है," आर्यन ने जोड़ा, "पर सामूहिक और नियमबद्ध — इसीलिए ठोस लगता है।"
द्वितीय द्वार: स्वप्न — जब भीतर की सृष्टि भी सच्ची लगती है
गुरु ने अब उसे एक ध्यान की विधि सिखलाई — जिससे वह स्वप्न देखते हुए भी जागरूक रह सके।
रात को ध्यान की दशा में, आर्यन को एक स्वप्न आया — वह एक नगर में है, किसी युद्ध का भाग है। दर्द, भय, दौड़ — सब कुछ असली लग रहा था।
पर उसी क्षण उसे स्मरण हुआ —"यह स्वप्न है!"
और जैसे ही उसने जाना — स्वप्न बिखर गया।
सुबह, आर्यन ने गुरु से कहा —"गुरुदेव, स्वप्न में सबकुछ सच्चा लग रहा था — भावनाएँ भी, स्पर्श भी। लेकिन जैसे ही जाना कि यह स्वप्न है — सब बदल गया।"
गुरु ने उत्तर दिया —"यही स्वप्नावस्था का सत्य है — वहाँ 'मन' ही निर्माता होता है। तेरा मन ही दृश्य, पात्र, कथा रचता है। और तू यह सब सच मानता है — जब तक जाग न जाए।"
"तो जैसे स्वप्न में सब झूठ था पर अनुभव में सत्य था — वैसे ही जाग्रत अवस्था भी अनुभव में सत्य है, पर वस्तुतः नहीं।"
गुरु बोले — "तू अब समझने लगा है।"तृतीय द्वार: निद्रा — जब सब मिट जाता है, केवल अज्ञान बचता है
अब गुरु ने आर्यन से पूछा —"रात्रि में जब तू गहरी नींद में होता है, बिना स्वप्न के — तब कहाँ होता है संसार?"
"नहीं होता।"
"तेरे प्रिय कहाँ होते हैं?""नहीं होते।"
"तेरे विचार, तेरी पीड़ा, तेरा सुख?""कुछ भी नहीं।"
"फिर तू किसे अनुभव कर रहा होता है?"
"किसी को नहीं... बस एक खालीपन — पर स्मरण नहीं होता उस अवस्था का।"
गुरु बोले —"यह निद्रा है — जहाँ चेतना लुप्त नहीं होती, पर प्रत्यक्ष नहीं होती। यह अज्ञान की अवस्था है — वहाँ न 'मैं' होता है, न 'तू', न संसार। पर ध्यान दो — वहाँ 'कुछ भी न होना' भी अनुभव होता है। इसलिए वहाँ भी कोई देख रहा होता है — पर उस समय वह इतना सूक्ष्म होता है कि स्वयं को भी नहीं देख पाता।"
आर्यन स्तब्ध हो गया —"तो निद्रा में भी 'मैं' था — पर अज्ञात रूप में?"
"हाँ। यही कारण है कि जब जागता है, कहता है — 'मैं सोया था'। यह 'मैं' कौन है जो साक्षी बना रहता है?"चतुर्थ द्वार: तुरीय — जब चेतना स्वयं को देखती है
अब गुरु ने अंतिम अभ्यास करवाया।
धीरे-धीरे आर्यन की चेतना उठी — न बाहर, न भीतर — बस एक स्थिति, जहाँ न अनुभव था, न विचार — केवल 'देखना'।
वह किसी आकृति को नहीं देख रहा था — वह केवल चेतना को स्वयं में अनुभव कर रहा था।
और तभी —सारा संसार जैसे रुक गया।
कोई स्मृति नहीं। कोई नाम नहीं। न मृत्यु, न जीवन। न प्रिय, न अप्रिय।बस एक शुद्ध 'होना' — बिना द्वैत के, बिना भाषा के।
जब वह लौटा, गुरु ने पूछा —"क्या देखा?"
आर्यन ने उत्तर नहीं दिया — केवल आँखों से बहते हुए आँसुओं ने उत्तर दिया।
गुरु बोले —"यह तुरीय अवस्था है — चौथी अवस्था — जो तीनों से भिन्न है, और तीनों में व्याप्त भी है।"
"यह वह स्थिति है जहाँ चेतना अपनी सार्वभौमिकता को जान लेती है। जहाँ तू केवल 'तू' नहीं रहता — तू वह हो जाता है जो सबको देख रहा है।"
"वहीं से तू जान पाता है कि यह संसार 'मिथ्या' है — अर्थात 'अपेक्षिक' है। चेतना के साथ है, चेतना के बिना नहीं।"
आर्यन का परिवर्तन — अब कोई खोज शेष नहीं
अब आर्यन साधक नहीं रहा। वह ज्ञाता भी नहीं बना। वह बस द्रष्टा हो गया।
वह अब संसार को माया कहता था — पर तिरस्कार से नहीं, प्रेम से।
उसे ज्ञात हो गया था —"यह संसार सत्य नहीं — पर उपयोगी है। यह अनुभव नहीं — पर माध्यम है।यह भ्रम नहीं — पर प्रतिबिंब है उस 'अचिन्त्य चेतना' का।"
अब जब वह किसी को रोते देखता, तो उसका हृदय करुणा से भर जाता —"यह स्वप्न का दुःख है — पर पीड़ा फिर भी अनुभव हो रही है।"
अब जब कोई मृत्यु होती, वह समझता —"यह शरीर गया — पर चेतना तो कहीं गई नहीं।"
अब वह माया से डरता नहीं था — वह जानता था कि माया तो केवल एक झिलमिलाता पर्दा है, जिसके पार सत्य मौन खड़ा है।
अंतिम वाक्य — उस द्वार के भीतर से
संसार माया है — इसका अर्थ यह नहीं कि यह 'अस्तित्वहीन' है। इसका अर्थ है — यह ‘अपेक्षिक’ है। यह चेतना के प्रकट होते ही है, और चेतना के लुप्त होते ही मिट जाता है। जो चेतना को जान गया — वही सत्य को जान गया।
"जो माया को जानकर भी उसमें खेल सके — वही लीला में स्थित योगी है।जो संसार को समझ कर भी, प्रेमपूर्वक निभा सके — वही मुक्त होकर जीता है।"
जिस प्रकार कोई गहरे ध्यान से जागता है, और पाता है कि वह उसी कक्ष में है जहाँ वह बैठा था —ठीक उसी प्रकार आर्यन ने तुरीय स्थिति से लौटते हुए पाया —वही संसार है, वही लोग हैं, वही ध्वनियाँ, वही रिश्ते।
पर एक बात नहीं थी —"अब वह स्वयं नहीं रहा था, जो पहले था।"वह आर्यन, जो प्रत्येक बात को लेकर भीतर हिल जाता था —अब स्थिर था।
वह आर्यन, जो हर दृश्य को पकड़ना चाहता था —अब बस देखता था।
वह आर्यन, जो सत्य को पाना चाहता था —अब जान चुका था कि सत्य कहीं जाना नहीं होता,सत्य तो वही है जो देख रहा है — हर क्षण।
आर्यन लौटकर उसी नगर में आया —जहाँ लोग सुबह जल्दी उठते थे, भागते थे,ऑफ़िस जाते थे, शादी करते थे, बच्चे पालते थे, लड़ते थे, दुखी होते थे, खुश भी हो जाते थे।
पर अब सब कुछ उसके भीतर बदल चुका था।
जब उसने अपनी माँ को देखा —वह दौड़ी, उसे गले लगाया, रो पड़ी।"तू कहाँ चला गया था बेटा? हमें तो लगा था तू…"
आर्यन ने सिर झुकाया और बस मौन में लिपटा प्रेम उसकी आँखों से बह निकला।
माँ को लग रहा था बेटा लौट आया।पर आर्यन जानता था — 'मैं' कभी गया ही नहीं था।
आर्यन अब वही कार्य करता था — भोजन बनाना, बर्तन साफ़ करना, खेतों में हल चलाना।लेकिन एक परिवर्तन था —अब वह करता नहीं था, केवल होता था।
जैसे कोई वादक वीणा बजाए —पर स्वयं को वीणा न समझे, न वादक —केवल 'ध्वनि' बन जाए —आर्यन उसी 'ध्वनि' में स्थिर हो गया था।
जब वह खेत जोतता — वह भूमि से बात करता।"माँ, तू जो है, मैं उसी से बना हूँ।"
जब वह किसी रोगी की सेवा करता —वह उसका शरीर नहीं देखता,वह जानता था — यह चेतना का एक 'मुख' है — जैसा वह स्वयं।संसार — अब रहस्य नहीं, लीला बन चुका था
गुरु ने कहा था —"संसार माया है, पर अस्तित्वहीन नहीं।वह चेतना का प्रतिबिंब है — और हर प्रतिबिंब की अपनी गरिमा होती है।"
अब आर्यन जब बाज़ार में जाता, और देखता —लोग झूठ बोल रहे हैं, लूट रहे हैं, रिरिया रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं, मर रहे हैं —तो वह उन्हें गलत नहीं समझता।
वह जानता था —"ये सब नींद में हैं।जैसे मैं था, वैसे ही ये भी — बस अभी स्वप्न में हैं।"
अब उसे कोई व्यक्ति बुरा नहीं लगता था।हर कोई उसे एक 'कथा पात्र' की तरह लगता — जो अपनी ही स्क्रिप्ट निभा रहा हो।
एक दिन एक युवक आया, बहुत दुखी होकर बोला —"मुझे जीवन का कोई अर्थ नहीं दिखता। मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ।"
आर्यन ने उसे देखा, मौन रहा।फिर धीरे से बोला —
"क्या तू उस सपने में मरना चाहता है — जो तू देख रहा है?"
युवक चौंका: "कौन सा सपना?"
"यह, जिसमें तू दुखी है, परेशान है, कुछ पाना चाहता है।यह सपना — जो तेरी चेतना ने रचा है।और तू भूल गया है कि तू इसे 'देख' रहा है।तू देखने वाले को भूल गया — और देखने में उलझ गया।"
"तो मैं क्या करूँ?" युवक ने पूछा।
"जाग। और देखने वाले को पहचान।मृत्यु को मारने की ज़रूरत नहीं —स्वप्न को देखना छोड़ दे।"
अब आर्यन कोई 'उपदेशक' नहीं था।वह न शिष्य चाहता था, न अनुयायी।उसके पास कोई पुस्तक नहीं थी, न सिद्धांत।
वह केवल प्रेम बन गया था — एक चलती-फिरती 'शांति'।
लोग उसके पास आते,कुछ बैठते, कुछ मौन रहते, कुछ रोते —और जब लौटते —तो उनके भीतर कुछ पिघल चुका होता।
एक दिन गुरु पुरुषोत्तम स्वयं आ गए।वही मुस्कान, वही निःशब्द मौन।
आर्यन ने चरणों में सिर रखा।
गुरु बोले —"अब तू वापस लौट आया — वही संसार, वही शरीर —पर तू अब 'उसके पार' जी रहा है।""तू अब जान चुका है कि जाग्रत अवस्था भी स्वप्न है,स्वप्न भी सत्य था — जब तक जागे नहीं थे।"
"अब तू लीला में स्थिर है — यह अंतिम अवस्था है —जहाँ ज्ञान भी बोझ नहीं बनता, और अज्ञान भी बाधा नहीं देता।"
"तू मुक्त है — और फिर भी बंधा हुआ है — प्रेम से।यही जीवन का पूर्णत्व है —जहाँ चेतना, करुणा और क्रिया — तीनों एक हो जाएँ।"समापन — वह आर्यन जो अब हर किसी में था
अब आर्यन अकेला नहीं था।वह हर उस व्यक्ति में जीवित था —जो देख रहा था, जो जागना चाहता था।जब भी कोई आँख बंद कर ध्यान करता,कहीं न कहीं उसकी चेतना आर्यन से मिल जाती।जब भी कोई स्वप्न से उबरता,वहीं आर्यन की मुस्कान उभर आती।
"स्वप्न जाग्रत एक सम हैं — जब दृष्टा जाग्रत हो जाए।लीला फिर दुःख नहीं लाती — जब चेतना में शांति समा जाए।जो स्वयं में स्थित हो — वही मुक्त है, वही योगी, वही ज्ञानी।जो माया में रहते हुए भी माया के पार जी ले — वही सच्चा जीवन है।"