Saturday, April 19, 2025

मान्यवर, मैं कंगाल हूँ

मान्यवर, मैं कंगाल हूँ: शिक्षा की कीमत कटघरे में
विषय: भारत में छात्र ऋण, कोचिंग शुल्क और निजीकरण की शिक्षा व्यवस्था

पटना में एक सपने का पतन:

पटना के सिन्हा परिवार एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार था, जिनके सपने असाधारण थे—एक ऐसा बेटा जो IIT की प्रवेश परीक्षा पास करे और उन्हें एक बेहतर भविष्य की ओर ले जाए। राजीव सिन्हा बिजली विभाग में सरकारी क्लर्क थे। उनकी पत्नी मीना, एक गृहिणी, घर को सलीके और बचत से संभालती थीं। उनका पूरा संसार उनके इकलौते बेटे अनुराग के इर्द-गिर्द घूमता था।

जब अनुराग ने स्कूल के दिनों में गणित और विज्ञान में प्रतिभा दिखाई, तो पड़ोसी, शिक्षक और रिश्तेदारों ने एक ही बात कही—“उसे कोटा भेजो।”

कोटा—एक ऐसा शब्द जो लगभग पौराणिक बन चुका था। सफलता, उपलब्धि और देश के शीर्ष इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश का प्रतीक। सिन्हा परिवार के लिए यह सामाजिक उन्नति का टिकट था। लेकिन इस टिकट की कीमत थी।

राजीव ने अपने पिता से विरासत में मिली पुश्तैनी ज़मीन को गिरवी रख दिया—वो ज़मीन सिर्फ़ पैसों की नहीं, भावनात्मक और सांस्कृतिक महत्व की भी थी। इस ऋण से उन्होंने अनुराग की कोचिंग फीस, हॉस्टल खर्च और मासिक जेबखर्च का प्रबंध किया। मीना ने नई साड़ियाँ खरीदना बंद कर दिया। राजीव ने रविवार के लंच छोड़ दिए। घर में अब पैसे ही नहीं, सपने भी नापे-तुले जाने लगे।

कोटा में अनुराग का जीवन एक अनुशासित मशीन की तरह हो गया। सुबह से शाम तक कक्षाएँ। अभ्यास पत्र जो उसके स्कूल की किताबों से कहीं मोटे थे। प्रतियोगिता इतनी कड़ी थी कि वह अपनी पहचान रैंकिंग और प्रतिशत से आंकने लगा। संस्थान खुद को ‘सर्वश्रेष्ठ’ बताता था—एसी क्लासरूम, सूट-बूट वाले मेंटर्स, और बाहर लगे होर्डिंग्स जिनमें टॉपर्स की तस्वीरें थीं—लेकिन उन चेहरों में कोई भी उस पीले पड़ चुके, आईने से कतराने वाले पटना के लड़के जैसा नहीं था।

घर पर फोन पहले साप्ताहिक हुए, फिर दो हफ्तों में एक बार। वह हमेशा कहता, “सब ठीक है,” लेकिन उसकी आवाज़ उसका साथ नहीं देती। वह रात का खाना छोड़कर इंस्टेंट नूडल्स खाने लगा, ताकि मासिक भत्ते को खींचकर चला सके। वह फिर से पैसे मांगने के लिए फोन नहीं करना चाहता था—वह जानता था उस कॉल की कीमत क्या होगी।

एक सोमवार सुबह, अनुराग संस्थान की गलियारे में बेहोश हो गया। गर्मी, चिंता, भूख और निराशा—उसके शरीर ने अंततः अदृश्य अपेक्षाओं के बोझ के सामने घुटने टेक दिए।

राजीव के लिए वह कॉल बिजली की तरह गिरा। मीना चुपचाप रोती रही जबकि राजीव एक छोटा बैग लेकर कोटा की ट्रेन में सवार हो गए। अस्पताल में डॉक्टर का लहजा सपाट था—“अल्पपोषित है। तनाव में है। अत्यधिक थका हुआ है। इसे दवा नहीं, आराम चाहिए।”

जब राजीव ने अपने बेटे को देखा, तो उसमें उन्हें कोई इंजीनियर नहीं दिखा। उन्हें एक कमजोर लड़का दिखा—काले घेरे, सूनी आंखें, जिसने थर्मोडायनामिक्स याद तो कर लिया था, लेकिन मुस्कुराना भूल गया था।

यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है। यह पटना के एक मध्यमवर्गीय परिवार की सच्ची कहानी है। परिवार के सदस्यों और छात्र के नामों को उनकी निजता की रक्षा हेतु बदला गया है।

छाया पाठ्यक्रम: कोचिंग और पूँजीवाद

घर लौटकर सिन्हा परिवार एक विरोधाभास में फंसा था। उन्होंने मध्यवर्गीय मानकों के अनुसार सब कुछ सही किया था: बेटे की प्रतिभा पहचानी, आराम का त्याग किया, भविष्य में निवेश किया। लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि आधुनिक शिक्षा एक मुनाफाखोर बाज़ार में बदल चुकी है।

अनुराग के सरकारी स्कूल में उत्साही शिक्षक थे, लेकिन टूटी कुर्सियाँ, प्रयोगशालाओं का अभाव और पुराना पाठ्यक्रम था। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी एक अलग ही दुनिया थी—जो केवल कोचिंग संस्थानों में बिकती थी, चमकदार ब्रोशर और कॉर्पोरेट नारों के साथ।

ये कोचिंग संस्थान सिर्फ़ पढ़ाते नहीं थे—ये वादा करते थे। चयन का, सफलता का, और सामाजिक मान्यता का। और कोटा जैसे शहरों में परिवार केवल फीस नहीं चुकाते—अपना मानसिक चैन, अपनी संस्कृति, और माता-पिता का स्नेह भी—जो अक्सर एक्सेल शीट के अंकों में सिमट जाता।

किसी ने सिन्हा परिवार को नहीं बताया कि कोचिंग एक दूसरा स्कूल है—जिसकी कीमत एक मकान जितनी है, लेकिन जिसमें ना खेल का मैदान है, ना त्योहार, ना दोस्त—बस एक अंतहीन सिलेबस और चुपचाप टिकती घड़ी।

छात्र ऋण: उधार में खरीदे गए सपने

सिन्हा परिवार ने वो पैसा उधार लिया जो उनके पास था ही नहीं, उस भविष्य के लिए जिसे वे देख भी नहीं सकते थे। बैंक अधिकारी ने कहा था, “शिक्षा एक निवेश है,” जैसे वह कोई धर्मग्रंथ हो। लेकिन सोना या ज़मीन के निवेश से उलट, इसमें कोई गारंटी नहीं थी।

जब ब्याज चुपचाप बढ़ने लगा, तब कोई आश्वासन नहीं था। जब अनुराग बीमार पड़ा, तब कोई ‘विराम’ बटन नहीं था। जब रैंक नहीं आई या जब मन टूटा, तब भी किस्तें माफ नहीं हुईं। आखिरकार, शिक्षा ऋण कहानियों के लिए नहीं, केवल संख्याओं के लिए बने होते हैं।

जब राजीव कोटा से लौटे, तब तक पाँच लाख खर्च हो चुके थे। ना नौकरी मिली, ना दाख़िला, और बेटा तो अब “अगली बार” शब्द सुनकर ही सिहर उठता था।

मीना ने प्रार्थनाएँ तेज़ कर दीं। राजीव ने चिंताएँ मन में रख लीं। और अनुराग—उसने बोलना ही बंद कर दिया।

निजीकरण: एक छिपा हुआ वर्ग विभाजन

सिन्हा अकेले नहीं थे। भारत भर में, केरल से कानपुर तक, लाखों मध्यवर्गीय परिवार ऐसे ही चुपचाप कर्ज़ में डूब रहे थे। यह कर्ज़ किसी विलासिता के लिए नहीं, बल्कि उस ‘ज़रूरत’ के लिए लिया गया था जिसे प्रतियोगी शिक्षा कहा गया।

हर राज्य में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़ सी आ गई थी। कुछ इतने महंगे थे कि एक मध्यवर्गीय परिवार दस साल में भी नहीं बचा सकता। कुछ ‘विकास शुल्क’ के नाम पर चंदा मांगते थे। और किसी भी कॉलेज में भावनात्मक सहारा, करियर मार्गदर्शन या वित्तीय सलाह नहीं थी—बस प्रवेश और शुल्क की आखिरी तारीख़।

शहरों में अब असली शिक्षा और ब्रांडेड शिक्षा के बीच की रेखा मिट गई थी। कोचिंग संस्थान स्कूलों से अधिक भरोसेमंद माने जाने लगे थे। निजी विश्वविद्यालय अपने चमकदार कैंपस और विदेशी गठबंधनों को फाइव-स्टार होटल की तरह बेचते थे। दाख़िला केवल योग्यता से नहीं, माता-पिता की तनख्वाह से तय होता था।

अदृश्य न्यायाधीश: समाज का फैसला

हर मोड़ पर सिन्हा परिवार को सूक्ष्म आलोचना झेलनी पड़ी। रिश्तेदारों ने पूछा, “स्थानीय कॉलेज में क्यों नहीं भेजा?” पड़ोसियों ने फुसफुसाया, “शायद वह IIT के लायक था ही नहीं।” लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि—भारत में शिक्षा ईमानदारी को क्यों सज़ा देती है और पहुँच को क्यों इनाम?

एक ऐसा देश जो युवाओं की शक्ति के नारे लगाता है, वहाँ युवा को तैयार करने की कीमत आज भी एक सपने जितनी महंगी है। अनुराग जैसे छात्र न तो आलसी हैं, न कमजोर, और न ही असफल। वे तो बस इस बात का सबूत हैं कि व्यवस्था ने ईमानदार आकांक्षा के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी।

मुक़दमा जारी है

सिन्हा परिवार की कहानी दुखद इसलिए नहीं है कि वे असफल हुए, बल्कि इसलिए कि यह सब पहले से ही अनुमानित था। यह कहानी हर साल लाखों भारतीय घरों में दोहराई जाती है। घर जहाँ माता-पिता अपने सपनों को बैंक रसीदों में बदल देते हैं, जहाँ बच्चे पढ़ाई नहीं, बल्कि गरीबी से भागने के लिए पढ़ते हैं, और जहाँ शिक्षा अब अधिकार नहीं—एक खरीदारी बन चुकी है।

इस देश में इन मामलों के लिए कोई अदालत नहीं है। लेकिन अगर होती, और सिन्हा परिवार उसके सामने खड़ा होता, तो शायद राजीव कहते:

“मान्यवर, मैं मुआवज़ा नहीं चाहता। मैं मान्यता चाहता हूँ।
कि मेरे बेटे का गिरना केवल एक चिकित्सकीय समस्या नहीं थी—बल्कि एक टूटे हुए वादे का लक्षण था।
कि शिक्षा अब विशेषाधिकार की तरह बेची जा रही है, अधिकार की तरह नहीं दी जा रही।
कि कहीं न कहीं, सपने और डिग्री के बीच हमने अपने बच्चे खो दिए।
मान्यवर, मैं सिर्फ़ पैसों से नहीं टूटा हूँ।
मैं विश्वास से भी टूट चुका हूँ।”

और देश के हज़ारों घरों के कोनों में एक धीमी सी गूंज उठे—"हम भी।"

यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है। यह पटना के एक मध्यमवर्गीय परिवार की सच्ची कहानी है। परिवार के सदस्यों और छात्र के नामों को उनकी निजता की रक्षा हेतु बदला गया है।

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय एवं समसामयिक विषयों पर नियमित लेखक

अध्याय 1: चाय दाग प्रकरण

अध्याय 1: चाय में डूबी सच्चाई

दिल्ली की गर्मी में मंगलवार ऐसा लग रहा था जैसे सूरज ने मौसम विभाग पर उत्पीड़न का केस ठोक दिया हो। वो तपिश जो ट्रैफिक सिग्नल पिघला दे, फुटपाथ पर अंडे फ्राय कर दे, और स्कूटर की सीट पर बिस्किट बेक कर दे। कौए—जो आमतौर पर मोहल्ले की गॉसिप के ठेकेदार होते हैं—आज पेड़ की छाया में वैसे सुस्त पड़े थे जैसे ज़मानत ना मिलने के बाद कोई वकील।

हाई कोर्ट के बाहर, पार्किंग की सीढ़ियों के पास एक छोटा-सा ढाबा था—नाम था ‘लिटिगेंट्स पैराडाइज़’। अब नाम भले ही स्वर्ग जैसा था, पर असलियत में ये जगह वैसी ही थी जैसे कोर्ट की तारीख । कुर्सियाँ हिलती थीं, पंखा स्कूटर की तरह खर्राटे मारता था, और खाना ऐसा लगता जैसे इमरजेंसी के ज़माने में बना हो।

पर चाय? चाय तो न्याय की देवी के भी दिल की धड़कन थी।
कड़वी, तीखी, और इतनी स्ट्रॉन्ग जैसे नींबू के साथ ली गई कोई लीगल नोटिस।

इसी चाय की महिमा के तले दो वकील रोज़ लंच पर आते थे—श्रीमान ब्लैक और श्रीमान व्हाइट।
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श्रीमान ब्लैक—ऐसे लगते जैसे कोई पुरानी कोर्टरूम फिल्म से निकलकर आए हों। सिर से पाँव तक काले कपड़ों में लिपटे, ब्लैक कोट,  ब्लैक गाउन, ब्लैक जूते,  ब्लैक मौजें, ब्लैक मुछे, ब्लैक दाढ़ी, ब्लैक ब्लैक बाल,  यहाँ तक कि उनकी ब्लैक  ब्रिफकेस भी इतनी बूढ़ी थी कि लगता था उसमें खुद का आधार कार्ड भी होगा। उनका चेहरा सुप्रीम कोर्ट की अवमानना सुनवाई जितना गंभीर। और तो और, सूरज की तपती धूप में  उनकी परछाईं भी ब्लैक ।

श्रीमान व्हाइट जब कमरे में घुसे तो पंखा भी चौंक गया—"अरे ये कौन ट्यूबलाइट रेड बुल पीकर आ गई?"
साफ-सुथरे, धुले-प्रेस किए सफेद कपड़े, चमचमाते जूते, व्हाइट मौजें,व्हाइट मुछे, व्हाइट  दाढ़ी, व्हाइट व्हाइट बाल,   व्हाइट बैग और  मुस्कान ऐसी जैसे हर पी.आई.एल.का उन्हीं पर  भरोसा हो। ऐसा लग रहा था जैसे स्वर्ग के लॉन्ड्री से धुलकर सीधा Ariel के विज्ञापन से आए हों।

श्रीमान  ब्लैक ने काला चश्मा उतारा जैसे कोई पुराना फिल्मी खलनायक।  श्रीमान  व्हाइट को देखा, और ठहाका मारते हुए बोले—
"भाई, तुम कोर्ट जा रहे हो या किसी फेयरनेस क्रीम की प्रतियोगिता में?"

व्हाइट मुस्कुराए—एकदम कानून की छुट्टी जैसा आत्मविश्वास।
"क्यों नहीं? बाकी सब तो ऐसे दिखते हैं जैसे किसी लीगल शवयात्रा में जा रहे हों। मैं दिखना चाहता हूँ जैसे न्याय आज पिकनिक पर निकला हो!"

ब्लैक की आँखें ऐसे घूमीं जैसे आर. टी. आई.  फाइल कर दी हो।

"तुम्हें देखकर लगता है जैसे संविधान को ब्लीच करके चांदनी चौक में सुखा दिया हो।"
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तभी प्रवेश हुआ वेटर का—जो असल में एक कानून का छात्र था, छः बार फेल हो चुका था, और अब सातवीं बार की तैयारी के लिए चाय परोस रहा था। आँखों में नींद, चेहरे पर टैक्स कानून की पीड़ा।

उसने काँपते ट्रे पर दो कप चाय रखे—ऐसे हिल रहे थे जैसे कोई गवाह जिरह के दौरान।

वो श्रीमान व्हाइट को देखता रहा, फिर बोला:
"सर, पूरी इज्ज़त से कहूँ... आपके कपड़े मेरी करियर की उम्मीदों से भी ज़्यादा चमक रहे हैं। पर ध्यान रहे—ये चाय तेज है। लीक हुए हलफनामों से तेज दाग करती है।"

व्हाइट मुस्कुराए जैसे उन्होंने शोले की किसी लाइन से केस जीत लिया हो।

"मेरे प्यारे इंटर्न," वो बोले, "मैं झेल चुका हूँ करी विस्फोट, टमाटर चटनी हमले, और तीखे पानी पूरी की सीधी मार। ये चाय तो कुछ भी नहीं।"

और जैसे कोई वरिष्ठ अधिवक्ता अवमानना नोटिस पढ़ता है, उन्होंने चाय उठाई...

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...और तभी, नियति ने अपनी एंट्री मारी।

प्लॉप।

एक बूँद चाय हवा में ऐसी उड़ी जैसे कोई फाइल आर. टी. आई.  से बाहर निकल कर आई हो... और सीधा जा गिरी श्रीमान व्हाइट की बर्फ जैसी शर्ट पर।

ढाबे में सन्नाटा।
पंखा रुका।
मक्खियाँ भी ठिठकीं।
फ्रिज ने गाना बंद किया।
खिड़की पर बैठे कबूतर ने धीरे से कहा—“ओहो।”

श्रीमान ब्लैक का चेहरा लाल हो गया—हँसी रोकने की कोशिश में। और फिर वो हँसे ऐसे जैसे ज़मानत खारिज कर दी हो।

"तुम्हारी निष्पक्ष न्याय की शर्ट को गुनहगार ठहरा दिया गया है—अति आत्मविश्वास की प्रथम श्रेणी में दोषी!"

व्हाइट नीचे देखे—उस दाग को जैसे कोई धारा 420 की स्याही हो।

फिर, नायक की तरह, उन्होंने सिर उठाया और कहा—
"ये है इकजहिबिट "ए" —साबित करता है कि चाय भी निर्दोषों पर हमला कर सकती है। केस खारिज!"

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दोनों हँसी में ऐसे फूटे कि पास वाली टेबल के दो रिटायर्ड जज और एक बोर इंटर्न भी हँसी में शामिल हो गए।

वेटर सिर हिलाते हुए बोला, "ओब्जेक्शन सस्टेन्ड।"

कबूतर ने भी न्याय की अंतिम मुहर लगाई—खिड़की पर एक सफेद सत्य छोड़कर।
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इस प्रकार, “महान चाय दाग प्रकरण” हुआ समाप्त।

ब्लैक और व्हाइट वहीं बैठे रहे, चाय के घूँट लेते रहे और कोर्ट की डरावनी कहानियाँ सुनाते रहे—
अनंत स्थगन,
गायब होती फाइलें,
और एक जज साहब जो अब भी मानते हैं कि व्हाट्स ऐप कोई प्रेत आत्मा है।

और जैसे सूरज दिल्ली को टोस्टर बना रहा था, एक बात साफ हो गई—

भारतीय न्याय प्रणाली में, तर्क ऐच्छिक है, विलंब स्थायी है, और सफेद पहनना सिर्फ आफ़त बुलाना है।
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कहानी की सीख:

"वकील का आत्मविश्वास जितना उजला हो, चाय उतनी ही निशाना साधती है"

विनम्रता और विनोद सहित,
अधिवक्ता अजय अमिताभ सुमन
पेटेंट एवं ट्रेडमार्क वकील, दिल्ली उच्च न्यायालय

Friday, April 18, 2025

संविधान जूते, चप्पल और कढ़ाही का


प्रस्तावना: लेखक की आँखों से

(या कहिए, चश्मे के पीछे से दिखती वो दुनिया, जो अक्सर चाय की प्याली में डूब जाती है)

कहानी शुरू करने से पहले एक बात साफ़ कर दूँ — अगर आप उन लोगों में से हैं जो किताब में सीधे "प्लॉट" ढूंढते हैं, तो जनाब, ये कहानी वैसी नहीं है। ये कहानी उस तरह की है जैसे सर्दियों में रज़ाई से पैर निकालने का साहस — जिसमें डर भी है, मज़ा भी, और रिस्क तो पूछिए मत।

अब बात करें मेरे बारे में। मैं हूँ एक शिक्षक। और वो भी हिन्दी का। यानी वो प्राणी जिसे बच्चे “टीचर” कहने से पहले मोबाइल की ओर देखने का अधिकार समझते हैं। जिस दिन मैं बच्चों को रामचरितमानस पढ़ा रहा था, उसी दिन एक बच्चे ने पूछा — “सर, इसमें WiFi का पासवर्ड कहाँ है?”

मेरी ज़िंदगी में दो ही चीज़ें स्थायी हैं — ट्यूशन की घंटी और मेरी पत्नी का डायलॉग: “तुम्हें सबकुछ मज़ाक क्यों लगता है?” और मैं हर बार सोचता हूँ — क्योंकि ज़िंदगी ने गंभीरता से लिया नहीं, तो मैं क्यों लूँ?

मैं समाज में उस गुप्तचर की तरह घूमता हूँ जिसे किसी ने नियुक्त नहीं किया, पर जिसे सबकी बातें बहुत ज़रूरी लगती हैं। मैं शादी-ब्याह में इसीलिए जाता हूँ ताकि खाने के साथ इंसान भी परोसे जाएँ — उनके विचार, उनके पाखंड, उनके संवाद... और उनकी मुँह में रसमलाई फँसाकर बोले गई आधी बातें।

मेरे लेखन की शुरुआत भी ऐसे ही हुई। एक दिन एक पंडित जी मेरे घर आकर बोले —
“पुस्तकें पढ़ने से बुद्धि बढ़ती है।”
मैंने पूछा — “और अगर अपनी ही लिखी किताब पढ़ूँ?”
वो बोले — “तो आत्ममुग्धता बढ़ती है।”
बस, उसी दिन से मैं लेखक बन गया।
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अब बात करें कहानी की।

ये कहानी सात लोगों की है — जो सब एक जैसे दिखते हैं, लेकिन विचारों से एक-दूसरे के चचाजान के भी विरोधी हैं। जैसे एक कहे — "दूध पीओ, हड्डियाँ मजबूत होंगी" तो दूसरा कहे — "गाय की पीड़ा पर कोई डॉक्यूमेंट्री देखी है?" तीसरा बोले — "पीओ मत, NFT बना लो दूध का, डिजिटल रहेगा!"

और मज़े की बात ये है कि ये सब एक ही मेज़ पर बैठे हैं, एक ही कचौड़ी पर बहस कर रहे हैं — और एक-दूसरे को ‘भाई’ भी कह रहे हैं और ‘अंधा भक्त’, ‘पाखंडी’, ‘डिजिटल भूत’ भी।

और मैं?
मैं वहाँ हूँ जैसे डीजे वाले के पीछे खड़ा वो दोस्त जो खुद नाचता नहीं, पर सबकी स्टेप्स पर नज़र रखता है। ये कहानी मेरी देखी हुई है, पर मेरी नहीं है।
या यूँ कहें — मैं इस कहानी का सीसीटीवी कैमरा हूँ, जो बोलता भी है और हँसता भी।
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तो आइए, इन सात विचारधाराओं की भुजियों में तली हुई कहानी में डुबकी लगाते हैं।
ध्यान रखिए — इसमें कोई भी पात्र जाति या धर्म से नहीं पहचाना जा सकता।
पर विचारों से वो ऐसे चमकते हैं, जैसे सोशल मीडिया पर किसी की शादी में एक्स गर्लफ्रेंड की कॉमेंट।

शुरुआत करते हैं उस ऐतिहासिक दिन से, जब कचौड़ी एक दर्शन बन गई।


अध्याय 1: 

कचौड़ी सम्मेलन

(या कहिए – वो ऐतिहासिक सभा, जहाँ विचार नहीं, कचौड़ियाँ टकराईं)

अब आप सोच रहे होंगे कि कोई बड़ा संवाद हो, कोई गंभीर बहस हो, तो वो संसद भवन में होनी चाहिए।
पर नहीं, जनाब! असली लोकतंत्र तो वहीं पनपता है जहाँ एक थाली में चार कचौड़ियाँ हों, और खाने वाले पाँच।

तो हुआ यूँ कि हमारे मोहल्ले की "जनसमर्पित जनसुविधा समिति" ने रविवार के दिन सामूहिक नाश्ता मिलन समारोह रखा। नाम ऐसा कि लगे कोई सरकारी योजना है, पर असल में ये उन बुजुर्गों की योजना थी जो रिटायरमेंट के बाद समाज सुधारना चाहते हैं – और शुरुआत उन्होंने कचौड़ी से की।

मैं वहाँ इसलिए गया क्योंकि घर में वही पुरानी लौकी की सब्ज़ी बनी थी, जिसे देखकर मेरी आत्मा तक कहती है — "भूखा रह ले, लेकिन ये मत खा!"

तो जैसे ही पहुँचा, देखा कि हॉल में सात कुर्सियाँ हैं, और उसपर विराजमान हैं – हमारे समाज के सात अनमोल रतन। किसी ने नहीं बताया कि ये लोग कौन हैं, पर उनके हावभाव, बातों और खाने के तरीकों से साफ था कि ये लोग चर्चा में हैं — चाहे मुद्दा कचौड़ी हो या कालचक्र।

मंच सज चुका था — आइए, पात्रों से मिलिए!
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1. समर – तर्कवादी

चेहरे पर ऐसा भाव जैसे हर चीज़ का प्रमेय चाहिए। प्लेट में कचौड़ी देखकर पहला सवाल —“इसमें ट्रांस फैट की मात्रा कितनी होगी?”पूरी कोशिश कर रहा था कि कचौड़ी को न्यूटन के तीसरे नियम से समझा जाए।“अगर मैंने काटा, तो प्रतिक्रिया में मेरा कोलेस्ट्रॉल क्यों बढ़ेगा?”
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2. लीना – सामाजिक कार्यकर्ता

जिन्होंने पहली कचौड़ी उठाने से पहले ही सवाल उठाया —
“सभी को बराबर कचौड़ी मिली है न? कोई सामाजिक असमानता तो नहीं?”सबको चुप देखकर आगे बोली —
“ये आयोजन पुरुषों ने तय किया है या संयुक्त रूप से? और तेल कौन-से ब्रांड का है?”
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3. बाबू – व्यंग्यकार

एक हाथ में प्लेट, दूसरे में नोटपैड। हर कचौड़ी में व्यंग्य खोज रहे थे।“ये कचौड़ी नहीं, लोकतंत्र की हालत है। बाहर कुरकुरी, अंदर गरम हवा!”हर बात को ऐसे घुमा के बोले, जैसे चाय में बिस्कुट डुबोते-डुबोते भगवत गीता की व्याख्या कर रहे हों।
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4. मोंटी – श्रद्धालु

खाने से पहले कचौड़ी को ऐसे देखा जैसे वो प्रसाद है।
“भगवान का धन्यवाद कि आज तामसिक भोजन मिला।”
जब बाबू ने कहा, “कचौड़ी का धर्म क्या है?” तो मोंटी गरजे —
“बोलना मत! इसमें पंचतत्व का संतुलन है!”
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5. ज़ोया – उदारवादी कलाकार

कचौड़ी को देख रही थी जैसे वो कैनवस हो।“इसकी गोलाई में प्रेम है, इसका रंग विरोध है। और यह आलू… यह प्रतिरोध है!”
फिर बोली, “मैं इसे खाऊँगी नहीं, स्केच बनाऊंगी।”
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6. कबीर – परंपरा प्रेमी

हर चीज़ में परंपरा तलाशते हैं।“कचौड़ी तलना एक संस्कृति है। पहले घरों में हाथ से तली जाती थी। अब... मशीन से!”
जब समर ने कहा कि “तेल में ट्रांस फैट है”, तो कबीर बोले —
“शुद्ध देसी घी से पाप भी पुण्य बनता है।”
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7. जॉय – तकनीक भक्त

एक हाथ में स्मार्टफोन, दूसरे में वीयरेबल घड़ी।
“मेरे फिटनेस बैंड ने अलर्ट भेजा है — एक कचौड़ी = 300 कैलोरी = 40 मिनट वॉक।”फिर बोला, “मैंने एक ऐप बनाया है — ‘Eat2Equal’। ये बताता है किसे कितनी कचौड़ी मिलनी चाहिए।”

(“ये बहस नहीं, ये तलना है — विचारों का!”)
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(स्थान – मोहल्ले की धर्मनिरपेक्ष धर्मशाला, प्रायोजक: ‘शुद्ध तेल वाले हलवाई’)
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( गोल टेबल पर विराजमान सात महापुरुष और महिलाएँ, जिनके सामने गर्मागर्म कचौड़ी और ठंडी-ठंडी वैचारिक लड़ाइयाँ सजी हैं)
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समर (तर्कवादी – दाढ़ी खुजाते हुए कचौड़ी को घूर रहा है जैसे ये कोई अपराधी हो)

> “इस गोल संरचना के केंद्र में उपस्थित ये आलू —
एक 'काल्पनिक संतुलन' है!कचौड़ी का घेरा सौरमंडल जैसा है, लेकिन इसका तला हुआ स्वरूप हृदयाघात का निमंत्रण है।
सवाल ये नहीं कि खाएँ या न खाएँ…सवाल ये है कि क्यों खाएँ?”
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मोंटी (श्रद्धालु – आँखें मूंदे कचौड़ी के ऊपर मंत्र बुदबुदाते हुए)
“हे तले हुए भोज्यपदार्थ की देवी!इस पवित्र कचौड़ी में तुम साक्षात् उपस्थित हो।परन्तु इसमें प्याज़...? अरे, ये तो सीधे-सीधे धर्म का अपमान है! प्याज़ का सेवन यानी… आत्मा की कुल्हाड़ी पर आस्था का हथौड़ा!”
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बाबू (व्यंग्यकार – कचौड़ी को चम्मच से कुरेदते हुए):“वाह! ये है 'तथाकथित लोकतांत्रिक नाश्ता'! बाहर से कुरकुरी, अंदर से खोखली – जैसे नेताजी के वादे। और प्याज़...? भाई साहब, ये प्याज़ नहीं, ये तो देश के बजट में छिपे करों की तरह है –काटते जाओ, रोते जाओ!”
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लीना (सामाजिक कार्यकर्ता – प्लेट गिनती करते हुए आवाज़ में बिजली भरकर) “मैं पूछती हूँ — क्यों मेरी प्लेट में सिर्फ एक कचौड़ी है जबकि समर की थाली में तीन? क्या ये ‘कचौड़ी पितृसत्ता’ है?क्या तेल भी अब लिंगभेदी हो गया है?
और...क्या महिलाओं को केवल दालमोठ तक सीमित रखना ही इस सभा का उद्देश्य है?”
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कबीर (परंपरा प्रेमी – शाल ओढ़े, मूँछों में ताव देते हुए)
 “अरे बहन जी, चिल्लाइए मत!जब हम बच्चे थे, तब कचौड़ी लकड़ी के चूल्हे पर तली जाती थी।बिना LPG, बिना microwave, और बिना feminism! और हम ‘जय श्री तलेला’ कहकर खाते थे — और किसी को शिकायत न थी!”
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ज़ोया (उदारवादी कलाकार – एक स्केचबुक में कचौड़ी की आकृति बनाते हुए) “कचौड़ी में घेरा नहीं है… ये समाज का वलय है,इसकी परतें हमें हमारी ही मानसिक जटिलताओं की याद दिलाती हैं।जब ये फूटती है, तो अंदर से वही चीज़ निकलती है जो हमारे भीतर छुपी है — अलौकिक असंतोष!
मैं इसे ‘अभ्यंतर विघटन' की संज्ञा दूँगी।”
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जॉय (तकनीक भक्त – स्मार्ट घड़ी पर टैप करते हुए, जैसे NASA से कचौड़ी की रिपोर्ट आ रही हो)  “आप सब पुरानी दुनिया में अटके हैं! मैं अभी एक ऐप बना रहा हूँ — ‘KachoriScope’ जो बताएगा कि किसकी कचौड़ी में कितनी ‘असहिष्णुता' है। और ये देखिए, लीना की कचौड़ी गायब है! डेटा बता रहा है — चोरी हुई है।
टाइमस्टैम्प के अनुसार समर ने अपनी प्लेट के नीचे कुछ छुपाया है…”
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अब शुरू होता है महामहिमीय मंथन — बहस का महायुद्ध!
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समर (भड़कते हुए, थोड़ी कचौड़ी की चटनी दाढ़ी पर लगाते हुए): “क्या आप मुझे चोर कह रहे हैं? मैं तर्क से जीता हूँ, चोरी से नहीं। और फिर, मैं तले हुए पदार्थों को नकारता हूँ —
खाया भी तो वैज्ञानिक परीक्षण के लिए!”
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लीना (तेज आवाज़ में): “तुम्हारा वैज्ञानिक परीक्षण, महिलाओं की थाली से होकर क्यों गुजरता है?तुम ‘समानता’ को सिर्फ तब याद करते हो जब तुम्हें अतिरिक्त मिले!क्या तुम्हारी थाली भी 'आरक्षण विरोधी' है?”
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बाबू (बीच में कूदते हुए, जैसे न्यूज डिबेट में हो):  “बहन जी, मैं सुझाव दूँ — इस बहस को Supreme Court में ले चलें।
और कचौड़ी को संवैधानिक दर्जा दिलवाएँ! हर व्यक्ति को एक कचौड़ी –‘एक व्यक्ति, एक वोट, एक कचौड़ी!’”
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कबीर (गुस्से से उठते हुए, जैसे अभी उपवास शुरू कर देंगे):
 “ये सब पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव है! अब लोग कचौड़ी में जात पूछते हैं, धर्म ढूँढते हैं! अरे तली हुई चीज़ों को राजनीति से बचाओ!”
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ज़ोया (हल्के स्वर में, लेकिन वज्र सा प्रभाव):“तलना केवल रसोई का काम नहीं,यह तो हमारे समाज का स्थायी भाव है।
हर विचार, हर पहचान यहाँ रोज़ तली जाती है।कभी धर्म के तेल में, कभी जाति के मसाले में!”
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जॉय (शांत स्वर में, लेकिन तकनीकी रोबोटिक भाव में): “Breaking News:कचौड़ी सम्मेलन का सर्वर डाउन हो चुका है।सभी विचारधाराओं में सिस्टम इरर है।समाधान सुझाव:
सबको दो-दो कचौड़ी दो — और वाई-फाई ऑन कर दो।”
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मैं (लेखक – इस पूरी जलेबी जैसी उलझी सभा को देखता हुआ):  “और मैं वहाँ बैठा सोच रहा था — इस देश में कचौड़ी से भी वाद विवाद हो सकता है… तो फिर आशा अभी बाकी है!
ये सभा नहीं, ये राष्ट्रीय चरित्र की तली हुई प्लेट थी!
जिसमें स्वाद कम था, मसाले ज़्यादा।”
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और तभी… कुछ ऐसा हुआ, जो सबका ध्यान बदल गया।

(लीना की कचौड़ी वास्तव में चोरी हो चुकी थी… और उस पर लगे उँगलियों के निशान, जॉय के ऐप ने कैप्चर कर लिए थे…)
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अध्याय 2: झगड़े का श्रीगणेश
(उपशीर्षक: जहाँ कचौड़ी सिर्फ गरम नहीं थी, माहौल भी खौलता था!)
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> पिछले अध्याय तक:
सात महापुरुषों और स्त्रियों ने कचौड़ी को देखकर भी उसे शांति से नहीं खाया।
हर कचौड़ी पर विचारधारा की चटनी लगी हुई थी।
और अब... जब एक कचौड़ी गायब मिली,
तो कचौड़ी सम्मेलन बदल गया —
"कचौड़ी संघर्ष समिति" में!
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दृश्य: धर्मशाला का ‘भोजन कक्ष’, अब ‘विचारों का युद्धक्षेत्र’ बन चुका है

बैकग्राउंड में हलवाई का चूल्हा धुआँ छोड़ रहा है।
लीना के चेहरे पर क्रांति की चमक है,
समर की आँखों में डाउट और गणितीय समीकरण तैर रहे हैं।
जॉय मोबाइल में सबूत खोज रहा है,
और मोंटी भगवान को सबका गवाह बना रहे हैं।
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(स्टेज पर पहली आवाज़: लीना – चीखते हुए, प्लेट हवा में उठाकर)

लीना:

> “ये क्या!
मेरी कचौड़ी?
वो कहाँ है?
मेरे अधिकार की तली हुई पहचान को किसने निगल लिया?”
बाबू (मुंह में कचौड़ी, आवाज़ में नाटक):

> “कचौड़ी गई, न्याय रोया।
प्लेट हुई खाली, सभ्यता सोई।
और आप पूछती हैं — ‘कौन खाया?’
मैडम, ये न पूछिए, क्यों खाया? पूछिए!
इस देश में पेट से बड़ा कोई तर्क नहीं है!”

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(समर – पलकें सिकोड़े, जैसे कचौड़ी का एक्स-रे देख लिया हो)

समर:

> “इस घटना में तीन संभावनाएँ हैं —
एक: प्राकृतिक वाष्पीकरण,
दो: माया,
तीन: चोरी।
और तीसरे की संभावना 87.3% है।”

लीना (आँखों में आँसू और आग):

> “87%?
मैं औरत हूँ, आँकड़ा नहीं!
मुझे कचौड़ी चाहिए, लॉजिक नहीं!”

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(कबीर – हाथ जोड़ते हुए, बीच में कूदते हैं जैसे शादी में मिठाई बचाने आए हों)

कबीर:

> “हे देवियों, हे सज्जनों!
ये जो हुआ, अपशकुन है।
किसी की कचौड़ी खा जाना —
ये तो वही हुआ जैसे व्रत में चुपके से समोसा खा लेना!”

मोंटी (धार्मिक मुद्रा में):

> “कचौड़ी देवी स्वयं इस सभा में उपस्थित थीं…
और अब उनका अपहरण हो चुका है।
ये अधर्म हुआ है!
मुझे तो संदेह है कि ये अधर्मवादी-तर्कवादी गठजोड़ है।”

समर (झल्लाते हुए):

> “देखिए, भगवान और भुजिया को विज्ञान में मत मिलाइए।
ये ईश्वरीय षड्यंत्र सिद्धांत अब पुराना हो चुका है।
मैं कह रहा हूँ – जॉय को स्कैन करने दीजिए,
उसका ऐप झूठ नहीं बोलता।”
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(जॉय – मोबाइल को प्लेट के ऊपर घुमाते हुए, जैसे RAW की छानबीन चल रही हो)

जॉय:

> “डेटा विश्लेषण से स्पष्ट है —
12:04:32 पर लीना की प्लेट में दो कचौड़ियाँ थीं,
12:05:11 पर एक गायब हो गई।
फेस रिकग्निशन अल्गोरिद्म कहता है:
बाबू जी, आपके चेहरे पर भोजन अपराध की भाव-भंगिमा पाई गई है!”



बाबू (हँसते हुए, पर थोड़ा घबराए हुए):

> “क्या मतलब?
मेरे चेहरे पर ‘कचौड़ी चोर’ लिखा है?
मैं तो बस... स्वाद के आंकलन हेतु एक कौर ले रहा था।
और वैसे भी, मैं क्या अकेला हूं जिसे भूख लगती है?
आपकी AI को Aloo-Injustice कहिए!”




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(ज़ोया – एक कोने से बोली, आँखें बंद किए हुए, जैसे कोई संत ध्यान में कुछ देख ले)

ज़ोया:

> “ये कचौड़ी की घटना नहीं है...
ये एक प्रतिरोध है।
शायद वो कचौड़ी खुद को खिला देना चाहती थी –
ताकि बाकी बचे लोगों को सामूहिक अपराधबोध हो।
ये कला है, क्रांति है, और
पिघलता हुआ तेल हमारे समाज की गर्मी का प्रतीक है!”




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(और अब... महाभारत प्रारंभ!)

लीना:

> “मुझे मेरी कचौड़ी दो वरना ये आंदोलन अनशन में बदल जाएगा!”
समर:
“चलो सबकी प्लेट की छानबीन करते हैं – CSI: Kachori Squad एक्टिवेट करो।”
मोंटी:
“पहले भगवती की कसम खिलवाओ, फिर पूछो – किसने खाई?”
बाबू:
“मैं कहता हूँ, सब एक-एक प्लेट उलट दें – और फिर करें न्याय!”
कबीर:
“पहले सब तोंद दिखाएँ – जहाँ कचौड़ी जाएगी, वहीं से सुराग मिलेगा।”
जॉय:
“मोबाइल उठाओ, कचौड़ी-सेल्फी खींचो। जिससे सबसे ज्यादा crumbs गिरें हैं, वही दोषी है।”
ज़ोया:
“मैं इस पूरे दृश्य को इंस्टॉलेशन आर्ट में बदल दूँगी – नाम होगा: ‘Who Ate Her Identity?’”




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मैं (लेखक):

> और मैं वहीं बैठा सोच रहा था...
"ये सब मेरी आँखों के सामने हो रहा है?
ये क्या… लोकतंत्र की गली है या हलवाई की थाली?"

मुझे पहली बार समझ आया —
झगड़ा तब शुरू नहीं होता जब विचार टकराते हैं,
झगड़ा तब होता है जब भूख के साथ विचार टकराते हैं!




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अंत में... कबीर की तोंद में से कुछ अत्यधिक गर्म आलू की गंध निकली —
और सभा का ध्यान उस दिशा में मुड़ गया।
जांच गहराई से जारी थी...
संघर्ष अभी जारी है…



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अध्याय 3: कचौड़ी की जाँच — तोंद, टोपी और ट्रुथ-टेक्नोलॉजी
(उपशीर्षक: “जहाँ न्याय का तराजू नहीं, तोंद तौलने वाली मशीन चली।”)


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> पिछले अध्याय तक:
कचौड़ी गायब थी।
लीना नाराज़ थी।
समर ने गणना की, जॉय ने स्कैन किया,
और अब... संदेह की उँगली सीधा जाकर ठहरी कबीर की तोंद पर।

पर तोंद का क्या दोष?
वो तो बस अनुभव और स्वाद की गठजोड़ से बनी एक जीवित जीवाश्म थी!




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दृश्य – वही धर्मशाला, पर अब ‘CSI: कचौड़ी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन’ का हेडक्वार्टर

हवा में गर्म तेल की खुशबू,
और तोंद की आभा चारों ओर फैली हुई है।
जॉय के मोबाइल की टॉर्च अब ‘फॉरेंसिक लाइट’ बन चुकी है।
कबीर चुप हैं — पर उनकी तोंद मुखर है।


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(जॉय – पूरी गंभीरता से, जैसे हलवाई की थाली पर कोई सर्जरी कर रहा हो)

जॉय (मोबाइल घुमाते हुए):

> “मैंने ‘Gastric Pressure Mapping’ तकनीक लागू की है।
यह बताएगा कि किसकी आंतरिक प्रणाली में सबसे अधिक ‘कचौड़िक भार’ विद्यमान है।”



बाबू (मुस्कराते हुए):

> “मतलब अब तोंद ही गवाह बनेगी?
अरे भाई, मेरी तोंद तो भावनाओं की गहराई है।
इसमें अतीत की पूरियाँ, वर्तमान की पकौड़ियाँ और भविष्य की जलेबियाँ हैं!”



समर:

> “ये तोंद नहीं, भोजन भंडारण का लोकतांत्रिक केंद्र है।
परंतु सटीक निरीक्षण हेतु,
कृपया सब लोग खड़े हो जाएँ…
और अपने-अपने पेट को 45 डिग्री झुकाकर दिखाएँ।”




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(पात्र खड़े होते हैं — मंच पर एक हास्यास्पद दृश्य)

मोंटी की तोंद गोल, जैसे कपालभाति से पवित्र।
बाबू की तोंद लहरदार, जैसे तर्कों की नदी।
जॉय की तोंद स्किनी, पर मोबाइल का बैग भारी।
ज़ोया की पेट-रेखा बिलकुल कला की रेखा जैसी।
कबीर की तोंद — ओह, कबीर की तोंद...
वो ऐसी कि लगे, जैसे ‘पुरातन तंदूरी गुब्बारा’ हो।


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(लीना – हाथ में चम्मच लिए, जैसे कोई खोजकर्ता हो)

लीना (गुस्से में):

> “तो आप सब मुझे मूर्ख समझते हैं?
मैं स्त्री हूँ, पर जासूसी में अबला नहीं!
मैंने खुद इस तोंद की छाया का विश्लेषण किया है —
और वहाँ जो स्पॉट था,
वो सरसों तेल में डूबा हुआ था!”



कबीर (घबराकर):

> “ये तोंद तो वर्षों से तेल झेलती आई है।
इसमें अब कोई नया धब्बा कहां से आया?”



जॉय (आँखें सिकोड़कर):

> “मेरे Thermal Imaging Device के अनुसार…
आपकी तोंद पर जो तापमान है,
वो हाल ही में तली गई कचौड़ी के संपर्क का संकेत देता है।”




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(बाबू – शायराना अंदाज़ में बात घुमाते हुए)

बाबू:

> “ये तापमान की बात है जनाब,
मोहब्बत में भी कभी-कभी बुखार आता है।
कचौड़ी हो या कसक,
पेट तक पहुंच जाए — तो गुनाह नहीं, कला है!”



ज़ोया (उंगलियाँ चटनी में डुबोते हुए):

> “अगर कोई कचौड़ी खा भी गया —
तो शायद वो आत्मा की भूख मिटा रहा था।
कला की भाषा में कहें,
ये एक ‘Digestive Protest’ था!”




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(और तभी...)

समर अपनी पॉकेट से कुछ निकालते हैं — एक वैज्ञानिक यंत्र!
नाम: ‘OilPrint Identifier’ — जो तोंद पर गिरे तेल से पता लगा सकता है कौन सी कचौड़ी थी।

समर (गर्व से):

> “अब सच सामने आएगा।
इस मशीन से मैं कबीर की तोंद पर लगे तेल के कणों को पढ़ सकता हूँ –
और यह बताएगी कि वह तेल प्याज़ वाली कचौड़ी का है या बिना प्याज़ की।”




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(कबीर – हड़बड़ाकर अपनी शॉल कसते हैं)

कबीर:

> “अरे भाई! ये तो निजता का उल्लंघन है।
तोंद अब सार्वजनिक दस्तावेज़ बन चुकी है क्या?”



लीना:

> “तोंद जब तक खाली थी, तुम्हारी थी।
पर अब वो सबकी साक्षी है!”



जॉय (मुस्कराकर):

> “Breaking News:
'KachoriLeaks' सामने आया है।
और उसके Source का नाम है: K-Bir।”




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(मैं – लेखक, अपनी डायरी में लिखते हुए, धीरे से मुस्कराते हुए)

> “सदियों बाद शायद लोग इस सभा की चर्चा करेंगे…
कि कैसे एक तली हुई कचौड़ी ने
जाति, धर्म, विज्ञान, कला, नारीवाद और भूख को एक मंच पर ला खड़ा किया।

और कैसे न्याय का पलड़ा तोंद से तोला गया…

मैं गवाह हूँ —
जहाँ गाली नहीं, तली दी जाती थी।
जहाँ बहस में सब गरम होते थे —
पर अंत में… चटनी साथ बैठा देती थी!”



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> पिछले अध्याय तक:
एक गायब कचौड़ी ने भूख, शंका और शक की आँधी खड़ी कर दी।
तोंदों की जाँच, तेल की स्कैनिंग, और भावनाओं का फ्राइंग हुआ।

लेकिन अब…
जब न्याय की आँच धीमी पड़ी,
और भूख फिर सिर उठाने लगी —
तो एक हलवाई ने इतिहास रच दिया!




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**दृश्य: वही धर्मशाला का भोजन कक्ष,

पर अब वहाँ लड़ाई नहीं, भूख की सामूहिक चुप्पी है।**

लीना ने बहस थाम ली है,
कबीर अब तोंद को कंबल से ढँक चुके हैं,
जॉय का मोबाइल चार्जर ढूँढ रहा है,
और समर ‘Data Overload’ से थककर चाय की चुस्कियों में Data ढूँढ रहा है।


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(पृष्ठभूमि में हलवाई, नायक की तरह उभरते हैं – जैसे MCU में कोई “Captain Chashni” हो)

हलवाई (अपने विशाल भगोने को घुमाते हुए):

> “ओह, इतने बहस तो चुनाव के बाद भी नहीं होते,
जितना तुम सबने एक कचौड़ी के लिए कर लिया!
पर अब वक्त है — सामूहिक समाधान का।”




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(मोंटी – धार्मिक भाव में, जैसे महाभारत के युद्ध के बाद कृष्ण शांतिदूत बन गए हों)

मोंटी (माथे पर चंदन लगाते हुए):

> “शांति का मार्ग एक ही है —
सबको कढ़ाही में डुबो दो!
मेरा मतलब है…
सब मिलकर एक ही कढ़ाही में तलें,
ताकि एकता के तेल में भूतपूर्व बैर गल जाएं।”




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(लीना – अब थोड़ा हँसकर, हाथ में कलछुल लेकर)

लीना:

> “वाह! क्रांति का नया मार्ग:
तल कर टकराव भूल जाना!
ठीक है, मैं प्याज़ काटती हूँ।
लेकिन चेतावनी दे दूँ —
अगर कोई फिर से मेरी कचौड़ी छुएगा,
तो अगली बार मैं तेल में न्याय तल दूँगी।”




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(समर – कैलकुलेटर लेकर)

समर:

> “मैं तेल का तापमान मापता हूँ —
ताकि कचौड़ी 100 डिग्री Celsius में भी समानता से तली जाए।
और सबका आकार Standard Deviation में फिट हो।”



जॉय:

> “मैं सबकी कचौड़ियों की Face ID रजिस्टर कर दूँगा,
ताकि कोई किसी की न खा सके —
और अगर खाए तो अलार्म बजे:
'कचौड़ी चोरी अलर्ट!'”




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(कबीर – अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए, हँसी में गुमाकर)

कबीर:

> “मुझे माफ करना मित्रों,
मेरी तोंद तो ‘भूतपूर्व शत्रुओं का संग्रहालय’ है।
अब से उसमें सिर्फ दोस्ती का पकवान संचित होगा।”




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(ज़ोया – एक चम्मच चटनी चखकर, गहराई से बोलती हैं)

ज़ोया:

> “ये चटनी…
ये सिर्फ इमली, पुदीना और मसाले नहीं है।
ये हमारी एकता का रस है —
थोड़ा तीखा, थोड़ा मीठा, और बहुत ज़्यादा बाँधने वाला।”




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**(और फिर…

तली जाती है सामूहिक कचौड़ी —
जिसे सबने मिलकर गूंथा, काटा, तला और फिर हँसी में बाँटा)**

कढ़ाही में उठता हुआ तेल का संगीत,
चटनी की खुशबू,
और सबकी हथेलियों पर लिपटी ताज़गी…
ये था ‘कचौड़ी-करार’,
जहाँ बिना कागज़, बिना हस्ताक्षर —
एक अदृश्य दोस्ती की डोर बंध गई थी।


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मैं (लेखक – अपने डायरी में चाय डुबोते हुए)

> “आज मैंने देखा —
बहस चाहे कितनी भी गरम हो,
अगर सब मिलकर कुछ तल लें…
तो विचार भी कुरकुरे हो जाते हैं,
और मतभेद — चटनी में डूबकर, स्वाद बन जाते हैं।

‘धर्मनिरपेक्षता’ शायद यही है —
जब हम एक ही तेल में अपने अलग-अलग स्वाद लेकर आएं,
और मिलकर एक पकवान बन जाएं…

न कोई ज़्यादा फूला,
न कोई कम तला —
सबकी अलग खुशबू,
पर एक ही थाली।”




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(पात्र अंत में तश्तरी में कचौड़ियाँ बाँटते हैं,
और एक-दूसरे को चटनी चखाने लगते हैं —
न बहस है, न आरोप।
सिर्फ स्वाद, हँसी और तली हुई दोस्ती।)


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अध्याय 5: विचारों की बेलन – जब आटे से बना संविधान
(उपशीर्षक: “जब नफ़रत की गूँथाई बंद करके, सबने विचारों की रोटी बेलनी सीखी।”)


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> पिछले अध्याय तक:
कचौड़ी कांड के बाद दोस्ती की आंच में सबके रिश्ते तले गए।
तोंद पर शक हुआ, चटनी में मेल हुआ, और अब सबके पेट में शांति है।
पर मन?
वो अभी भी थोड़ा बिखरा है।

हलवाई ने अगली चुनौती दी —
“अब रोटियाँ बेलो! पर इस बार… विचारों से।”

और यहीं से शुरू हुआ…
गूँथाई, बेलन, और बेइंतिहा तर्कों की चकला-चकली।




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दृश्य: वही धर्मशाला का रसोईघर

पर अब वह किचन कम, विचारों का संविधान सभा ज़्यादा लग रहा है।
हर पात्र के सामने आटे का लोथड़ा रखा है — साथ में एक बेलन, और मन में सवाल।


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(हलवाई – आज पूरी गंभीरता में, जैसे खाना नहीं, संविधान गढ़ा जा रहा हो)

हलवाई:

> “आज से हर कोई अपनी रोटी खुद बेलेगा।
लेकिन ये रोटी सिर्फ गेहूं से नहीं —
अपने विचारों से गूंथी जाएगी।

और जो रोटी सबसे गोल, लचीली और सहनशील निकलेगी —
वही ‘लोक-रोटी’ कहलाएगी!”



लीना (हाथ में बेलन उठाते हुए):

> “मतलब आज विचारों की बेलन चलेगी?
तो सुन लो — मेरी रोटी में बराबरी का नमक होगा,
और घी की जगह आत्मनिर्भरता लगेगी।”




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(समर – कन्वर्टर उठाते हुए)

समर:

> “मैं अपनी रोटी का क्षेत्रफल नापूंगा।
अगर कोई रोटी ‘एक वर्ग सेंटीमीटर भी असमान’ निकली —
तो वो संवैधानिक रूप से अमान्य घोषित कर दी जाएगी।”



जॉय (बेलन को मोबाइल स्टैंड की तरह इस्तेमाल करते हुए):

> “मैं तो बेलन को Bluetooth से जोड़कर
‘Smart Roti Tracker’ बना रहा हूँ।
इससे पता चलेगा कि आपकी रोटी
‘Inclusive’ है या ‘Burnt at the Edges’!”




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(बाबू – बेलन को कविता की तरह घुमाते हुए)

बाबू:

> “मेरी रोटी गोल नहीं,
थोड़ी टेढ़ी-मेढ़ी होगी…
जैसे ज़िंदगी।
और उस पर छेद होंगे —
ताकि हवा चल सके विचारों में।

ये संविधान नहीं,
स्वान्तंत्र्य की रोटी है!”



मोंटी (गंभीर मुद्रा में):

> “मेरी रोटी केवल तब पकेगी,
जब उस पर सनातन परंपरा की मुद्राएँ लगें।
पर ध्यान रहे —
उसमें 'अहिंसा' की भाप ज़रूर होगी।”




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(ज़ोया – मुस्कराते हुए, हल्दी छिड़कते हुए)

ज़ोया:

> “मैं अपनी रोटी को ‘संस्कृति की चादर’ में लपेटूँगी।
थोड़ी रंगीन, थोड़ी तीखी, और बहुत विविध।

लेकिन मेरी शर्त है —
हर रोटी में एक कोना ‘प्रेम’ का होना चाहिए!”




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(और तभी… कबीर अपनी तोंद पर बेलन रखकर चिंतन मुद्रा में बैठ जाते हैं)

कबीर:

> “मैंने निर्णय लिया है —
इस बार रोटी नहीं बेलूँगा।
मैं सिर्फ सबकी रोटियों को चखूंगा —
ताकि तय कर सकूँ,
किसका विचार ज्यादा ‘पचने योग्य’ है।”



लीना:

> “मतलब तू खुद संविधान नहीं बनाएगा,
पर दूसरों के संविधान को Digest करने चला है?”



कबीर (गर्व से):

> “हाँ, मैं लोक-संविधान-टेस्टर हूँ।
और मेरी तोंद… विचारों की समीक्षा के लिए प्रमाणित है!”




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(चूल्हे पर रोटियाँ चढ़ने लगती हैं)

कुछ जली, कुछ कच्ची, कुछ अति सेंकी गईं।
पर सबसे सुंदर वो थी —
जिसे सबने मिलकर बेलकर बनाया था:
गोल भी, नम्र भी, और हर एक की उँगली का निशान उस पर था।


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(हलवाई — गर्व से मुस्कराते हुए)

हलवाई:

> “यही है असली संविधान —
जहाँ कोई रोटी छोटी-बड़ी नहीं,
कोई सेंकने वाला ऊँच-नीच नहीं,
और सबका आटा एक ही परात में गूंथा गया हो।”




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(मैं – लेखक, अब बेलन के हत्थे से डायरी पन्ना पलटते हुए)

> “कभी संविधान बड़ी बड़ी किताबों से नहीं बनते —
वो बनते हैं चूल्हों के पास,
जहाँ सबके हाथ एक काम में लगें…
और विचार, आटे की तरह मिल जाएं।

आज मैंने देखा —
विचारों को अगर बेलन से बेलो,
और उसमें भेदभाव न हो,
तो वो रोटी नहीं,
साझा संस्कृति बन जाती है।”




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अध्याय 6: भोजन का बहुमत — जब पकवानों ने वोटिंग की
(उपशीर्षक: “जब हर व्यंजन को लगा कि वही देश का स्वाद है… और चुनावी तवा गरम हुआ।”)


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> पिछले अध्याय तक:
सबने विचारों की रोटियाँ बेलीं,
कुछ फूलीं, कुछ फट गईं, कुछ कच्ची रह गईं।
फिर हलवाई ने कहा —
अब असली लोकतंत्र शुरू होगा!

रोटी बेलना आसान था,
पर अब पकवानों का चुनाव होगा।
कौन बनेगा ‘राष्ट्रीय व्यंजन’?
कौन जीतेगा बहुमत?
कौन खाएगा वोट… और कौन गिरेगा सॉस में?




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दृश्य: धर्मशाला के मध्य हाल में चुनावी मंच सजा है

एक तरफ आलू टिक्की का मंच, दूसरी तरफ खिचड़ी का कैम्प।
गोलगप्पे वाले ने प्रचार वाहन बना लिया है — ठेले को!
और समोसा पार्टी ने तो घोषणापत्र तक छपवा लिया है!


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(हलवाई – अब मुख्य चुनाव अधिकारी)

हलवाई (सीटी बजाकर):

> “ध्यान दीजिए ध्यान दीजिए!
आज का दिन ऐतिहासिक है!
जैसे देश में चुनाव होते हैं,
वैसे ही आज भोजन का बहुमत तय करेगा —
‘राष्ट्रीय स्वाद-प्रतिनिधि’ कौन होगा!”




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(प्रत्याशी संख्या 1: समोसा)

समोसा (काग़ज़ों में लिपटा, मंच पर चढ़कर):

> “मेरे अंदर सिर्फ आलू नहीं,
बल्कि संघर्ष का स्वाद है!

मैं तला गया हूँ… पर कभी झुका नहीं!
मैं तिकोना हूँ… पर हमेशा सबको साथ लेकर चलता हूँ!

मेरी नीति स्पष्ट है —
हर थाली में दो समोसे!”



भीड़: "वाह! समोसा ज़िंदाबाद!"


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(प्रत्याशी संख्या 2: खिचड़ी)

खिचड़ी (एक भगोने से निकलती भाप के साथ):

> “मैं सरल हूँ, सादा हूँ,
पर सबको पचने वाली हूँ!

मेरे अंदर चावल भी है, दाल भी…
और थोड़ा-थोड़ा हर जाति-धर्म का मसाला भी!

अगर मुझे चुना गया,
तो हर घर में ‘एकजुटता का स्वाद’ होगा।

मैं खिचड़ी हूँ,
पर किसी की खिच-खिच नहीं होने दूँगी!”



भीड़: "खिचड़ी का ही ख्याल है!"


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(प्रत्याशी संख्या 3: पनीर बटर मसाला)

पनीर (शाही अंदाज़ में):

> “मैं शाही हूँ, मलाईदार हूँ…
थोड़ा महंगा जरूर हूँ,
लेकिन स्वाद में लोकतंत्र का DNA हूँ!

मैं मिठास और मसाले का संतुलन हूँ —
जैसे संसद में समझौता!”



लीना:

> “लेकिन हर कोई तुझे अफोर्ड नहीं कर सकता!
महंगाई का क्या समाधान है?”



पनीर (गर्व से):

> “मैं GST से बाहर रहने की योजना लाऊँगा!”




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(प्रत्याशी संख्या 4: गोलगप्पा)

गोलगप्पा (जल्दी-जल्दी बोलते हुए):

> “मैं हर नुक्कड़, हर गली का नायक हूँ!

मेरी पार्टी में न भाषा की बाधा है,
न भूख की सीमा!

मैं फूट-फूटकर लोगों को जोड़ता हूँ!

एक वोट दो, एक मीठा, एक तीखा,
और एक जीवनभर का स्वाद पाओ!”



बाबू:

> “पर तुझमें स्थिरता कहाँ है?
हर बार स्वाद बदलता है!”



गोलगप्पा:

> “वो ही तो असली लोकतंत्र है —
बदलते स्वाद के साथ भी अपनापन!”




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अब सब पात्र वोट देने को तैयार…

(समर मोबाइल पर वोटिंग ऐप बना रहा है,
कबीर ने कूपन के बदले वोट खरीदने की योजना बनाई,
और मोंटी पोस्टर चिपका रहे हैं: “Vote for Vegetarian Unity”)


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(चुनाव की प्रक्रिया शुरू — हलवाई मंच पर)

हलवाई:

> “अब हर कोई अपनी थाली लेकर वोट डालेगा!

और याद रखो —
वोट की गोपनीयता उतनी ही ज़रूरी है
जितनी कचौड़ी में आलू!”




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(वोटिंग के बाद… हलवाई परिणामों की घोषणा करते हैं)

हलवाई (ढोल बजाते हुए):

> “भाइयों और बहनों…
भारी मतदान और हल्के मसालों के बाद,
भोजन का बहुमत यह कहता है —

‘राष्ट्रीय व्यंजन का ताज जाएगा… खिचड़ी को!’”



भीड़: “खिचड़ी का ही ख्याल है! खिचड़ी सबकी माँ है!”


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**(समोसा भाप छोड़ता है, पनीर नाराज़ होकर मलाई में डूब जाता है,

और गोलगप्पा खुद फूट जाता है — लोकतांत्रिक तरीके से!)**


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(ज़ोया – सबको समझाते हुए)

ज़ोया:

> “देखो, आज हमने सीखा —
स्वाद चाहे अलग हो,
पर जब सबकी भूख एक हो,
तो एकता की खिचड़ी ही सबसे बड़ा पकवान बनती है!”




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(मैं – लेखक, अब वोटिंग स्लिप को चाय की प्याली में डुबोते हुए)

> “आज देखा —
जब समोसे और पनीर जैसी ताक़तें भी
खिचड़ी के सामने झुक गईं,
तो असली जीत ‘सहजता’ की थी।

लोकतंत्र का असली स्वाद यही है —
जहाँ वोट, वोटर और व्यंजन —
तीनों गरम हों, पर संतुलन में रहें!”




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अध्याय 7: चाय-पर-चर्चा — जब उबाल में निकली सामाजिक सच्चाई
(उपशीर्षक: "जब पानी, पत्ती, दूध और शक्कर ने जात-पात छोड़ एक कप में घुल-मिलकर इंसानियत पी ली!")


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> अब तक क्या हुआ:
विचार बेल लिए, संविधान सेंक लिया,
पकवानों का चुनाव हो गया,
खिचड़ी जीती, समोसा रूठा, पनीर भाव खा गया।

अब बारी है... थोड़ा सुस्ताने की, पर चाय के साथ।

क्योंकि भारत में क्रांति हो या कांड,
सबकी शुरुआत होती है एक कप चाय से।




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दृश्य: धर्मशाला के बरामदे में ‘आत्म-निर्भर चाय-स्टॉल’

नाम: “चाय-ग्रह – जहाँ विचार उबलते हैं”
नारा: “दूध कम हो सकता है, पर बहस नहीं!”
हलवाई अब “चाय मंत्री” घोषित हो चुके हैं।


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(हलवाई – केतली को मंत्रमुग्ध भाव से देखते हुए)

हलवाई:

> “चाय बनाना आसान नहीं है —
इसमें समाज छुपा है।

पानी है — जो सबको साथ बहाता है,
पत्ती है — जो कड़वाहट लाती है,
दूध है — जो सबको एकसार करता है,
और चीनी… चीनी है भाई —
बिना पूछे मीठा कर देती है!”



कबीर (केतली के ऊपर तोंद टिकाकर):

> “और मसाला...?
वो तो गुस्से की तरह है —
ज़्यादा डाला तो सबका मूड ख़राब।”




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(लीना – समाजशास्त्र की चाय बना रही है)

लीना:

> “मेरी चाय में शिक्षा की पत्ती है,
और समानता का दूध।

मगर दिक्कत ये है —
हर कोई अपने कप की ऊँचाई देखकर
स्वाद तय करता है!”



समर (गणित के चम्मच से चीनी नापते हुए):

> “तुम लोग इमोशनल हो।
चाय का तंत्र सीधा है —
Milk + Water + Leaves + Sugar = Integration

बस अनुपात सही होना चाहिए, समाज अपने आप सुलझेगा।”




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(मोंटी – केतली को ध्यान से सुनते हुए)

मोंटी:

> “मैंने सुना है चाय भी धर्मों में बँटी है!
कोई काली पीता है, कोई ग्रीन, कोई अदरक वाली।

पर सच ये है —
चाय जब खौलती है, तो
जाति-पांति सब भाप बन के उड़ जाती है!”



ज़ोया:

> “हाँ… और जो भाप नहीं उड़ती,
वो कप की किनारी पर जमा होकर
सामाजिक दूरी बनाती है।”




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अब शुरू होती है “चाय-पर-चर्चा”


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चर्चा का विषय: "समाज में भेदभाव क्यों है?"

जॉय (मोबाइल पर ‘चाय मीटर’ चलाते हुए):

> “मेरी रिसर्च कहती है,
हर बार जब चाय दो लोगों को साथ लाती है,
कोई न कोई वहाँ ‘ब्रांड’ ढूँढने लगता है।”



बाबू (एक पुरानी स्टील की प्याली लेकर):

> “मेरी चाय प्याली टूटी हुई है,
पर सबसे ज़्यादा गूंज इसमें ही होती है।

समाज भी ऐसा ही है —
जो टूटे हैं, वही असली स्वाद लाते हैं!”




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(और फिर शुरू होती है “चाय से प्रेरित बहस युद्ध”)

कबीर:

> “मैं ‘कड़क चाय’ का समर्थक हूँ —
जिसमें पत्ती ज़्यादा हो और दूध कम।

मतलब – कड़वा सच, ज़्यादा बोलो!”



लीना:

> “और मैं चाहती हूँ कि
हर कप में स्वाद बराबर हो।

चाहे वो नीली प्याली में हो या महंगी मग में!”



समर:

> “मैं तो सोच रहा हूँ…
चाय को वोटिंग से जोड़ दें।
जो चाय ज़्यादा पसंद, वही नीति बन जाए!”



जॉय (आशंका से):

> “तो क्या होगा अगर कोई ‘ड्राइ टी’ चुन ले?
बिना दूध, बिना चीनी, बिना इंसानियत?”




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(अचानक चाय का उबाल बढ़ जाता है — और केतली छलक जाती है!)

केतली से सीधा उबलता पानी कबीर की तोंद पर पड़ता है!
कबीर उछलते हैं — एक हाथ में कप, एक हाथ में तोंद…
और लुंगी उड़कर सीधा हलवाई की चाय में गिर जाती है!


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(हंसी का बवंडर!)

लीना: “लो! अब ये चाय नहीं, ‘लुंगी-चाय’ बन गई!”
जॉय: “अब इसे पीने से पहले ‘लुंगी परंपरा’ को समझना होगा!”
समर: “इसमें अब स्वाद नहीं, सिर्फ शर्म शेष है!”


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(लेकिन फिर सब चुप हो जाते हैं… जब हलवाई बोलते हैं)

हलवाई (गंभीर होकर):

> “देखा तुमने?
जब तक चाय प्याले में थी — सब मत थे।

लेकिन जैसे ही चाय छलकी —
सब एक हो गए… हँसी में, मदद में,
और समझ में।”




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(निष्कर्ष का प्याला)

ज़ोया (धीरे से कहती है):

> “शायद यही है समाज का सच —
जब तक हम कप देखकर स्वाद पहचानते हैं,
तब तक हम बँटे रहते हैं।

पर जब चाय छलकती है —
हम सब उसमें भीग जाते हैं… एक साथ!”




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(मैं – लेखक, अब अपनी डायरी की जगह केतली में झाँकते हुए)

> “आज मैंने देखा —
हर समाज को एक उबाल की ज़रूरत होती है,
ताकि सच्चाई सतह पर आ सके।

जाति-पांति, धर्म, ऊँच-नीच — सब पत्तियाँ हैं,
पर जब तक वो उबालें नहीं,
इंसानियत की चाय नहीं बनती।”




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अध्याय 8: बर्तन-बवाल — जब थालियों ने आरक्षण माँगा
(उपशीर्षक: "जब परोसने से पहले थालियाँ बोलीं — ‘हमें पहले परोसा जाए!’")


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> पिछले अध्याय में:
चाय उबली, तोंद जली, लुंगी तैरी,
विचार भीग गए, और समाज थोड़ा समझदार हो गया।

लेकिन जैसे ही मिठाई आने को हुई —
धर्मशाला के बर्तनों में हलचल मच गई।

प्लेट, कटोरी, तश्तरी, लोटा, भगौना —
सबका स्वाभिमान जाग उठा।

क्योंकि जब खाने में समानता हो सकती है,
तो बर्तनों में भेदभाव क्यों?




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दृश्य: धर्मशाला की रसोई के पीछे का बर्तन-स्टोर रूम

वहाँ की दीवार पर लिखा है: “खाने से पहले, बर्तनों से बात करो!”

हलवाई ने अब “बर्तन पंचायत” बुला ली है।
सभी पात्र अब सिर्फ भोजन नहीं, बर्तनों की आवाज़ भी सुन रहे हैं!


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(बड़ा भगौना – खुद को रसोई का बाबा समझता है)

भगौना (अपना ढक्कन खोलते हुए):

> “मैं सालों से उबल रहा हूँ…
दाल में भी, समाज में भी।

लेकिन परोसा किसमें जाता है?
छोटे चम्मचों में!
तश्तरियों में!
जिन्हें तो बस दिखावे के लिए रखा जाता है!

मैं माँग करता हूँ —
मुझे आरक्षण मिले!
कम से कम मिठाई का हिस्सा तो मेरी भी थाली में पड़े!”




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(स्टील की थाली – चकाचक, आत्म-गर्व से लिपटी)

थाली (चमचमाती हुई):

> “आरक्षण? अरे मुझे तो दिखाने भर के लिए सजाया जाता है।

सारा खाना मुझ पर फेंक दिया जाता है —
सब्ज़ी बहे, दाल टपके, चटनी छींटे…

और फिर कोई कहता है — ‘ये थाली तो गंदी हो गई!’

मैं थाली हूँ — मैं मांग करती हूँ कि
‘परोसने से पहले मुझे पूछा जाए,
मेरी सीमाओं का सम्मान किया जाए!’”




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(कटोरी – थोड़ा तिरछा होकर)

कटोरी:

> “मुझे सदियों से ‘साइड आइटम’ की तरह देखा गया है!

कभी रायता, कभी खीर, कभी चटनी…

और जब खाना खत्म होता है,
तो कहा जाता है — ‘कटोरी फेंक दो, कौन धोएगा!’

मैं भी संविधान की एक अनुच्छेद बनवाना चाहती हूँ —
*‘कटोरी संरक्षण अधिनियम!’”




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(लोटा – मंच पर चढ़ते हुए, खुद को “पारंपरिक मूल्य” बताता है)

लोटा:

> “मुझे पूजा में रखा जाता है,
पर भोजन में बहिष्कृत!

मैं माँग करता हूँ कि
‘हर खाने में कम से कम एक घूँट मेरे माध्यम से हो!’

और हाँ —
मुझे टॉयलेट के नाम से जोड़ा गया है,
वो घोर अपमान है!”




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अब इंसानों में चर्चा छिड़ गई — “क्या बर्तनों को अधिकार दिए जाएं?”

कबीर (हँसते हुए):

> “अब बर्तन भी आंदोलन करेंगे?
कहीं ऐसा न हो कल को कढ़ाही बोले —
‘मुझे चूल्हे पर ना चढ़ाया जाए, मेरा भी सम्मान है!’”



लीना (गंभीर होकर):

> “अरे नहीं कबीर,
ये तो बहुत जरूरी मुद्दा है।

थाली और कटोरी में भी समाज बसा है —
कोई चमचमाती है, कोई पुरानी पड़ी है,
और सब पर खाना परोसा जाता है…
पर इज्ज़त केवल प्लेटों की होती है!”




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(समर – बर्तनों के लिए 'डेटा रिपोर्ट' पढ़ता है)

समर:

> “सर्वे कहता है —
72% बार चम्मच गुम हो जाते हैं,
और सबसे पहले बर्तन धोने वाला दोषी ठहरता है!

हम इन बर्तनों के साथ इंसान की तरह व्यवहार नहीं करते,
बल्कि उपयोग की वस्तु समझते हैं।

मैं प्रस्ताव रखता हूँ —
‘बर्तन अधिकार विधेयक 2025’ लाया जाए!”




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(तब हलवाई, अब 'संवैधानिक परोसक' बन चुके, बोलते हैं)

हलवाई:

> “देखिए साथियों,
रोटी सबके लिए सेंकी जाती है,
पर किसे किस प्लेट में मिलेगी,
ये तश्तरी तय करती है!

अगर एक थाली चीनी की है, एक स्टील की, एक पत्तल की —
तो क्या हम खाने की गरिमा को बाँट नहीं रहे?”




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(इस बीच, एक हास्यपूर्ण घटना घटती है!)

जॉय गलती से सारे बर्तन गिरा देता है —
थाली छन-छन करती है, कटोरी लुढ़कती है, लोटा उछलकर कबीर के सिर पर चढ़ जाता है,
और भगौना तो सीधा हलवाई की टोपी में घुस जाता है!


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(और अब… सब हँसी से लोटपोट!)

लीना:

> “लो! अब आरक्षण नहीं, क्रांति हो गई है बर्तनों में!”
मोंटी:
“अब संविधान में एक नया कॉलम चाहिए —
‘बर्तन पहचान पत्र’!”
जॉय:
“और सबसे नीचे लिखा होगा —
'सभी बर्तन बराबर हैं,
जब तक कोई बेसिन में गिरे नहीं!'”




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(ज़ोया – धीरे से कहती है)

ज़ोया:

> “देखो…
बर्तन भी इंसानों की तरह ही हैं —
कोई चमकदार, कोई धूल भरा, कोई टूटा, कोई नया…

पर सबमें खाना परोसा जाता है,
और सबका पेट भरता है।

समाज को भी यही सीखनी चाहिए —
कौन कैसा है, ये नहीं —
किसने कितना दिया और झेला, ये ज़रूरी है!”




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(मैं – लेखक, अब बर्तन धोते हुए)

> “कभी थाली में देखो,
उसमें सिर्फ खाना नहीं होता —
ताने, भेदभाव, परंपराएँ और अधिकार भी होते हैं!

और जब बर्तन बोलते हैं,
तो इंसान को अपनी आवाज़ सुननी पड़ती है।”




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अध्याय 9: झाड़ू बनाम झाड़ूवाला — जब सफाई में भी गंदगी मिली
(उपशीर्षक: “जब झाड़ू बोली – ‘मैं स्वच्छता की देवी हूँ!’ और झाड़ूवाला बोला – ‘पर पूजा में कभी मुझे नहीं बैठाया!’”)


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> पिछले अध्याय में:
थालियाँ गरजीं, कटोरियाँ लड़ पड़ीं,
और भगौना तो संविधान की प्रस्तावना बना बैठा!

पर अब धर्मशाला की रसोई के पीछे
एक और क्रांति सिर उठाने लगी थी —

"साफ़-सफ़ाई की क्रांति!"

क्योंकि जहाँ खाना बनता है, वहाँ गंदगी भी होती है।
और जहाँ गंदगी होती है, वहाँ झाड़ू…
और जहाँ झाड़ू होती है, वहाँ राजनीति!




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दृश्य: धर्मशाला के बाहर – कचरे के ढेर के पास एक बैठक

बैठक का नाम:
"संपूर्ण सफाई समिति: हम गंदगी से लड़ते हैं, एक-दूसरे से भी"

उपस्थित सदस्य:

झाड़ू (बाँसवाली, वरिष्ठ)

झाड़ूवाला (गुस्सैल, श्रमिक नेता)

डस्टबिन (स्वाभिमानी)

फिनाइल की बोतल (सख़्त बदबूदार)

और हमारे पुराने मित्र – लेखक और बाकी पंगत मंडली, जो बस तमाशा देखने आए हैं।



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(झाड़ू – मंच पर चढ़कर खुद को "ग्लोबल आइकन" घोषित करती है)

झाड़ू (गर्व से):

> “मैं ‘स्वच्छ भारत’ का प्रतीक हूँ,
मैं हर फोटो में हाथों में होती हूँ —
चाहे मंत्री जी हों या फिल्म स्टार!

मैं कोई आम झाड़ू नहीं…
मैं संविधानिक सफाई की प्रतिनिधि हूँ!

पर मुझे आज शिकायत है —
मुझे चलाने वाला कभी मंच पर नहीं चढ़ता!”




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(झाड़ूवाला – बुरी तरह झल्लाया हुआ)

झाड़ूवाला (झाड़ू घसीटते हुए):

> “हाँ! यही तो मेरा मुद्दा है!

हर जगह पोस्टर में तुम हो,
टीवी में तुम, भाषण में तुम…

और मैं?
मैं तो बस ‘लगा दो झाड़ू’ में अटक गया हूँ!”

“अब से मैं भी अपने नाम के आगे ‘वाला’ नहीं लगाऊँगा —
‘साफ़-संभ्रांत मानव’ कहलाऊँगा!”




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(डस्टबिन – भावुक होकर)

डस्टबिन (पेट पकड़ते हुए):

> “सालों से मुझे सब भरते आए हैं…
लेकिन कोई नहीं सोचता —
मेरी भी कोई ‘कैपेसिटी’ है!

समाज में भी यही होता है —
जो भी गंदा, जो भी अनुपयोगी —
बस मुझमें डाल दो!

पर कचरा भी कभी-कभी कहना चाहता है —
‘मैं भी किसी ज़माने में काम का था!’”




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(फिनाइल की बोतल – कटाक्ष करते हुए)

फिनाइल:

> “गंदगी मुझसे डरती है,
लेकिन लोग मुझसे भी ज्यादा नाक सिकोड़ते हैं।

समाज में जो कटु सत्य है —
वो फिनाइल जैसा ही है,
साफ़ करता है… पर बदबू के साथ आता है।”




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अब शुरू होती है “सफाई की बहस” — झाड़ू बनाम झाड़ूवाला


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लीना (सामाजिक चेतना से ओतप्रोत):

> “झाड़ू को प्रतीक बना दिया,
और झाड़ूवाले को अदृश्य!

ये ठीक वैसा है,
जैसे संविधान पढ़ा जाता है,
पर बनाने वालों का नाम कोई नहीं जानता।”



कबीर:

> “समाज को गंदगी नहीं दिखती,
पर उसे साफ़ करने वाला नीचा दिखता है?

यही तो है…
'सफाई में भी भेदभाव!'”




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(तभी हलवाई आते हैं – हाथ में एक झाड़ू और दूसरे में झाड़ूवाले की पगार की रसीद)

हलवाई (फैसला सुनाते हुए):

> “आज से झाड़ू और झाड़ूवाले को समान रूप से पूजा जाएगा।

दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं,
जैसे समाज और सेवा,
या जैसे पकौड़ी और चटनी।”




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(लेकिन अब भी कुछ हास्य बाकी है!)

जॉय गलती से डस्टबिन उलट देता है —
सड़ा हुआ समोसा, खट्टी इमरती, और एक आधा पान फिसलकर
सीधा कबीर के जूतों में घुस जाता है!

मोंटी:

> “लो! अब तो तुम्हारे विचार भी ‘झाड़ूवाले’ हो गए!”



ज़ोया:

> “और जूते अब ‘संविधान के प्रारूप’ जैसे लग रहे हैं —
गंदे, पर जरूरी!”




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(अंत में लेखक की आत्मा बोलती है, झाड़ू के सहारे टेक लगाकर)

> “समाज की सबसे बड़ी विडंबना ये है —
गंदगी से नफरत नहीं होती,
गंदगी साफ़ करने वाले से होती है।

जब झाड़ू राष्ट्रीय प्रतीक बन सकती है,
तो झाड़ूवाले को राष्ट्रीय सम्मान क्यों नहीं?

और सबसे बड़ी बात —
सफाई सिर्फ सड़कों की नहीं,
सोच की भी होनी चाहिए!”




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अध्याय 10: घंटी का विद्रोह — जब स्कूल की घंटी ने कह दिया, “अब मैं नहीं बजूँगी!”
*(उपशीर्षक: “जब समय खुद समय से नाराज़ हो गया”)


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> पिछले अध्याय में:
झाड़ू ने आत्मसम्मान पाया,
डस्टबिन ने दिल की बात कह डाली,
और झाड़ूवाले ने ‘सफाई क्रांति’ की घंटी बजा दी।

पर इस बार…
घंटी खुद बजने से इनकार कर रही है!

और जैसे ही स्कूल की पहली घंटी ने हड़ताल की,
शिक्षा प्रणाली, समय-सारणी और बच्चों की भूख –
सब एक साथ भटक गए!




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दृश्य: विद्यालय का प्रांगण – प्रार्थना सभा के समय

स्थान: ‘सर्वधर्म समभाव विद्या निकेतन’
दिन: सोमवार (जो पहले से ही बदनाम होता है)
समय: 8:00 AM (पर घंटी नहीं बजी!)


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(मुख्य पात्र – 'घंटी' – अब ‘घोषित विद्रोही’)

घंटी (ज़ोर से चिल्लाती है पर बजती नहीं):

> “मैं सालों से सबकी इच्छाओं के विरुद्ध बजती रही हूँ!

कभी ‘अभी पीरियड शुरू हुआ है!’
कभी ‘खेल का समय खत्म हुआ!’

पर आज…
मैं कहती हूँ —
अब और नहीं बजूँगी!

मैं इंसानों की ‘अनावश्यक अनुशासन की प्रतीक’ नहीं बन सकती!”




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(प्रिंसिपल मिस्टर घसीटाराम – पहली बार बिना घंटी के स्कूल में)

प्रिंसिपल (घड़ी देखकर गुस्से में):

> “घंटी नहीं बजी?
इसका मतलब है —
आज पूरा स्कूल ‘स्वतंत्र विचार दिवस’ मनाने वाला है!”



टीचर मुरारी (कानों में उँगली डालते हुए):

> “बच्चों की चिल्ल-पों सुनकर तो लग रहा है
घंटी नहीं, भूचाल आ गया है!”




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अब बच्चों की बमचक शुरू

मोंटी (पीरियड शेड्यूल का पन्ना फाड़ते हुए):

> “घंटी नहीं, मतलब मैथ्स नहीं!
आज से हर दिन ‘घंटीरहित गणराज्य’ घोषित करो!”



लीना (डायरी में टाइम टेबल जलाती हुई):

> “अब से मेरी बॉडी क्लॉक ही मेरी क्लास क्लॉक है!”



कबीर (दर्शन के मूड में):

> “ये समय का अंत नहीं,
ये ‘असमय की शुरुआत’ है!”




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(लेकिन ज़ोया – घंटी के अधिकार की पक्षधर – नाराज़!)

ज़ोया:

> “अरे रुक जाओ!
घंटी बजती थी, तो दिन चलता था…
क्लास में अनुशासन आता था,

ये घंटी नहीं,
समाज की रीढ़ थी!”




---

अब घंटी का इंटरव्यू शुरू होता है – पत्रकार ‘समर’ के साथ

समर:

> “तो बताइए मिस घंटी,
आपने विद्रोह क्यों किया?”



घंटी (गंभीर स्वर में):

> “क्योंकि मैं ‘तटस्थ’ नहीं रह पाई।

पीरियड खत्म होते ही सब मुझे दोष देते थे,
‘अभी तो समझ आया था!’

और शुरू होते ही –
‘घंटी ने जल्दी बजा दी!’

मुझे कभी ‘समय का साक्षी’ नहीं,
सज़ा का प्रतीक माना गया।”




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(अब शिक्षक मंडली बैठकर घंटी मनोविज्ञान पर बहस करती है)

टीचर मुरारी:

> “घंटी ने इतनी पढ़ाई करवा दी है,
कि अब उसे भी पीएचडी इन क्लास ट्रिगरिंग मिलनी चाहिए!”



टीचर लीला:

> “कभी तो सोचिए,
घंटी भी इंसान होती तो
सालों से पोस्टिंग बदलवाने की दरख्वास्त दे चुकी होती!”




---

(अब एक हास्यपूर्ण घटना घटती है)

जॉय गलती से घंटी के नीचे खड़ा होकर ज़ोर से छींकता है —
घंटी सहमकर टन-टन बज जाती है!
बच्चे समझते हैं रेसस शुरू हो गया,
और 5वीं के बच्चे पूरे स्कूल में 'चिप्स-क्रांति' छेड़ देते हैं।

प्रिंसिपल (कागज़ में सिर मारते हुए):

> “अब तो लग रहा है,
अगला अध्याय ‘समोसे की संसद’ होगा!”




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(अंत में लेखक – घंटी को कान से लगाकर बोलते हैं)

> “समय वही होता है जो हमें दिशा दे,
न कि सिर्फ पीरियड बदले।

घंटी को हमने ‘डर’ बना दिया,
जबकि वो तो बस ‘अनुशासन का आमंत्रण’ थी।

जब तक हमारी सोच में
हर साउंड एक सज़ा बने रहेगा,

तब तक…
कोई घंटी बजना नहीं चाहेगी!”




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अध्याय 11 (समापन): चप्पल न्यायालय — जब फुटवियर ने इंसाफ माँगा
(उपशीर्षक: “जब पैर तले दबा हर भाव, एक दिन मंच पर आ खड़ा हुआ!”)


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> पिछले अध्यायों में:
कचौड़ी से संविधान बना,
घंटी विद्रोही हुई,
झाड़ू ने सम्मान माँगा,
और थालियों ने आरक्षण!

सबने समाज को, सिस्टम को और ‘समरसता’ को अलग-अलग कोण से घेरा…

पर अंतिम प्रहार होना बाकी था —
"चप्पल का केस!"




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दृश्य: धर्मशाला का आँगन, आज ‘फुटवियर फोरम’ की विशेष सुनवाई

न्यायपीठ:

जूता जज (दाएँ पैर वाला, थोड़ा घिसा हुआ लेकिन अनुभव-सम्पन्न)

चप्पल वादी (पुरानी लेकिन भावुक)

मोज़ा गवाह (जो हमेशा जूते के अंदर रहा है, अब बाहर आया है!)

लेखक, सभी पुराने पात्रों के साथ दर्शक दीर्घा में



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(चप्पल – भावुक उद्घाटन भाषण देती है)

चप्पल:

> “मुझे सालों तक दरवाज़े के बाहर रखा गया,
गंदा बोलकर तिरस्कृत किया गया,
पर हर त्यौहार पर मेरे बिना प्रवेश वर्जित रहा!

मैं घर के अंदर नहीं,
हर रिश्ते की सीमा रेखा बन गई थी।

लेकिन क्या कभी किसी ने पूछा —
‘मेरी भी कोई भावना है?’

क्यों मुझे ठोकर मारना ही संवाद का माध्यम बना दिया गया?”




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(जूता जज – ठंडे स्वर में, चमड़े को सीधा करते हुए)

जूता जज:

> “चप्पल जी, अदालत आपको सुनेगी…
पर पहले यह स्पष्ट करें —
क्या आपने कभी खुद को ‘जोड़ों’ में देखा है?”



चप्पल:

> “मैंने खुद को हमेशा ‘जोड़ा’ माना,
लेकिन समाज ने मुझे ‘कमज़ोर तल’ का प्रतिनिधि बना दिया।

कभी किसी नेता के पाँव की तस्वीर देखी है?
चप्पल नहीं, केवल जूते होते हैं!

जैसे बुद्धिजीवी की भाषा में 'स्वच्छता' होती है,
पर श्रमिक गायब होता है!”




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(अब गवाह पेश होता है – मोज़ा)

मोज़ा (कंपकंपाता हुआ):

> “मैंने वर्षों तक जूते के अंदर सब कुछ सहा…
बदबू, पसीना, सड़क…

पर आज कहता हूँ —
चप्पल ने हमेशा बाहरी दबाव झेला,
लेकिन कभी शिकायत नहीं की!”

“क्योंकि असली सेवा वही करता है
जिसे देखे बिना हम चलते हैं…”




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(अब पुराने सभी पात्र उठ खड़े होते हैं – समरसता की एक रैली-सी बन जाती है)

घंटी:

> “जब मैं नहीं बजी थी,
तब सबने जाना — मेरी ज़रूरत क्या है!”



झाड़ूवाला:

> “जब झाड़ू चली,
तब समझ आया – गंदगी सिर्फ बाहर नहीं, सोच में भी है!”



थाली:

> “जब सबने एक ही कढ़ाही से खाया,
तब लगा – स्वाद का कोई धर्म नहीं होता!”



कबीर (दर्शन भाव में):

> “और जब चप्पल ने न्याय माँगा,
तब असली लोकतंत्र खड़ा हुआ!”




---

(अब लेखक खड़ा होता है – अंत के भाव के साथ)

> “मैंने ये सब अपनी आँखों से देखा…

एक धर्मशाला में,
जहाँ खाना सिर्फ पेट नहीं भरता था,
विचार भी पकते थे।

कचौड़ी से लेकर झाड़ू तक,
थालियों की आरक्षण नीति से लेकर
घंटी की चुप्पी तक…

सबने हमें बताया —
समाज तब तक पूर्ण नहीं हो सकता,
जब तक उसका सबसे दबा हिस्सा
मंच पर खड़ा न हो जाए।”




---

(और अंत में सभी पात्र एक साथ बोलते हैं – एक स्वर में)

“निरपेक्षता वही है —
जहाँ झाड़ू, चप्पल, थाली, घंटी, घंटा, पकवान,
सब मिलकर एक कढ़ाही में
समरसता की खिचड़ी पकाएँ —
बिना किसी जाति, धर्म, वर्ग या दर्प के।”


---

समापन टिप्पणी:

" जहाँ जाति, धर्म, वर्ग, भाषा या पोशाक किसी गौरव या शर्म का कारण न बने —जहाँ जूते और चप्पल को कर्म के आधार पर समान माना जाए ,वहाँ संविधान सही में लागू हुआ मानिए! 

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"समाप्त – पर हँसी जारी रहे!"

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन

Thursday, April 17, 2025

कम से कम का ज्यादा से ज्यादा

शीर्षक: लड़खड़ाते शब्दों का केस

एक दिन की बात है, क़ानूनपुर नाम की एक जगह थी, जहाँ की अदालत किसी गर्मी में चाय की दुकान से भी ज़्यादा व्यस्त रहती थी। वकील लोग मोटी-मोटी फाइलें लेकर आते, सीना फुलाकर चलते, और बहुत गंभीर चेहरा बनाते। जज साहब ऊँची कुर्सी पर बैठते, ऐसा लगता मानो अदृश्य चाय पी रहे हों (क्योंकि कोर्ट में पीना मना था!)।

इसी कोर्ट में आते हैं श्री लाला वकील। उनकी ऐनक हर दो मिनट में नाक से फिसलती, और उनकी मूंछ तब-तब हिलती जब वो ज़ोर से “आपत्ति!” चिल्लाते। लाला वकील को लंबे-लंबे, भारी-भरकम शब्द बोलने का बहुत शौक था — इतने भारी कि शब्दकोश भी थक जाए!

एक दिन लाला वकील का केस था — नकली बैग का रहस्य। वह खड़े हुए और बोले, “मेरे माई लॉर्ड, मेरे मुवक्किल का बैग चुराया गया है! नकल की गई है! आत्मा तक कॉपी कर ली गई है!”

जज साहब ने धीरे से पलकें झपकाईं।

“श्री लाला,” उन्होंने जम्हाई लेते हुए कहा, “आप कहना क्या चाह रहे हैं?”

“कि बैग... बिलकुल हमारे बैग जैसा दिखता है!” लाला ने आखिरकार छोटे शब्दों में समझाया।

कोर्ट में हँसी छूट गई। जज साहब ने आँखें घुमा दीं।

और फिर आया असली ट्विस्ट।

लाला वकील ने नाटकीय अंदाज़ में प्रतिवादी की ओर उंगली उठाई और बोले, “इन लोगों ने ग़ैरक़ानूनी ग़ैरक़ानूनियत को ग़ैरक़ानूनी तरीके से किया है!”

जज साहब ने माथा पकड़ लिया। “श्री लाला, आप कोई जादू का मंत्र पढ़ रहे हैं या केस लड़ रहे हैं?”

दूसरी ओर से वकील चटर्जी जी खड़ी हुईं और फुसफुसाईं, “आपत्ति, मान्यवर। लगता है ये अब कविता सुना रहे हैं।”

कोर्ट में हलचल मच गई।

कागज़ उड़ने लगे, स्टेनोग्राफर सो गया, और टाइपिस्ट दो पेज तक "ब्ला ब्ला" टाइप करता रहा।

अंत में जज साहब उठे, ऐनक उतारी और बोले, “श्री लाला, आप हर दिन कम चीज़ों के बारे में ज़्यादा ज्ञान लेते जा रहे हैं।”

लाला वकील मुस्कराकर बोले, “धन्यवाद, माई लॉर्ड!”

जज साहब कराह उठे, “मैं तो ज़्यादा चीज़ों के बारे में कम जानता जा रहा हूँ, आप जैसे लोगों की वजह से!”

सब लोग हँसने लगे। न्याय की मूर्ति ने भी शायद हल्की मुस्कान दे दी।


गांधी ऑन सेल

बहुत समय पहले की बात है, जब धरती पर दो अजीब किस्म के लोग टहल रहे थे—एक चश्मा पहने आधा नंगा आदमी जो हर बात का जवाब ‘अहिंसा’ में देता था, और दूसरा शांति से बैठा हुआ एक राजकुमार, जिसे एक दिन ध्यान आया कि दुनिया दुख है और बस फिर वही ध्यान में बैठ गया।

समय बीता, लोग बदले, तकनीक आई, सेल्फी आई, और इन दोनों सज्जनों को हमने बना दिया ब्रांड।


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गांधी जी: खादी वाले कूल बाबा

गांधी जी ने कहा, "एक गाल पर थप्पड़ पड़े तो दूसरा आगे कर दो।"
हमने कहा, "बिलकुल सही बात है, लेकिन बॉस को जवाब देना तो पड़ेगा ना!"
गांधी जी ने नमक सत्याग्रह किया, तो हमने उसे ‘फ्रैंचाइज़ी आइडिया’ बना दिया—हर गली में "गांधी चाट भंडार" खुल गए।

खादी को उन्होंने आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया।
हमने सोचा, “वाह! ये तो बढ़िया फैशन ट्रेंड है।” अब खादी सिर्फ 2 अक्टूबर को दिखती है—बाकी दिन हम ‘फॉरेन ब्रांड’ पहनते हैं और गांधी जी के चित्र वाले नोटों से शराब खरीदते हैं।


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बुद्ध: शांत बैठा बन्दा, जिसकी मूर्ति हर डाइनिंग टेबल के पास रखी जाती है

बुद्ध ने कहा, "करुणा रखो, क्रोध छोड़ो, मन पर नियंत्रण करो।"
हमने कहा, "वाह! क्या बात है!"
और फिर अपने बच्चों को यही बुद्ध के बगल में बैठकर ज़ोर से चिल्ला के समझाया कि “कितनी बार कहा है मोबाइल मत चलाया करो!”

उनकी शिक्षाएं ध्यान, संयम और विनम्रता की थीं,
पर हमने उन्हें "होम डेकोर" बना दिया।
आज बुद्ध सबसे ज़्यादा बिकने वाली मूर्ति हैं,
पर उनकी सीखें सबसे कम अपनाई जाती हैं।


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पूजा और प्रचार: आदर्शों से दूर भागने का तरीका

गांधी और बुद्ध दोनों ने कहा था, “हम देवता नहीं, मार्गदर्शक हैं।”
हमने कहा, “तभी तो हमें आसान रास्ता चाहिए।”
तो हमने उन्हें पेडस्टल पर चढ़ा दिया—उन्हें इतना ऊँचा बना दिया कि अब हम आराम से कह सकते हैं:
"उन जैसा बनना तो हमारे बस की बात नहीं!"

अब हर साल एक-एक दिन उनके नाम,
बाकी 364 दिन "चिंतन मुक्त जीवन"।
गांधी जी को हमने व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का फॉरवर्ड बना दिया,
और बुद्ध को मेडिटेशन ऐप का लोगो।


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अहिंसा का मतलब अब है - "जब तक दूसरा कमज़ोर हो"
करुणा का मतलब - "जब तक सामने वाला पसंद का हो"

और अगर कोई कहे, "सच बोलो",
तो जवाब आता है—"भाई, इतना आदर्शवादी मत बन, ये रियल वर्ल्ड है!"


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निष्कर्ष: दोष उनका नहीं, हमारा है

गांधी और बुद्ध कोई अंतरिक्ष से नहीं आए थे। उन्होंने भी ठोकरें खाईं, गलतियाँ कीं, और सुधार किया।
पर हम? हम चाहते हैं:
बुद्ध जैसा चैन, बिना ध्यान के।
गांधी जैसा सम्मान, बिना सिद्धांतों के।

तो अगली बार जब गांधी जयंती या बुद्ध पूर्णिमा आए,
थोड़ा सोचिएगा—
क्या हम उन्हें सच में याद कर रहे हैं,
या बस उनकी "ब्रांड वैल्यू" भुना रहे हैं?


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"गांधी और बुद्ध गलत नहीं थे,
हमने उन्हें गलत समझा… और फिर सेल पर लगा दिया!"

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन

दीमक भूखे हैं

भारत के नक्शे पर एक बिंदु है — इतना बारीक कि माइक्रोस्कोप से भी न दिखे, लेकिन वहाँ का जनहित एवं जनशोषण विभाग पूरे देश की नाक में दम किए बैठा है।

इस सरकारी इमारत की हालत ऐसी कि दीवारें खुद अपने आप को शर्मिंदगी से ढकने की कोशिश करती हैं। अगर किसी भूत ने यहाँ आकर डराना चाहा भी, तो वापस लौटते हुए नोट लिख गया — "माफ करना, मैं भी इंसान था कभी!"

इमारत के दरवाज़े पर लगे नामपट्ट पर धूल की इतनी मोटी परत थी कि कोई उसे चाकलेट समझ चाटने की कोशिश कर चुका था। दीवारों पर पान के छींटे ऐसे पड़े थे जैसे किसी कलाकार ने "खून-ए-मन सिस्टम" की पेंटिंग बनाई हो।

दृश्य 1: कतार, कचहरी और कराह

हर सुबह सरकारी दफ्तर की सीढ़ियाँ एक तीर्थ स्थल बन जातीं — गरीब, लाचार, विधवा, विकलांग, बेरोजगार, सब ‘मोक्ष’ की उम्मीद लिए लाइन में लगते। वहाँ खड़े एक बुज़ुर्ग चाचा ने बताया —
“बेटा, ये मेरी ग्यारहवीं बार है यहाँ आने की... अब तो मैं सोच रहा हूँ, यहीं बाबू बन जाऊँ।”

दफ्तर के बाबू लोग अपनी कुर्सियों में ऐसे धँसे थे जैसे वही धरती माता की कोख हों। उनकी आंखें आधी नींद में, और दिमाग ‘पूरी घूस’ में डूबा था।

कोई गरीब औरत पास आती तो बाबू चश्मा उतारकर कहता,
“आपकी फाइल हमारी आत्मा को स्पर्श नहीं कर रही... शायद आप ‘नोटांकुर’ अर्पित करना भूल गईं।”

फाइल अगर चुपचाप चलती, तो समझो अंदर कुछ रखा था — और अगर बगल में खड़ी जनता हिल भी जाती, तो बाबू टस से मस नहीं होते।

एक RTI वाला युवक भी आया था — नादान समझ रहा था कि सच खोजने से मिल जाएगा। बाबू ने उसे ऐसे देखा जैसे उसने उसके टिफिन से पराठा निकाल लिया हो।


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दृश्य 2: दीमकों की दहाड़

अब इस दफ्तर में प्रवेश हुआ कुछ “अतिथि देवो भव” प्रजातियों का — जी हाँ, दीमक देवताओं का। मगर ये कोई आम दीमक नहीं थे — ये IAS प्रशिक्षित विभागीय दीमक थे।

इनका मुख्य कार्य —
"सत्य की रक्षा के नाम पर सबूतों की बलि देना!"

धीरे-धीरे ये दीमक VIP फाइलों तक पहुँचे — रिश्वत के रजिस्टर, अवैध निर्माण की मंजूरी, और साहब के विदेश दौरे की स्पॉन्सरशिप — सब "क्रंच-क्रंच" के साथ भोजन बन गया।

फिर हुआ समझौता।

बाबू हरिराम (गंभीर होकर):
“देखो दीमक जी, हम तुम्हें अलमारी देंगे, तुम हमें आज़ादी दो... केस से, जांच से, शर्म से।”

दीमक प्रमुख (गरजकर):
“स्वीकार है! बदले में RAID से पहले वाली फाइलें हमें दें, RAID के बाद तो खुद तुम्हें भी नहीं पहचान पाएँगे।”

अब सरकारी अलमारी एक गोपनीय रेस्टोरेंट बन गई — "डोक्यूमेंट ढाबा", जहाँ मेनू में था — "सबूत तंदूरी", "न्याय बटर मसाला" और "कागज़ करी"।


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दृश्य 3: सत्य का अंतिम दर्शन

एक दिन आए रघुनाथ जी — सत्तर पार की उम्र, लेकिन फौलादी इरादा। हाथ में एक फाइल, जिसमें उनकी ज़मीन हथियाने की सच्ची कहानी थी।

रघुनाथ (भावुक होकर):
“साहब, ये मेरे जीवन की आख़िरी उम्मीद है।”

शर्मा बाबू (हँसते हुए):
“आपकी उम्र हो गई है, और हमारी आदत — चलिए, संतुलन बना रहता है।”

फिर उन्होंने फाइल दीमकों की गोद में डाल दी — दीमक बोले,
“अरे वाह! डाइट फाइल!”

अगले दिन फाइल का सिरा भी नहीं मिला, और न्याय? वो तो कब का घुन लग गया था।


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दृश्य 4: दीमक राज और आम जनता की भूल

अब दफ्तर दो हिस्सों में बँट चुका था —

"मानव अनुभाग": जहाँ फाइलें दबी रहती थीं

"दीमक अनुभाग": जहाँ फाइलें खत्म हो जाती थीं


मानवों ने झूठ और घूस में महारत पाई, और दीमकों ने सच और सबूत चबाने में।

यहाँ नया बोर्ड लगा दिया गया था:

"फाइल लाने से पहले सोचें — दीमक भूखे हैं!"

अब जनता को यह भी नहीं पता था कि वो लाइन में लगकर न्याय माँग रही है या दीमकों का भोज बढ़ा रही है।

Sunday, April 13, 2025

ट्रैफिक से कोर्ट

 एक शांत दोपहर थी। कोर्टरूम में पंखा पुरानी खटारा ट्रेन की तरह घूम रहा था, फाइलों में धीमे धीमे  सरसराहट कि आवाज हो रही थी, और लोग नींद से जूझते हुए बैठे थे।

तभी...

जज साहब दोपहर का भोजन करके लौटे।

चेहरे पर वही गंभीरता, वही रोब। कुर्सी पर बैठे और गहरी आवाज़ में बोले,
"अगला मुकदमा बुलाओ।"

सभी लोग तुरंत अलर्ट हो गए, जैसे किसी ने कहा हो "मोदी आ रहे हैं!" कोर्टरूम में अचानक हलचल हुई।

एक दुबला-पतला, घबराया सा जूनियर वकील खड़ा हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे फाइल के अंदर से भूत निकल आया हो और उसी को पकड़ लिया हो।

किसी को नहीं पता था, लेकिन कोर्ट में अब कॉमेडी का शो शुरू होने वाला था।

असल में, आज यह दूसरी बार था जब ये बेचारा जूनियर वकील समय माँग रहा था।

आज सुबह  11 बजे जब केस लगा तब भी  वह उठा और बोला,
"माई लॉर्ड... मेरे सीनियर ट्रैफिक में फँस गए हैं। क्या हम केस 2 बजे ले सकते हैं?"

जज साहब ने मुस्कुराकर कहा,
"ठीक है , आ जाओ दो बजे।"

और अब दोपहर के ठीक 2 बजे थे। कोर्टरूम में सब बड़े उत्सुकता से बैठे थे, जैसे सबने छुपकर पॉपकॉर्न निकाल लिया हो – शो देखने को तैयार।

लेकिन... सीनियर वकील साहब अभी भी गायब थे !

जज साहब ने भौंहें चढ़ाकर पूछा,
"अब तुम्हारे सीनियर कहाँ हैं?"

जूनियर वकील का गला सुखा हुआ था , लड़खड़ाते हुए उसने कहा,
"माई लॉर्ड... अब वो एक और कोर्ट में फँस गए हैं।"

जज चौंके,
"पहले ट्रैफिक, अब दूसरा कोर्ट?"

वकील बोला,
"जी माई लॉर्ड, फिर से फँस गए।"

अब जज साहब थोड़ा पीछे झुके, हाथ जोड़कर बोले,
"ये कोर्ट है बेटा, रेलवे स्टेशन नहीं जो हर बार ट्रेन लेट हो रही है!"

पूरा कोर्ट हँसी से गूंज उठा।

जज ने फिर चुटकी ली,
"मैं तो लंच खाकर लौट आया... शायद तुम्हारे सीनियर डिनर पर निकल गए होंगे?"

हँसी का तूफ़ान और तेज़ हुआ।

फिर बोले,
"तो अब कब आएँगे तुम्हारे सीनियर साहब?"

जूनियर ने थोड़ा मुस्कराते हुए जवाब दिया,
"कल, माई लॉर्ड।"

जज बोले,
"किस समय?"

जवाब आया,
"दो बजे, माई लॉर्ड।"

अब जज साहब ने आँखें छोटी करके पूछा,
"और इस बात की क्या गारंटी है कि कल दो बजे आ ही जाएँगे?"

बेचारा जूनियर बोला,
"अगर नहीं आए... तो मैं गायब हो जाऊँगा, माई लॉर्ड!"

जज साहब: तो ध्यान रखना भाई , कहीं ये केस हीं गायब न हो जाए।" 

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन


Saturday, April 12, 2025

गांधी और बुद्ध गलत नहीं थे— गलत हमने उन्हें ठहराया

गांधी और बुद्ध गलत नहीं थे— गलत हमने उन्हें ठहराया

इतिहास महान आत्माओं को श्रद्धा से याद करता है, लेकिन उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग की कठिनाइयों से अक्सर कतराता है। भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी ने केवल अहिंसा, करुणा और सत्य का उपदेश नहीं दिया, बल्कि उसे अपने जीवन में पूरी तरह से जिया। वे धरती पर इसीलिए नहीं आए थे कि हम उन्हें केवल पूजा के योग्य मानें, बल्कि इसलिए कि हम उनके पदचिन्हों पर चलें। लेकिन समय के साथ हमने उनके विचारों की सराहना तो की, परंतु उन्हें अपने जीवन में अपनाने का साहस नहीं दिखाया। उनकी शिक्षाएं असफल नहीं हुईं—बल्कि हमने उन्हें असफल कर दिया।

पूजा की गई, अपनाया नहीं गया

महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का मार्ग कोई निर्बलता नहीं थी, बल्कि एक सशक्त नैतिक प्रतिरोध का तरीका था। जब उन्होंने कहा, "यदि कोई तुम्हें एक थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल आगे कर दो," तो उनका उद्देश्य कायरता नहीं, बल्कि हिंसा के चक्र को तोड़ना था। 1930 का नमक सत्याग्रह इसका जीवंत उदाहरण है—हजारों लोगों ने ब्रिटिश कानूनों के विरुद्ध शांतिपूर्ण विरोध किया, और बर्बर दमन सहा, परंतु प्रतिशोध नहीं लिया। आज हम गांधी जी की वीरता की प्रशंसा करते हैं, लेकिन उनके अनुशासन को अपने जीवन में लागू नहीं करते। हम परिणाम चाहते हैं, लेकिन प्रक्रिया को नकारते हैं।

भगवान बुद्ध की करुणा भी केवल सिद्धांत नहीं थी—वह एक परिवर्तनकारी शक्ति थी। अंगुलिमाल की कथा प्रसिद्ध है—एक भयानक डाकू, जिसने सौ से अधिक लोगों की हत्या की, जब बुद्ध से मिला, तो केवल उनकी शांत उपस्थिति और प्रेमपूर्ण दृष्टि से उसका हृदय परिवर्तित हो गया। वह संन्यासी बन गया और करुणा के मार्ग पर चल पड़ा। लेकिन आज हम यह कथा तो सुनते हैं, पर वास्तविक जीवन में किसी अपराधी के सुधार की संभावना को तुरंत नकार देते हैं। हमने बुद्ध की करुणा को केवल कथा बना दिया, जीवन का मार्ग नहीं।

हमने उन्हें देवता बना दिया ताकि न चलना पड़े

हमने गांधी और बुद्ध को इतने ऊँचे आसन पर बैठा दिया कि अब उन्हें छू पाना असंभव लगता है। यह एक सुविधाजनक तरीका है खुद को ज़िम्मेदारी से बचाने का। जब हम कहते हैं कि "उनका रास्ता आज के युग में व्यावहारिक नहीं है," तब हम अपने आलस्य को तर्क का चोला पहनाते हैं।

गांधीजी ने अपने जीवन को अत्यंत सादा रखा—खादी पहनते थे, उपवास करते थे, आत्मनिरीक्षण करते थे। वे जो उपदेश देते थे, पहले स्वयं उसका पालन करते थे। पर आज हम उनकी जयंती पर खादी पहन लेते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार, असहिष्णुता और हिंसा को जायज ठहरा देते हैं। हम गांधी को कोट करते हैं, पर जीते नहीं हैं।

बुद्ध ने लोभ, मोह और क्रोध से मुक्त जीवन जीने की शिक्षा दी। वे आत्म-संयम और ध्यान के प्रतीक थे। यह कहा जाता है कि उनकी उपस्थिति मात्र से जंगली जानवर भी शांत हो जाते थे। लेकिन यह कोई चमत्कार नहीं था—यह वर्षों की साधना और मानसिक शुद्धि का परिणाम था। आज हम उनके चित्र और मूर्तियाँ तो घर में रखते हैं, पर उनके मार्ग पर चलने की कोशिश नहीं करते। हमने बुद्ध को सजावट बना दिया, शिक्षा नहीं।

हमने उनकी शक्ति को समझा ही नहीं

आज का युग अक्सर अहिंसा को दुर्बलता समझता है, लेकिन गांधी और बुद्ध ने दिखा दिया कि अहिंसा में कितनी अपार शक्ति है। गांधीजी ने अपने उपवासों के माध्यम से अत्याचारियों की आत्मा को झकझोरा। बुद्ध ने अपमान सहकर भी मौन को चुना। यह कायरता नहीं, आत्म-नियंत्रण का चरम था।

जब हमें कोई अपशब्द कहता है, तो हम तुरंत जवाब देते हैं। जब कोई विरोध करता है, तो हम आक्रामक हो जाते हैं। हम कहते हैं, "ये सब उनके समय की बातें थीं, आज के युग में नहीं चलती।" लेकिन क्या वह युग आसान था? गांधी को ब्रिटिश सत्ता का सामना करना पड़ा, बुद्ध को जातिवाद, अज्ञान और हिंसा से जूझना पड़ा। फर्क बस इतना था कि उन्होंने संघर्ष के लिए कठिन मार्ग चुना—हम आसान रास्ता चुनते हैं।

अंधानुकरण नहीं, विवेकपूर्ण अनुपालन

यह कहना उचित है कि उनके विचारों का अक्षरशः पालन करना हर परिस्थिति में उचित नहीं। एक कथा में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने प्रेमानंद को काली मंदिर में पाए गए बिच्छू को मारने को कहा। प्रेमानंद ने बिच्छू को मारने के बजाय बाहर फेंक दिया। रामकृष्ण ने समझाया, "यदि ईश्वर बिच्छू के रूप में प्रकट होते हैं, तो उनके साथ उसी रूप में व्यवहार करना चाहिए।" करुणा का अर्थ मूर्खता नहीं है।

यह स्पष्ट करता है कि बुद्ध या गांधी के विचारों को आंख मूंद कर नहीं, बल्कि समझदारी और विवेक के साथ अपनाना चाहिए। लेकिन समझदारी का नाम लेकर उन्हें त्यागना भी एक प्रकार की धोखेबाज़ी है।

समाधान: शुरुआत छोटे कदमों से

यह कहना कि हम उनके जैसे नहीं बन सकते, हमारे आत्मिक आलस्य का प्रमाण है। वे किसी अन्य लोक से नहीं आए थे—वे भी मनुष्य थे, जिन्होंने आत्म-साधना, अनुशासन और प्रयास से अपनी चेतना को ऊँचा किया।

हम भी छोटे-छोटे कदम उठा सकते हैं—सत्य बोलना, क्षमा करना, और दूसरों के प्रति करुणा रखना। यह क्रांति वहीँ से शुरू होती है। अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम उनकी पूजा नहीं, सच्ची श्रद्धा कर रहे होंगे।

निष्कर्ष: दोष उनका नहीं, हमारा है

गांधी और बुद्ध ने दिखाया कि प्रेम, सत्य और आत्मानुशासन से न केवल स्वयं को, बल्कि पूरे समाज को बदला जा सकता है। यदि आज उनकी शिक्षाएं अप्रासंगिक लगती हैं, तो उसका कारण उनका आदर्शवाद नहीं, हमारा आत्मसमर्पण है।
हम परिणाम तो चाहते हैं, लेकिन आत्मिक परिवर्तन का मूल्य चुकाने को तैयार नहीं।

यह प्रश्न नहीं होना चाहिए कि गांधी और बुद्ध का मार्ग कितना व्यावहारिक था। असली प्रश्न यह है: क्या हम इतने निष्ठुर हो गए हैं कि अब उस मार्ग को समझने और अपनाने की भी क्षमता खो चुके हैं?

लेखक: अजय अमिताभ सुमन
अधिवक्ता, दिल्ली उच्च न्यायालय व समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन

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