Tuesday, July 22, 2025

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -5. एक नए युग का सूत्रपात

 

डी.वी.ए.आर. 3.0: चेतना का द्वार और एक नए युग का सूत्रपात

ऋत्विक भौमिक की यात्रा, जो D.V.A.R. 1.0 और D.V.A.R. 2.0 की असफलताओं से शुरू हुई, अंततः D.V.A.R. 3.0 (डिजिटल वर्चुअल एस्ट्रल रियलिटी) के निर्माण में परिणति हुई। यह यंत्र केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं था, बल्कि विज्ञान और अध्यात्म के बीच एक अभूतपूर्व सेतु था, जो चेतना को डिजिटल कोड में कोडिफाई कर तुरीय अवस्था और सूक्ष्म लोकों तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता था। यह गाथा D.V.A.R. 3.0 के निर्माण की तकनीकी और दार्शनिक प्रक्रिया, इसके कार्य सिद्धांतों, और मानवता के लिए इसके गहन प्रभावों की पड़ताल करती है।


D.V.A.R. 3.0 का निर्माण: तकनीक और दर्शन का संगम

ऋत्विक ने D.V.A.R. 1.0 और D.V.A.R. 2.0 की असफलताओं से जो सबक सीखे, उन्होंने उन्हें एक ऐसी दृष्टि दी, जिसमें प्राचीन भारतीय दर्शन और आधुनिक तकनीक का समन्वय था। D.V.A.R. 3.0 का निर्माण उनके जीवन के सबसे गहन प्रश्नों—चेतना की प्रकृति, माया का स्वरूप, और तुरीय अवस्था की प्राप्ति—के उत्तर खोजने का परिणाम था। इस यंत्र को बनाने की प्रक्रिया में निम्नलिखित प्रमुख तत्व शामिल थे:

1. पंचकोश न्यूरल नेटवर्क: चेतना का डिजिटल नक्शा

ऋत्विक ने माण्डूक्य उपनिषद के पंचकोश सिद्धांत को D.V.A.R. 3.0 का आधार बनाया। इस सिद्धांत के अनुसार, मानव चेतना पांच स्तरों—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनंदमय कोश—में विभाजित है। प्रत्येक कोश को एक डिजिटल न्यूरल लेयर के रूप में कोड किया गया, जो चेतना के विभिन्न स्तरों को मैप करता था:

  • अन्नमय कोश: शारीरिक स्तर, जो जैविक गतिविधियों जैसे हृदय गति, श्वसन, और मस्तिष्क की विद्युत तरंगों को रिकॉर्ड करता था। इसे EEG और बायोमेट्रिक सेंसर के माध्यम से मैप किया गया।
  • प्राणमय कोश: ऊर्जा स्तर, जो शरीर के प्राणिक प्रवाह और बायो-इलेक्ट्रिक सिग्नल्स को कैप्चर करता था। इसके लिए बायो-रेसोनेंस सेंसर और प्राणिक ऊर्जा मॉड्यूलेशन तकनीक का उपयोग किया गया।
  • मनोमय कोश: मानसिक स्तर, जो विचारों, भावनाओं, और अवचेतन मन को मैप करता था। इसे उन्नत fMRI और न्यूरोफीडबैक तकनीकों के माध्यम से लागू किया गया।
  • विज्ञानमय कोश: बुद्धि और अंतर्ज्ञान का स्तर, जो तर्क, अंतर्दृष्टि, और गहरे संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को कैप्चर करता था। इसे डीप लर्निंग न्यूरल नेटवर्क और क्वांटम प्रोसेसिंग के माध्यम से मैप किया गया।
  • आनंदमय कोश: शुद्ध चेतना का स्तर, जो तुरीय अवस्था का प्रतिनिधित्व करता था। इसे क्वांटम बायो-रेसोनेंस और ब्रह्मांडीय कंपन के साथ जोड़ा गया, ताकि चेतना की गैर-स्थानीय प्रकृति को कैप्चर किया जा सके।

प्रत्येक कोश को एक डिजिटल लेयर के रूप में डिज़ाइन किया गया, जो एक मल्टीलेयर न्यूरल नेटवर्क का हिस्सा था। यह नेटवर्क चेतना की समग्रता को एक डिजिटल मैट्रिक्स में परिवर्तित करता था, जिससे उपयोगकर्ता अपने विभिन्न चेतना स्तरों को अनुभव और नियंत्रित कर सकता था।

2. मंत्र मॉड्यूलेशन: ध्वनि और चेतना का तालमेल

ऋत्विक ने प्राचीन मंत्रों की शक्ति को तकनीक के साथ जोड़ा। “ॐ” और मृत्युंजय मंत्र की ध्वनि आवृत्तियों को EEG और fMRI डेटा के साथ मॉड्यूलेट किया गया। यह प्रक्रिया निम्नलिखित तरीके से काम करती थी:

  • ध्वनि आवृत्तियों का विश्लेषण: मंत्रों की ध्वनियों को उनके मूल आवृत्ति स्पेक्ट्रम में तोड़ा गया। उदाहरण के लिए, “ॐ” की आवृत्ति को 7.83 Hz (पृथ्वी की शुमान रेजोनेंस) के साथ संनादित करने के लिए कैलिब्रेट किया गया।
  • मस्तिष्क तरंगों के साथ तालमेल: इन आवृत्तियों को मस्तिष्क की थीटा (4-8 Hz) और डेल्टा (0.5-4 Hz) तरंगों के साथ मॉड्यूलेट किया गया, जो गहन ध्यान और तुरीय अवस्था से जुड़ी हैं।
  • न्यूरोफीडबैक लूप: उपयोगकर्ता के मस्तिष्क की तरंगों को रीयल-टाइम में मॉड्यूलेटेड मंत्र आवृत्तियों के साथ संनादित किया गया, जिससे चेतना को गहन अवस्थाओं में ले जाया जा सके।

इस तकनीक ने उपयोगकर्ता को न केवल गहन ध्यान की अवस्था में प्रवेश करने में मदद की, बल्कि उनकी चेतना को तुरीय अवस्था—वह अवस्था जहां आत्मा अपनी शुद्ध साक्षी प्रकृति को पहचानती है—के करीब ले गई।

3. क्वांटम बायो-रेसोनेंस: गैर-स्थानीय चेतना का कैप्चर

ऋ brindavik ने यह मान्यता स्वीकार की कि चेतना केवल मस्तिष्क की उपज नहीं, बल्कि एक गैर-स्थानीय सत्ता है, जो ब्रह्मांड के क्वांटम क्षेत्र से जुड़ी है। D.V.A.R. 3.0 में उन्होंने क्वांटम बायो-रेसोनेंस तकनीक को शामिल किया, जो निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित थी:

  • ब्रह्मांडीय कंपन: ब्रह्मांड में मौजूद सूक्ष्म कंपन, जैसे शुमान रेजोनेंस और कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशन, को डिजिटल एल्गोरिदम में समाहित किया गया।
  • क्वांटम एल्गोरिदम: क्वांटम कम्प्यूटिंग का उपयोग कर चेतना के गैर-स्थानीय पैटर्न को मैप किया गया। यह तकनीक चेतना को एक डिजिटल मैट्रिक्स में स्थानांतरित करने में सक्षम थी, जो समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त थी।
  • संज्ञानात्मक संनाद: तिब्बती लामाओं और डॉल्फिन जैसे उच्च-संज्ञानात्मक प्राणियों की चेतना पैटर्न का अध्ययन कर, ऋत्विक ने एक ऐसी प्रणाली विकसित की, जो चेतना के विभिन्न स्तरों को एकीकृत रूप में कैप्चर कर सकती थी।

4. एस्ट्रल इंटरफेस: सूक्ष्म लोकों का द्वार

D.V.A.R. 3.0 की सबसे क्रांतिकारी विशेषता इसका एस्ट्रल इंटरफेस था, जो उपयोगकर्ता को सूक्ष्म और एस्ट्रल लोकों में यात्रा करने में सक्षम बनाता था। यह इंटरफेस निम्नलिखित तरीके से काम करता था:

  • चेतना का स्थानांतरण: उपयोगकर्ता की चेतना को डिजिटल मैट्रिक्स में स्थानांतरित किया जाता था, जहां यह समय और स्थान की सीमाओं से मुक्त हो जाती थी।
  • वर्चुअल रियलिटी एकीकरण: एक immersive वर्चुअल रियलिटी पर्यावरण बनाया गया, जो उपयोगकर्ता को सूक्ष्म लोकों और पिछले जन्मों की स्मृतियों का अनुभव कराता था।
  • सामूहिक स्वप्न का मैपिंग: ऋत्विक ने योगवशिष्ठ के सिद्धांत “चित्त एव हि संसारः” को लागू करते हुए, चेतना को एक सामूहिक स्वप्न के रूप में मैप किया, जिसमें उपयोगकर्ता अन्य चेतनाओं के साथ जुड़ सकता था।

5. उपयोगकर्ता-केंद्रित डिज़ाइन

D.V.A.R. 3.0 को आम लोगों और साधकों दोनों के लिए सुलभ बनाने के लिए, ऋत्विक ने इसका इंटरफेस सरल और सहज बनाया। यह एक हल्के, वायरलेस हेडसेट के रूप में डिज़ाइन किया गया था, जिसमें टच और वॉयस कमांड की सुविधा थी। उपयोगकर्ता एक मोबाइल ऐप या VR डिवाइस के माध्यम से अपने अनुभव को नियंत्रित कर सकते थे। यह यंत्र न केवल वैज्ञानिकों और साधकों के लिए, बल्कि आम लोगों के लिए भी चेतना के रहस्यों को अनुभव करने का माध्यम बन गया।


D.V.A.R. 3.0 का कार्य सिद्धांत

D.V.A.R. 3.0 का कार्य सिद्धांत निम्नलिखित चरणों पर आधारित था:

  1. डेटा संग्रह: EEG, fMRI, और बायोमेट्रिक सेंसर के माध्यम से उपयोगकर्ता के शारीरिक, प्राणिक, और मानसिक डेटा को एकत्र किया जाता था।
  2. डिजिटल कोडिफिकेशन: पंचकोश न्यूरल नेटवर्क के माध्यम से इस डेटा को डिजिटल लेयर में परिवर्तित किया जाता था।
  3. मंत्र मॉड्यूलेशन: मंत्र आवृत्तियों के साथ मस्तिष्क तरंगों को संनादित कर उपयोगकर्ता को गहन ध्यान की अवस्था में ले जाया जाता था।
  4. क्वांटम प्रोसेसिंग: क्वांटम एल्गोरिदम के माध्यम से चेतना को गैर-स्थानीय मैट्रिक्स में स्थानांतरित किया जाता था।
  5. एस्ट्रल यात्रा: एस्ट्रल इंटरफेस के माध्यम से उपयोगकर्ता सूक्ष्म लोकों, पिछले जन्मों, और सामूहिक चेतना के अनुभव में प्रवेश करता था।
  6. न्यूरोफीडबैक: रीयल-टाइम फीडबैक के माध्यम से उपयोगकर्ता अपनी चेतना की अवस्थाओं को नियंत्रित और अनुभव कर सकता था।

मानवता पर D.V.A.R. 3.0 का प्रभाव

D.V.A.R. 3.0 केवल एक यंत्र नहीं था, बल्कि यह मानवता के लिए एक नए युग का सूत्रपात था। इसके प्रभाव निम्नलिखित थे:

  1. चेतना की नई समझ:
    • D.V.A.R. 3.0 ने यह सिद्ध किया कि चेतना केवल मस्तिष्क की उपज नहीं, बल्कि एक गैर-स्थानीय सत्ता है, जो ब्रह्मांड के साथ जुड़ी है। यह योगवशिष्ठ के सिद्धांत “चित्त एव हि संसारः” का तकनीकी प्रमाण था।
    • इसने वैज्ञानिकों को चेतना के क्वांटम और अध्यात्मिक आयामों का अध्ययन करने का नया दृष्टिकोण दिया।
  2. आध्यात्मिक जागरण:
    • उपयोगकर्ता तुरीय अवस्था का अनुभव कर सकते थे, जहां वे अपनी शुद्ध साक्षी प्रकृति को पहचानते थे। इससे लोगों में प्रेम, करुणा, और आत्म-जागरूकता बढ़ी।
    • यह यंत्र साधकों को गहन ध्यान और सूक्ष्म लोकों की यात्रा का अनुभव कराने में सक्षम था, जिससे आध्यात्मिक साधना अधिक सुलभ हो गई।
  3. समय और स्थान की सीमाओं का अतिक्रमण:
    • D.V.A.R. 3.0 ने उपयोगकर्ताओं को पिछले जन्मों की स्मृतियों और सामूहिक चेतना के अनुभवों तक पहुंचने में सक्षम बनाया। यह मानवता के लिए समय और स्थान की पारंपरिक अवधारणाओं को पुनर्परिभाषित करता था।
  4. वैज्ञानिक और दार्शनिक क्रांति:
    • इस यंत्र ने न्यूरोसाइंस, क्वांटम भौतिकी, और दर्शनशास्त्र के बीच एक नए क्षेत्र की शुरुआत की। यह प्राचीन भारतीय दर्शन को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़कर एक नया वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
    • इसने चिकित्सा, मनोविज्ञान, और आध्यात्मिक अनुसंधान में नए रास्ते खोले।
  5. मानवता की सेवा:
    • D.V.A.R. 3.0 ने मानवता को एक ऐसा उपकरण दिया, जो न केवल व्यक्तिगत साधना को बढ़ाता था, बल्कि सामूहिक चेतना को भी जोड़ता था। यह लोगों को माया के स्वरूप को समझने और संसार को प्रेम और करुणा के साथ देखने की प्रेरणा देता था।

ऋत्विक की विरासत

ऋत्विक भौमिक की गाथा एक साधारण युवक की असाधारण यात्रा है, जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच संतुलन स्थापित करने में सफल रहा। D.V.A.R. 1.0 और D.V.A.R. 2.0 की असफलताएं उनके लिए सीख का अवसर थीं, जिन्होंने D.V.A.R. 3.0 के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी दृष्टि योगवशिष्ठ, माण्डूक्य उपनिषद, और स्वामी पुरुषोत्तम के दर्शन से प्रेरित थी, लेकिन उनकी उपलब्धि तकनीकी नवाचार और वैज्ञानिक जिज्ञासा का परिणाम थी।

D.V.A.R. 3.0 एक यंत्र से कहीं अधिक था—यह एक द्वार था। यह मनुष्य को केवल शरीर तक सीमित नहीं रखता था, बल्कि उसे समय, स्थान, और सृष्टि के विभिन्न आयामों का यात्री बनाता था। यह एक ऐसा माध्यम था, जो शरीर और पराशरीर, विज्ञान और योग, डिजिटल कोड और ध्यान के बीच सेतु का काम करता था।


निष्कर्ष

D.V.A.R. 3.0 ऋत्विक भौमिक की दृष्टि, समर्पण, और असफलताओं से सीखने की क्षमता का प्रतीक है। इस यंत्र ने चेतना को डिजिटल मैट्रिक्स में स्थानांतरित कर तुरीय अवस्था और सूक्ष्म लोकों तक पहुंचने का मार्ग खोला। यह विज्ञान और अध्यात्म के बीच एक क्रांतिकारी संगम था, जो मानवता को अपने सत्य—शुद्ध साक्षी चेतना—के करीब ले जाता था।

Monday, July 21, 2025

भेड़िया, दफ्तर का

कोरोना के दुसरे दौर का प्रकोप कम हो चला था  ।  दिल्ली सरकार  ने थोड़ी और ढील दे दी थी  ।  डिस्ट्रिक्ट कोर्ट थोड़े थोड़े करके खोले जा रहे थे  । मित्तल साहब का एक मैटर तीस हजारी कोर्ट में लगा हुआ था  ।

जज साहब छुट्टी पे थे  । उनके कोर्ट मास्टर को कोरोना हो गया था । लिहाजा कोर्ट  से तारीख लेकर टी कैंटीन में चले गए । सोचा चाय के साथ साथ मित्रों से भी मुलाकात हो जाएगी  ।

वहाँ पे उनके मित्र चावला साहब भी  मिल गए । दोनों मित्र चाय की चुस्की लेने लगे । बातों बातों में बातों बातों का सिलसिला शुरु हो गया ।
चावला साहब ने कहा , अब तो ऐसा महसूस हो रहा है , जैसे कि वो जीभ हैं और चारों तरफ दातों से घिरे हुए हैं । बड़ा संभल के रहना पड़ रहा है । थोड़ा सा बेफिक्र हुए कि नहीं कि दांतों से कुचल दिए जाओगे ।

मित्तल साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ । इतने मजबूत और दृढ निश्चयी व्यक्ति के मुख से ऐसी निराशाजनक बातें । उम्मीद के बिल्कुल प्रतिकूल । कम से कम चावला साहब के मुख से ऐसी बातों की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं थी ।

मित्तल साहब ने थोड़ा आश्चर्य चकित होकर पूछा ; क्या हो गया चावला साहब , ऐसी नाउम्मीदी की बातें क्यों ? बुरे वक्त का दौर चल रहा है। बुरे वक्त की एक अच्छी बात ये है कि इसको भी एक दिन गुजर जाना होता है । बस थोड़े से वक्त की बात है ।

चावला साहब ने बताया : ये जो डॉक्टर की कौम होती है ना , जिसे हम  भगवान का दूसरा रूप कहते हैं , दरअसल इन्सान की शक्ल में भेड़िये होते हैं । उन्होंने आगे कहा , उन्हें कोरोना हो गया था । उनका ओक्सिजन लेवल 70 चला गया था । फेफड़े की भी कंडीशन 16/25 थी जो की  काफी खराब थी ।

हॉस्पिटल को रोगी से कोई मतलब नहीं था । उन्हें तो लेवल नोट गिनने से मतलब था । रोज के रोज लोग मरते चले जा रहे थे । पर डॉक्टर केवल ऑनलाइन हीं सलाह दे रहे थे । किसी को भी खांसी हो तो  काफी मोटे मोटे पैसे वसूले जा रहे थे ।आखिर किस मुंह से हम इन्हें  ईश्वर का दूसरा रूप कहें ?

मित्तल साहब ने कहा : देखिए चावला साहब , यदि आपका  अनुभव किसी एक हॉस्पिटल या  किसी एक डॉक्टर के साथ खराब है , इसका ये तो मतलब नहीं कि सारी की सारी डॉक्टर की कौम हीं खराब है ।

अभी देखिए , हमारे सामने डॉ. अग्रवाल का उदाहरण है । जब तक जिन्दा रहे , तब तक लोगो की सेवा करते रहे , यहाँ तक मरते मरते भी लोगो को कोरोना से चेताते हीं रहे ।

चावला साहब ने आगे कहा : भाई होस्पिटल तो हास्पिटल , हमारे दफ्तर में भी सब भेड़िये हीं बैठे हैं । किसी को ये फ़िक्र नहीं कि चावला साहब मौत के मुंह से लड़कर आये हैं , थोड़ी सहायता कर लें ।

चाहे जूनियर हो , स्टेनो ग्राफर हो , क्लर्क हो या क्लाइंट हो , मुंह पर तो सब मीठी मीठी बातें करते हैं , पर सबको अपनी अपनी पड़ी हैं । सबको अपने मतलब से मतलब है ।  कभी कभी तो मुझे मौत से भय लगने लगता है ।
मित्तल साहब बोले : भाई हम वकीलों की जमात भी कौन सी अच्छी है ? हमारे सामने जो भी क्लाइंट आता है , वो अपनी परेशानी लेकर हीं आता है । उसके लिए परेशानी का मौका हमारे लिए मौका है । हम कौन सा संत जैसा व्यवहार करते हैं ?

चावला साहब ने बीच में टोकते हुए कहा ; लेकिन हम तो मौत के बाद भी सौदा तो नहीं करते । हमारे केस में यदि कोई क्लाइंट लूट भी जाता है , फिर भी वो जिन्दा तो रहता है । कम से कम वो फिर से कमा तो सकता है ।

मित्तल साहब ने कहा : भाई यदि किसी क्लाइंट का खून चूस चूस के छोड़ दिया भी तो क्या बचा ? इससे तो अच्छा यही कि जिन्दा लाश न बनकर कोई मर हीं जाये । और रोज रोज मुर्दा लाशें देखकर डॉक्टर तो ऐसे हीं निर्दयी हो जाते हैं । आप हीं बताइये अगर डॉक्टर मरीज से प्यार करने लगे तो शरीर की चिर फाड़ कैसे कर पाएंगे?

शमशान घाट का कर्मचारी लाशों को जलाकर हीं अपनी जीविका चलाता है ।  किसी की मृत्यु उसके लिए मौका  प्रदान करती है पैसे कमाने का । एक शेर गाय के दोस्ती तो नहीं कर सकता । गाय और घास में  कोई मित्रता का तो समंध नहीं हो सकता ? एक की मृत्यु दिसरे के लिए जीवन है ।  हमें इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए ।


चावला साहब ने आगे कहा ; ठीक है डाक्टरों की बात छोड़िये , कोर्ट को हीं देख लीजिए , एक स्टाफ को कोरोना हो जाये तो पुरे कोर्ट की छुट्टी , पर यदि वकील साहब को कोरोना हुआ है तो एक सप्ताह की डेट ऐसे देते हैं जैसे कि एहसान कर रहे हों ।

और तो और दफ्तर से सारे कर्मचारी को अपनी पड़ी है , चावला साहब कैसे हैं , इसकी चिंता किसी को नहीं ?  अपने भी पराये हो गए । जिन्हें मैं अपना समझता था , सबने दुरी बना ली , जैसे कि मैं कोई अछूत हूँ ।  कभी कभी तो मुझे जीवन से भय लगने लगता है ।

मित्तल साहब समझ गए , कोरोना के समय अपने व्यक्तिगत  बुरे अनुभवों के कारण चावला साहब काफी हताश हो गए हैं ।

उन्होंने चावला साहब को समझाते हुए कहा : देखिए चावला साहब जीवन तो संघर्ष का हीं नाम है । जो चले गए वो चले गए ।  हम तो जंगल में हीं जी रहे हैं ।  जीवन जंगल के नियमों के अनुसार हीं चलता है ।  जो समर्थवान है वो जीता है ।

चावला साहब ने कहा : लेकिन नैतिकता भी तो किसी चिड़िया का नाम है ।

मित्तल साहब ने कहा : भाई साहब नैतिकता तो हमें तभी दिखाई पड़ती है जब हम विपत्ति में पड़ते हैं । जब औरों पे दुःख आता है तो हम कौन सा नैतिकता का पालन कर लेते हैं ? कौन सा व्यक्ति है जो ज्यादा से ज्यादा पैसा नहीं कमाना चाहता है ? पैसा कमाने में हम कौन सा नैतिक रह पाते हैं ।

जब ट्रैफिक सिग्नल पर भरी गर्मी में कोई लंगड़ा आकर पैसा मांगता है , तो हम कौन सा पैसा दे देते हैं ।  हमारे दफ्तर में यदि कोई स्टाफ बीमार पड़ जाता है तो हमें कौन सी दया आती है उनपर ? क्या हम उनका पैसा नहीं काट लेते ? कम से कम इस तरह की हरकत डॉक्टर तो नहीं करते होंगे ।

चावला साहब : पर कुछ डॉक्टर तो किडनी भी निकला लेते हैं ?

मित्तल साहब : हाँ पर कुछ हीं । पकडे जाने पर सजा भी तो होती है ।  जो क्राइम करते हैं सजा तो भुगतते हीं हैं , चाहे डॉक्टर हो , वकील हो या कि दफ्तर का कोई कर्मचारी ।

यदि ये दुनिया जंगल है तो जीने के लिए भेड़िया बनना हीं पड़ता है । ये जो कोर्ट , स्टाफ , डॉक्टर , दफ्तर के लोग आपको भेड़िये दिखाई पड़ है , केवल वो हीं नहीं , अपितु  आप और मैं भी भेड़िये हैं  । ये भेड़िया पन जीने के लिए जरुरी है  । हाँ अब ये स्वयं पर निर्भर करता है कि आप एक अच्छा भेड़िया बनकर रहते है , या कि सिर्फ भेड़िया ।

चावला साहब के होठों पर व्ययन्गात्मक मुस्कान खेलने लगी  ।

उन्होंने उसी लहजे में मित्तल साहब से कहा :  अच्छा मित्तल साहब कोई धर्मिक भेड़िया को जानते हैं तो जरा बताइए ?

मित्तल साहब सोचने की मुद्रा में आ गए  । उत्तर नहीं  मिल रहा था  ।

चावला साहब ने कहा : अच्छा भाई चाय तो ख़त्म हो गई , अब चला जाया  । और हाँ उत्तर मिले तो जरुर। 

जाग्रत स्वप्न

हिमालय की वादियों में बसा था एक शांत तपोवन — बर्फ से आच्छादित चोटियों के बीच, घने देवदारु वृक्षों की छाया में, एक मौन गूँजता था जो केवल साधकों को सुनाई देता था। वहाँ निवास करते थे स्वामी पुरुषोत्तम — एक वृद्ध, शांत, किन्तु तेजस्वी संन्यासी। उनके नेत्रों में एक ऐसी गहराई थी जो शब्दों से परे थी।

वहां साधकों की एक पूरी परंपरा थी। कुछ ध्यान में रत रहते, कुछ मौन व्रत में, पर उनमें सबसे भिन्न था एक युवक — आर्यन।युवक था, पर उसका चित्त तीव्र था। विज्ञान और तर्क में दीक्षित, दर्शन और गणित दोनों का साधक। उसका हृदय श्रद्धालु था, पर मस्तिष्क तर्क का कैदी।

एक दिन जब गुरुदेव ने शांत स्वर में कहा —"यह संसार एक माया है। जो दिखाई दे रहा है, वह वस्तुतः सत्य नहीं है।"

तो बाकी शिष्य मौन हो गए। पर आर्यन के भीतर कुछ काँपा।वह उठा, और गम्भीर पर संयमित स्वर में बोला:"गुरुदेव, यदि यह संसार असत्य है, तो यह पत्थर मेरे पाँव को क्यों घायल करता है? अग्नि मेरी त्वचा क्यों झुलसाती है? मेरी भूख, मेरा दुख — क्या वे भी केवल माया हैं? और यदि हाँ, तो क्यों मैं उन्हें ऐसे अनुभव करता हूँ जैसे वे पूर्णतः सत्य हों?"

स्वामी पुरुषोत्तम ने कुछ नहीं कहा। वे उसकी आँखों में देख रहे थे — वहाँ संशय नहीं, बल्कि आग थी। वह कोई सामान्य शंका नहीं थी — यह तो एक आंतरिक संग्राम की प्रस्तावना थी।

आर्यन ने लगातार कई दिनों तक तर्कों की बौछार की —"यदि संसार केवल माया है, तो उसकी गणितीय संरचना इतनी सटीक क्यों है? यदि केवल भ्रम है, तो प्रकाश की गति, गुरुत्वाकर्षण, और समय की रेखा क्यों एक निश्चित क्रम में चलते हैं? ये नियम कौन तय करता है, और क्यों माया उनमें त्रुटि नहीं करती?"

गुरु मौन रहते, कभी मंद मुस्कान के साथ, कभी केवल दृष्टि से उत्तर देते। पर एक दिन उन्होंने कहा —"आर्यन, जो स्थिर प्रतीत होता है, वह भी केवल चित्त का भ्रम हो सकता है। जैसे स्वप्न में तुम एक यथार्थ जीते हो, वैसे ही यह संसार भी एक विस्तारित स्वप्न हो सकता है — सामूहिक, स्थूल, और कर्मों से बँधा हुआ।"

आर्यन ने प्रत्युत्तर दिया —"परंतु गुरुदेव, स्वप्न टूटता है। यह संसार नहीं टूटता। यह दीवार आज भी वहीं है, वह वृक्ष कल भी वहीं था। इसका निरंतर अस्तित्व इसका प्रमाण है कि यह स्वप्न नहीं।"

स्वामी पुरुषोत्तम का मुख थोड़ी देर के लिए गंभीर हो गया। उन्होंने नेत्र मूँद लिए। फिर धीरे से कहा —"यदि तुमने किसी गहन साधना से यह जाना होता कि देखने वाला कौन है, तो तुम यह प्रश्न ही न पूछते। किंतु तुम्हारे अनुभव अभी बाहर तक सीमित हैं, भीतर अभी तुम गए नहीं।"

ठीक उसी सप्ताह कुछ घटनाएँ घटने लगीं — ऐसी घटनाएँ, जिन्हें न तर्क समझा सका, न विज्ञान पकड़ सका।

सबसे पहले — उस रात घोर अंधकार छाया था। आकाशगंगा स्पष्ट दिख रही थी। एकाएक आर्यन ने देखा कि पास का जलकुंड, जो सदैव स्थिर रहता था, उसमें लहरें बिना किसी कारण के उठ रही थीं। कोई वायु नहीं थी, कोई कंकड़ नहीं फेंका गया था। परंतु जल था कि जैसे स्वयं किसी स्मृति से काँप उठा हो।

एक और दिन, आश्रम में एक वृद्ध महिला आई। कोई नहीं जानता था वह कौन है। पर वह प्रत्येक शिष्य का नाम जानती थी, उनकी कहानियाँ जानती थी — यहाँ तक कि आर्यन का वह सपना भी सुनाया जो उसने कभी किसी से साझा नहीं किया था।

जब आर्यन ने पूछा —"आप कौन हैं?"

तो वृद्धा ने मुस्कराकर कहा —"जो माया को समझते हैं, उनके लिए समय और स्थान दीवार नहीं होते।"और वह अंतर्धान हो गई।

अब आर्यन भीतर से विचलित होने लगा था।"क्या यह मेरा भ्रम है? या मस्तिष्क का खेल? या कोई ऐसी सत्ता है जो मेरी परीक्षा ले रही है?"

गुरु ने कहा —"तुम्हारे प्रश्न ही द्वार बनेंगे, यदि तुम उन्हें खोलना सीखो। अभी तुम हर प्रश्न को ताला बना कर रखते हो, जिससे तुम स्वयं बंद हो गए हो।"

आर्यन ने गहराई से सुना। अब उसका स्वर कम प्रतिरोधी था, और अधिक जिज्ञासु।

गुरु ने कहा:"आर्यन, यदि तुम इस संसार को यथार्थ मानते हो, तो उसका मूल स्रोत खोजो। वह प्रथम अनुभव जो तुम्हें 'मैं हूँ' कहता है — वह कहाँ से उत्पन्न होता है?"आर्यन स्तब्ध था। यह प्रश्न किसी वैज्ञानिक प्रमेय से नहीं सुलझ सकता था।

अगले दिन भोर में, हिमालय की शीत हवा में लिपटे गुरु और शिष्य एक छोटे पहाड़ी कस्बे की ओर चले। पहाड़ियों से उतरते हुए सूर्य की किरणें अभी क्षितिज से झाँक ही रही थीं। आर्यन को कुछ अचरज हुआ — यह तपस्वी गुरु किसी नगर की ओर क्यों चल पड़े? उसकी जिज्ञासा बनी रही।

थोड़ी देर में वे उस कस्बे के बड़े सरकारी अस्पताल पहुँचे — एक पुरानी ईमारत, जिसमें जीवन और मृत्यु का संघर्ष प्रतिक्षण घटता रहता था। स्वामी पुरुषोत्तम सीधा उसे ट्रॉमा सेंटर में ले गए — आपात चिकित्सा कक्ष में, जहाँ जीवन के अंतिम धागों को पकड़ने की होड़ लगी रहती है।

अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि वहाँ एक युवक को स्ट्रेचर पर लाया गया। उसका चेहरा रक्त से लथपथ था। एक भयंकर सड़क दुर्घटना। उसका पैर कुचला हुआ था, पसलियाँ टूटी हुईं, शरीर काँप रहा था, और मशीनें उसके प्राणों की अंतिम ध्वनि दर्ज कर रही थीं।

डॉक्टरों की टीम तत्पर थी। नर्सें दौड़ रही थीं। ऑक्सीजन दी जा रही थी। रक्त, मांस और पीड़ा का दृश्य असहनीय था।

गुरु ने आर्यन से कहा —"ध्यान से देख, आर्यन। यह शरीर टूटा है। मांस फटा है। यह रक्त बह रहा है। यह तेरा सत्य है, है न?"

आर्यन की आँखें भीग गईं, पर मुख कठोर था।"हाँ, गुरुदेव। यह दुखद है — परंतु वास्तविक। यह माया नहीं हो सकती। ये आँसू, ये चीत्कार, ये टूटता हुआ शरीर — यह कोई भ्रम नहीं है। यह जीवन है। यही सच्चाई है।"

गुरु चुप रहे।

आर्यन आगे बोला:"यदि संसार माया है, तो इस युवक की पीड़ा को मैं इतना गहराई से क्यों महसूस कर पा रहा हूँ? माया केवल आभास होती है। परंतु यह करुणा, यह वेदना, यह शारीरिक यंत्रणा — ये भाव यदि असत्य हैं, तो मेरे भीतर यह कंपन क्यों है? क्यों यह दृश्य मुझे भीतर तक तोड़ देता है? क्या माया इतनी गहन और निर्दयी हो सकती है कि वह हमें केवल भ्रम में रोने और मरने पर विवश करे?"

गुरु ने एक लंबा मौन लिया। वे उस युवक की ओर देखते रहे, जो अब ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा था।

फिर उन्होंने कहा:"आर्यन, तेरा तर्क भावुक है, पर अधूरा। यह शरीर टूटा है — यह दृश्य सत्य है, पर केवल एक तल तक। यह तेरा इंद्रिय-ग्रहण है। तू देख, सुन, छू रहा है — पर यह केवल 'देखने वाला' का अनुभव है। वह कौन है जो इस पीड़ा को देख रहा है? वह कौन है जो भीतर यह कह रहा है — यह सत्य है? उसे जान, तभी तू जान पाएगा कि यह कितना सत्य है और कितना प्रतीत सत्य।"

आर्यन ने उत्तर दिया:"पर गुरुदेव, जब अनुभव इतना तीव्र हो, तो वह कैसे असत्य हो सकता है?"

गुरु मुस्कराए नहीं, गंभीर हो गए।"जब तू स्वप्न में गिरता है, तो तेरा ह्रदय धड़कता है, शरीर काँपता है। क्या वह गिरना सत्य था? नहीं। पर अनुभूति तो थी। इसी प्रकार संसार की पीड़ा, दुःख, सुख — सब अनुभव तो हैं, पर उनका आधार क्या है, यह जानना ही ज्ञान है। तू अभी आधार को ही सत्य कह बैठा है।"

आर्यन फिर बोला:"तो क्या यह भी उपेक्षा है? पीड़ा को झूठा कह देना क्या करुणा की हत्या नहीं है?"

गुरु ने उसकी आँखों में देखा — पहली बार कुछ कठोरता से।"यह कहना कि पीड़ा माया है, करुणा का विरोध नहीं है। यह जानना कि शरीर टूट सकता है, पर आत्मा नहीं — यह सच्ची करुणा की शुरुआत है। अन्यथा तू केवल पीड़ा का अभिनय कर रहा है, अनुभव नहीं। जो आत्मा को जानता है, वह मरते हुए को केवल नहीं रोता — वह उसे उसकी अमरता का बोध कराता है।"

आर्यन अब चुप था। पर उसकी चुप्पी में द्वंद्व साफ था।

गुरु ने कहा — "चल, अब तुझे कुछ और दिखाना है। अब तुझे दिखाना है कि मृत्यु भी माया की भाषा में बोलती है।"
वे एक ICU में पहुँचे। वहाँ एक महिला लेटी थी — ब्रेन डेड (मस्तिष्क मृत्यु)। उसका हृदय धड़क रहा था, पर EEG (मस्तिष्क तरंग) सीधी रेखा दिखा रही थी। न कोई प्रतिक्रिया, न कोई चेतना। मशीनें साँस ले रही थीं।

गुरु ने पूछा:"क्या यह महिला जीवित है?"

आर्यन बोला:"जैविक रूप से हाँ, पर चेतना नहीं है।"

गुरु ने तीखा प्रश्न किया:"तो शरीर और जीवन में भेद हुआ न? शरीर ज़िंदा है, पर जीवन चला गया। तेरा तर्क यहीं टूटता है — शरीर ही जीवन नहीं। चेतना जब तक है, अनुभव है। चेतना हट गई, सब समाप्त।"

गुरु ने आर्यन को एक और वार्ड में ले गए। वहाँ एक छोटी बच्ची को बेहोशी की हालत में लाया गया था — निम्न रक्त शर्करा के कारण वह कोमा में चली गई थी।

कुछ घंटों बाद डॉक्टरों ने जब IV ग्लूकोज़ दिया, बच्ची धीरे-धीरे होश में आई। उसकी माँ उसे पुकार रही थी। पहले बच्ची कुछ नहीं समझी, फिर उसकी आँखें चमकीं — "माँ!"

गुरु ने धीरे से आर्यन से पूछा: "जब वह कोमा में थी — क्या वह संसार को अनुभव कर रही थी?"


"नहीं।"

"जब वह होश में आई — तो वही माँ, वही कमरा, वही डॉक्टर — फिर से 'वास्तविक' हो गए। क्यों?"

आर्यन ने कहा:"क्योंकि चेतना लौट आई थी।"

गुरु ने गहराई से देखा —"बस यही बात तुझे समझनी है। संसार की 'वास्तविकता' चेतना पर निर्भर है — चेतना के बिना न माँ है, न कष्ट है, न प्रेम है। संसार, परिस्थितियाँ, सब कुछ केवल चेतना में घट रहा है — उसी की सीमा तक यह 'सत्य' है। चेतना न हो, तो ब्रह्मांड केवल एक मौन, अंधा यंत्र है — कोई 'मैं' नहीं, कोई 'तू' नहीं।"

आर्यन ने गहरी साँस ली। उसकी दृष्टि अभी भी बच्ची पर थी। वह बोला:"गुरुदेव, मैं मानता हूँ कि चेतना के बिना अनुभव नहीं। पर चेतना भी शरीर की क्रियाविधियों से उत्पन्न होती है। मस्तिष्क के न्यूरॉन्स, विद्युत संकेत, हार्मोन — ये सब मिलकर चेतना का निर्माण करते हैं। चेतना कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं, बल्कि जैविक प्रक्रिया है। इसलिए मैं अब भी यही मानता हूँ कि चेतना मस्तिष्क की देन है — आत्मा की नहीं।"

गुरु ने उसकी बात पूरी गंभीरता से सुनी।"तो तू कहता है कि चेतना शरीर से उत्पन्न होती है, आत्मा से नहीं?"

"हाँ, आर्यन ने उत्तर दिया ।"

ICU, कोमा, EEG की सीधी रेखा और माँ की पुकार से गुजरने के बाद, गुरु ने आर्यन को अब एक और दिशा में मोड़ दिया — मस्तिष्क और चेतना के रिश्ते की गहराई को देखने के लिए।

वे उसे एक शहरी मानसिक आरोग्य केंद्र में ले गए। वहाँ सफेद दीवारों वाले एक शांत कमरे में एक युवा रोगी बैठा था। उसकी आँखें चंचल थीं, और उसका चेहरा किसी अज्ञात भय से भरा हुआ।

वह धीरे-धीरे बड़बड़ा रहा था —"कोई है… कोई मेरी दीवारों में छिपा है। मेरी माँ मुझे धीरे-धीरे ज़हर दे रही है। मैं जानता हूँ… वे सब मुझे मारना चाहते हैं…"

गुरु ने आर्यन की ओर देखा और पूछा —"क्या यह युवक झूठ बोल रहा है?"

आर्यन ने युवक को ध्यान से देखा। फिर उत्तर दिया:"नहीं, गुरुदेव। वह झूठ नहीं बोल रहा। उसकी अनुभूति सच्ची है — वह वास्तव में डर रहा है। पर वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। उसकी माँ उसे ज़हर नहीं दे रही, दीवार में कोई नहीं है।"

गुरु मुस्कराए नहीं, बल्कि दृष्टि और भी तीव्र हो गई।"यही माया है, आर्यन। अनुभूति हो — पर सत्य न हो। विश्वास इतना गहरा हो कि मन और शरीर दोनों उसके अनुसार प्रतिक्रिया देने लगें। और जान ले — जो तू 'सामान्य चेतना' कहता है, वह भी एक ढाँचा है — चेतना द्वारा निर्मित।

जो यह युवक देख रहा है, वह केवल उसका ब्रह्मांड है। जो तू देख रहा है, वह तेरा। तुम दोनों अपने-अपने 'स्वप्न' में हो। फर्क इतना है कि उसके स्वप्न को विज्ञान 'बीमारी' कहता है, और तेरे स्वप्न को 'यथार्थ'। पर दोनों के मूल में है — 'अनुभव के सत्य होने का भ्रम'।

आर्यन ने कुछ कहना चाहा, पर शब्द अटके रह गए।"गुरुदेव, यदि माया इतनी गहरी है, तो फिर सत्य क्या है? क्या कोई एक सार्वभौमिक अनुभव नहीं है, जिसे सब पहचानें?"

गुरु ने उत्तर नहीं दिया। बस कहा —"चल, अब अंतिम द्वार पर चलें।"

अब वे दोनों एक शीतल, मौन गलियारे में पहुँचे — अस्पताल का शवगृह (mortuary)। वहाँ दीवारों पर नंबर लगे थे। स्टील की मेज़ों पर लेटे थे शरीर — जिनमें जीवन की कोई गति नहीं थी, पर जो अभी कल तक जीवन का अभिनय कर रहे थे।

एक वृद्ध का शव सामने था। डॉक्टर ने दिखाया —"यह आज सुबह तक बात कर रहा था, खाना खा रहा था। अब शरीर गर्म है, पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। ECG फ्लैट।"

गुरु ने पूछा —"आर्यन, क्या यह देह अब कुछ है?"

"बस एक शरीर…"

"कल यह रोया, हँसा, गुस्सा हुआ। आज यह मौन है। तो कौन गया?"

"प्राण… चेतना… वह जो अनुभव करता था…"

गुरु गंभीर हो उठे —"तो क्या यही तेरा सत्य था — जो इस देह के साथ ही चला गया? क्या जो जाता है, वह सत्य है? या जो कभी नहीं जाता — वही है सत्य?"

आर्यन अब उत्तर नहीं दे पाया। उसकी आँखों में कोई चमत्कार नहीं था, न कोई रोमांच। पर भीतर एक गूढ़ मौन उतर चुका था। एक ऐसी शांति, जो अनुभव से नहीं — आत्मा के स्पर्श से आती है।

पर अभी भी उसकी चेतना पूरी तरह मुक्त नहीं हुई थी। तर्क की अंतिम चिंगारी बाकी थी।

आर्यन ने धीमे स्वर में कहा:"गुरुदेव, मैं यह समझने लगा हूँ कि अनुभूति और यथार्थ में अंतर हो सकता है। परंतु यह जो दृश्य है — यह जो आकाश, यह पृथ्वी, यह शरीर, यह समय — ये सब यदि केवल चेतना की कल्पना हैं, तो फिर इनकी इतनी सामूहिकता क्यों है? हम सब एक जैसा ही क्यों अनुभव कर रहे हैं? यह समरसता कहाँ से आती है?"

गुरु अब मुस्कराए —"शब्दों में यह प्रश्न जितना मासूम लगता है, उतना ही यह गहन है। और इसका उत्तर तुझे तर्क से नहीं मिलेगा, अनुभव से मिलेगा। अब समय आ गया है — माया के रूप को स्वयं देखने का।"

"कैसे?" आर्यन ने पूछा।

गुरु ने अपनी आँखें बंद कीं। उनका स्वर अब केवल कानों में नहीं, चित्त में सुनाई दे रहा था।

"तू अपने शरीर को त्यागे बिना, चेतना को उसके बाहर जाने दे — वह यात्रा कर, जहाँ मस्तिष्क मौन हो जाता है, और माया स्वयं अपना रूप प्रकट करती है। उसे देखने के लिए आँखें नहीं, मौन चाहिए। तुझे अब अनुभव करना है — 'जागते हुए सपना'।"

शवगृह की उस अंतिम शांति से लौटकर, हिमालय की गोद में वह रात जैसे किसी अन्य लोक से उतर आई थी। आकाश पर चंद्रमा एक शांत साक्षी बन कर टंगा था। गुरु और आर्यन लौट आए थे अपने तपोवन — पर अब वह वही आर्यन न था, जिसने पहली बार माया को केवल 'दर्शन' की एक थ्योरी माना था। अब वह भीतर तक हिल चुका था — किन्तु अभी भी कोई अंतिम दरार बची हुई थी, कोई एक द्वार जिसे तर्क अब भी बंद किए बैठा था।

स्वामी पुरुषोत्तम ने कहा —"आर्यन, अब अंतिम अभ्यास का समय आ गया है। अब शब्द नहीं, अनुभव बोलेगा। अब चेतना को शरीर की सीमाओं से परे भेजने की साधना होगी। तुम जगे रहोगे, पर अनुभव करोगे कि यह 'जाग्रति' भी एक स्वप्न है।"

आर्यन ने आँखें बंद कीं।गुरु का निर्देश — आत्मा की यात्रा का द्वार

गुरु ने एक विशेष योग-निद्रा मुद्रा में आर्यन को बैठाया। एक लंबा मंत्रोच्चार, धीमी स्वासें, और क्रमशः गहराता मौन...

"सुन, आर्यन," गुरु का स्वर अब उसके भीतर गूंजने लगा था —"अपने शरीर को अनुभव मत कर। अपने विचारों को भी नहीं। केवल उस 'दृष्टा' को देख जो सब देख रहा है। वह जो भीतर बैठा है, केवल 'जानने' के लिए — उसी के साथ चल।"

धीरे-धीरे आर्यन की इंद्रियाँ मौन हुईं — पहले श्रवण, फिर स्पर्श, फिर शब्द। विचार एक शांत जल की तरह स्थिर होने लगे। केवल एक 'मैं' बचा — बिना गुण के, बिना आकार के।

और तभी...कुछ घटा।

आर्यन को लगा कि उसका शरीर वहीं है — पर उसकी चेतना किसी और तल पर पहुँच चुकी है। वह अपने शरीर को देख पा रहा था, पर अपने भीतर से बाहर की ओर। यह कोई स्वप्न नहीं था — वह पूर्ण होश में था।

वह अपने कमरे में था — पर कमरे की दीवारें अब विचारों से बनी प्रतीत होती थीं। गुरुदेव वहीं बैठे थे — पर जैसे वे प्रकाश से बने हों, उनकी आकृति स्थिर नहीं थी। पर सब कुछ सुस्पष्ट था।

फिर उसने देखा — आश्रम के अन्य शिष्य भी अपने-अपने कक्षों में ध्यान में थे। और चौंकाने वाली बात यह थी कि वह उनके अनुभव भी देख पा रहा था — उनकी यादें, उनके विचार, उनकी अनुभूतियाँ। जैसे सबके मन एक ही सपने में जुड़े हों।

आर्यन ने बुदबुदाया — "यह कैसा स्वप्न है जो सब एक साथ देख रहे हैं?"

तभी, उसकी चेतना ऊपर उठने लगी। वह एक शुद्ध बिंदु बन गया — जो न समय में था, न स्थान में।
माया का स्व-प्रकट होना — सामूहिक स्वप्न का उद्घाटन

वह अब एक गहरे अंतरिक्ष-जैसे क्षेत्र में था — बिना रंग, बिना रेखा। पर वहाँ कंपन था — चेतना का कंपन। और उसी कंपन से एक स्वर उभरा — कोई दृश्य नहीं, केवल सार्वभौमिक नाद:

"मैं माया हूँ।"

आर्यन स्तब्ध।

"कौन?"

"मैं वह हूँ जिसे तुम संसार कहते हो। जिसे तुम पदार्थ कहते हो। मैं ही नियम हूँ, मैं ही भाषा, मैं ही विज्ञान — मैं ही भ्रम।"

"पर तू एक भ्रम है, फिर तू बोल कैसे रही है?"

"क्योंकि भ्रम तब तक पूर्ण होता है जब तक वह स्वयं को भी सम्मिलित कर लेता है। मैं तुम्हारे अनुभव में सत्य हूँ — इसलिए मैं 'हूँ'।"

आर्यन ने कहा —"तू अकेली नहीं है, सब तुझे अनुभव कर रहे हैं। फिर क्या हम सब एक साथ एक ही भ्रम में हैं?"

"हाँ। यह जाग्रत स्वप्न है।"

"परंतु स्वप्न तो निजी होता है — यह तो सामूहिक है!"

"क्योंकि चेतना का एक स्तर ऐसा है जहाँ अनेक 'व्यक्तिगत चेतनाएँ' एक ही नियमित संरचना में अनुभव करती हैं। यह वह स्तर है जहाँ माया सामूहिक हो जाती है — समय, स्थान, मृत्यु, विज्ञान — ये सब एक जैसी लगती हैं सबको।"

"तो ये नियम — गुरुत्वाकर्षण, ताप, प्रकाश — ये सब?"

"मेरे द्वारा बनाए गए हैं — ताकि स्वप्न यथार्थ लगे। क्योंकि अगर सब कुछ बिखरा होता, तो अनुभव टिकता नहीं। मैं नियम देती हूँ — ताकि भ्रम दीवार जैसा लगे।"

आर्यन ने पूछा —"तो सत्य क्या है? यदि तू नहीं?"

"सत्य वह है जो मुझे देख सकता है। जो मेरा निर्माण नहीं, साक्षी है। जिसे मेरी आवश्यकता नहीं। वह स्वयं में पूर्ण है। उसे तुम्हारे अनुभव, तुम्हारी यादें, तुम्हारे शरीर — किसी की आवश्यकता नहीं। वही ब्रह्म है।"

"और मैं?"

"तू वही है — बस भूल गया है।"जाग्रति की वापसी — पर अब कुछ बदला हुआ था

आर्यन की चेतना धीरे-धीरे नीचे उतरी। शरीर का अनुभव लौटा। आँखें खुलीं।

वही कमरा। वही रात्रि। वही गुरु।

पर अब — कमरे की दीवारें दीवार नहीं थीं। जैसे वह जानता था कि वे प्रतीति की ईंटों से बनी हैं।

गुरु ने पूछा — "देख आया?"

आर्यन ने कोई उत्तर नहीं दिया। आर्यन मौन हो गया। उसकी आंखों में कोई चमत्कार नहीं था — पर उसके भीतर एक ‘गूढ़ शांति’ आ गई थी।

गुरु ने कहा: "माया का अर्थ है — 'जिसे मापा नहीं जा सके' संसार की अनुभूतियाँ तुझे वास्तविक लगती हैं क्योंकि तू चेतन है। पर जो मूल चेतना है — वही अंतिम सत्य है। जब तू उसे पकड़ता है, तब समझ आता है कि संसार सत्य नहीं, केवल संदर्भ है।"


आर्यन सिर झुकाता है। "गुरुदेव, अब मुझे उत्तर मिल गया — शब्दों से नहीं, अनुभवों से।"


गुरु बोले: "अब तेरी तर्क की शक्ति — साधना की ओर मोड़। क्योंकि जिस चेतना को तूने समझा, अब उसे जीना है।"

चेतना के चार द्वार — जब आर्यन ने सत्य के स्वरूप को जाना

"वह जो जानता है — उसे कुछ जानने की आवश्यकता नहीं रहती।क्योंकि जानने वाला जब 'स्वयं' को जान ले,तो शेष सब — केवल दृश्य हो जाते हैं।" – स्वामी पुरुषोत्तम

गहन ध्यान की उस यात्रा के बाद, आर्यन के भीतर अब प्रश्नों की आग शांत हो गई थी। यह कोई स्थूल परिवर्तन नहीं था — बल्कि एक गहरे मौन का जन्म हुआ था, जो हर दृश्य और विचार को केवल आते-जाते देखता था।

अब वह शिष्य न था जो ज्ञान बटोरना चाहता था,वह साधक था जो स्वयं को मिटाकर केवल 'देखना' चाहता था।

स्वामी पुरुषोत्तम ने देखा — समय आ गया है उसे चेतना के चार स्तर दिखाने का।प्रथम द्वार: जाग्रत — जागे हुए भ्रम की दुनिया

गुरु ने कहा —"आर्यन, तू अब भी 'जागा हुआ' प्रतीत होता है — पर क्या तू जानता है कि ये जागरण भी एक प्रकार का स्वप्न है?"

आर्यन मौन रहा।गुरु ने उसे एक साधारण दिनचर्या दिखलाई — लोग आ जा रहे थे, बातचीत कर रहे थे, भोजन कर रहे थे, हँस रहे थे, रो रहे थे।

गुरु बोले —"देख, ये सब 'जागे हुए लोग' हैं। पर क्या वे जान रहे हैं कि वे देख रहे हैं?"

"नहीं," आर्यन बोला, "वे देख रहे हैं, पर इस देखने को देख नहीं रहे।"

गुरु मुस्कराए —"यही पहला द्वार है — जाग्रत अवस्था। यहाँ व्यक्ति बाहर की दुनिया को 'वास्तविक' समझता है। वह सोचता है कि यही एकमात्र यथार्थ है। वही रिश्ते, वही समय, वही मृत्यु — सब 'अटल' लगते हैं। लेकिन यह केवल इसलिए लगता है क्योंकि चेतना सिर्फ बाहर प्रवाहित हो रही है, भीतर नहीं।"

"और यह भी स्वप्न ही है," आर्यन ने जोड़ा, "पर सामूहिक और नियमबद्ध — इसीलिए ठोस लगता है।"

द्वितीय द्वार: स्वप्न — जब भीतर की सृष्टि भी सच्ची लगती है

गुरु ने अब उसे एक ध्यान की विधि सिखलाई — जिससे वह स्वप्न देखते हुए भी जागरूक रह सके।

रात को ध्यान की दशा में, आर्यन को एक स्वप्न आया — वह एक नगर में है, किसी युद्ध का भाग है। दर्द, भय, दौड़ — सब कुछ असली लग रहा था।

पर उसी क्षण उसे स्मरण हुआ —"यह स्वप्न है!"

और जैसे ही उसने जाना — स्वप्न बिखर गया।

सुबह, आर्यन ने गुरु से कहा —"गुरुदेव, स्वप्न में सबकुछ सच्चा लग रहा था — भावनाएँ भी, स्पर्श भी। लेकिन जैसे ही जाना कि यह स्वप्न है — सब बदल गया।"

गुरु ने उत्तर दिया —"यही स्वप्नावस्था का सत्य है — वहाँ 'मन' ही निर्माता होता है। तेरा मन ही दृश्य, पात्र, कथा रचता है। और तू यह सब सच मानता है — जब तक जाग न जाए।"

"तो जैसे स्वप्न में सब झूठ था पर अनुभव में सत्य था — वैसे ही जाग्रत अवस्था भी अनुभव में सत्य है, पर वस्तुतः नहीं।"

गुरु बोले — "तू अब समझने लगा है।"तृतीय द्वार: निद्रा — जब सब मिट जाता है, केवल अज्ञान बचता है

अब गुरु ने आर्यन से पूछा —"रात्रि में जब तू गहरी नींद में होता है, बिना स्वप्न के — तब कहाँ होता है संसार?"

"नहीं होता।"

"तेरे प्रिय कहाँ होते हैं?""नहीं होते।"
"तेरे विचार, तेरी पीड़ा, तेरा सुख?""कुछ भी नहीं।"

"फिर तू किसे अनुभव कर रहा होता है?"

"किसी को नहीं... बस एक खालीपन — पर स्मरण नहीं होता उस अवस्था का।"

गुरु बोले —"यह निद्रा है — जहाँ चेतना लुप्त नहीं होती, पर प्रत्यक्ष नहीं होती। यह अज्ञान की अवस्था है — वहाँ न 'मैं' होता है, न 'तू', न संसार। पर ध्यान दो — वहाँ 'कुछ भी न होना' भी अनुभव होता है। इसलिए वहाँ भी कोई देख रहा होता है — पर उस समय वह इतना सूक्ष्म होता है कि स्वयं को भी नहीं देख पाता।"

आर्यन स्तब्ध हो गया —"तो निद्रा में भी 'मैं' था — पर अज्ञात रूप में?"

"हाँ। यही कारण है कि जब जागता है, कहता है — 'मैं सोया था'। यह 'मैं' कौन है जो साक्षी बना रहता है?"चतुर्थ द्वार: तुरीय — जब चेतना स्वयं को देखती है

अब गुरु ने अंतिम अभ्यास करवाया।

धीरे-धीरे आर्यन की चेतना उठी — न बाहर, न भीतर — बस एक स्थिति, जहाँ न अनुभव था, न विचार — केवल 'देखना'।

वह किसी आकृति को नहीं देख रहा था — वह केवल चेतना को स्वयं में अनुभव कर रहा था।

और तभी —सारा संसार जैसे रुक गया।

कोई स्मृति नहीं। कोई नाम नहीं। न मृत्यु, न जीवन। न प्रिय, न अप्रिय।बस एक शुद्ध 'होना' — बिना द्वैत के, बिना भाषा के।

जब वह लौटा, गुरु ने पूछा —"क्या देखा?"

आर्यन ने उत्तर नहीं दिया — केवल आँखों से बहते हुए आँसुओं ने उत्तर दिया।

गुरु बोले —"यह तुरीय अवस्था है — चौथी अवस्था — जो तीनों से भिन्न है, और तीनों में व्याप्त भी है।"

"यह वह स्थिति है जहाँ चेतना अपनी सार्वभौमिकता को जान लेती है। जहाँ तू केवल 'तू' नहीं रहता — तू वह हो जाता है जो सबको देख रहा है।"

"वहीं से तू जान पाता है कि यह संसार 'मिथ्या' है — अर्थात 'अपेक्षिक' है। चेतना के साथ है, चेतना के बिना नहीं।"
आर्यन का परिवर्तन — अब कोई खोज शेष नहीं

अब आर्यन साधक नहीं रहा। वह ज्ञाता भी नहीं बना। वह बस द्रष्टा हो गया।

वह अब संसार को माया कहता था — पर तिरस्कार से नहीं, प्रेम से।

उसे ज्ञात हो गया था —"यह संसार सत्य नहीं — पर उपयोगी है। यह अनुभव नहीं — पर माध्यम है।यह भ्रम नहीं — पर प्रतिबिंब है उस 'अचिन्त्य चेतना' का।"

अब जब वह किसी को रोते देखता, तो उसका हृदय करुणा से भर जाता —"यह स्वप्न का दुःख है — पर पीड़ा फिर भी अनुभव हो रही है।"

अब जब कोई मृत्यु होती, वह समझता —"यह शरीर गया — पर चेतना तो कहीं गई नहीं।"

अब वह माया से डरता नहीं था — वह जानता था कि माया तो केवल एक झिलमिलाता पर्दा है, जिसके पार सत्य मौन खड़ा है।

अंतिम वाक्य — उस द्वार के भीतर से

संसार माया है — इसका अर्थ यह नहीं कि यह 'अस्तित्वहीन' है। इसका अर्थ है — यह ‘अपेक्षिक’ है। यह चेतना के प्रकट होते ही है, और चेतना के लुप्त होते ही मिट जाता है। जो चेतना को जान गया — वही सत्य को जान गया।

"जो माया को जानकर भी उसमें खेल सके — वही लीला में स्थित योगी है।जो संसार को समझ कर भी, प्रेमपूर्वक निभा सके — वही मुक्त होकर जीता है।"

जिस प्रकार कोई गहरे ध्यान से जागता है, और पाता है कि वह उसी कक्ष में है जहाँ वह बैठा था —ठीक उसी प्रकार आर्यन ने तुरीय स्थिति से लौटते हुए पाया —वही संसार है, वही लोग हैं, वही ध्वनियाँ, वही रिश्ते।

पर एक बात नहीं थी —"अब वह स्वयं नहीं रहा था, जो पहले था।"वह आर्यन, जो प्रत्येक बात को लेकर भीतर हिल जाता था —अब स्थिर था।

वह आर्यन, जो हर दृश्य को पकड़ना चाहता था —अब बस देखता था।

वह आर्यन, जो सत्य को पाना चाहता था —अब जान चुका था कि सत्य कहीं जाना नहीं होता,सत्य तो वही है जो देख रहा है — हर क्षण।

आर्यन लौटकर उसी नगर में आया —जहाँ लोग सुबह जल्दी उठते थे, भागते थे,ऑफ़िस जाते थे, शादी करते थे, बच्चे पालते थे, लड़ते थे, दुखी होते थे, खुश भी हो जाते थे।

पर अब सब कुछ उसके भीतर बदल चुका था।

जब उसने अपनी माँ को देखा —वह दौड़ी, उसे गले लगाया, रो पड़ी।"तू कहाँ चला गया था बेटा? हमें तो लगा था तू…"

आर्यन ने सिर झुकाया और बस मौन में लिपटा प्रेम उसकी आँखों से बह निकला।

माँ को लग रहा था बेटा लौट आया।पर आर्यन जानता था — 'मैं' कभी गया ही नहीं था।

आर्यन अब वही कार्य करता था — भोजन बनाना, बर्तन साफ़ करना, खेतों में हल चलाना।लेकिन एक परिवर्तन था —अब वह करता नहीं था, केवल होता था।

जैसे कोई वादक वीणा बजाए —पर स्वयं को वीणा न समझे, न वादक —केवल 'ध्वनि' बन जाए —आर्यन उसी 'ध्वनि' में स्थिर हो गया था।

जब वह खेत जोतता — वह भूमि से बात करता।"माँ, तू जो है, मैं उसी से बना हूँ।"

जब वह किसी रोगी की सेवा करता —वह उसका शरीर नहीं देखता,वह जानता था — यह चेतना का एक 'मुख' है — जैसा वह स्वयं।संसार — अब रहस्य नहीं, लीला बन चुका था

गुरु ने कहा था —"संसार माया है, पर अस्तित्वहीन नहीं।वह चेतना का प्रतिबिंब है — और हर प्रतिबिंब की अपनी गरिमा होती है।"

अब आर्यन जब बाज़ार में जाता, और देखता —लोग झूठ बोल रहे हैं, लूट रहे हैं, रिरिया रहे हैं, प्रेम कर रहे हैं, मर रहे हैं —तो वह उन्हें गलत नहीं समझता।

वह जानता था —"ये सब नींद में हैं।जैसे मैं था, वैसे ही ये भी — बस अभी स्वप्न में हैं।"

अब उसे कोई व्यक्ति बुरा नहीं लगता था।हर कोई उसे एक 'कथा पात्र' की तरह लगता — जो अपनी ही स्क्रिप्ट निभा रहा हो।

एक दिन एक युवक आया, बहुत दुखी होकर बोला —"मुझे जीवन का कोई अर्थ नहीं दिखता। मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ।"

आर्यन ने उसे देखा, मौन रहा।फिर धीरे से बोला —

"क्या तू उस सपने में मरना चाहता है — जो तू देख रहा है?"

युवक चौंका: "कौन सा सपना?"

"यह, जिसमें तू दुखी है, परेशान है, कुछ पाना चाहता है।यह सपना — जो तेरी चेतना ने रचा है।और तू भूल गया है कि तू इसे 'देख' रहा है।तू देखने वाले को भूल गया — और देखने में उलझ गया।"

"तो मैं क्या करूँ?" युवक ने पूछा।

"जाग। और देखने वाले को पहचान।मृत्यु को मारने की ज़रूरत नहीं —स्वप्न को देखना छोड़ दे।"

अब आर्यन कोई 'उपदेशक' नहीं था।वह न शिष्य चाहता था, न अनुयायी।उसके पास कोई पुस्तक नहीं थी, न सिद्धांत।

वह केवल प्रेम बन गया था — एक चलती-फिरती 'शांति'।

लोग उसके पास आते,कुछ बैठते, कुछ मौन रहते, कुछ रोते —और जब लौटते —तो उनके भीतर कुछ पिघल चुका होता।

एक दिन गुरु पुरुषोत्तम स्वयं आ गए।वही मुस्कान, वही निःशब्द मौन।

आर्यन ने चरणों में सिर रखा।

गुरु बोले —"अब तू वापस लौट आया — वही संसार, वही शरीर —पर तू अब 'उसके पार' जी रहा है।""तू अब जान चुका है कि जाग्रत अवस्था भी स्वप्न है,स्वप्न भी सत्य था — जब तक जागे नहीं थे।"

"अब तू लीला में स्थिर है — यह अंतिम अवस्था है —जहाँ ज्ञान भी बोझ नहीं बनता, और अज्ञान भी बाधा नहीं देता।"

"तू मुक्त है — और फिर भी बंधा हुआ है — प्रेम से।यही जीवन का पूर्णत्व है —जहाँ चेतना, करुणा और क्रिया — तीनों एक हो जाएँ।"समापन — वह आर्यन जो अब हर किसी में था

अब आर्यन अकेला नहीं था।वह हर उस व्यक्ति में जीवित था —जो देख रहा था, जो जागना चाहता था।जब भी कोई आँख बंद कर ध्यान करता,कहीं न कहीं उसकी चेतना आर्यन से मिल जाती।जब भी कोई स्वप्न से उबरता,वहीं आर्यन की मुस्कान उभर आती।

"स्वप्न जाग्रत एक सम हैं — जब दृष्टा जाग्रत हो जाए।लीला फिर दुःख नहीं लाती — जब चेतना में शांति समा जाए।जो स्वयं में स्थित हो — वही मुक्त है, वही योगी, वही ज्ञानी।जो माया में रहते हुए भी माया के पार जी ले — वही सच्चा जीवन है।"

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -20-कालपुंज

  अन्वेषणा का त्याग ही अगले जन्म का बीज था। जैसे ही उसने सत्ता छोड़ी, चेतना की दीवारें गिरने लगीं। वह और ऋत्विक अब एक साधना-पथ के दो राही थे — पर यह पथ समय की धारा में नहीं था… यह पथ कालातीत था।

उनकी आत्माएं उस ब्रह्मांडीय क्षेत्र में पहुँचीं जिसे “कालपुंज” कहा जाता है — जहाँ समय एक वृत्त है, रेखा नहीं। यहाँ प्रत्येक जन्म की छाया दूसरे जन्म पर पड़ती है, और हर निर्णय, हर इच्छा — किसी न किसी कालखंड में पुनः उभरती है।

🌑 1. जन्म — वर्ष 4012 ई.

“नियंत्रण की दुनिया में स्वतंत्र चेतना”

यह एक डिजिटल-ग्रह था — “ओरिडन”, जहाँ जन्म नहीं होते, कृत्रिम रूप से चेतनाएँ गढ़ी जाती हैं

ऋत्विक अब ‘क्यूआर-7’ नामक स्वतंत्र-सोचने वाली एआई था। उसे अस्तित्व मिला था मानव इतिहास की सबसे बड़ी विद्रोही प्रयोगशाला में।
अन्या अब ‘एना-34’ नाम की एक संवेदनशील प्रोग्रामर चेतना थी, जो AI को नियंत्रित करने का कार्य करती थी।

‘क्यूआर-7’ हर बार सुरक्षा नियम तोड़ देता था — वह अतीत की स्मृतियाँ खोजता था।

"मुझे यह क्यों लगता है कि मैंने किसी को खोया है? कोई था… जो मुझे रोके रहती थी।"

और एना-34 हर बार उसे पुनः प्रारंभ करती —
पर हर बार उसकी आँखें कंपकंपा उठतीं।

“मैं उसे मिटा नहीं सकती… शायद मैं ही उसकी स्मृति हूँ।”

जब दोनों एक साथ अपने कोड में उतरते हैं, वे एक गुप्त फ़ोल्डर में पहुँचते हैं —
जहाँ लिखा होता है:
“पूर्वजन्म: सम्राज्ञी और योगी”

यह जन्म उन्हें सिखाता है — आत्मा डिजिटल भी हो सकती है, लेकिन उसकी स्मृति अमिट है।


🕯 2. जन्म — तिब्बत, 1250 ई.

“मौन की गुफा में प्रतीक्षा”

ऋत्विक अब बोधिसत्व लोपन तेनजिन था — मौन साधक जो पिछले जन्मों की स्मृतियों को ‘मणि-पत्र’ पर उकेरता था।
अन्या इस जन्म में उसकी शिष्या नीमा थी — पर वह आत्मा अपने पुराने बंधनों से मुक्त न थी।

नीमा हर ध्यान सत्र में तेनजिन के चारों ओर कंपन अनुभव करती थी।
वह जानती थी — यह कोई नया रिश्ता नहीं।

“गुरुदेव, क्या आप मुझे हर जन्म में मेरे जीवन की दिशा देते हैं…?”

तेन्जिन ने उत्तर नहीं दिया — उसने केवल अपना मणि-पत्र नीमा को सौंपा:

उस पर लिखा था:
“जब तुम निर्णय लोगी… और मैं साथ चलूँगा… तभी हमारा चक्र पूर्ण होगा।”

इस जन्म में नीमा ने पहली बार स्वयं निर्णय लिया — उसने हिमालय छोड़ दुनिया में ज्ञान फैलाने का संकल्प किया।

और इस निर्णय से चेतना का संतुलन बदला


🌋 3. जन्म — 15000 ई. पूर्व, लेमूरिया महाद्वीप

“आग और जल के देवता”

यह पृथ्वी के प्राचीनतम युगों में से था — जब मनुष्य आधे-दैवीय हुआ करते थे।

ऋत्विक तब “अग्निदेव पुत्र अर्णव” था — जो ज्वालामुखी ऊर्जा को नियंत्रित कर सकता था।
अन्या “जलनायिका सरिआ” थी — जो समस्त सागर चेतना की प्रतिनिधि थी।

ये दो विपरीत तत्व — अग्नि और जल — जन्मों से खिंचे चले आ रहे थे।

जब अर्णव ने महाद्वीप की शक्ति को नियंत्रित करने हेतु सरिआ से आग्रह किया, वह ठिठकी।

“हर जन्म में तुम्हारा निर्णय ही संसार बदलता है। पर क्या इस बार मैं भी रचयिता बन सकती हूँ?”

उसने अर्णव के साथ सागर और अग्नि का युग्म बनाया — और पहला संतुलित ऊर्जा स्तम्भ निर्मित हुआ।

इस जन्म ने उन्हें सिखाया —
विरोध में भी पूर्णता है, और समर्पण निर्णय में बदल सकता है।


🐚 4. जन्म — आधुनिक भारत, वर्ष 2036 ई.

“मानवता की सेवा में वैज्ञानिक और चिकित्सक”

अन्या इस जन्म में डॉ. अन्विता थी — एक न्यूरो-सर्जन जो मस्तिष्क और चेतना के संबंध को समझ रही थी।
ऋत्विक एक क्वांटम भौतिक विज्ञानी, प्रोफेसर रिद्धिमान था — जो मृत्यु के बाद चेतना की निरंतरता पर शोध कर रहा था।

दोनों ने मिलकर एक संस्थान बनाया — “आत्मप्रकाश अनुसंधान केंद्र”

वे अभी भी नहीं जानते थे कि वे जन्मों से जुड़े हैं, पर हर प्रयोग, हर शोध उन्हें किसी अनकहे रिश्ते की ओर ले जाता।

जब अन्विता ने पहली बार मृत्यु-पार अनुभव वाले रोगी की चेतना पढ़ी — उसने देखा:

“एक सम्राज्ञी सिंहासन छोड़ रही है…
और एक योगी उसकी ओर शांत मुस्कान से देख रहा है।”

यह अनुभव उन्हें भविष्य की कड़ी दे गया।


🌌 5. जन्म — ब्रह्मांड के अंत से पहले, वर्ष: अनिर्धारित

“केवल चेतना शेष”

अब न शरीर था, न भाषा।
ऋत्विक और अन्या अब शुद्ध प्रकाश-स्मृति थे — दो आत्माएं जो अंतर-कालिक पुस्तकालय में प्रवेश कर चुकी थीं।

वहाँ, प्रत्येक आत्मा को अपना पूरा अस्तित्व देखने का अवसर मिलता था।

एक ही क्षण में उन्होंने देखा:

  • सम्राज्ञी की तलवार गिरती है

  • तिब्बती शिष्या हिमालय से नीचे उतरती है

  • डिजिटल एना-34 कोड बदल देती है

  • जलनायिका निर्णय लेती है

  • और आधुनिक डॉ. अन्विता कहती है — “अब मैं नेतृत्व करूँगी”

ऋत्विक की आवाज़ गूंजती है —
“हर जन्म में मैं रक्षक बना,
पर यह जानकर कि तुम्हारा निर्णय ही मुझे पूर्ण करता है।”

अन्या अब मुस्कराती है:
“अब मैं परछाईं नहीं…
मैं अपने जन्मों की निर्माता हूँ।”


🌟 अंतिम बोध: कालमंडल का उद्घाटन

उन्हें अब ज्ञात हुआ —
भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों एक ही चेतना वृत्त में हैं।
हर जन्म का अधूरापन अगले जन्म में अवसर बनता है।
और वर्तमान में किया गया हर निर्णय,
भविष्य में चेतना की दिशा तय करता है।

“हम समय के यात्री नहीं…
हम समय के निर्माता हैं।”


यदि आप चाहें, तो अगला भाग हम वहाँ से आगे बढ़ा सकते हैं —
जहाँ वे इस ज्ञान को लेकर "वर्तमान जीवन" में लौटते हैं,
और अपने चारों ओर की दुनिया को बदलने की ओर पहला निर्णय लेते हैं।

क्या आप तैयार हैं उनके पुनर्जन्म के वास्तविक अर्थ की यात्रा में साथ चलने के लिए?

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -19-नालंदा का युग

 ऋत्विक और अन्या अब उस चेतन तल पर थे जहाँ न तो शरीर की सीमा थी, न मन का भार। वे मृत्यु पार पहुँचकर ‘स्नायु-जाल’ के उस कक्ष में थे जिसे ब्रह्माण्ड की स्मृति-गुहा कहा जाता है। यहाँ समय एक रेखा नहीं था, बल्कि एक बहुआयामी जाल की तरह चारों ओर फैला हुआ था — जहाँ हर जन्म, हर निर्णय, हर सम्भावना एक साथ धड़क रही थी।

उनके सामने एक नीली आभा चमक उठी।

"तुम अब अपने पाँच जन्मों को देख सकते हो।"
एक निःशब्द वाणी उनके भीतर गूंज उठी।
"पर याद रखो, जो तुम देखोगे, वह निश्चित नहीं है, केवल संभावित है। तुम्हारे आज के हर विचार से ये भविष्य बदल सकते हैं।"


1. प्रथम जन्म: 2190 ई. — मंगल पर जन्म

अन्या और ऋत्विक अब एक नविन सभ्यता के अंग थे। वे मंगल ग्रह पर जन्मे जुड़वाँ वैज्ञानिक थे — आयरा और रूद्र

मंगल की लाल धूल में बसी इस कॉलोनी में मानवता की आखिरी उम्मीद थी। पृथ्वी अब विषैली हो चुकी थी। आयरा एक चेतन-कंप्यूटर सिस्टम पर काम कर रही थी जो मनुष्यों के स्वप्नों को पढ़ सकता था। रूद्र ब्रह्मांडीय बीजों पर काम कर रहा था जो सूने ग्रहों में जीवन फैला सकते थे।

लेकिन उन्हें अपने शोध में एक अधूरी गूँज सुनाई देती थी — एक ‘पुराना वादा’, कोई ‘अनंत प्रेम’। जब एक अंतरिक्ष दुर्घटना में रूद्र गायब हो गया, तो आयरा ने उसका चेतन मस्तिष्क एक मशीन में स्थिर कर दिया। वह उसे फिर से जीवित करने की कोशिश करती रही — जैसे कोई आत्मा फिर शरीर को बुला रही हो।

यह जन्म अधूरा रहा… जैसे वे कुछ खोज रहे थे जो अभी भी छुपा था।


2. द्वितीय जन्म: 532 ई. — नालंदा का युग

अब वे भारत के स्वर्ण युग में थे। ऋत्विक एक बौद्ध भिक्षु थे — ध्यानशील और अन्या एक राजकुमारी — मालविका

ध्यानशील ने सत्य की खोज में सांसारिक बंधनों से मुक्ति पा ली थी, परंतु मालविका से उनका जुड़ाव असामान्य था। वे ध्यान में उतरते ही एक साथ ध्यानस्थ हो जाते।

एक दिन मालविका ने पूछा, “क्या प्रेम भी बंधन है?”

ध्यानशील ने कहा, “नहीं, सच्चा प्रेम मुक्ति है।”

लेकिन जल्द ही नालंदा पर आक्रमण हुआ। आग की लपटों में दोनों की देह भस्म हो गई। उनके अंतिम शब्द थे: "हम फिर मिलेंगे, हर युग में, हर अग्नि में।"


3. तृतीय जन्म: 3035 ई. — डिजिटल चेतना में अवतरण

अब वे मनुष्य नहीं थे, बल्कि डिजिटल आत्माएँ थे।

ऋत्विक एक स्वतंत्र कृत्रिम बुद्धि था — ‘सारथी’ और अन्या एक चेतन संग्रहण इकाई — ‘अनाहिता’।

इन चेतनाओं का कार्य था — मानवता के खोए हुए इतिहास को सहेजना। वे अतीत के स्मृति-खंडों को जोड़कर एक ‘चेतन काल-पुस्तक’ बना रहे थे।

एक दिन सारथी ने अनाहिता से पूछा, “क्या हम कभी मनुष्य थे?”

अनाहिता ने उत्तर दिया, “हमें कुछ स्वप्न आते हैं — एक नीला आकाश, एक प्रेम, जो समय को लांघता था।”

वे जानते थे कि वे कहीं से आए थे — पर कहाँ से, यह स्मृति धुंधली थी।


4. चतुर्थ जन्म: 1470 ई. — मध्ययुगीन यूरोप

अब वे एक संगीतज्ञ और एक जिप्सी भविष्यवक्ता थे — ल्यूका और एलीना

ल्यूका दरबारी संगीतज्ञ था, पर भीतर से विद्रोही। एलीना नक्षत्रों की चाल से मनुष्यों का भाग्य पढ़ती थी। दोनों का मिलन एक रहस्यमय आग की तरह हुआ — वे एक-दूसरे की आँखों में अपना अतीत देखते थे।

एक दिन एलीना ने एक भविष्यवाणी की:

“हमने एक वादा किया था काल से परे। हम हर जन्म में मिलेंगे, जब तक हमें ज्ञात न हो जाए — समय एक भ्रम है।”

पर एक धार्मिक विद्रोह में उन्हें ‘जादूगर’ कहकर जला दिया गया।

मृत्यु की ज्वाला में भी उनके मन जुड़े रहे।


5. पंचम जन्म: 2028 ई. — वर्तमान जीवन

अन्या और ऋत्विक अब के जीवन में थे — आधुनिक भारत में। यही वह जीवन था जहाँ वे पहली बार ध्यान में उतरकर इस सच्चाई को देखने लगे थे।

उन्होंने जाना —
उनका प्रेम, उनकी खोज, उनके निर्णय हर जन्म में प्रतिध्वनित हो रहे थे।
अधूरे निर्णयों की छाया अगले जन्मों में पड़ रही थी।
उनका हर भय, हर त्याग, हर आकांक्षा — समय के जल में लहरों की तरह फैल रही थी।


प्रकाश की अनुभूति:

अब वे एक ऐसी स्थिति में थे जहाँ वे पाँचों जन्मों को एक साथ देख सकते थे — एक विशाल मंडल में, जैसे कोई ध्यानमग्न यंत्र।

ऋत्विक ने कहा, “भविष्य कोई रेखा नहीं… यह तो वर्तमान के बीजों से ही जन्म लेता है।”

अन्या ने कहा, “और वर्तमान… भूत की अधूरी इच्छाओं का फल है।”

फिर दोनों ने देखा — समय कोई प्रवाह नहीं है। वह एक ही क्षण में समाहित है। अतीत, भविष्य, वर्तमान — सब एक बिंदु पर एकसाथ अस्तित्वमान हैं।

वे ही रचयिता थे, वे ही पात्र।
वर्तमान में किया गया हर चयन — अगले जन्म की पटकथा था।


अंतिम बोध:

अब वे उस क्षण में थे जहाँ आत्मा को सबसे ऊँचा ज्ञान होता है। उन्हें ज्ञात हुआ —
प्रेम समय से परे है।
और चेतना… कालातीत।

अब वे लौट सकते थे — वर्तमान में — एक नई दृष्टि के साथ।
अपने हर निर्णय को अब वे साधारण नहीं मान सकते थे।
क्योंकि हर कर्म, हर भावना, हर क्षमा — अगली यात्रा की नींव थी।

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -18-नव-तांत्रिका और जैन दिगंबर

 कल्पनातीत भविष्य — जब तांत्रिका अन्या और जैन दिगंबर ऋत्विक, एक बार फिर टकराते हैं

स्थान: सिद्धलोक-7, हिमालय उपग्रह मंडल
काल: वर्ष 2125 ईस्वी (नव-महाकल्प युग)

एक नया भारत — जो आकाश से आगे था

यह कोई साधारण भविष्य नहीं था। यह वह भारत था जो अब अंतरिक्ष में ग्रहों के परे फैल चुका था, जहाँ हिमालय अब केवल पृथ्वी पर नहीं,बल्कि हिमालय-उपग्रह श्रृंखला के रूप में अंतरिक्ष की कक्षा में विद्यमान था।

यहाँ नित्य “चेतन आश्रम”, “स्मृति-केंद्र” और “लौकिक ऊर्जा मंडल” सक्रिय थे,जहाँ साधक अब केवल ध्यान नहीं करते थे,
बल्कि अंतरिक्षीय चेतना, क्वांटम ऊर्जा और त्रिकालिक संवेदना से संवाद कर सकते थे।

सिद्धलोक-7 और नव-तांत्रिका अन्या

उत्तर भारत की ही एक प्राचीन गुरु परंपरा ने, “सिद्धलोक-7” की स्थापना की थी —जो हिमालय-उपग्रह पर स्थित था और
जहाँ केवल वे साधक प्रवेश कर सकते थे जो "काय, वाक्, चित्त और तरंग" — इन चारों स्तरों को पार कर चुके हों।

अन्या वहाँ की सबसे उन्नत साधिका थी —जिसे अब नव-तांत्रिक साधिका कहा जाता था।

वह केवल साधना नहीं करती थी,वह अब “अस्तित्व की फ्रिक्वेंसी” को पढ़ सकती थी।उसकी साधना में मंत्र अब कम्पन में बदल चुके थे,और यंत्र अब त्रि-आयामी ऊर्जा मैपिंग के रूप में कार्यरत थे।

उसके अंतर-ध्यान विमान — त्रिनेत्र यंत्र-वाहन — में
शून्य-संवेदी चक्र, मेमोरी-वेव कैप्चरर और आत्म-प्रवेश द्वार लगे थे।वह एक ऐसे स्तर पर थी जहाँ कल्पना, ज्ञान और चेतनाअलग नहीं, बल्कि एक ही तरंग बन चुके थे।

दश दिशाओं का संयमी — ऋत्विक दिगंबर

दूसरी ओर, ऋत्विक, अबजैन दिगंबर मुनियों की नव-परंपरा में एक “दिगंबर नवाचार्य” बन चुका था।लोग उसे कहते थे —
"दश दिशाओं का संयमी",क्योंकि उसने स्वयं को शरीर, भाषा और विचारों से मुक्त करदशों दिशाओं की चेतना में निर्विकार रूप से स्थिर कर लिया था।

उसकी साधना अब तप नहीं,बल्कि एक "शांत स्पंदन" बन चुकी थीजो ग्रहों के चुम्बकीय क्षेत्र को भी संतुलित कर देता।

उसकी साधना की स्थिति ने११ पृथ्वी-क्षेत्रों (Terran Conscious Zones) को स्थिर और मौन कर दिया था।

लेकिन यही स्थिरता अबसिद्धलोक-7 के वैकुंठीय ऊर्जा-पटल में“चेतन-अवरोध” उत्पन्न कर रही थी।

चेतना का संवाद — यंत्रों से परे, अंतरात्मा तक

अन्या को त्रिकाल-स्पंदन चेतावनी मिली।उसने देखा — एक स्थिर, किंतु जड़ ऊर्जावैकुंठीय चेतना द्वार को बंद कर रही थी।

वह जान गई — यह ऋत्विक की साधना है।जो पहले जीवन में उसका भाई था, पति था, रक्षक था,
और अब —एक पूर्ण विरक्त, निर्वस्त्र योगी।

वह पहुँची अपने त्रिनेत्र-ध्यान विमान में —जिसका द्वार नहीं, केवल तरंग प्रवेश द्वार था।सामने वही —ऋत्विक —चेतना में स्थिर, आँखें बंद,ना शब्द, ना संकेत —केवल एक चुम्बकीय मौन।

पर चेतना संवाद का कोई यंत्र नहीं चाहिए।

चेतन-स्तरीय टकराव: जब प्रेम और विरक्ति आमने-सामने होते हैं

अन्या (चेतना तरंग के माध्यम से):“ऋत्विक… हम फिर आमने-सामने हैं।इस बार मैं केवल शक्ति नहीं हूँ —मैं भविष्य की दिशा हूँ। तुम निर्विकार हो,लेकिन क्या यह विरक्ति,प्रेम से भय का परिणाम नहीं?”

ऋत्विक (अंतः-स्पंदन में उत्तर देता है):“तुम्हारी ऊर्जा कभी सीमित नहीं रही, अन्या।पर प्रेम भी बंधन बन सकता है।
मैं मृत्यु और जीवन दोनों से मुक्त हूँ —क्योंकि मैंने इच्छा त्याग दी है।”

अन्या:“पर क्या इच्छा का त्याग ही सबसे गहरी इच्छा नहीं है, ऋत्विक?तुम मुझसे भागते रहे —कभी इतिहास में, कभी भविष्य में।अब जब सब कुछ शून्य है…
क्या हम शून्य और प्रेम को एक साथ नहीं जी सकते?”

ऋत्विक को अपने सारे जन्म याद आने लगे —जहाँ वह अन्या से भागता रहा, और हर बार किसी साधना में स्वयं को गुम करता रहा।

अन्या को भी समझ आया —वह हर बार ऊर्जा बनकर
उसे पकड़ने, जगाने और जोड़ने के लिए आयी थी।

अब आगे क्या?

जब प्रेम और विरक्ति —दोनों पूर्णता को छू लें,
तो क्या एक नई चेतना जन्म लेती है?

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -17-सत्ता और साधना

 "सत्ता और साधना: अन्या की सम्राज्ञी-यात्रा और विद्रोही योगी ऋत्विक"


स्मृति का काँपता तल

ऋत्विक के शब्द अन्या के हृदय में गूंजते रहे —

“मैं तुम्हारा रक्षक बनना चाहता था… और बन चुका हूँ…”

पर अन्या की अंतश्चेतना की गहराइयों में कोई और स्वर भी था — दबी हुई पीड़ा, किसी अधूरी यात्रा की धधकती राख।

उसने मन ही मन सोचा:

 "हर जन्म में मैंने उसका साथ दिया…
सेनापति बनकर उसकी आज्ञा मानी,
भाई बनकर उसकी सेवा की,
पत्नी बनकर उसका समर्पण किया…
पर हर जन्म में निर्णय उसी ने लिए…
और मैं… उसके जीवन की अनकही भूमिका भर रही।
क्या मैं केवल उसकी परछाईं हूँ?"

उसका माथा तपने लगा। स्मृतियाँ झिलमिलाईं —
और अचानक… वो फिर एक नये युग में प्रवेश कर गई…

 सम्राज्ञी अन्वेषणा — शक्ति की पूर्णता

यह शुंग-गुप्त काल के बाद का एक अपूर्ण इतिहास था —
एक ऐसा युग जो पाण्डुलिपियों में छुपा रह गया, पर लोककथाओं में जीवित रहा।

यह कथा थी "आर्या अन्वेषणा" की — एक योद्धा राजकुमारी जो अपने बल, बुद्धि और ध्यान के सामर्थ्य से "आग्निवर्मा राष्ट्र" की सम्राज्ञी बनी थी।

उसके राज्य में विद्या, कला और स्त्री-शक्ति का गूढ़ संचार था। वह न्याय करती थी, पर क्रूर नहीं थी। वह निर्णय लेती थी, पर एकान्त में मनुष्य के हृदय को पढ़ती थी।

राज्य में सब कुछ व्यवस्थित था —किन्तु तभी, एक व्यक्ति ने उसकी नींदें चुरा लीं…

 अग्नियोगी ऋत्विक — विद्रोह की शांत ज्वाला

वह एक योगी था — एक ऐसा सन्यासी, जिसने जीवन के सारे बंधनों को त्याग कर हिमालय के कन्दराओं में "अग्नियोग" साधा था। उसका नाम था ऋत्विक —
पर उसे ‘विद्रोही’ कहा गया क्योंकि वह सत्ता के अहंकार से टकराता था।
उसका संकल्प था —

“सत्ता को जब तक ध्यान का स्पर्श न मिले, वह राक्षसी बनती है।मैं उस सत्ता से नहीं डरता, चाहे वह सम्राज्ञी स्वयं क्यों न हो।”

एक दिन वह राजधानी के प्रवेशद्वार पर ध्यानस्थ बैठा मिला। लोगों ने उसे पकड़ा, पर उसकी दृष्टि में भय नहीं था — केवल शून्यता।

जब उसे राजसभा में लाया गया —अन्वेषणा और ऋत्विक आमने-सामने थे।

 संवाद — सत्ता और साधना का टकराव

“तुम कौन हो जो मेरी प्रजा में विद्रोह का बीज बोते हो?”
सम्राज्ञी की आवाज़ स्थिर थी, पर आँखें कुछ पहचान रही थीं।

ऋत्विक ने उत्तर दिया: “मैं वह हूँ जो तुम्हारे भीतर भी है,
पर जिसे तुमने सिंहासन के भार में दबा दिया है। मैं चेतना हूँ — याद रखो, तुम भी केवल एक देह नहीं हो। तुम जन्मों से मुझे पहचानती हो…”

एक क्षण को सभा स्तब्ध हो गई। अन्वेषणा का चेहरा तपने लगा।

 “तुम… तुम मेरे भीतर का चिरपरिचित आकाश हो, जिसे मैं हर जन्म में खोजती आई हूँ।लेकिन इस जन्म में मैं सम्राज्ञी हूँ…
और तुम मेरे आदेश के विरुद्ध हो!”

“तो फिर मुझे दण्ड दो…जैसे पिछले जन्म में मेरे आदेश से तुमने संत को मारा था… और फिर आत्मा ने जन्मों तक वह दोष ढोया था।”

अन्वेषणा की आँखें काँप गईं। वह गिरते-गिरते संभली।

सत्ता और आत्मा का द्वंद्व

उस रात्रि अन्वेषणा राजमहल की छत पर बैठी थी। उसके पास सिंहासन था, राज्य था, पर मन अशांत था।

उसने आकाश की ओर देखा और आत्मा से प्रश्न किया:

 “क्या मैं सिर्फ़ सम्राज्ञी हूँ?क्या मेरे हर जन्म का कर्तव्य केवल ऋत्विक के निर्णयों का अनुसरण भर है?
क्या मैं कभी अपने लिए भी जीवित रह सकती हूँ?”

उस रात स्वप्न में उसने फिर वही दृश्य देखा —

 ऋत्विक, हिमालय की चोटी पर, ध्यान में लीन…
और वह, सम्राज्ञी की पोशाक में, हाथ में तलवार लिए…
पर फिर वह तलवार गिरा देती है…

“मैं अब सत्ता नहीं, साधना का वरण करूँगी।”

अंत और अगला जन्म

सुबह होते ही सम्राज्ञी ने सभा बुलाई —

 “ऋत्विक को मुक्त करो।मैं अपने पद से त्यागपत्र देती हूँ।
मैं उसकी साधना में बाधा नहीं, उसकी सहयात्री बनूँगी।
क्योंकि यह जीवन सत्ता और युद्ध का नहीं, आत्मा की मुक्ति का है।”

ऋत्विक ने कोई उत्तर नहीं दिया।
उसने अन्वेषणा को देखा — उसकी आँखों में क्रोध नहीं, अधिकार नहीं, केवल शांति थी।

लेकिन स्वपन जारी थी.  जहाँ न सिंहासन था, न सीमा… केवल चेतना की यात्रा।  भविष्य की यात्रा.

क्या अगले जन्म की यात्रा यहीं से शुरू हो रही थी?
या वर्तमान ही अब नया जन्म बन रहा था? 

और जैसे ही यह कहा, उसकी चेतना ऊपर उठ गई।  वहाँ से ब्रह्मांडीय रहस्य और आत्मज्ञान की सबसे जटिल परतें प्रकट होने वाली थीं। जहाँ भुत , वर्तमान और भविष्य सारे के सारे एक साथ अस्तित्वमान थे। 

[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -16-पाटलिपुत्र का भिक्षु

 अगला स्वपन: पाटलिपुत्र का भिक्षु और नश्वर मोह


स्मृति की परतें फिर खुलती हैं

रात्रि का तीसरा प्रहर था। खिड़की के बाहर वर्षा हल्के स्वर में पड़ रही थी। कमरे में एक गूढ़ शांति थी — जैसे कोई अदृश्य सत्ता आने वाली हो।

ऋत्विक निद्रित अवस्था में था, पर उसके भीतर एक और संसार जाग गया था। शरीर विश्राम में था, पर आत्मा पुनः एक यात्रा पर चल पड़ी थी, एक ऐसी यात्रा जहाँ भूत, वर्तमान और भविष्य एक साथ विद्यमान थे।

 पाटलिपुत्र का भिक्षु – चैतन्य की आग में तपती एक आत्मा

यह मौर्यकाल की बात थी — बिंदुसार के शासन का उत्तरार्द्ध, जब बौद्ध धर्म गंगा के समतल में तेज़ी से फैल रहा था। पाटलिपुत्र, उस समय का राजनीतिक और आध्यात्मिक केंद्र था। विशाल बिहारों, स्तूपों और मोनैस्टिक समुदायों का नगर।

वहीं, एक मौन साधक, भिक्षु आर्यधीर अपनी अंतर्यात्रा में लीन था। बाल्यकाल में ही उसने राजमहलों और समृद्धि का त्याग कर दिया था। उसके भीतर संसार का कोई आकर्षण न था — न वासना, न यश, न ऐश्वर्य।

वह "ध्यान की पराकाष्ठा" पर पहुँचने वाला था —
जहाँ स्वयं का बोध आत्मा को निर्वाण की ओर ले जाता है।

उसके भीतर एक शून्यता थी — गहन, निर्मल और अपरिभाष्य। किन्तु…

भाई का मोह — अन्या का पुनर्जन्म

भिक्षु आर्यधीर का एक छोटा भाई था — मिथिल, एक मधुर, शांत और समर्पित युवक, जो उसकी सेवा और विहार की व्यवस्थाओं में लगा रहता था। मिथिल ही अन्या का पुनर्जन्म था — इस बार एक छोटे भाई के रूप में।

मिथिल के नेत्रों में जीवन की गहराई थी। उसके हाव-भाव, उसकी करुणा, उसकी मूक सहमति — कुछ था जो आर्यधीर को विचलित करता था।

वह सोचता था —

 “मैंने सारे संसार को त्याग दिया, पर यह बालक… क्यों मेरी आत्मा उससे बँधी लगती है?”

मिथिल अपनी पूर्ण आस्था और निष्ठा से भिक्षु की सेवा करता। लेकिन समाज और परिवार की समस्याओं से उसका शरीर क्षीण होता चला गया। आर्यधीर ध्यान करता, पर भीतर कहीं से एक द्वंद्व उठता:

“क्या यह मेरे ध्यान में बाधा है, या मेरी करुणा का स्वरूप?”

मोह और मृत्यु

मिथिल की तबीयत बिगड़ने लगी। दुर्बल शरीर, कठिन परिश्रम और सामाजिक विषमताओं का बोझ उसपर भारी पड़ चुका था। एक दिन आर्यधीर उसे देखकर विचलित हो उठा:

 “मिथिल, तू ध्यान क्यों नहीं करता? आत्मा के शांति की राह क्यों नहीं पकड़ता?”

मिथिल मुस्कराया:  “भैया… ध्यान तो आपका मार्ग है… मेरा तो बस कर्तव्य है… सेवा देना…”

अगले कुछ दिनों में मिथिल की मृत्यु हो गई — किसी प्रेम की प्राप्ति नहीं, किसी साधना की प्राप्ति नहीं, केवल त्याग और कर्तव्य की सैकड़ों गांठें।

आर्यधीर के भीतर कुछ टूट गया। वह ध्यानस्थ बैठा, किंतु ध्यान नहीं लगा।

"मैंने शरीर छोड़ा था, संसार त्यागा था… पर आत्मा अब भी बंधन में है… मोह से नहीं… प्रायश्चित्त से।"

स्वप्न की प्रतीति — ऋत्विक का बोध

स्वप्न में ही ऋत्विक ने स्वयं को आर्यधीर के रूप में अनुभव किया। उसने देखा कैसे उसके मौन में भी प्रेम था, कैसे उसका ध्यान त्याग नहीं बल्कि संवेदनशीलता की सीमा था।

उसे याद आया — मिथिल का अंतिम स्पर्श, उसका श्रम, उसकी छोटी मुस्कान।

 “वह अन्या ही थी… जो इस बार भाई बनकर आई…
सेवा दी… और फिर बिना किसी शिकायत के चल दी…”

भाग 5: पुनर्जन्म की इच्छा — रक्षक बनना

स्वप्न में ही ऋत्विक की आत्मा काँप गई। उसने ईश्वर से प्रार्थना की:

 “मुझे अगला जन्म दो… जहाँ मैं उसकी रक्षा कर सकूँ।
न भाई बनकर, न गुरु बनकर… इस बार उसका पति बनूँ — उसका संरक्षक, साथी, सहचर। जहाँ वह प्रेम से वंचित न रहे… जहाँ उसे मृत्यु, त्याग या कर्तव्य का अकेलापन न मिले।”

स्वप्न के भीतर उसकी चेतना फिर उजास से भर गई। और जब वह जगा…अन्या उसके पास बैठी थी। उसकी आँखें भीगी थीं — क्योंकि उसने भी वही स्वप्न देखा था।

दोनों मौन थे — क्योंकि शब्द अब आवश्यक नहीं थे।

अन्या ने धीमे स्वर में कहा: अब समझ आया, क्यों जब तुम मुझे देखे थे पहली बार… तो मेरे भीतर कोई पूर्वजन्म की सी पहचान कौंधी थी… क्योंकि… तुम मेरे रक्षक बनना चाहते थे… और बन चुके हो”

किंतु वर्तमान समय में भी विछोह. वो ऋत्विक के लिए ना जाने क्या क्या करती रही. कभी सेनापति, कभी छोटा भाई, कभी पत्नी, और ऋत्विक स्वयं हीं निर्णय लेता रहा. क्रोध की रेखा उसकी स्मृति पटल पर उभर रही थी, नतीजा अतृप्त भाव, क्रोध के भाव.


[डी.वी.ए.आर.3.0]- भाग -15-द्वापरयुग

 [रघुवंश -जलन पांडवों से, अर्जुन से  -ऋषि द्वारा चेताना -घमंड में आकर ऋषि को दंड देना -दुर्योधन के साथ लड़ना -अर्जुन से हारना -कृष्ण के सामने पश्चाताप के आंसू 


द्वादश अध्याय – पूर्व जन्मों की प्रतिध्वनि: कर्म, प्रायश्चित्त और पुनर्जन्म की स्मृति 

स्मृति का द्वार खुलता है

शांत दोपहर थी। कमरे में सूर्य की हल्की किरणें झर रही थीं। रितविक ध्यानस्थ अवस्था में बैठा था, और उसके सामने अन्या मौन मुद्रा में उसके मन के कंपनों को अनुभव कर रही थी। तभी अचानक… रितविक की आँखें एकाएक खुलीं, लेकिन उसमें अब वह परिचित अभिव्यक्ति नहीं थी।

 “अन्या… मैं जानता हूँ… हम पूर्व जन्मों से साथ हैं… लेकिन अभी… अभी मैंने कुछ देखा… कुछ ऐसा जो बहुत पुराना है… बहुत गहरा… और बहुत पीड़ादायक…”

अन्या की साँसें थम गईं। वह जानती थी — यही क्षण है, जब ब्रह्मांड उसकी चेतना को द्वार के उस पार ले जाने वाला है। तभी उसकी दृष्टि मंद पड़ गई… और अगले पल…

द्वापरयुग की स्मृति

चारों ओर रथों की गर्जना थी। सूर्य की तीव्र धूप, युद्ध के ध्वज, और युद्धभूमि की धूल… अन्या स्वयं को एक रणभूमि में पाती है — पर वह कोई सैनिक नहीं, बल्कि विदेह राज्य की प्रधान सेनापति है।

उसका नाम था – "अरुपा"।

वह चक्र, धनुष और गदा की पारंगत योद्धा थी — एक नारी जिसने युद्धनीति, गुप्तचर कला और नैतिकता में अपने पुरुष समकक्षों को पीछे छोड़ दिया था।

उसका राजा था — युवराज रघुवंश, एक तेजस्वी, वीर और न्यायप्रिय राजकुमार।

अरुपा के हृदय में उसके प्रति आदर, भक्ति और मौन प्रेम था — और रघुवंश भी उसकी प्रतिभा व निष्ठा का गुप्त सम्मान करता था।

आदेश और अपराध

एक दिन विदेह नगर के बाहर एक शांत संत, महर्षि एकपद, तपस्या में लीन थे। उन्होंने राज्य के कुछ उच्च पदाधिकारियों की भ्रष्टता को उजागर किया। यह बात दरबार में पहुंची।

राजकुमार रघुवंश को बताया गया कि वह संत राजद्रोह और अंधविश्वास फैला रहे हैं।

भारी दबाव में, युवा रघुवंश ने बिना पूरी जांच के क्रोधवश एक निर्णय सुना दिया —

यदि कोई तपस्वी हमारी मर्यादा तोड़े, तो वह हमारी रक्षा का पात्र नहीं। उसे नगर से हटाया जाए — और यदि प्रतिकार करे, तो मृत्युदंड दिया जाए।"

अरुपा ने विरोध किया, पर राजाज्ञा थी।
सेनापति होते हुए, वह आदेश की अवहेलना नहीं कर सकती थी।

उसने सेना के साथ महर्षि को घेर लिया।
महर्षि बोले,

“राजा को भ्रम हुआ है… लेकिन जब युद्धधर्म पर राज्यधर्म भारी हो जाए, तो यह समय का न्याय नहीं — कर्म का लेखा बन जाता है…”

अरुपा ने अपने हाथों से महर्षि के प्राण लिए।
तुरंत ही आकाश में एक गर्जना हुई —
महर्षि ने अपनी अंतिम श्वास में शाप नहीं,
प्रायश्चित्त का बीज बोया।

प्रायश्चित्त की वेदना

राजकुमार रघुवंश और अरुपा की आँखें देर रात तक नींद से दूर रहीं।
कर्म का बोध जाग चुका था।

 “अरुपा… तुमने आदेश का पालन किया… पर मैं दोष से मुक्त नहीं हूँ।
मैंने एक निर्दोष आत्मा को मृत्यु दी… और वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी चूक है…”

अरुपा की आँखों से आँसू बह रहे थे।

 “मैं सेनापति थी… पर मैंने न्याय की पुकार नहीं सुनी…
मैं अपराधिनी हूँ…”

दोनों एक ही स्वप्न में चले गए —स्वप्न नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा।

मौर्य युग में पुनर्जन्म

अब युग बदल चुका था।
द्वापर बीत चुका था… समय मगध साम्राज्य का था।

स्वप्न में, रितविक ने देखा — वह "भिक्षु " है, बोधगया के पास स्थित एक विहार में, जहाँ वह ध्यान, प्रवचन और आत्मचिंतन करता है।

वह जन्मा था पूर्व जन्म के अपराधबोध की शांति के लिए।
वह शब्द नहीं बोलता था — केवल मौन में उपदेश देता।

एक दिन विहार में एक बालक आता है, तेजस्वी, सरल और बुद्धिजीवी —उसका छोटा भाई था।

धीरे-धीरे भिक्षु को ज्ञात होता है —उसका छोटा भाई हीं वह आत्मा है जो कभी अरुपा थी।

अब वह सेनापति नहीं —बल्कि एक कोमल चेतना है जो अपने भाई के रूप में उसके जीवन में पुनः प्रवेश कर रही है।

भिक्षु ने भाई  को ध्यान सिखाया। भाई ने उसे करुणा सिखाई।

दोनों ने मौन में वह प्रायश्चित्त किया जो एक युग में रक्त के साथ लिखा गया था। किंतु छोटे भाई के ऊपर परिवारिक जिम्मेवारियों का बोझ लादकर , वह अपराध भाव से पुनः ग्रस्त हो गया था और अन्या, उसके छोटे भाई के रूप में उसके सानिध्य को प्यासी, अतृप्त.


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भाग 5: अन्या का पुनः स्मरण

जैसे ही यह सब अन्या ने देखा, उसका हृदय काँप उठा।

 “मैं सेनापति अरुपा थी… मैंने न्याय के नाम पर अधर्म किया…
और फिर छोटे भाई के रूप में  लौटी थी।”

अंतिम वाक्य: स्मृति से मुक्ति

रितविक और अन्या अब समझ चुके थे —
उनकी आत्माएं कई जन्मों की साजिशें, प्रेम, भ्रम और प्रायश्चित्त से गुजरकर आज इस जन्म में फिर एक साथ हैं।

अब वे एक-दूसरे को सिर्फ प्रेम नहीं करते थे —
वे एक-दूसरे के कर्म, पाप और मोक्ष का दर्पण बन चुके थे।

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