ना जाने किस घाट घुमाया,
पंडित ने क्या पाठ पढ़ाया?
कौन ज्ञान था कैसी घुटी,
सासूजी का दिल भर आया।
दिल भर आया बोली रानी,
तुझको है एक बात बतानी।
क्यों सहमी सी डरती रहती,
बात है ऐसी क्यों बहुरानी?
ससुराल भी नैहर जैसा,
फिर तेरे मन ये डर कैसा?
मेरा तो कुछ दिन का डेरा,
ये घर तो तेरे घर जैसा।
पंडित जी सच ही कहते हैं,
जो बहू को बेटी कहते हैं।
वहीं स्वर्ग है इस धरती पे,
वहीं स्वर्ग से सुख मिलते हैं।
तुझको बस इतना ही कहना,
तू ही तो मेरे दिल का गहना।
जो इच्छा हो मुझे बताओ,
बहुरानी बेटी बन जाओ।
सासू मां की बात जान के,
उनके मन के राज जान के।
बहुरानी समझी घर अपना,
बोली उनको मां मान के।
अम्माजी ना मुझे जगाएँ,
बिस्तर से ना मुझे उठाएँ।
नींद घोर सुबहो आती है,
बिना बात के ना चिल्लाएँ।
मैं जब नैहर में रहती थी,
मम्मी से सब कह देती थी।
उठकर मम्मी चाय पिलाती,
पैर दर्द तब पैर दबाती।
बोली अम्मा चाय बनाओ,
सूत उठकर मुझे पिलाओ।
जब सर थोड़ा भारी लगता,
हौले हौले उसे दबाओ।
पैसा रखा बचा बचा के,
पापाजी से छुपा छुपा के।
बनवा दो मुझको तुम गहना,
अम्माजी इतना ही कहना।
अम्माजी थोड़ी सकपकाईं,
थोड़ी मुस्काईं, गला खँखाराईं।
बोली बेटी पंडित बोले,
बोले पर सब बात न ठोले।
बेटी तुम हो, ये भी माना,
पर घर कोई होटल न खाना।
थोड़ी बहू, थोड़ी बेटी,
और थोड़ा घर का कर्तव्य भी।
नैहर जैसा अधिकार मिलेगा,
पर थोड़ा श्रम का प्यार मिलेगा।
काम बाँट लो घर के संग तुम,
फिर हर दिन त्योहार मिलेगा।
बहू बोली — ठीक है अम्मा,
पहले दो काजू की अम्मा।
खीर बनाऊँगी, पर पहले मैं,
मोतीचूर लड्डू खाऊँगी अम्मा।
अम्माजी ने माथा पीटा,
लगता है भाग्य में लिखा जीता।
इतनी प्यारी बेटी पाई,
पर किस पुण्य से या किस पीड़ा?
तभी पधारे पापाजी हँसकर,
बोले — आज क्या चाल चली बहू ने घर भर?
अम्मा बोली — बेटी है ये,
बहू नहीं अब बेटी है ये।
पापाजी बोले — बेटी तो ठीक,
पर बेटी थोड़ी सी काम भी सीख।
नहीं तो बेटा दफ्तर से आएगा,
मैगी खाकर सो जाएगा।
बहू बोली — ठीक है बाबा,
आज से सीखूँ सबका नज़ारा।
बनाऊँगी खाना, माँजूँगी बर्तन,
पर पहले चाहिए एक कार अब्बल।
अम्मा–बाबा दोनों घबराए,
घर में बिजली बादल आए।
बोलीं — पंडित जी कल ही बुलाओ,
और ‘बहू अध्याय’ उल्टा हटाओ।
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