जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई… और मैं बड़ा, मैं बड़ा हो गया
कल तक तो था मैं अपने सपनों की चौखट पर,
उन्हीं सपनों की रोशनी में पलता, खिलता, मुस्कुराता था
पर आज वही सपने जैसे दूर कहीं परछाईं बन गए,
नज़र के सामने होते हुए भी हाथों में नहीं आते
ना जाने कैसे वक़्त इतना तेज़ चला… किसी तूफ़ान सा बहा
इतनी जल्दी मैं कैसे बूढ़ा हो गया…
ना जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई…
कोरस — 1
कल तक जो मैं था — वो अब कहाँ है, कहाँ खो गया है
आईनों में मेरा अक्स भी जैसे मुझसे नज़रें चुरा रहा है
रिश्तों का घर दिल में अब भी वैसे ही बसता है,
बस रिश्ते दूर हो गए ,
पुराने रिश्ते नए रिश्तों के सामने मजबूर हो गए
इतनी बड़ी ज़िंदगी… मैं जानता ही क्या हूँ
अपने ही किस्सों को पहचानता ही क्या हूँ
जाने कब कैसे मै ऊँचा जरा हो गया
अपने छोटे हो गए मै बड़ा हो गया
ना जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई
और मैं बड़ा…बड़ा हो गया…
अंतर — 2
कभी बच्चों की हँसी में था — मेरा घर, मेरी दुनिया, मेरी धड़कन
वो भागते थे मेरी ओर… जैसे मैं ही उनकी पूरी दुनिया था
आज वही बच्चे मेरे आईने में बन गए हैं मेरी उम्र के सवाल
न जाने कब उनके बचपन की धूप — मेरी झुर्रियों की शाम बन गई
वो नन्हे हाथ जो मेरी ऊँगली थामे थे डरे हुए,
आज मेरी थकी साँसों को थामे हैं सहारा बनकर
वक़्त की चाल में कुछ ऐसा हुआ…
हर लम्हा जैसे अपनी आवाज़ खोकर खामोश हो गया
इतनी जल्दी मैं कैसे बूढ़ा हो गया…
ना जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई…
कोरस — 2
एक वक़्त था — मैं कहानी सुनाता था
अब मैं ही एक कहानी बनकर रह गया हूँ
जिन गलियों में मैंने उन्हें चलना सिखाया,
आज वो वही गलियाँ मुझे पकड़कर आगे बढ़ा रही हैं
और मैं सोचता रह जाता हूँ —
इतनी बड़ी ज़िंदगी में मैंने समझा ही क्या है
अपने ही सपनों की शक्ल पहचानता ही क्या हूँ
ना जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई…
और मैं बड़ा… मैं बड़ा हो गया…
ब्रिज — (सबसे भावनात्मक हिस्सा)
कभी ऐसा लगता है —
काश वक़्त थोड़ा रुक जाए…
काश एक शाम फिर वही बचपन लौट आए…
वो शोर, वो क़हकहे, वो खेल, वो शरारतें…
काश एक बार फिर मैं भी बच्चा बन जाऊँ
बिना किसी मुक़ाम के… बिना किसी सबूत के
बस जिऊँ…
जैसे पहले जीता था…
अंतर — 3 (भावनात्मक क्लाइमैक्स)
पर वक़्त कहता है — नहीं रुकना है, चलो और थोड़ा
आँखें नम होती हैं, पर क़दम फिर भी आगे बढ़ते हैं
ना जाने कैसे ये सफ़र ढलता गया,
और मैं बस चलता गया… चलता गया…
हर पड़ाव पर कोई अपना पीछे छूटता गया
और मैं अपने ही किस्सों की भीड़ में कहीं खोता गया
ना जाने कैसे ज़िंदगी छोटी हो गई…
और मैं बड़ा…
मैं बड़ा हो गया…
आउटरो (आँसू भरा अंत)
कभी मन में आता है —
अगर ये ज़िंदगी इतनी छोटी थी,
तो चाहतें इतनी बड़ी क्यों दी गईं?
अगर रुकना नहीं था,
तो दिलों को जोड़ने का हुनर क्यों सिखाया गया?
शायद यही ज़िंदगी है…
छोटी, पर महसूसों के बोझ से भारी
और मैं बस अनुभवों से बड़ा हो गया
और खुद छोटा हो गया ,छोटा हो गया …
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