Monday, June 30, 2025

भरके अचरज गधे स्वामी

भरके अचरज गधे स्वामी,
पहुँचे अपने घर के नानी।
ईश्वर की कैसी नादानी,
मुझको होती है हैरानी।

नानी मुझको ये सिखला दो,
उलझन मेरी ये सुलझा दो।
तेरी मेरी पूँछे पीछे,
इनकी ऐसी क्यूँ बतला दो ?

चेहरे पे छोटी-सी पूछें,
मर्दों की ये दाढ़ी मूँछ ?
चोटी वाली दीदी देखो,
सर के पीछे लम्बी पूँछ ?

सुनकर नाती की ये बातें ,
बोली नानी बातें प्यारी। 
बोली कहते हो तुम कुछ भी ,
कुछ है सच्ची कुछ है न्यारी।

उनकी मूँछें शान ना  समझो,
चोटी रूप प्रमाण ना समझो।
तेरी पूँछ व्यर्थ नहीं है,
मख्खी हीं प्रमाण है समझो।

सबके अपने अपने जादू ,
सबकी अपनी अपनी भाषा ।
अपने अपने करतब सबके ,
सबकी अपनी खेल तमाशा ।

तो सुन लो  ए मेरे प्यारे ,
ना कर तू निज  मन को भारी।
पूँछ हिला मख्खी को भगाओ ,
और रेंकना योग है सारी !
 



Friday, June 27, 2025

पिंजरा और परवाज़

एक सुंदर बाग में मोर और मैना रहते थे। उनकी दोस्ती मशहूर थी—मोर नाचता, मैना गाता, और बाग़ में जैसे जादू फैल जाता। खासकर बरसात में, जब बादल छाते, तो मोर पंख फैलाकर झूमता, और मैना अपनी चहचहाहट से हवा को संगीतमय बना देती।

एक दिन बाग़ के मालिक का छोटा बेटा वहां आया। जब उसने मोर और मैना की जुगलबंदी देखी, तो आनंद से भर गया। लेकिन मोर केवल बारिश में नाचता था, इसलिए बच्चे को अक्सर निराशा होती। तब मैना ने बच्चे की आवाज़ की नकल करनी शुरू की। बच्चा ख़ुश हो गया—वह बार-बार बुलाता, और मैना हूबहू उसकी बोली दोहराती।

धीरे-धीरे बच्चा मैना के करीब होता गया। मोर पीछे छूट गया। उसने मैना को चेताया—"अपनी आवाज़ मत खो, आदमी की नकल करना आत्मा की आवाज़ को दबाना है।" मगर मैना सिर्फ बच्चे की खुशी देख पा रहा था।

समय गुज़रा। बच्चा बड़ा हुआ और पढ़ाई के लिए शहर गया। वह मैना को भी साथ ले गया—मगर पिंजरे में। अब मैना उसकी बोली दोहराता रहा, पर खुला आकाश, मोर की संगत और स्वतंत्र उड़ान—सब पीछे छूट गया।

शहर में जीवन आरामदायक था। बिना मेहनत के भोजन, सुरक्षा, और मालिक की प्रशंसा मिलती थी। धीरे-धीरे मैना को पिंजरे से प्यार हो गया।उसे अब खुले आसमान से डर लगने लगा।

उधर मोर ने भी अकेले रहना सीख लिया। कभी दोस्त की याद में पंख भीगे, पर समय ने उसे फिर बहाल कर दिया।

कई वर्षों बाद बच्चा पढ़ाई पूरी कर घर लौटा और मैना को भी साथ लाया। मोर ने अपनी पुरानी मित्र की आवाज़ सुनी तो दौड़ा चला आया। रात हुई तो चुपचाप पिंजरे के पास पहुंचा।

मैना की आँखें भर आईं। मोर ने धीरे से कहा—“चलो दोस्त, फिर उड़ते हैं। आसमान अब भी हमारा इंतज़ार करता है।”

मैना चुप रहा। कुछ देर सोचकर उसने पिंजरे का दरवाज़ा फिर से बंद कर दिया।

“अब उड़ने की आदत नहीं रही,” वह बोला।“यहां सब कुछ है—भोजन, सुरक्षा, प्यार… और ज़्यादा क्या चाहिए?”

मोर मुस्कराया, मगर आँखें नम थीं।“अब तुम भी आदमी जैसे हो गए हो… जो आज़ादी से डरता है और जो साथ रहता है, उसे भी पिंजरे में रखना चाहता है।”

मोर लौट गया—अकेला, मगर आज़ाद।मैना रह गया—सुरक्षित, मगर सीमित।

अंगार अंगूठे का

जब भी कोई महाभारत की बात करता है, तो सामने आते हैं अर्जुन की अचूक तीरंदाजी, भीम की गदा, भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा, गुरु द्रोण की विद्वता, कर्ण की दानवीरता, शिशुपाल की हठधर्मिता और अश्वत्थामा की अमरता। इन महान योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम की गाथाएं जन-जन को ज्ञात हैं। हर किसी को इनके जीवन, युद्ध और मृत्यु के विवरण मिल जाते हैं। परंतु इन महारथियों के बीच एक ऐसा भी योद्धा था, जिसे श्रीकृष्ण ने स्वयं कर्ण, जरासंध और शिशुपाल के समकक्ष माना—फिर भी उसकी वीरता महाभारत के बस कुछ श्लोकों में सिमट कर रह गई। वो महायोद्धा था—निषादराज एकलव्य

कर्ण को यदि समाज में उचित सम्मान नहीं मिला, तो उसे उसकी पीड़ा का प्रतिकार करने के अनेक अवसर मिले। भीष्म और द्रोण की तरह कर्ण को भी दुर्योधन ने कौरव सेना का सेनापति बनाया। यहां तक कि महर्षि वेदव्यास ने कर्ण के नाम पर महाभारत का एक पूरा अध्याय “कर्ण पर्व” तक समर्पित किया। किंतु एकलव्य के हिस्से में न कोई पर्व आया, न कोई महायुद्ध में स्थान। मिला तो केवल उपेक्षा—इतनी कि जिसे श्रीकृष्ण स्वयं देवताओं से भी अजेय बताते हैं, उसके पराक्रम की गाथा बस चार श्लोकों में समेट दी गई।

महाभारत के द्रोणपर्व के घटोत्कचवध पर्व, अध्याय 181 में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं—आपने पांडवों के हित के लिए कौन-कौन से कार्य किए? इसके उत्तर में श्रीकृष्ण बताते हैं कि यदि कर्ण, जरासंध, शिशुपाल और निषादपुत्र एकलव्य को पूर्व में न मारा गया होता, तो वे कौरवों का साथ देकर पांडवों के लिए अपराजेय सिद्ध होते। श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं—ये चारों मिलकर पृथ्वी को जीत सकते थे।

जरासंध के वध का प्रसंग रोचक है। श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के साथ युद्ध में जरासंध की गदा टूट चुकी थी, जो उसे लगभग अपराजेय बनाती थी। इस गदाहीन जरासंध को ही भीम युद्ध में परास्त कर पाए—वह भी श्रीकृष्ण की युद्धनीति से।

इसके बाद आता है एकलव्य का प्रसंग—महज चार श्लोकों में।

श्रीकृष्ण कहते हैं—“तुम्हारे हित के लिए गुरु द्रोण ने सत्य पराक्रमी एकलव्य से उसका अंगूठा छलपूर्वक कटवा लिया।” यह वही एकलव्य था जो गुरु द्रोण के शिष्य नहीं बन सका, क्योंकि वह एक निषाद था—जाति व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़ा हुआ। लेकिन एकलव्य ने हार नहीं मानी। उसने गुरु द्रोण की प्रतिमा स्थापित कर, उन्हीं को अपना गुरु मानकर धनुर्विद्या का अभ्यास प्रारंभ किया।

और फिर वह अद्भुत घटना घटी। जब पांडवों का पालतू कुत्ता उसके अभ्यास स्थल तक पहुंचा और भौंकने लगा, तो एकलव्य ने तीरों की ऐसी बौछार की कि कुत्ते का मुंह बिना घायल हुए ही बंद हो गया। यह सुनकर अर्जुन का चकित होना स्वाभाविक था—क्योंकि इस तरह का कौशल तो उसमें भी नहीं था।

जब द्रोणाचार्य को यह ज्ञात हुआ, तो उन्होंने गुरु दक्षिणा में एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया। और एकलव्य—जिसे उन्होंने कभी शिष्य तक नहीं माना था—हँसते हुए अपना अंगूठा दान कर देता है। यह वही दान था, जिसने गुरु द्रोण के जीवन पर एक अमिट धब्बा छोड़ दिया—जैसे कर्ण के कवच-कुंडल दान से इन्द्र की मर्यादा पर प्रश्नचिह्न लगा।

और तब श्रीकृष्ण कहते हैं—“यदि एकलव्य का अंगूठा सुरक्षित होता, तो देवता, दानव, राक्षस और नाग भी मिलकर उसे युद्ध में परास्त नहीं कर सकते थे।”

यह बात कल्पना नहीं, स्वयं श्रीकृष्ण के शब्द हैं। और इतना ही नहीं—श्रीकृष्ण उसे परशुराम के समान बताते हैं—जो दस्ताने पहनकर वन में विचरता था, और जिसका पराक्रम अमर था।

अब प्रश्न यह उठता है कि फिर ऐसा योद्धा युद्धभूमि में क्यों नहीं था? उसका अंत कैसे हुआ?

उत्तर श्रीकृष्ण स्वयं देते हैं—“तुम्हारे हित के लिए, युद्ध शुरू होने से ठीक पहले मैंने स्वयं एकलव्य का वध कर दिया।”

जी हाँ, अर्जुन को श्रेष्ठ बनाने, पांडवों के हित को सुनिश्चित करने और महाभारत की दिशा को नियंत्रित करने के लिए, उस निषादराज को श्रीकृष्ण ने स्वयं मारा—जिसे वह देवताओं से भी अजेय मानते थे।

इतने बड़े योद्धा की मृत्यु का वर्णन केवल एक श्लोक में?

यह वही एकलव्य था, जो न तो किसी राजवंश से था, न किसी गुरु का प्रिय शिष्य। न उसे कोई पर्व मिला, न कोई स्तुति। फिर भी उसने अर्जुन और कर्ण से बेहतर धनुर्विद्या सिद्ध की—और वह भी केवल स्वाध्याय से। यह उसकी तपस्या थी, यह उसका तेज था।

आज जब हम कर्ण को "उपेक्षित महायोद्धा" कहकर महिमामंडित करते हैं, तब यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्ण को एक अध्याय मिला, एक युद्ध मिला, अनेक अवसर मिले, और अंततः उसकी वीरगति भी महायुद्ध में हुई। लेकिन एकलव्य? जिसे श्रीकृष्ण स्वयं मारते हैं, ताकि वह पांडवों के रास्ते की दीवार न बन सके?

इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि सबसे ऊँचा पराक्रम अक्सर सबसे गहरे अंधेरे में छुपा रह जाता है।

एकलव्य—वो नाम जिसे महाभारत ने भुला दिया, परंतु श्रीकृष्ण की वाणी ने अमर कर दिया।

स्वयं का राज्य

किसी समय, पूर्व दिशा के एक गाँव में आरव नामक एक तोता रहता था। वह दूसरों को अपनी तेज़ वाणी और बुद्धिमानी से प्रभावित कर देता था। वह उड़ नहीं सकता था, लेकिन अपने भाषणों से सबको यकीन दिलाता कि वह सबसे ऊँची उड़ान भरने वाला पक्षी है।

उसका सपना था — "राजा बनना"।एक दिन उसने गाँववालों के सामने घोषणा कर दी,“मैं स्वयंपुर द्वीप पर जा रहा हूँ। वहाँ सिर्फ़ श्रेष्ठ प्राणी ही प्रवेश कर सकते हैं। और मैं वहाँ का अगला राजा बनूँगा!”

हँसी उड़ाते हुए सबने कहा, “तू उड़ता भी नहीं, और राजा बनेगा?”

आरव ने कहा, “चाहना ही काफी है। जब चाह प्रबल हो, तो राह खुद बन जाती है!”

वह एक टूटी हुई नाव में बैठकर समुद्र की ओर निकल पड़ा।

समुद्र शांत था, लेकिन तीसरे दिन अंधकार छा गया। लहरें आसमान छूने लगीं। तूफान ने नाव को निगल लिया और आरव समुद्र में बह गया।जब वह चेतना में लौटा, तो उसने खुद को एक चमकदार उड़ती मछली की पीठ पर पाया। वह मेघा थी।

“कहाँ जा रहे हो, आरव?” उसने पूछा।

आरव ने गर्व से कहा, “मैं स्वयंपुर द्वीप का राजा बनने जा रहा हूँ!”

मेघा ने चुपचाप उसे एक हरे-भरे, अद्भुत द्वीप तक पहुँचाया—स्वयंपुर।

जैसे ही आरव ने द्वीप पर कदम रखा, वह मंत्रमुग्ध हो गया। हर चीज़ स्वप्न जैसी थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, वह देखता कि वहाँ कोई नहीं है—फिर भी हर चीज़ उसे देख रही है।पत्तियाँ सरसरातीं, जैसे कानाफूसी कर रही हों। पानी में उसका प्रतिबिंब कभी मुस्कुराता, कभी उदास हो जाता।

एक रात उसने खुद को एक पेड़ के नीचे खड़ा पाया। पेड़ बोला, “तू खुद को राजा मानता है, पर क्या तू उड़ना जानता है?”

आरव ने चिढ़कर कहा,“राजा बनने के लिए उड़ना ज़रूरी नहीं। इच्छा सबसे बड़ी चीज़ है!”

पेड़ ने उत्तर दिया,“मंज़िल का मिलना तुम्हारे होने पर निर्भर करता है, तुम्हारे चाहने पर नहीं।”

हर रात आरव को अजीब सपने आते—जहाँ वह खुद से बातें करता, अपने डर, अपने झूठ और अपने खालीपन से जूझता।

तीसरे दिन, मेघा फिर प्रकट हुई।

“क्या तुम स्वयंपुर के राजा बनने के योग्य हो गए?” उसने पूछा।

आरव ने सिर झुका लिया। उसकी आवाज़ अब पहले जैसी नहीं थी।

“मैंने समझा कि सिर्फ़ चाहने से कुछ नहीं मिलता। मैं उड़ नहीं पाता, फिर भी सबसे ऊँचा दिखने की कोशिश करता रहा। लेकिन अब मैं देख पा रहा हूँ—राजा वो नहीं जो सबको जीत ले, बल्कि वो जो खुद को जान ले।”

मेघा ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब तुम उड़ सकते हो।”

और आश्चर्य! आरव के पंख धीरे-धीरे फैलने लगे। हल्का होकर वह आकाश में उठने लगा। उसकी उड़ान सच्ची थी—क्योंकि वो जान चुका था कि केवल चाहने से मंज़िल नहीं मिलती; मंज़िल उन्हीं को मिलती है जो उसके योग्य बनते हैं। तुम क्या चाहते हो, ये महत्वपूर्ण नहीं है—तुम क्या हो, यह तय करेगा तुम्हारा स्थान। राजा बनने के लिए सबसे पहले आत्म-राज्य में विजयी होना पड़ता है।

Monday, June 23, 2025

गदा हनुमान जी की

हनुमान जी का स्वरूप भारतीय संस्कृति में शक्ति, भक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी के रूप में प्रतिष्ठित है। वह केवल प्रभु श्रीराम के परम भक्त ही नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना में उनका सबसे विश्वसनीय सहयोगी, एक अजेय योद्धा और संकटमोचन के रूप में पूजित हैं। उनके चरित्र में ऐसी विलक्षणता है कि सामान्यतः यह धारणा बन गई है कि इतने पराक्रमी और दिव्य योद्धा के पास कोई महाशक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र अवश्य रहा होगा। इस संदर्भ में सबसे अधिक उनके साथ जो छवि जुड़ी हुई है, वह है — गदा की।

गदा भारतीय परंपरा में शक्ति, पराक्रम और विजय का प्रतीक मानी जाती है। हनुमान जी की अधिकांश मूर्तियों, चित्रों और लोककथाओं में उन्हें गदा-धारी के रूप में दिखाया जाता है। इससे यह स्वाभाविक धारणा बन गई है कि हनुमान जी ने अपने समस्त युद्धों में गदा का प्रयोग किया होगा। परंतु जब हम वाल्मीकि द्वारा रचित मूल रामायण के प्रसंगों को ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं, तो यह अत्यंत रोचक तथ्य सामने आता है कि कहीं भी हनुमान जी द्वारा गदा के प्रयोग का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता

उदाहरण के लिए, जब लंका में हनुमान जी का सामना राक्षस अकम्पन से होता है, तो वे गदा का प्रयोग नहीं करते, बल्कि एक विशालकाय वृक्ष को उखाड़कर उसे अस्त्र बनाते हैं और उसी से उसका वध कर देते हैं। यह उनके शारीरिक बल और युद्ध कौशल का उदाहरण है, न कि किसी पारंपरिक हथियार का।

इसी तरह, जब रावण स्वयं उनके समक्ष आता है, तो हनुमान जी कोई शस्त्र नहीं उठाते, बल्कि उसे एक जोरदार थप्पड़ मारते हैं। यह घटना प्रतीक है उस आत्मबल और अपराजेय ऊर्जा का, जो किसी अस्त्र की मोहताज नहीं होती। यही नहीं, जब रावण लक्ष्मण जी को घायल करने के बाद उन्हें उठाने का प्रयास करता है, तो हनुमान जी घूंसा मारकर उसे दूर हटा देते हैं

आगे चलकर, राक्षस निकुंभ को हनुमान जी अपने हाथों से सिर मरोड़कर मार डालते हैं, और मेघनाद के साथ युद्ध में वे शिला का प्रयोग करते हैं। इन सभी युद्धों में उन्होंने कभी गदा का प्रयोग नहीं किया।

तो क्या हनुमान जी के पास गदा थी ही नहीं?

इस प्रश्न का उत्तर उनके चरित्र में ही निहित है। यह वही वीर हैं, जिन्होंने बाल्यकाल में सूर्य को फल समझकर निगलने के लिए आकाश में 400 योजन की छलांग लगाई थी। उनकी गति, शक्ति और संकल्प किसी साधारण अस्त्र से बंधे नहीं थे। उन्हें किसी गदा की आवश्यकता ही नहीं थी।

यह संभव है कि गदा उनके पराक्रम और अपराजेय शक्ति का प्रतीक बन गई हो, न कि वास्तविक युद्धोपयोगी शस्त्र। लोक परंपराओं, पौराणिक गाथाओं और भक्ति साहित्य में यह प्रतीकात्मकता धीरे-धीरे सजीव रूप लेती गई और आज गदा उनके चरित्र का अभिन्न प्रतीक बन चुकी है। किंतु मूल ग्रंथ हमें यही सिखाता है कि हनुमान जी का सबसे बड़ा शस्त्र उनका आत्मबल, भक्ति और निर्भीकता थी

इसलिए, जब भी हम हनुमान जी की गदा-धारी छवि देखें, तो हमें यह स्मरण रहे कि उनकी शक्ति किसी शस्त्र पर निर्भर नहीं थी। वे स्वयं में एक चलती-फिरती ऊर्जा के स्रोत थे, जिनका अस्त्र उनका मन, शरीर और धर्म के प्रति अडिग समर्पण था।

यही कारण है कि आज भी हनुमान जी सिर्फ एक योद्धा नहीं, बल्कि आत्मबल, साहस और भक्ति के सबसे ऊँचे प्रतीक के रूप में पूजित हैं।

Wednesday, June 18, 2025

वकालत होती हीं है रगड़ने के लिए

वकालत महज एक पेशा नहीं,
हालात से पिटे हुए इंसानों का आख़िरी हथियार होती है।
जहाँ एक वकील, 
इससे पहले कि 
वक्त दबोच ले एक क्लाएन्ट को, 
वक्त से पहले,
धरता है उसको,
पकड़ता है उसको, 
बिखरने से पहले।

जब कोर्ट में उतरता है वकील 
तो उसकी लड़ाई सिर्फ
कानून से  नहीं,
बल्कि दूसरे वकील की चाल,
उसकी भाषा, उसकी चालाकी से भी
जज के रहमोकरम
उसके मिजाज 
वक्त की बेबाकी से भी होती है ।
रगड़ता है वो
झगड़ता है वो
बिगड़ता है वो
अकड़ता है वो
कानून की लकीर को
तलवार बनाकर।

उसका दिमाग,उसकी ज़बान
होती है उसका हथियार।
कभी झुकता है वो, 
तो वार से बचने को।
तो कभी अड़ भी जाता है
वार करने को।

उसकी लड़ाई नहीं बस केस की नहीं
वह तो हालात में  जकड़े हुए क्लाएन्ट की
एक एक  तह खोलता है 
एक एक गाँठ को
खोलता है
प्रतिद्वंदी वकील द्वारा
रचे हुए चक्र को तोड़ता है, 
मरोड़ता है 
फोड़ता है.

जज आँख तरेरे,
तो झुकता भी है,
और ना माने उसकी बात
तो चढ़ता भी है 
कुल मिलाकर बात ये है कि
मुद्दे के थमने से पहले
वो थमता नहीं 
केस के सुलझने से पहले 
संभलता नहीं.
जब तक  जब तक कि क्लाएन्ट में
थोड़ी अकड़ न आ जाए।

लेकिन फिर
जब क्लाएन्ट की सांसों में
चालाकी की बू आने लगे —
और उसकी अकड़
वकील के मेहनताना से ज़्यादा हो जाए...

तो फिर निकल पड़ता है वकील 
निकलना हीं पड़ता है उसको
फी के वास्ते 
क्लाएन्ट से 
झगड़ने के लिए
रगड़ने के लिए
बिगड़ने के लिए
समझा कर क्लाएन्ट को
सुलझा कर क्लाएन्ट को
खुद हीं 
संभलने के लिए 
और फिर...
तैयार हो जाता है
एक हालात के मारे 
किसी दूसरे पिटे हुए इंसान को
पकड़ने के लिए.
तकदीर बदलने के लिए.

क्योंकि वकालत —
होती हीं है, 
रगड़ने के लिए.

Monday, June 16, 2025

गाँधी का बाजार, किताबें और रद्दी अखबार

गाँधी वादी सब हुए नादान, 
पर गाँधी से चले दुकान।
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

गाँधी नाम का फले बाज़ार,
गाँधी ब्रांड से चले व्यापार। 
टोपी मिलती चश्मा मिलता,
गाँधी नाम पे झूठ भी बिकता,
पर गाँधी को दूर से सलाम।
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

कभी जो विचार थे
आज प्रचार बन चुके हैं।
जो आंदोलन थे
अब ईवेंट कहलाते हैं।
जो त्याग था
वो अब सेल्फ़-ब्रांडिंग है,
और जो खादी थी,
वो अब बुटीक में मिलती है —
दस गुना दाम पर
विदेशी टैग के साथ।

क्योकि सबको चाहिए 
देशी सामान पर विदेशी दुकान 
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

किताबें?
वो अब अलमारियों में
रंग-सज्जा का हिस्सा हैं,
किसी ने अंतिम बार
‘सत्य,अहिंसा’ कब पढ़ा
किसी को याद नहीं।
पढ़ने वाले कम हैं,
बोलने वाले ज़्यादा,
और जो तथ्य जानते हैं चुप हैं,
वो इतिहास में दर्ज नहीं होते।

ज्ञान मौन, लम्बी जुबान ,
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

वहीं रद्दी अख़बार —
हर सुबह ताज़ा झूठ लिए
दरवाज़े पर गिरते हैं।
कल जो लिखा था,
वो आज ख़ारिज,
पर बिकता वही है
जो डराता है,
भड़काता है,
या चमकदार लगता है।
किताबें सस्ती , महंगे अखबार ,
स्टार महंगे , सस्ते विचार

किताबों से भारी रद्दी की दुकान.
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

रद्दी वाले की बोरी में
सच और झूठ
एक ही किलो के भाव में
तौले जाते हैं।
और उसी बोरी में
गाँधी की तस्वीर भी आ जाती है , 
पुराने संपादकीय के साथ,
जिसे अब कोई नहीं पढ़ता,
बस तराजू पर रखता है।

सत्य झूठ का एक ही नाम,
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

गाँधी का त्योहार
हर साल 2 अक्टूबर को
थोड़ा और सजता है —
मोमबत्तियाँ जलती हैं,
शब्द बोले जाते हैं,
फिर सब लौट आते हैं
अपने-अपने स्क्रीन पर,
जहाँ गाँधी ट्रेंड नहीं करते, 

दो बोल गाँधी के 
और दो बोल प्रभु नाम, 
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

क्योंकि अब
बाज़ार में वही बिकता है
जो दिखता है।
विचार नहीं,
विज्ञापन चलते हैं।
इसीलिए गुटका खाने वाले 
सुपर स्टार, 
जनता मरने को, मिटने को तैयार
और गाँधी?
अपनी टोपी संभाले
किसी कोने में बैठे हैं —
किताबों की धूल में,
रद्दी अख़बारों की भीड़ में,
बेचैन…बेचारे
बिकने से इंकार करते हुए।

बात यही सच है श्रीमान, 
नाम से दूरी, दाम से काम, 
रघुपति राघव राजा राम।

रिक्शा वाला

राजेश एक वकील के पास ड्राईवर था। पिछले पाँच दिनों से बीमार था। पगार देने वक्त साहब ने बताया कि ओवर टाइम मिलाकर और पांच दिन बीमारी के पैसे काटकर उसके 9122 रूपये बनते है। राजेश के ऊपर पुरे परिवार की जिम्मेवारी थी।मरते क्या ना करता।उसने चुप चाप स्वीकार कर लिया।साहब ने उसे 9100 रूपये दिए। पूछा तुम्हारे पास अगर 78 रूपये खुल्ले है क्या? राजेश के पास खुल्ले नहीं थे।मजबूरन उसे 9100 रूपये लेकर लौटने पड़े। फिर वो रिक्शा लिया और घर की तरफ चल पड़ा। घर पहुंच कर रिक्शेवाले को 100 रूपये पकड़ा दिए।पर रिक्शेवाले के पास खुल्ले नहीं थे। आखिर में रिक्शा वाले ने वो पैसे लौटा दिए। राजेश को अपने साहब की बात याद आने लगी। बोल रहे थे, मेरा मकान , मेरी मर्सिडीज बेंज सब तो यहीं है. तुम्हारे 22 रूपये लेकर कहाँ जाऊंगा।तुम्हारे 22 रूपये बचाने के लिए अपने घर और अपने मर्सिडीज बेंज को थोड़े हीं न बेच दूंगा। एक ये रिक्शा वाला था जिसने खुल्ले नहीं मिलने पे अपना 10 रुपया छोड़ दिया और एक उसके साहब थे जिन्होंने खुल्ले नहीं मिलने पे उसके 22 रूपये रख लिए। ये सबक राजेश को समझ आ गयी। मर्सिडीज बेंज पाने के लिए साहब की तरह गरीबी को पकड़ना बहुत जरूरी है। ज्यादा बड़ा दिल रख कर क्या बन लोगे, महज एक रिक्शे वाला।

Thursday, June 12, 2025

ईमानदारी

एक गर्म दोपहर, ज़िला अदालत की बार रूम में, जहाँ पंखे चल तो रहे थे लेकिन हवा देने से इनकार कर चुके थे, और चाय में शक्कर ऐसे मिलती थी जैसे कोई मिठाई हो, एक वरिष्ठ वकील पूरे जोश में बोले।

उन्होंने रिटायर्ड जज रामकांत वर्मा की ओर देखकर कहा, “सर, आपका करियर तो कमाल का रहा! एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं! बिल्कुल साफ-सुथरे और ईमानदार!”

जज वर्मा मुस्कराए, चाय को धीरे-धीरे चलाया और बोले, “इसका पूरा श्रेय भ्रष्ट लोगों को जाता है।”

वरिष्ठ वकील चौंक गए। “वो कैसे सर?”

जज साहब ने शांत स्वर में जवाब दिया, “उनकी नज़र में मैं रिश्वत के लायक ही नहीं था।”

पूरी बार रूम में सन्नाटा छा गया। कोने में पानी डाल रहा प्यून भी रुक गया।

“मतलब,” वरिष्ठ वकील बोले, “किसी ने आपको रिश्वत देने की कोशिश भी नहीं की?”

“बिल्कुल,” जज साहब बोले। “मैं तीस साल तक कुर्सी पर बैठा रहा। हजारों केस सुने। सैकड़ों फैसले दिए। लेकिन एक बार भी किसी ने लिफाफा थमाने की कोशिश नहीं की। न फल की टोकरी, न दिवाली के गिफ्ट, कुछ भी नहीं। मैं इतना साफ था कि सिस्टम में मेरी कोई जगह ही नहीं थी।”

एक नवयुवक वकील, जो अभी-अभी वकालत में आया था और जिसका हौसला अब तक जिंदा था, बोला, “सर, आपको अपनी ईमानदारी पर गर्व तो हुआ होगा?”

“ज़रूर हुआ,” जज वर्मा बोले, “लेकिन बताओ, उस चीज़ पर गर्व कैसे करूँ जो कभी परीक्षा में ही नहीं आई? ये ऐसा है जैसे कोई क्रिकेटर बोले कि वो आउट नहीं हुआ, लेकिन उसे बैटिंग करने का मौका ही नहीं मिला!”

चंदा का धंधा

एक गांव में भोलू राम नाम का एक चतुर-चालाक शख्स रहता था, जिसकी वेश्यावृत्ति की लत ने उसकी बीवी चमेली को इस कदर तंग कर दिया कि उसका गुस्सा सूरज-चांद को भी मात दे दे। एक दिन चमेली ने रसोई से अपनी चमकती कैंची उठाई, जो वो सब्जी काटने के लिए रखती थी, और चटाक-चटाक! भोलू के दोनों कान काट डाले। भोलू दर्द से उछलकर चिल्लाया, “हाय रे चमेली, ये क्या अनर्थ कर डाला? मेरे कान! अब मैं गांव में कैसे मुंह दिखाऊं? लोग तो कहेंगे, ‘देखो भोलू कन-कटा!’” चमेली ने आंखें तरेरकर कहा, “जा, जहां मुंह दिखाना है दिखा! मेरे घर में अब तेरे कान नहीं, सिर्फ तेरा बेकार सिर बचेगा, वो भी तब तक जब तक मेरी कैंची फिर न चले!” भोलू, जो डरपोक था मगर दिमाग का धनी, रात के अंधेरे में गांव से भाग खड़ा हुआ। एक पुरानी पगड़ी, दो सूखी रोटियां, और एक फटी चप्पल बैग में डालकर वो पहुंच गया एक ऐसे अनजान गांव में, जहां उसका नाम तक कोई नहीं जानता था।

वहां एक विशाल बरगद के पेड़ तले भोलू ने डेरा जमाया। सिर पर चमेली की फटी साड़ी से बनाई रंग-बिरंगी पगड़ी लपेटी, कानों की जगह गमछा बांधा, और चेहरा ऐसा बनाया जैसे वो साक्षात भगवान का वी.आई.पी. एजेंट हो। गांव वाले, जो हर अजनबी को साधु समझने की बीमारी से पीड़ित थे, तुरंत जमा हो गए। “बाबाजी, ये क्या तपस्या? गमछा कानों पर क्यों? आप तो कोई सिद्ध पुरुष लगते हो!” भोलू ने मौका देखा, गला खंखारा, और ऐसी ड्रामाई आवाज निकाली जैसे बॉलीवुड में हीरो की एंट्री हो। बोला, “मैं हूं कन-कटवा बाबा! ये कान, हां, ये कान ही माया का सुपर-एक्सप्रेस हाईवे हैं! इनके जरिए माया सीधे दिमाग में डाउनलोड होती है—पड़ोसन की चुगली, भोजपुरी गाने, सास-बहू की सीरियल, लॉटरी का नंबर, सट्टे की टिप्स, और ससुराल वालों की गॉसिप! मैंने तो अपने कान कटवा दिए, और बस, प्रभु मेरे सामने डिस्को डांस करते हुए प्रकट हुए! बोले, ‘भोलू, तू अब माया-मुक्त है, चल मेरे साथ स्वर्ग में डीजे पार्टी करें, मैंने लेजर लाइट्स फिट करवाई हैं!’”

गांव वालों की तो जैसे जैकपॉट लग गई। एक चिल्लाया, “सच में, बाबाजी? कान कटवाने से प्रभु डांस करेंगे?” भोलू ने जोश में लपेटा, “हां, भक्तो! ये कान माया का 5G राउटर हैं, 24/7 कनेक्टेड! सिग्नल काटो, माया ऑफ, प्रभु ऑन! और हां, प्रभु ने मुझे बताया कि कान कटवाने से चेहरा चमकता है, बिना फेयरनेस क्रीम के, बाल झड़ना बंद हो जाते हैं, और पेट की गैस भी कम हो जाती है!” बस, गांव में हंगामा मच गया। लोग कैंची, उस्तरा, और जो मिला वो लेकर दौड़े। नाई ने चिल्लाकर कहा, “आज फ्री में कान काटूंगा, बस बाबाजी का आशीर्वाद चाहिए!” हलवाई ने अपनी मिठाई काटने वाली कैंची उठाई, दूधवाले ने दूध छानने वाला चाकू, और सरपंच ने तो अपनी पुश्तैनी तलवार निकाल ली, बोला, “बाबाजी, मेरे कान पहले कटेंगे, मैं सरपंच हूं, वी.आई.पी हूं!” कट-कट-कट! गांव में कान कटाई का ऐसा मेला लगा कि लगता था कोई नया नेशनल फेस्टिवल शुरू हो गया। लोग गाते, “कान कटाओ, माया भगाओ, प्रभु को नचाओ!” बच्चे-बूढ़े, जवान-जवानी, सब कन-कटवा पंथी बन गए। बाजार में कैंची की दुकानें लुट गईं, और नाई की दुकान पर तो ऑनलाइन बुकिंग शुरू हो गई। भोलू सोच रहा था, “अरे, मैंने तो चमेली की कैंची से बचने को ये नौटंकी शुरू की, और ये बेवकूफ सचमुच कान काट रहे हैं! ये तो मेरे लिए हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर हो गया!”

कुछ दिन बाद गांव वाले, कान पर रंग-बिरंगे गमछे बांधे, मायूस होकर आए। “बाबाजी, कान कटवाए, खून बहाया, दर्द सहा, इंफेक्शन झेला, पड़ोसी हंस रहे हैं, बच्चे चिढ़ा रहे हैं, ‘कन-कटा गैंग!’ अब तो कुत्ते भी भौंकते हैं! पर प्रभु तो डांस करने नहीं आए, उल्टा गांव में मजाक बन गया!” भोलू ने तुरंत दिमाग की बत्ती जलाई और गंभीर मुद्रा में बोला, “अरे मूर्ख भक्तो! तुमने सोचा कान कटवाने से प्रभु डिस्को करेंगे? अरे, भाई, पहले प्रभु की परीक्षा में पास तो हो जाओ! मेरे सिर्फ कान कटने से प्रभु नहीं मिले। मैंने तो अपने चित्त को संभाला, प्रभु की भक्ति में लीन हुआ, 10 साल तक मन को वश में किया, और लाखों लोगों को प्रभु भक्ति की राह पर लगाया। तब जाकर प्रभु की कृपा हुई है! तुम लोग भी जाओ, कान तो कटवा लिए, अब मन को वश में करो, ईश्वर पर अटूट आस्था रखो, और ज्यादा से ज्यादा लोगों को सत्संग में जोड़ो। उचित समय पर प्रभु अवश्य मिलेंगे!”

गांव वालों में जैसे बिजली दौड़ गई। “वाह, बाबाजी! ये तो सच्ची बात है!” भक्तों में उत्साह फैल गया। कुछ भक्तों को मन की शांति मिलने लगी, कुछ ने सोचा, “हां, शायद हमारा मन अभी शुद्ध नहीं हुआ!” और वो निकल पड़े पड़ोस के गांवों में कन-कटवा पंथ का ढोल पीटने। लोग कान कटवाकर पंथ से जुड़ने लगे। धीरे-धीरे चंदा इकट्ठा होने लगा। कोई 100 रुपये देता, कोई 500, और सरपंच ने तो अपनी तलवार बेचकर 10,000 का चंदा दे डाला! भोलू के लिए तो जैसे स्वर्ग जमीन पर उतर आया। चंदे का धंधा ऐसा चला कि भोलू ने सोचा, “कन-कटवा पंथ तो सेट है, अब चंदा-कटवा पंथ भी शुरू कर दूं!”

देखते-देखते कन-कटवा पंथ सुपर-डुपर वायरल हो गया। हर गांव में लोग कान काट-काटकर गर्व से चिल्लाते, “हम हैं कन-कटवा पंथी, माया-मुक्त, प्रभु-भक्त!” बाजार में कैंची की बिक्री हजार गुना बढ़ गई। नाई की दुकान पर तो VIP पास सिस्टम शुरू हो गया। लोग कान कटवाकर सेल्फी खींचते और सोशल मीडिया पर डालते, हैशटैग #कन_कटवा_पंथ ट्रेंड करने लगा। चंदे की पेटियां हर गांव में रख दी गईं, जिन पर लिखा था, “प्रभु दर्शन के लिए चंदा दो, माया भगाओ!” पर प्रभु? वो तो किसी को दिखे ही नहीं। मिली तो बस कान कटवाने की जलन, इंफेक्शन, और पड़ोसियों का ठहाका। लोग गमछा बांधे घूमते, पर शर्मिंदगी से मुंह छिपाते। फिर भी पंथ बढ़ता गया, क्योंकि भोलू ने चालाकी से कह रखा था, “जितने ज्यादा भक्त, जितना ज्यादा चंदा, उतनी जल्दी प्रभु दर्शन!” कोई भोलू का राज नहीं पकड़ सका। वो हर गांव में नई पगड़ी, नया गमछा, और नया ड्रामा लेकर कन-कटवा बाबा बनता रहा।

एक दिन गांव में एक चतुर बूढ़ा बोला, “कहीं ये वो भोलू राम तो नहीं, जिसके कान उसकी बीवी चमेली ने काटे थे?” पर भोलू की चालाकी ऐसी थी कि उसने पहले ही अफवाह फैला दी थी, “मेरे जैसे कई नकली बाबा घूम रहे हैं, असली कन-कटवा बाबा मैं हूं, मेरे गमछे पर ‘मेड इन स्वर्ग’ का लेबल देखो!” गांव वाले कनफ्यूज हो गए और भोलू का राज, राज ही रहा। वो तो कब का अगले जिले में “नाक-कटवा पंथ” की स्क्रिप्ट लिखने निकल चुका था, सोचते हुए, “अगली बार नाक कटवाऊंगा, फिर मुंह, फिर पूरा सिर! चंदा तो बरसता रहेगा!” और प्रभु? वो तो ऊपर बैठकर पॉपकॉर्न खाते हुए तमाशा देख रहे थे, बोले, “भोलू, तू तो मेरे भी बाप निकला! अगली बार स्वर्ग में तुझे चंदा कलेक्शन का ठेका दूंगा!”

अजय अमिताभ सुमन

Tuesday, June 10, 2025

सासू मां को पाठ पढ़ाया

जब बहुरानी हमेशा सहमी-सहमी सी दिखने लगी, तो सासू माँ को चिंता हुई। रिश्ते में मिठास कैसे आए, यही सोचते-सोचते वो जा पहुँचीं पंडित जी के पास।पंडित जी ने माथे पर तिलक लगाते हुए कहा, "जो बहू को बेटी माने, उसका घर ही स्वर्ग बनता है।" बस, यही वाक्य सासू माँ के दिल में उतर गया।घर लौटते ही सासू माँ ने बहुरानी को प्यार से पास बिठाया, और कहा, “तू मेरी बेटी जैसी है, डर मत, ये घर अब तेरा ही है। लेकिन बहुरानी ने भी बेटी बनते ही ऐसा कुछ कर दिखाया... कि सासू माँ के माथे बल पड़ गए। तो देखिए इस हास्य-रस से सराबोर कविता में, कैसे पंडित जी के बताए एक वाक्य ने सास-बहू के रिश्ते में क्रांति ला दी।

ना जाने किस घाट घुमाया,
पंडित ने क्या  पाठ पढ़ाया?
कौन  ज्ञान  था  कैसी  घुटी ,
सासूजी का दिल भर आया।

दिल भर आया बोली रानी,
तुझको है एक बात बतानी।
क्यों सहमी सी डरती रहती,
बात है ऐसी क्यों  बहुरानी?

ससुराल  भी   नैहर   जैसा,
फिर तेरे मन ये डर कैसा ?
मेरा तो कुछ दिन का डेरा,
ये घर  तो  तेरे  घर  जैसा। 

पंडित जी सच हीं कहते हैं ,
जो बहू को बेटी कहते हैं ।
वहीँ  स्वर्ग है इस धरती पे ,
वहीँ स्वर्ग से सुख मिलते हैं।

तुझको बस इतना हीं कहना,
तू हीं तो मेरे दिल का गहना।
जो इच्छा हो मुझे बताओ,
बहुरानी बेटी बन जाओ।

सासू मां की बात जान के,
उनके मन के राज जान के।
बहुरानी समझी घर अपना,
बोली उनको मां मान के।

अम्माजी ना मुझे जगाएँ ,
बिस्तर से ना मुझे उठाएँ।
नींद घोर सुबहो आती है ,
बिना बात के ना चिल्लाएं।

मैं जब नैहर में रहती थी ,
मम्मी से सब कह देती थी।
उठकर मम्मी चाय पिलाती,
पैर दर्द तब पैर दबाती। 

बोली अम्मा  चाय बनाओ,
सूत उठकर मुझे पिलाओ।
जब सर थोड़ा भारी लगता  ,
हौले हौले उसे  दबाओ।

पैसा  रखा  बचा  बचा  के,
पापाजी से  छुपा छुपा  के।
बनवा दो मुझको तुम गहना,
अम्माजी इतना हीं  कहना।

अजय अमिताभ सुमन

कन-कटवा पुराण

एक बेचैन गृहिणी, एक लापता कान, और एक पेड़ के नीचे मौन साधे बैठा “महापुरुष” ,  यह कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ बाकी कहानियाँ खत्म हो जाती हैं। जब व्यसनों में डूबे पति की नींद खुली और देखा कि कान ग़ायब हैं, तो डर के मारे भागते-भागते पहुँच गए एक अनजान गाँव, जहाँ उनकी लाचारी ने अचानक उन्हें "ज्ञानी" बना दिया। “हे राम! ये कोई बिना कान के साधारण पुरुष नहीं बल्कि ज़रूर कोई पहुंचे हुए योगी हैं !” गाँव वालों ने कहा, और तुरंत बना दिया उन्हें ईश्वर का एजेंट। बाबा ने भी तपस्वी मुद्रा में गूढ़ घोषणा कर दी — “कान ही तो बाधा हैं प्रभु से संवाद में!” फिर क्या था, शुरू हो गया “कन-कटवा आंदोलन” — लाइनें लग गईं, कान कटने लगे। मगर भगवान नहीं आए... आई उपहास की फौज — और वह भी हँसती हुई। अब आप भी हँसेंगे — पर ज़रा देख लीजिए, कहीं आपके आसपास कोई पेड़ के नीचे बैठा बाबा  आपके कानों का इंतज़ार तो नहीं कर रहा है?

वेश्यावृति व्यसन से अकुलित पीड़ित और परेशान,
व्यथित स्त्री ने आखिर में काटे निज पति के कान।

पति ग्रसित संताप से अतिशय,पकड़ाने जाने के भय से,
रात भाग के पहुंचा गाँव, जहाँ नही कोई था परिचय।

बैठा फिर वृक्ष के नीचे,अविचल,अचल,दृढ कर निश्चय,
विस्मय फैला गाँव में ऐसे,आया कोई शक्तिपुंज अक्षय।

हे ज्ञानी हे पुरुष महान,अब तो तोड़ो अपने ध्यान,
यदि आपने पाया ईश्वर,हमें  भी  दे दें  वो  वरदान।

पूछा भक्तों ने प्रभु आप सब कहें  ज्ञान की बात,
क्या ईश्वर  ने कान के  बदले दी  कोई  सौगात?

कहा व्यक्ति ने विषय गुप्त है,पर योगी ये अति तुष्ट है,
यही कान है आधा बाधा , तेरे कान से ईश्वर रुष्ट है।

इसी कान से सब सुनते हो और सभी सपने बुनते हो ,
माया तो रचना ईश्वर की , पर तुम सब माया चुनते हो।   

सब व्यसनों का यही है मूल, प्रभु राह का काँटा शूल,
अभी कली हो,अविकसित हो,बन सकते हो तुम फुल।

यदि कान की बात सुनो ना गर झूठे ना सपने बुन लो ,
माया ओझल हो जाएगी और तुम सब ईश्वर हीं गुन लो।    

ओ संसारी, ओ व्यापारी, ओ गृहस्थ, भोले नादान,
परम ब्रह्म तो मांगे तुमसे, तेरे कानों के बलिदान।

सुन योगी  की अमृत वाणी , मंद बुद्धि , भोले औ ज्ञानी,
कटा लिए फिर सबने कान ,क्या गरीब  क्या अभिमानी।

दूध वाला या हलवाई हो चाहे सरपंच ग्राम प्रधान,
कान कटा के सारे करते रहते थे ईश्वर गुणगान ।

सब सोचते प्रभु मिलेंगे सरपट पहुंचेंगे प्रभु धाम ,
आखिर ये ही कहता था कन कटों का धर्म पुराण।

पर ईश्वर ना मिला किसी को ,ज्ञात हुआ न फला किसी को,
अधम के मुख पे थी मुस्कान,जो विश्वासी छला उसी को।

कर्ण क्षोभ से मिलती पीड़ा और केवल मिलता उपहास,
तुम औरो को भी ला पकड़ो, गर इक्छित ना हो जग हास।

मन में लेके अतिशय पीड़ा और ले दिल में हाय,
गाँव वाले सब निकल पड़े, ना देख के और उपाय।

कन-कटों की बढ़ी भीड़ तब, वो ईश्वर का लोभ,
अंधभक्तों के जोर से होता  नए धर्म की खोज।

इसी  तरह हीं  तो शुरू हुई  "कन-कटवा पंथ"  पुराण,
प्रभु नहीं बस डिस्काउंट में मिलता था ईश्वर अनुमान।

याद रहे कोई  नया रचाता  गर  प्रभु नाम  का धंधा ,
प्रश्न पूछना  भक्त न बनना  ना  देना    कोई  चंदा। 

अजय अमिताभ सुमन

Monday, June 2, 2025

किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ

यह महज एक गीत नहीं बल्कि दास्तान है उस बूढ़े चपरासी की—जिसकी उम्र दुआ करते बीती, और जिसने खुदा से सिर्फ एक तोहफ़ा माँगा: एक बेटी। जब वो मिली, तो उसकी हँसी से आँगन महक उठा। लेकिन वक्त के साथ उस जिन्दगी में खौफ का एक ऐसा साया भी आया —, जो हर पिता को खा जाता है। दहेज की दीवारें, बेबसी की सड़कों, और किस्मत की आग के बीच—फिर अचानक उस बाप की दुनिया बदल गई। अब वीरान खेतों में बैठकर वो हर रोज़ एक ही दुआ करता है----किसी के घर ना हो बेटी, पर क्यों? 

मैं एक बूढ़ा हूँ रंजो गम का दामन हर दम सहता हूँ,
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ।

मेरा आँगन था सूना और पड़ी  मुद्दत उदासी थी,
मेरी हर सुबहो थी बंजर कि मेरी  शाम बासी थी।

खुदा से मिन्नतें की थी बड़ी ईक नूर वास्ते,
गया था पीर बाबा को गया मौला के रास्ते।

बड़ी मिन्नतों के बाद मेरी बगिया चहकी थी,
खुदा ने बूढ़े के दामन में  औलाद बख्शी थी।

हर सुबह की किरण  नई पैगाम लाती थी,
मेरी बेटी आँगन में जब खिलखिलाती थी।

खुदा मेरे मुझे इस बात का बड़ा अफ़सोस था,
मेरी डाँट से डरती  थी  इस बात का रोष था।

मेरी बेगम से ही थी खोलती ख्वाब  की बातें,
मुझसे सहमी बड़ी रहती छिपाए राज की बातें।

ज्यों ज्यों उम्र बेटी की मेरी जो बढ़ती जाती थी,
त्यों त्यों  ब्याह की चिंता मुझे मौला सताती थी।

लेके साइकिल अपनी मैं बूढ़ा हर गली घुमा,
कि सुनकर रकम वो दहेज की सर मेरा घुमा।

महीने भर जला के खून अपना जो भी पाता था ,
उसी हज़ार पंद्रह में हीं  तो मैं  घर चलाता था ।

पुराना चपरासी मैं लाख रूपये लाता भी कैसे ?
कि सोच दिल था घबराता रकम मैं पाता भी कैसे?

कि दिन वो फिर मेरे गुजर रहे थे मिन्नतें करते,
कि मन में आस थी किसी का भी दिल पिघले।

देख कर  मेरा यूँ झुकना औरों के सामने,
पूछती बेटी मेरी किया क्या  जुर्म  बाप ने ?

ए  खुदा   तुझसे   कोई   जवाब   ना   आया ,
किया बेटी ने वो जो मुझको ख्वाब ना आया।   

उसी प्रश्न से बेटी ने फिर आजाद कर दिया,
कि मासूम ने जला कर खुद को खाक कर दिया।

खुदा तेरी दुआ थी तो फिर तेरे पास जाना था ,
पर जला के आग में बुलवाएया ये ना जाना था।

की थी मिन्नतें तुझसे कभी अब साफ़ कहता हूँ ,
दिल से कह नहीं पाता जा तुझको माफ़ करता हूँ।

पर बात इतने से तेरा क्या कुछ भी बिगड़ेगा ?
रकम की बात जो करते जेहन में कुछ भी सुधरेगा?

सोचूँ कि मैं भी रो रो खुद को खाक हीं कर लूँ ,
कि जो भी जुर्म था मेरा मैं उससे पाक हीं कर लूँ।
 
तेरे दर पे भी जाने से खुदा अब डर सा लगता है ,
बेटी का इस जहाँ आना खुदा कहर सा लगता है।

जाने और सी कितनी बेटी की जान जाएगी ,
जल के आग में बन खाक बेटी भाग जाएगी।

मैं जोर से चिल्लाता जलती मोम पड़ने से ,
बेटी पे गुजरी क्या होगी जल कर मरने से?  

उसी दर्द को तकलीफ को सह ना पाता हूँ ,
मासूम को मैं सोच कुछ भी कह ना पाता हूँ।  

वो हीं आग है सीने मैं लेकर दर-दर जलता हूँ,
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ।

अजय अमिताभ सुमन 

Sunday, June 1, 2025

जजमेंट

लॉयर  जी  बोले    धीमे  से, पहन   के काला कोट ,
याद करें ओ माई लार्ड ओ उस जजमेंट की चोट ।
उस जजमेंट की चोट कि उसमें जो जज ने की बात,
इस    केस   के  फैक्ट  लॉ   पे, करते हैं  प्रतिघात।

करते हैं  प्रतिघात कि  साहब  ने  माथा  खुजलाया ,
लॉयर जी  अभी  याद  नहीं नाश्ते में क्या था खाया।
"ब्रेड  मिली   थी   या  उपमा या  मुझे  पराठा दाल,
आप  कहें   फिर याद करें कैसे जजमेंट का  जाल?"

उस जजमेंट की चोट जो लॉयर जी ने है फरमाया,
कोई दे साइटेशन  मुझको   याद नहीं कुछ आया।
अगर  नहीं है  याद तो  कोई , दे  दे बस वो  पन्ने, 
ना कोई  फिर  डाउट रहेगा ना  संशय  के  फंडे।

ना   संशय   के फंडे लॉयर फिर  बोले  धर  सिर,
सच बोलूं , इस केस से ज़्यादा भूख लगी गंभीर।
आप  पेट  भर  खाना  खाकर  भूले केस पुरानी,
मुझ भूखे से क्यों ईक्षित  है  वो  जजमेंट पुरानी?

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