Wednesday, June 18, 2025

वकालत होती हीं है रगड़ने के लिए

वकालत महज एक पेशा नहीं,
हालात से पिटे हुए इंसानों का आख़िरी हथियार होती है।
जहाँ एक वकील, 
इससे पहले कि 
वक्त दबोच ले एक क्लाएन्ट को, 
वक्त से पहले,
धरता है उसको,
पकड़ता है उसको, 
बिखरने से पहले।

जब कोर्ट में उतरता है वकील 
तो उसकी लड़ाई सिर्फ
कानून से  नहीं,
बल्कि दूसरे वकील की चाल,
उसकी भाषा, उसकी चालाकी से भी
जज के रहमोकरम
उसके मिजाज 
वक्त की बेबाकी से भी होती है ।
रगड़ता है वो
झगड़ता है वो
बिगड़ता है वो
अकड़ता है वो
कानून की लकीर को
तलवार बनाकर।

उसका दिमाग,उसकी ज़बान
होती है उसका हथियार।
कभी झुकता है वो, 
तो वार से बचने को।
तो कभी अड़ भी जाता है
वार करने को।

उसकी लड़ाई नहीं बस केस की नहीं
वह तो हालात में  जकड़े हुए क्लाएन्ट की
एक एक  तह खोलता है 
एक एक गाँठ को
खोलता है
प्रतिद्वंदी वकील द्वारा
रचे हुए चक्र को तोड़ता है, 
मरोड़ता है 
फोड़ता है.

जज आँख तरेरे,
तो झुकता भी है,
और ना माने उसकी बात
तो चढ़ता भी है 
कुल मिलाकर बात ये है कि
मुद्दे के थमने से पहले
वो थमता नहीं 
केस के सुलझने से पहले 
संभलता नहीं.
जब तक  जब तक कि क्लाएन्ट में
थोड़ी अकड़ न आ जाए।

लेकिन फिर
जब क्लाएन्ट की सांसों में
चालाकी की बू आने लगे —
और उसकी अकड़
वकील के मेहनताना से ज़्यादा हो जाए...

तो फिर निकल पड़ता है वकील 
निकलना हीं पड़ता है उसको
फी के वास्ते 
क्लाएन्ट से 
झगड़ने के लिए
रगड़ने के लिए
बिगड़ने के लिए
समझा कर क्लाएन्ट को
सुलझा कर क्लाएन्ट को
खुद हीं 
संभलने के लिए 
और फिर...
तैयार हो जाता है
एक हालात के मारे 
किसी दूसरे पिटे हुए इंसान को
पकड़ने के लिए.
तकदीर बदलने के लिए.

क्योंकि वकालत —
होती हीं है, 
रगड़ने के लिए.

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