एक गर्म दोपहर, ज़िला अदालत की बार रूम में, जहाँ पंखे चल तो रहे थे लेकिन हवा देने से इनकार कर चुके थे, और चाय में शक्कर ऐसे मिलती थी जैसे कोई मिठाई हो, एक वरिष्ठ वकील पूरे जोश में बोले।
उन्होंने रिटायर्ड जज रामकांत वर्मा की ओर देखकर कहा, “सर, आपका करियर तो कमाल का रहा! एक भी भ्रष्टाचार का आरोप नहीं! बिल्कुल साफ-सुथरे और ईमानदार!”
जज वर्मा मुस्कराए, चाय को धीरे-धीरे चलाया और बोले, “इसका पूरा श्रेय भ्रष्ट लोगों को जाता है।”
वरिष्ठ वकील चौंक गए। “वो कैसे सर?”
जज साहब ने शांत स्वर में जवाब दिया, “उनकी नज़र में मैं रिश्वत के लायक ही नहीं था।”
पूरी बार रूम में सन्नाटा छा गया। कोने में पानी डाल रहा प्यून भी रुक गया।
“मतलब,” वरिष्ठ वकील बोले, “किसी ने आपको रिश्वत देने की कोशिश भी नहीं की?”
“बिल्कुल,” जज साहब बोले। “मैं तीस साल तक कुर्सी पर बैठा रहा। हजारों केस सुने। सैकड़ों फैसले दिए। लेकिन एक बार भी किसी ने लिफाफा थमाने की कोशिश नहीं की। न फल की टोकरी, न दिवाली के गिफ्ट, कुछ भी नहीं। मैं इतना साफ था कि सिस्टम में मेरी कोई जगह ही नहीं थी।”
एक नवयुवक वकील, जो अभी-अभी वकालत में आया था और जिसका हौसला अब तक जिंदा था, बोला, “सर, आपको अपनी ईमानदारी पर गर्व तो हुआ होगा?”
“ज़रूर हुआ,” जज वर्मा बोले, “लेकिन बताओ, उस चीज़ पर गर्व कैसे करूँ जो कभी परीक्षा में ही नहीं आई? ये ऐसा है जैसे कोई क्रिकेटर बोले कि वो आउट नहीं हुआ, लेकिन उसे बैटिंग करने का मौका ही नहीं मिला!”
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