जग सपना है पर अपना है
मृग तृष्णा की भांति सपना ,जग ऐसा बुद्धों का कहना।
था उनका अनुभव बोल गए, अंतर अनुभूति खोल गए।
पर बोध मेरा कुछ और सही, प्रज्ञा कहती कुछ और रही।
चाटें भी लगते हैं मग में , कांटे भी चुभते हैं डग में।
कैसे कह दूँ जो है जग में , वो लहू झूठ बहता रग में।
जो कष्ट जनित छाले होते , किस भांति मिथ्या हो सकते?
जब प्रेमलिप्त हो आलिंगन, तब हो जाता है पुलकित मन।
और उदर क्षोभ से व्याकुल तन, हो जठर उष्म का वेग गहन।
तब कुक्ष हुताशन हरने को , नर क्या न करता भरने को।
सुख भी दुःख भी पीड़ा होती , वो कह देते प्रज्ञा झूठी?
जो भी दीखता संसार मेरा , जिससे चलता व्यापार मेरा।
शत्रु मित्र आदि मेरे बच्चे , है छद्म कहाँ ना हैं सच्चे ?
जब व्याघ्र सिंह आ जाते हैं , क्या हम ना जान बचाते हैं ?
और काया के जल जाने पर , क्या हँस पाते मिथ्या कह कर?
सपनों जैसे ना उड़ते है ,सपनों जैसे ना फिरते है ।
जीवन में जो है पक्का है , हर अनुभव सीधा सच्चा है।
जाने कहते क्यों सपना है , सब मिथ्या है सब सपना है ।
वो हीं जाने जग माया है, क्यों परम तत्व की छाया है?
गर परम तत्व है हर डग में, बहता रहता गर रग रग में ।
मैं भी तो खोजू हर मग में , फिर क्यूँ ना दिखता वो जग में?
अब झूठा है या सपना है , जग जैसा भी पर अपना है।
ये झूठ सही हीं सच मेरा , जो सच उनका ना सच मेरा।
सच्चा लगता जग ये है कहना, जो दृष्टि में ना है सपना ।
वो कहते मिथ्या सपना है , पर अपना है जग अपना है।
No comments:
Post a Comment