Friday, August 22, 2025

जुल्म ए बुनियाद


तू लाख सितम ढाह बना जुल्म ए बुनियाद ,
हम तोड़ कर ज़ंजीर हर हो जायेंगे आज़ाद।

हम ख़ौफ़ से जीने की विरासत नहीं लेकर,
आँधियों से टकराएँ, बन जाएँ हम फ़ौलाद।

तख़्तो-ताज काँपेंगे जब लफ़्ज़ उठेंगे सारे,
हर आवाज़ में होगा इंक़लाब का उन्माद।

ज़ुल्मत की हर इक रात सवेरे में बदलेगी,
राहें भी दिखाएँगी ख़ुद मंज़िलों का इरशाद।

सच बोलने वालों को दहकती है सूली पर,
लेकिन वही करते हैं तहरीक की बुनियाद।

हम खून से सींचेंगे उम्मीद के हर पौधे,
और राख से जन्मेगा इक नया इब्तिदाद।

नफ़रत की हवाओं को मोहब्बत से हराएँगे,
हर जख़्म को बदलेंगे हम सब्र की फरियाद।

इतिहास की दीवारें गवाही भी देंगी तब,
क़ुरबानियों से लिखी जाएगी नई इबारत।

तू लाख सितम ढाह बना जुल्म ए बुनियाद ,
हम तोड़ कर ज़ंजीर हर हो जायेंगे आज़ाद।

Monday, August 18, 2025

ना कोई दुविधा जारी है

ना कोई दुविधा जारी है, अब पोखर की बारी है,
साहब ने आदेश लिख डाला, सत्ता की तैयारी है।
कागज़ों में तौली गई, मिट्टी-पानी की कीमत,
जनता देखती रह गई, गुम हुई सबकी सीरत।
मछली, पंछी, किसान गए, सपनों की नाव उतरी,
फाइलों ने पोखर बाँधा, हरियाली हुई पराई।
जहाँ कभी जीवन बहता था, अब चुप्पी की खाई है,
सरकारी हुक्मनामा कहता—यह ज़मीन हमारी है।

कहा गया ये सबका था, पर सच में किसका ठेका है,
ठेकेदार की जेब भरी, जनता का बस धक्का है।
गजट में छपी इबारत से, पोखर की सांस थम गई,
खेतों की प्यास बिन पानी, आँखों की नमी जम गई।
जेसीबी की गड़गड़ाहट में, चिड़ियों की चहचहाहट डूबी,
फाइलों की मुहर लगी तो, हर सरजमीं ही झूठी।
जहाँ कभी दीप जलते थे, अब अंधियारी तारी है,
नगर निगम का आदेश बोला—यह ज़मीन हमारी है।

हरियाली का भाव लगाया, कहा—प्रोजेक्ट हमारी है,
बरगद, पीपल बिकते हैं, नीलामी भी जारी है।
नक्से में हरे रंग की जगह, अब काली रेखा फैली,
तरक्की के नाम पे सजती, कंक्रीट की दीवाली।
मिट्टी, पानी, हवा, धूप सब बिकते भाव लगाकर,
जनता पूछे न्याय कहाँ, उत्तर आता हँसकर।
ताल, तलैया, पोखर सारे, विकास ने बलि चढ़ाई है,
अब सरकार की बोली में ही, ज़िंदगी समाई है।

मॉल, टॉवर, कंक्रीट महल, यही तरक्की भारी है,
परिंदों के पंख कतर दिए, साँसों पर लाचारी है।
साहब बोले फ़ाइलों में ही, जीवन का मोल लिखा है,
जनता की चुप्पी ने जैसे, हर सच को गोल किया है।
झूले झूलते बच्चे अब, यादों में ही मिलते हैं,
तालाबों की गहराई में, अब सपने भी सिलते हैं।
ना कोई दुविधा जारी है, सब आदेश की मार है,
पोखर की हर बूंद कहती—यह ज़मीन सरकार है।

जय रुद्र महाकाल

हे रुद्र, रौद्र रुप, जय रुद्र  महाकाल।
भस्म-धारी नीलकण्ठ, शंकर त्रिनेत्र विशाल॥

आवाहन करूँ मैं भोले, हे पशुपति प्रलयानल।
पाप हरन भीषण रूपी, गजचर्म-धारी अचल॥
जटाओं में गंगा बहे, रौद्र स्वर से नभ गूँजे।
दानव-दल के संहारक, शिव शक्ति जग पूजे॥
गंगाधर गिरिजा-नायक, नटराज शिव शंभू।
डमरू-ध्वनि से गूँज रहा, आकाश, धरा, अम्बु॥
चन्द्र-शेखर, करुणाकर, जग-पालक दीनदयाल।
हे रुद्र, रौद्र रुप, जय रुद्र महाकाल।
भस्म-धारी नीलकण्ठ, शंकर त्रिनेत्र विशाल॥

पंचवक्त्र प्रकाशी तू, भास्कर-दीप्त ज्योति।
काल-दंष्ट्र विकराल प्रभु, संहारक द्योति॥
वृषवाहन भीमकाय, अग्निनयन ज्वालाधर।
युद्धघोष कराल रव, शरण मे तेरे शंकर॥
कैलाश  पति गिरिराजेश्वर, वृषभ वाहन वीर।
भूत, प्रेत, गण संग, सर्व बंधन काटक धीर॥
सृष्टि के आदि तुम, कण-कण में सदाकाल॥
हे रुद्र, रौद्र रुप, जय रुद्र  महाकाल।
भस्म-धारी नीलकण्ठ, शंकर त्रिनेत्र विशाल॥

खड्ग-त्रिशूल-धनुषधर, शशि-मुकुट विराजे।
संहर्ता इस जगत का तू, काल भी तुझसे काँपे॥
ना भूमि ना नभ ना जल, ना अग्नि ना ही पवन।
सबकुछ भस्म हो जाता है, रौद्र-वपु भगवन॥
वृषभ-वाहन, गज तन जनक रूप तुम्हारा।
जग के रक्षक भक्षक भी, संहारक अवतारा॥
डमरू की डम डम से काँपे, नभ धरा-पाताल।
हे रुद्र, रौद्र रुप, जय रुद्र  महाकाल।
भस्म-धारी नीलकण्ठ, शंकर त्रिनेत्र विशाल॥

क्रोध-काम अहंकार मिटा, दर्प का नाश करे।
तेरी शरण से बढ़कर, जग में कुछ पास न रहे॥
काशीपति महाकालेश, दाह-सृष्टि के स्वामी।
जग जन्मे तुझसे ही, तेरे हीं पथ को सब गामी॥
सातों लोक तू हीं नापे, सर्प तेरे गर्दन को नाचे,
तेरी जय-जयकार गूँजे, देवों के भी मुख काँपे॥
जब जब भी अग्नि प्रज्ज्वलित कुपित हो भाल। 
हे रुद्र, रौद्र रुप, जय रुद्र  महाकाल।
भस्म-धारी नीलकण्ठ, शंकर त्रिनेत्र विशाल॥

Sunday, August 17, 2025

माना प्रहार ये भारी है

माना प्रहार यह भारी है,
पर रण की ज्वाला जारी है।
वज्र-नखों की चोटों से तन,
लहूलुहान हो गिरता क्षण-क्षण।
श्वास धधकती अंगारों-सी,
शत्रु गर्जन लगे पड़े प्रहारों-सी।
फिर भी दृष्टि न झुकने पाती,
बाण धनुष पर सज्ज हो जाती।

जब सिंह समक्ष कोई मृग पड़े,
खूनी पंजों से रूह कंपे,
धरती तक हिल जाती है तब,
गगन में डर छा जाता सब।
वन का प्रतापी क्रूर अहंकार,
ज्यों घोषणा करता संहार।
किंतु मृग कोशिश करता है,
निज संबल संचय करता है।

रक्तरंजित पग थरथराते हैं,
पर साहस के दीप जगाते हैं।
तन में मन में साहस रच कर,
प्रखर पराक्रम का स्वर भर।
कंपित हृदय में अग्नि जगाता,
कर्म रच निज भाग्य लिखाता ।
फिर वो जोर लगा ऊँची छलांग,
तोड़ नियति की हर एक मांग।

वक्त काल जो इकछित करता, 
वैसा हीं जोर लगाता है।
भागने का श्रम दिखलाता है,
अपना निज रण रचाता  है।
स्वीकार नहीं तेरा जो प्रण,
कहता मृग सिंह को उस क्षण।
“ये तन मेरा, जीवन मेरा,
किंचित न होगा सिंह तेरा।”

इतना आसान न होगा रण,
कि जोर लगाता है उस क्षण।
तेरे नख हों चाहे वज्र समान,
ये प्राण नहीं तेरे अधम, जान।
शिकार नहीं कि तू हर ले,
आ पहले तो मुझको धर ले।
गरज रहा घनघोर गगन,
किंतु अभी भी जीवित चेतन।

अश्रु नयन में भरे नहीं हैं,
मन के दीपक बुझे नहीं हैं।
फिर भी ध्वजा न उतारी है,
वैसी अपनी तैयारी है।
धरा पवन  गवाह बने,
मृत्यु से भी ना पग डरे।
माना प्रहार ये भारी है,
लड़ने की कोशिश जारी है।

श्रमिक का पसीना

पग में पाँव, मगर पथरों पर नंगे ही चलना पड़ता है,
घरों के दीप बुझ जाते सब, पर मन का दीया जलता है।

भोर हुई तो खेतों की राहें, दिनभर श्रम की दास्तान,
साँझ ढली तो लौटे घर पर, खाली कड़ाही, सूना थाल।

आसमान के नीचे सोता, चादर केवल तारे हैं,
बूढ़े माँ–बाप की आँखों में, आँसू ही अंगारे हैं।

धरती सोना उगल रही है, पर भूख न मिटती जन-जन की,
मेहनत बिकती बाज़ारों में, पर क़ीमत होती धनवन की।

शोषण की बेड़ी पहने सब, किस्मत का दोष बतलाते,
राजमहल में बैठे शाही, भूख का गीत कहाँ गाते?

पर मन भीतर अब भी कहता, अंधियारा सदा न टिकेगा,
सूरज के आने से हरसू, प्रकाश नया फिर छिटकेगा।

मेहनत की लपटें बन जाएँगी, अन्याय की दीवार ढहाएँगी,
हक़ की लौ जब जल उठेगी, हर भूख की बेड़ी टूट जाएगी।

वह दिन आएगा जब खेतों में, हर किसान मुस्कराएगा,
श्रमिक का पसीना सोना बन, हर अन्नकण जगमगाएगा।

कालखंड

स्वतंत्रता का नवल पौधा, रक्त से निज सींचकर,
था उगाया वीर ने, कफ़न स्वयं शीश पर।
अमर ज्वाला-सा जला, अन्याय की दीवार में,
जयघोष गूँज उठा, रणभूमि की पुकार में।

लहू की धार बह चली, धरती हुई गुलाल-सी,
गगन थर्राने लगा, रण-ध्वनि हुई धमाल-सी।
वीर सपूत हँस पड़ा, तीरों के उस घाव पर,
कहा—"वतन की जीत है, प्राण हों चाहे हवाले नर।"

अरे सुनो! उस रात को, जब चाँद भी लजाता था,
वीरों की टंकार से, नभ भी गगन छिपाता था।
तलवारें बज उठीं वहाँ, मानो वज्र झरने लगे,
शत्रु दल के रक्त से, रणभूमि भरने लगे।

धरती माँ के लाल थे, नभ-तारा कहलाए वे,
हँसते-हँसते काल से, आलिंगन कर आए वे।
तिरंगे का हर रंग तब, उनके ही बलिदान से,
भारत माँ मुस्काई थी, रण-वीरों की जान से।

आँधियाँ भी रुक गईं, जब हुंकार गरजी थी,
वीर सेनानी की आँखों में, बिजली चमकी थी।
मौत भी चरण चूमती, पथ में खड़ी प्रतीक्षा में,
किंतु सपूत बढ़ चले, निडरता की दीक्षा में।

जोश था कि पर्वतों को, कर डाले चूर वे,
धैर्य था कि आँधियों को, मोड़ डाले दूर वे।
नमन करो हे कालखंड! उन बलिदानी वीरों को,
जिन्होंने दे प्राण, दिया जीवन हम सबको।

अब मौन नहीं

अब मौन नहीं  हुंकार बचा।
अन्याय नहीं प्रतिकार बचा।
अब क्रांति रचे हर श्वासों में।
अब आग बहे इन हाथों में।

कितने पथ काटे काँटों ने।
और  स्वप्न चुराए रातों ने।
आँसू ने लिखी व्यथा बात।
कब से  मौन रहे दिनरात।

सदियों सदियों का है जकड़न ।
कितनी बेड़ियों का है अकड़न ।
कितने छल, कितने दंभ सहे।
कितने पल पातक काल रचे।

अब ज्वाला  पहचान बने।
अब रणभेड़ी प्रतिमान रचे ।
मृत्यु का भी स्वागत हँस के ।
जंजीर लगाना तुम कस के।

मैं शोषित नहीं, तूफ़ान हूँ मैं।
मैं बंधुआ नहीं, ऐलान हूँ मैं।
मैं दास नहीं, हुँकारा हूँ।
हाँ अब जीवित अंगारा हूँ।

तुम लुटेरे, अत्याचारी हो।
तुम दमन के पोषक भारी हो।
पर याद रहे चुप नहीं रहूँगा।
अन्यायी अब नहीं डरूँगा।

यह रण मेरा हीं घोष बने।
यह रक्त मेरा संदेश बने।
यह क्रांति अमर बलिदान कहे।
यह जीवन है तूफ़ान कहे।

अग्नि प्रज्वलित होने दो।
वाणी है मुखरित होने को।
जब सत्य धरा पर आना है।
तब झूठ बिखर ही जाना है। 

Saturday, August 16, 2025

कौन है सुपर हीरो


कौन है सुपर हीरो
जो आसमान में उड़ सके
बादलों को चीर दे
समंदर की गहराइयों में
बिना साँस के उतर जाए।

या कि वह माँ
जो भूखी रहकर
अपने बच्चे को रोटी खिला देती है,
खुद की फटी साड़ी में
उसके तन को ढक देती है,
रात भर जागकर
बुखार में काँपते बच्चे को
गोद में सुला देती है।
कौन है सुपर हीरो।

कौन है सुपर हीरो
जो बटन दबाते ही
सैकड़ों बम गिरा दे,
एक झटके में
धरती को हिला दे।

या कि वह किसान
जो बरसात के बिना भी
आसमान से प्रार्थना करता है,
कर्ज में डूबा हुआ भी
धरती जोतता है
कि शायद इस बार
अनाज की बालियाँ
उसकी उम्मीद से लंबी निकल आएँ।
कौन है सुपर हीरो।

कौन है सुपर हीरो
जिसके पास
गाड़ियाँ हों, बंगले हों,
हजारों की भीड़ उसके नाम पर
जय-जयकार करे।

या कि वह शिक्षक
जिसकी चप्पल घिस जाती है
बच्चों तक पहुँचते-पहुँचते,
जो भूली-बिसरी किताबों से
भविष्य का उजाला रचता है,
जिसके पास ताली नहीं,
सिर्फ बच्चों की आँखों का
विश्वास होता है।
कौन है सुपर हीरो।

कौन है सुपर हीरो
हजार हाथियों की ताकत रखने वाला
आँखों मे लेजर बीम
फौलाद सी बाहें
और दुश्मन के परखच्चे 
उड़ाने की ताकत रखने वाला
या कि गर्म धूप मे
एक कमजोर शरीर से
रिक्शे से
सौ सौ किलो की सवारी खींचने वाला
वो गरीब
जो दस रुपये के लिए
जान की बाजी लगा देता है
कौन है सुपर हीरो। 

कौन है सुपर हीरो
एक जान बचाने के लिए
सौ सौ मकानों को 
रौंद दे 
गुस्सा आने पर
सौ सौ दुश्मनों को
चुटकी मे हीं मसल दे। 
या कि वो मजदूर
जो कि मकान बनाते वक्त
मालिक के दस हजार रुपये मिलने पर 
रखे नहीं 
बल्कि लौटा दे उसे
मालिक के पास। 
कौन है सुपर हीरो। 

कौन है सुपर हीरो
वो जो हर चुनौती से
लड़ाई जीत ले
दुनिया को दिखा दे
अपनी ताक़त का चमत्कार।

या कि वो औरत
जो सुबह पाँच बजे उठकर
कपड़े धोती है,
झाड़ू-पोंछा करती है,
चूल्हे की आँच में
अपने सपनों को सेंक लेती है,
और फिर भी
मुस्कुराकर बच्चों को
स्कूल भेजती है।
कौन है सुपर हीरो।

कौन है सुपर हीरो।
वो जो परदे पर दिखता है
या वो जो सड़कों पर,
खेतों में, कारखानों में,
रसोई में, अस्पताल में,
हमारे बीच जीते जी
हर रोज़
अपनी सीमाओं को तोड़ता है।

कौन है सुपर हीरो।

Friday, August 1, 2025

कॉपी पेस्ट बकरी

पटना शहर का पुराना मोहल्ला  गुलाबबाग। यहाँ गलियों में चाय की भाप और गप्पों की गूँज मिलती है, और बच्चों की शरारतें हर कोने में फैली मिलती हैं। मोहल्ले के बीचोंबीच एक पुराना स्कूल है  शिवाजी बाल विद्या मंदिर। सफ़ेद चूने की दीवारें, टूटी हुई खिड़कियाँ, और बरामदे में लगी घंटी जो हमेशा तय समय से तीन मिनट देर बजती थी।

इसी स्कूल की आठवीं कक्षा में पढ़ते थे तीन दोस्त  राजू, छोटू और गुड्डी।

राजू यादव, एक सीधा-सादा लड़का था, लेकिन दिमाग में बटन दबाते ही जैसे जुगाड़ की मशीन चालू हो जाती थी। उसके पिताजी रेलवे में गार्ड थे, और राजू ने बचपन से ही सीखा था कि कब बोलना है और कब चुप रह जाना है।

छोटू मौर्य, नाम भले छोटू था, लेकिन बातों में बड़ा था। कुछ भी हो जाए, उसके मुँह से बिना चुटकी लिए बात निकलती ही नहीं थी। उसकी अम्मा सब्ज़ी मंडी में आलू-प्याज़ बेचती थीं, और छोटू वहाँ भी ग्राहकों से हँसी-मजाक में सामान बेचने का हुनर सीख चुका था।

तीसरी थी गुड्डी पाण्डेय  मोहल्ले की सबसे नाटकीय लड़की। पढ़ाई में होशियार थी, पर थोड़ा बहुत ड्रामा करना उसे भी भाता था। उसकी मम्मी सरकारी स्कूल में शिक्षिका थीं और घर में हमेशा अनुशासन का माहौल रहता था। लेकिन स्कूल के बाहर गुड्डी का रंग ही और होता।

ये तीनों हर सुबह एक साथ स्कूल जाते, एक ही गोलगप्पे वाले से पैसे उधार पर गोलगप्पे खाते, और साथ में होमवर्क से भी पीछा छुड़ाते।

एक शुक्रवार की दोपहर थी। मिस इंदु शर्मा, आठवीं कक्षा की अंग्रेज़ी अध्यापिका, क्लास में तेज़ कदमों से आईं। उनके हाथ में हरी फ़ाइल और चेहरा थोड़ा सख़्त था, जिससे बच्चों को अहसास हो गया कि आज कुछ "गंभीर" बात होने वाली है।

मिस शर्मा पढ़ाई के मामले में सख़्त थीं, लेकिन दिल से बेहद सुलझी हुईं। वे चाहती थीं कि बच्चे किताबों से बाहर सोचें, अनुभव से लिखें और सच्चाई से जीना सीखें।

उन्होंने बोर्ड पर लिखा , "The Most Memorable Day of My Life" फिर पूरे वर्ग की ओर देखा।

"बच्चों," उन्होंने कहा, "इस बार कोई सवाल-जवाब नहीं। कोई रट्टा नहीं। मैं चाहती हूँ कि तुम सब एक पेज का निबंध लिखकर लाओ — अपने जीवन के सबसे यादगार दिन पर।"

कक्षा में कुछ चेहरे चमक उठे, लेकिन ज़्यादातर बच्चों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं।

"जिसने भी किसी से नकल की," मिस शर्मा बोलीं, "या इंटरनेट से कॉपी किया, उसे सीधे ज़ीरो मिलेगा।"

राजू, छोटू और गुड्डी  तीनों की नज़रें आपस में मिलीं। और वहीं क्लास के कोने में एक बिना बोले योजना बन गई।
तीन

शाम को मोहल्ले की छतों पर जैसे ही अँधेरा छाया, तीनों दोस्त राजू के घर की छत पर इकठ्ठा हो गए। नीचे आँगन में उसकी दादी चूल्हे पर चाय पका रही थीं, और पास ही अगरबत्ती से मच्छर भागाए जा रहे थे।

राजू ने पहला सुझाव दिया, "देखो भाई, सबसे यादगार दिन तो वही था जब शंकर चाचा की बकरी 'चम्पा' कुएँ में गिर गई थी, और हम तीनों बचाने कूद गए थे।"

छोटू हँसा, "हाँ! और हम ही रस्सी से खींचे गए। गाँव वाले हँसी रोक नहीं पाए थे।"

गुड्डी बोली, "वो दिन तो सच में मज़ेदार था। सबकी रिपोर्ट अलग लग सकती है, लेकिन कहानी तो एक ही है।"

राजू बोला, "तो तय रहा। मैं पहले लिख देता हूँ। छोटू, तू भाषा बदल देना। गुड्डी, तू थोड़ा इमोशनल बना देना  तेरे तो शब्द ही बड़े भारी होते हैं।"

तीनों ने एक ही किस्सा लिखा  बस शब्दों और अंदाज़ में थोड़ी-थोड़ी मिलावट। लेकिन कहानी का मूल एक ही रहा  चम्पा बकरी, कुआँ, बचाव और गाँव वालों की हँसी।

सोमवार की सुबह, तीनों ने आत्मविश्वास से भरे चेहरे और रंगीन पन्ने लिए स्कूल पहुँच गए। मिस शर्मा ने सबके निबंध चुपचाप जमा कर लिए, बिना कोई प्रतिक्रिया दिए।

मंगलवार बीत गया। बुधवार आ गया। लेकिन निबंध की कॉपियाँ अभी तक नहीं लौटी थीं।

बुधवार की आख़िरी घंटी के बाद, मिस शर्मा फिर से क्लास में आईं। उनका चेहरा शांत था, पर आवाज़ में थोड़ी कड़ाई।

"राजू यादव, छोटू मौर्य और गुड्डी पाण्डेय  स्टाफ रूम के बाहर आइए।"

पूरी कक्षा में कानाफूसी शुरू हो गई।

स्टाफ रूम के बाहर मिस शर्मा ने तीनों को बारी-बारी से देखा, फिर एक पन्ना निकाला।

"राजू की कॉपी पढ़ी, फिर छोटू की, फिर गुड्डी की। शब्द अलग, लेकिन कहानी वही बकरी का नाम चम्पा, कुएँ में गिरना, रस्सी से निकलना... क्या तुम तीनों के जीवन में एक ही यादगार दिन था?"

छोटू थोड़ा मुस्कराया, "मैम, हाँ... चम्पा हमारी मोहल्ले की बकरी थी। और वो दिन वाकई हमारे लिए यादगार था।"

गुड्डी बोली, "हमने तो झूठ नहीं लिखा, मैम। बस एक ही घटना तीनों के जीवन में बड़ी थी।"

राजू ने सीधा जवाब दिया, "मैम, हम सिर्फ अंक पाने के लिए झूठा किस्सा नहीं बनाना चाहते थे।"

मिस शर्मा कुछ पल चुप रहीं, फिर हल्के से मुस्कुराईं।

"देखो बच्चों," उन्होंने कहा, "कभी-कभी एक ही सच्चाई को तीन लोग एक साथ कहते हैं, तो उसमें अलग रंग नहीं दिखता। सच्चाई भी अगर एक ही सुर में बोले तो वह संगीत नहीं बनती, शोर बन जाती है।"

तीनों कुछ समझे, कुछ नहीं।

"मैंने तुमसे रचना माँगी थी  वही घटना, लेकिन तुम्हारे अपने अनुभवों में। अगर तीनों में वही रस्सी, वही कुआँ, वही चम्पा, और वही वाक्यांश होंगे  तो शिक्षक को यह कैसे समझ आएगा कि किसका दृष्टिकोण क्या था?"

तीनों ने सिर झुका लिया।

फिर मिस शर्मा ने कहा, "मैं तुम तीनों को इस बार शून्य नहीं दे रही  क्योंकि तुमने झूठ नहीं लिखा। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना  सच्चाई भी जब दोहराई जाती है, तो उसमें अपनी छाप जरूरी होती है।"

अगले दिन क्लास में उन्होंने नया विषय लिखा:"एक ऐसा दिन जो हुआ नहीं, लेकिन होना चाहिए था।"

पूरी कक्षा चौंक गई। और तीनों दोस्त भी।गुड्डी बोली, "अब क्या लिखें?"राजू ने कहा, "अब तो सबका सपना अलग ही होगा।"

छोटू बोला, "मैं तो लिखूँगा कि काश चम्पा उड़ना सीख जाती!"पूरी कक्षा हँसी से गूंज उठी।

अंत में तीनों दोस्त मुस्कराते हुए घर लौटे। इस बार कोई चाल नहीं थी। न मिल बैठकर निबंध लिखने की योजना, न एक ही बहाना।

अब वे जान चुके थे कि हर सच्चाई की भी अपनी आवाज़ होनी चाहिए।अनुभव साझा हो सकते हैं, लेकिन अभिव्यक्ति हमेशा अपनी होनी चाहिए।

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