Monday, August 18, 2025

ना कोई दुविधा जारी है

ना कोई दुविधा जारी है, अब पोखर की बारी है,
साहब ने आदेश लिख डाला, सत्ता की तैयारी है।
कागज़ों में तौली गई, मिट्टी-पानी की कीमत,
जनता देखती रह गई, गुम हुई सबकी सीरत।
मछली, पंछी, किसान गए, सपनों की नाव उतरी,
फाइलों ने पोखर बाँधा, हरियाली हुई पराई।
जहाँ कभी जीवन बहता था, अब चुप्पी की खाई है,
सरकारी हुक्मनामा कहता—यह ज़मीन हमारी है।

कहा गया ये सबका था, पर सच में किसका ठेका है,
ठेकेदार की जेब भरी, जनता का बस धक्का है।
गजट में छपी इबारत से, पोखर की सांस थम गई,
खेतों की प्यास बिन पानी, आँखों की नमी जम गई।
जेसीबी की गड़गड़ाहट में, चिड़ियों की चहचहाहट डूबी,
फाइलों की मुहर लगी तो, हर सरजमीं ही झूठी।
जहाँ कभी दीप जलते थे, अब अंधियारी तारी है,
नगर निगम का आदेश बोला—यह ज़मीन हमारी है।

हरियाली का भाव लगाया, कहा—प्रोजेक्ट हमारी है,
बरगद, पीपल बिकते हैं, नीलामी भी जारी है।
नक्से में हरे रंग की जगह, अब काली रेखा फैली,
तरक्की के नाम पे सजती, कंक्रीट की दीवाली।
मिट्टी, पानी, हवा, धूप सब बिकते भाव लगाकर,
जनता पूछे न्याय कहाँ, उत्तर आता हँसकर।
ताल, तलैया, पोखर सारे, विकास ने बलि चढ़ाई है,
अब सरकार की बोली में ही, ज़िंदगी समाई है।

मॉल, टॉवर, कंक्रीट महल, यही तरक्की भारी है,
परिंदों के पंख कतर दिए, साँसों पर लाचारी है।
साहब बोले फ़ाइलों में ही, जीवन का मोल लिखा है,
जनता की चुप्पी ने जैसे, हर सच को गोल किया है।
झूले झूलते बच्चे अब, यादों में ही मिलते हैं,
तालाबों की गहराई में, अब सपने भी सिलते हैं।
ना कोई दुविधा जारी है, सब आदेश की मार है,
पोखर की हर बूंद कहती—यह ज़मीन सरकार है।

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