माना प्रहार यह भारी है,
पर रण की ज्वाला जारी है।
वज्र-नखों की चोटों से तन,
लहूलुहान हो गिरता क्षण-क्षण।
श्वास धधकती अंगारों-सी,
शत्रु गर्जन लगे पड़े प्रहारों-सी।
फिर भी दृष्टि न झुकने पाती,
बाण धनुष पर सज्ज हो जाती।
जब सिंह समक्ष कोई मृग पड़े,
खूनी पंजों से रूह कंपे,
धरती तक हिल जाती है तब,
गगन में डर छा जाता सब।
वन का प्रतापी क्रूर अहंकार,
ज्यों घोषणा करता संहार।
किंतु मृग कोशिश करता है,
निज संबल संचय करता है।
रक्तरंजित पग थरथराते हैं,
पर साहस के दीप जगाते हैं।
तन में मन में साहस रच कर,
प्रखर पराक्रम का स्वर भर।
कंपित हृदय में अग्नि जगाता,
कर्म रच निज भाग्य लिखाता ।
फिर वो जोर लगा ऊँची छलांग,
तोड़ नियति की हर एक मांग।
वक्त काल जो इकछित करता,
वैसा हीं जोर लगाता है।
भागने का श्रम दिखलाता है,
अपना निज रण रचाता है।
स्वीकार नहीं तेरा जो प्रण,
कहता मृग सिंह को उस क्षण।
“ये तन मेरा, जीवन मेरा,
किंचित न होगा सिंह तेरा।”
इतना आसान न होगा रण,
कि जोर लगाता है उस क्षण।
तेरे नख हों चाहे वज्र समान,
ये प्राण नहीं तेरे अधम, जान।
शिकार नहीं कि तू हर ले,
आ पहले तो मुझको धर ले।
गरज रहा घनघोर गगन,
किंतु अभी भी जीवित चेतन।
अश्रु नयन में भरे नहीं हैं,
मन के दीपक बुझे नहीं हैं।
फिर भी ध्वजा न उतारी है,
वैसी अपनी तैयारी है।
धरा पवन गवाह बने,
मृत्यु से भी ना पग डरे।
माना प्रहार ये भारी है,
लड़ने की कोशिश जारी है।
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