पग में पाँव, मगर पथरों पर नंगे ही चलना पड़ता है,
घरों के दीप बुझ जाते सब, पर मन का दीया जलता है।
भोर हुई तो खेतों की राहें, दिनभर श्रम की दास्तान,
साँझ ढली तो लौटे घर पर, खाली कड़ाही, सूना थाल।
आसमान के नीचे सोता, चादर केवल तारे हैं,
बूढ़े माँ–बाप की आँखों में, आँसू ही अंगारे हैं।
धरती सोना उगल रही है, पर भूख न मिटती जन-जन की,
मेहनत बिकती बाज़ारों में, पर क़ीमत होती धनवन की।
शोषण की बेड़ी पहने सब, किस्मत का दोष बतलाते,
राजमहल में बैठे शाही, भूख का गीत कहाँ गाते?
पर मन भीतर अब भी कहता, अंधियारा सदा न टिकेगा,
सूरज के आने से हरसू, प्रकाश नया फिर छिटकेगा।
मेहनत की लपटें बन जाएँगी, अन्याय की दीवार ढहाएँगी,
हक़ की लौ जब जल उठेगी, हर भूख की बेड़ी टूट जाएगी।
वह दिन आएगा जब खेतों में, हर किसान मुस्कराएगा,
श्रमिक का पसीना सोना बन, हर अन्नकण जगमगाएगा।
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