स्वतंत्रता का नवल पौधा, रक्त से निज सींचकर,
था उगाया वीर ने, कफ़न स्वयं शीश पर।
अमर ज्वाला-सा जला, अन्याय की दीवार में,
जयघोष गूँज उठा, रणभूमि की पुकार में।
लहू की धार बह चली, धरती हुई गुलाल-सी,
गगन थर्राने लगा, रण-ध्वनि हुई धमाल-सी।
वीर सपूत हँस पड़ा, तीरों के उस घाव पर,
कहा—"वतन की जीत है, प्राण हों चाहे हवाले नर।"
अरे सुनो! उस रात को, जब चाँद भी लजाता था,
वीरों की टंकार से, नभ भी गगन छिपाता था।
तलवारें बज उठीं वहाँ, मानो वज्र झरने लगे,
शत्रु दल के रक्त से, रणभूमि भरने लगे।
धरती माँ के लाल थे, नभ-तारा कहलाए वे,
हँसते-हँसते काल से, आलिंगन कर आए वे।
तिरंगे का हर रंग तब, उनके ही बलिदान से,
भारत माँ मुस्काई थी, रण-वीरों की जान से।
आँधियाँ भी रुक गईं, जब हुंकार गरजी थी,
वीर सेनानी की आँखों में, बिजली चमकी थी।
मौत भी चरण चूमती, पथ में खड़ी प्रतीक्षा में,
किंतु सपूत बढ़ चले, निडरता की दीक्षा में।
जोश था कि पर्वतों को, कर डाले चूर वे,
धैर्य था कि आँधियों को, मोड़ डाले दूर वे।
नमन करो हे कालखंड! उन बलिदानी वीरों को,
जिन्होंने दे प्राण, दिया जीवन हम सबको।
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