Friday, December 19, 2025

लाला जिसे सताए, खुदा क्या उसे बचाए

 दिल्ली की रात उस दिन कुछ ज़्यादा ही बेरहम थी। हवा में ऐसी ठण्ड घुली हुई थी कि साँस लेते ही फेफड़ों तक चुभन उतर जाती। सड़कें सूनी थीं, दुकानों के शटर आधे झुके हुए, और स्ट्रीट लाइटों के नीचे धुंध किसी बूढ़े कम्बल की तरह लटक रही थी।

प्रदीप साईं बाबा के मंदिर से लौट रहा था। आरती की ध्वनि अब भी कानों में गूँज रही थी—“सबका मालिक एक…”। मन में थोड़ी शांति थी, थोड़ी उम्मीद भी, जैसे ईश्वर ने क्षणभर के लिए जीवन की कठोरता पर मरहम रख दिया हो।

बस आई। प्रदीप जल्दी से चढ़ा और भीतर की ठण्ड से जूझती हुई किसी सीट की तलाश करने लगा। बस के अंदर बैठे लोग अपने-अपने खोल में सिमटे हुए थे—कोई मफलर में मुँह छुपाए, कोई हाथों पर फूँक मारता हुआ। तभी उसकी नज़र सामने खड़े तीन युवकों पर पड़ी।

तीनों साधारण से कपड़ों में थे। पुराने स्वेटर, सस्ते जैकेट और ऐसे जूते, जिनमें चमक से ज़्यादा मजबूरी झलक रही थी। उम्र शायद पच्चीस-छब्बीस के आसपास होगी, पर चेहरों पर समय से पहले आई थकान साफ़ दिखाई दे रही थी। उनकी बातचीत से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे किसी छोटी-सी कंपनी में क्लर्की करते थे—वही नौकरी, जिसमें काम ज़्यादा और इज़्ज़त कम मिलती है।

बस के झटकों के साथ उनकी बातचीत भी आगे बढ़ी।

मनोज, रवि को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला—
“यार, तुमने तो पूरे कपड़ों की दुकान पहन रखी है। माना कि यहाँ ठण्ड है, पर दिल्ली में शिमला की बर्फ़ तो नहीं गिर रही।”

रवि मुस्कुराया, पर उस मुस्कान में मज़ाक से ज़्यादा अनुभव था।
“शिमला की बर्फ़ न सही, पर खुद को बचाकर रखने में क्या बुराई है? लगता है बिना ठण्ड का शिकार हुए नहीं समझोगे। बीमारी भी तो हमें ही पकड़ती है—मालिकों को नहीं।”

अब तक चुप खड़ा गौतम अचानक हँस पड़ा—एक ऐसी हँसी, जो गले में अटक जाती है।
“अरे यार, हम गरीब लोगों को तो खुदा पैदा ही आधा मरा हुआ करता है। अब ठण्ड मारने की क्या ज़रूरत है? ज़िन्दगी खुद ही रोज़ थोड़ा-थोड़ा मार देती है।”

बस में खड़े कुछ यात्रियों ने गर्दन उठाकर उनकी ओर देखा। किसी के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, किसी की आँखों में सहानुभूति झलक गई।

रवि ने गहरी साँस ली और बोला—
“बिलकुल सही कहा। खुदा भी हमें क्या मारेगा? दिल्ली के ये लाला लोग—जिनके यहाँ हम नौकरी करते हैं—वो खुद ही हमें चूस-चूस कर मार देते हैं। सुबह नौ बजे से रात आठ बजे तक, ओवरटाइम का कोई हिसाब नहीं, छुट्टी माँगो तो जैसे कोई गुनाह कर दिया हो।”

मनोज कड़वी हँसी हँसा।
“सच में दोस्त। तनख्वाह इतनी कि महीने के आख़िर में जेब भी हमसे नज़रें चुरा लेती है।”

थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई। बस की खिड़की से ठण्डी हवा अंदर घुसी और तीनों एक साथ सिहर उठे।

फिर मनोज ने कहा—
“तो भाई, यही समझ लो—लाला जिसे सताए, खुदा क्या उसे बचाए?”

उस वाक्य के साथ जैसे पूरी बस कुछ पल के लिए खामोश हो गई। प्रदीप के कानों में मंदिर में गूँजता वह वाक्य फिर से उभर आया—“सबका मालिक एक…”। मन में एक सवाल चुभ गया—अगर सचमुच सबका मालिक एक है, तो किसी की ज़िन्दगी इतनी सस्ती क्यों है?

बस अगले स्टॉप पर रुकी। मनोज, रवि और गौतम उतर गए। जाते-जाते उन्होंने अपने-अपने फटे जैकेट और कस लिए और ठण्ड में गुम हो गए—जैसे दिल्ली की रात ने उन्हें चुपचाप निगल लिया हो।

प्रदीप अपनी सीट पर बैठा रह गया। ठण्ड अब भी वही थी, पर उसके भीतर एक और ठण्ड उतर चुकी थी—
ज़िन्दगी की।

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