नगर के सामुदायिक भवन में आज “महान नागरिक सम्मान समारोह” रखा गया था। जगह-जगह पोस्टर लगे थे, चाय की खुशबू फैली थी और कुर्सियाँ ऐसी करीने से लगी थीं मानो खुद भी पुरस्कार पाने आई हों।
हर कुर्सी पर पर्ची चिपकी थी—
विशेष अतिथि
मुख्य अतिथि
अति विशेष अतिथि
और आख़िर में—
सामान्य जनता (पीछे बैठें)
इसी बीच अंदर आए चाचा गोलमटोल।
पहनावा साधारण, चाल आरामदेह और चेहरा ऐसा जैसे अभी-अभी कचौरी खाकर आए हों।
चाचा ने चारों ओर देखा और सबसे आगे रखी बड़ी, गद्देदार कुर्सी पर जाकर बैठ गए।
पहला टोका-टोकी
तुरंत एक गार्ड आया,
“चाचा जी, ये कुर्सी खास लोगों के लिए है।”
चाचा मुस्कुराए,
“अच्छा! तभी तो इतनी आरामदेह है।”
गार्ड ने समझाया,
“आपको पीछे वाली पंक्ति में बैठना होगा।”
चाचा बोले,
“पीछे? वहाँ से मंच दिखेगा भी?”
पूछताछ शुरू
गार्ड ने पूछा,
“आप कोई मेहमान हैं?”
चाचा बोले,
“मेहमान तो हूँ, लेकिन बिना बुलाए।”
“तो आप कोई अधिकारी होंगे?”
“नहीं बेटा, मैं तो रिटायर भी नहीं हुआ।”
“कोई नेता?”
“नहीं, मैं वादा करना ही भूल जाता हूँ।”
गार्ड थोड़ा झुंझलाया,
“तो आप हैं कौन?”
महान परिचय
चाचा ने गंभीर चेहरा बनाकर कहा,
“मैं हूँ—चाय पीने आया आदमी।”
गार्ड चौंका,
“ये कोई पद हुआ?”
चाचा बोले,
“बिल्कुल! बिना चाय के समारोह अधूरा रहता है।”
अंतिम फैसला
तभी आयोजक आ गए। बोले,
“चाचा जी, आप कहाँ बैठना चाहेंगे?”
चाचा बोले,
“जहाँ से भाषण कम और समोसे ज़्यादा दिखें।”
सब हँस पड़े।
आयोजक ने कहा,
“ठीक है चाचा जी, आप यहीं बैठिए।”
चाचा आराम से टिके और बोले,
“देखा! कुछ भी नहीं होने का फ़ायदा—
कोई ज़िम्मेदारी नहीं, लेकिन कुर्सी पक्की!”
और पूरा हॉल ठहाकों से गूँज उठा।
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