भय, करुणा और विवेक की सीमाओं को छूती यह कथा एक ऐसे साँप और साधु की है, जहाँ अहिंसा को कमजोरी नहीं बल्कि समझदारी के रूप में परखा जाता है। यह घटना पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सहनशीलता का अर्थ हमेशा सहना ही होता है, या कभी-कभी स्वयं की रक्षा भी धर्म बन जाती है।
घने और रहस्यमय जंगल के बीचोंबीच एक बहुत ही विशाल और भयानक साँप रहता था। उसका शरीर मोटे वृक्षों के तने जितना चौड़ा था और आँखों में ऐसी चमक थी कि उसे देखते ही मनुष्य का कलेजा काँप उठे। जंगल से होकर जो भी उस रास्ते से गुजरता, वह साँप उसे डस लेता। उसके विष से न जाने कितने प्राणी और मनुष्य मारे जा चुके थे। धीरे-धीरे उस पूरे क्षेत्र में यह प्रसिद्ध हो गया कि वहाँ जाना मृत्यु को निमंत्रण देने जैसा है।
लोग उस इलाके से दूर-दूर तक बचते थे। बच्चे, बूढ़े, चरवाहे, लकड़हारे—सब उस जंगल का नाम सुनते ही काँप जाते। उस साँप को लोग “विषाल” कहने लगे थे, और भय ने वहाँ अपना स्थायी निवास बना लिया था।
एक दिन एक साधु उस क्षेत्र से होकर जाने वाले थे। उनके चेहरे पर गहरी शांति थी और आँखों में करुणा। जब गाँव वालों को पता चला कि साधु उसी खतरनाक जंगल से गुजरने वाले हैं, तो वे घबरा गए। उन्होंने हाथ जोड़कर विनती की,
“महात्मा, उस ओर मत जाइए। वहाँ एक भयानक साँप रहता है। वह किसी को भी जीवित नहीं छोड़ता।”
लेकिन साधु मुस्कराए।
“जिस मार्ग पर भय का राज्य हो, वहीं करुणा की सबसे अधिक आवश्यकता होती है,”
यह कहकर वे निडर होकर जंगल की ओर बढ़ गए।
कुछ ही दूर गए थे कि अचानक झाड़ियों से सरसराहट की आवाज़ आई। विशाल साँप फुफकारता हुआ सामने आ गया। उसने अपना फन फैलाया और साधु की ओर बढ़ा, मानो उन्हें डस ही लेगा। जंगल का वातावरण सन्नाटे से भर गया।
लेकिन साधु तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने शांत स्वर में कहा,
“तुम बार-बार दूसरों को क्यों डसते हो? तुम्हें इससे क्या मिलता है? क्या तुम्हें इससे सुख या आनंद की अनुभूति होती है?”
साँप ठिठक गया। पहली बार किसी ने उससे भय के बिना बात की थी। कुछ क्षण बाद उसने धीमी, थरथराती आवाज़ में कहा,
“नहीं, मुझे कोई आनंद नहीं मिलता। सच तो यह है कि मैं स्वयं डरा हुआ रहता हूँ। इसी डर के कारण मैं अकेला हूँ। मुझे लगता है कि अगर मैं पहले न डसू, तो लोग मुझे मार डालेंगे।”
साधु की आँखों में करुणा और गहरी हो गई।
“यदि तुम चाहते हो कि लोग तुमसे प्रेम करें, तो डसना छोड़ दो। किसी को अनावश्यक कष्ट मत दो। प्रेम भय से नहीं, करुणा से जन्म लेता है।”
इतना कहकर साधु आगे बढ़ गए।
साधु की बात साँप के मन में गूँजती रही। कुछ दिनों बाद उसने सचमुच लोगों को डसना बंद कर दिया। जो भी उधर से गुजरता, वह बस चुपचाप किनारे हट जाता। धीरे-धीरे लोगों को पता चला कि साँप अब काटता नहीं है। भय कम होने लगा।
लेकिन मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र होती है। जहाँ भय कम हुआ, वहाँ निर्दयता बढ़ गई। बच्चे उसे छेड़ने लगे, लोग उस पर पत्थर फेंकने लगे, कुछ उसे मारने की कोशिश करने लगे। साँप कुछ नहीं करता, बस सहता रहता।
कुछ ही दिनों में उसका शरीर घावों से भर गया। वह लहूलुहान होकर ज़मीन पर पड़ा रहता। कमजोरी और पीड़ा से उसकी साँसें उखड़ने लगीं। उस अवस्था में उसे साधु की याद आई। उसने पूरी शक्ति लगाकर साधु को पुकारा।
साधु उसकी पुकार सुनकर वहाँ पहुँचे। जब उन्होंने साँप को उस दयनीय अवस्था में देखा, तो उनका हृदय व्यथित हो उठा।
“यह तुमने क्या कर लिया?” साधु ने पूछा।
साँप ने कराहते हुए कहा,
“मैंने आपकी बात मानी। मैंने अहिंसा का पालन किया और किसी को डसना बंद कर दिया। लेकिन लोग मुझे मारने लगे।”
साधु ने गंभीर स्वर में कहा,
“अरे भाई, मैंने तुम्हें डसने से मना किया था, आत्मरक्षा से नहीं। अहिंसा का अर्थ यह नहीं कि कोई तुम्हें मारे और तुम चुपचाप सहते रहो। अहिंसा का अर्थ है—किसी को अनावश्यक रूप से कष्ट न देना। लेकिन जब कोई तुम्हारी जान लेने आए, तब अपनी रक्षा करना भी धर्म है।”
उन्होंने आगे कहा,
“आत्मरक्षा अहिंसा के विरुद्ध नहीं है। यह उसका ही अंग है। बिना कारण किसी को चोट मत पहुँचाओ, लेकिन जब कोई तुम्हें चोट पहुँचाने आए, तो स्वयं को बचाना तुम्हारा अधिकार और कर्तव्य है।”
साधु के शब्द साँप के मन में दीपक की तरह जल उठे। उसने समझ लिया कि सच्ची अहिंसा कमजोरी नहीं, विवेक है। उस दिन से उसने न किसी को अनावश्यक डसा और न ही अत्याचार सहा।
इस कथा से यही शिक्षा मिलती है कि
अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है।
दूसरों को बिना कारण चोट न पहुँचाना ही अहिंसा है,
और आत्मरक्षा करना उसका सबसे महत्वपूर्ण धर्म।
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