समुद्र उस दिन असामान्य रूप से शांत था। आसमान और पानी के बीच कोई रेखा नहीं दिख रही थी, मानो दोनों ने आपस में समझौता कर लिया हो। उसी शांति को चीरते हुए एक छोटी-सी नाव भटकती हुई एक विरान टापू के किनारे आ लगी। नाव में पाँच लोग थे—एक हिंदू, एक नास्तिक, एक ईसाई, एक बौद्धिस्ट और पाँचवाँ व्यक्ति… परिस्थितियाँ स्वयं।
नाव के टूटते ही सब लोग किसी तरह तैरकर किनारे पहुँचे। दूर-दूर तक कोई बस्ती नहीं थी। ऊँचे पेड़, जंगली झाड़ियाँ और पत्थरों से भरा वह टापू मानो समय से कट चुका था।
पात्रों का परिचय
हिंदू था पंडित माधव शास्त्री—माथे पर चंदन, गले में रुद्राक्ष। हर घटना में ईश्वर की लीला खोजने वाला।
नास्तिक था अरुण—तर्कशील, आँखों में सवाल और होंठों पर हल्की मुस्कान। ईश्वर को मानव की कल्पना मानने वाला।
ईसाई था डेविड—गले में क्रॉस, चेहरे पर करुणा। हर पीड़ा में प्रार्थना खोजने वाला।
बौद्धिस्ट था तेनजिन—शांत, मौनप्रिय, आँखें आधी बंद, जैसे भीतर किसी और ही संसार में हो।
पहले दिन सबका लक्ष्य एक ही था—जीवित रहना। पानी ढूँढा गया, फल तोड़े गए, आग जलाई गई। लेकिन जैसे ही रात हुई, असली आग जल उठी—विश्वास की।
विश्वास और विवाद
माधव ने आग के पास बैठकर कहा,
“यह सब भगवान की इच्छा है। शायद हमें कोई शिक्षा देने के लिए यहाँ लाया गया है।”
अरुण हँस पड़ा।
“नाव टूटी क्योंकि लकड़ी सड़ी थी, भगवान नहीं। हर दुर्घटना में ईश्वर को घसीटना बंद करो।”
डेविड ने बीच में कहा,
“पर प्रभु की योजना हमारी समझ से परे होती है। वह हमें परीक्षा में डालते हैं।”
अरुण ने तीखे स्वर में कहा,
“अगर यह परीक्षा है, तो बच्चों की भूख और युद्ध भी परीक्षा हैं क्या?”
तेनजिन अब तक चुप था। उसने धीरे से कहा,
“दुख है। उसका कारण खोजने से अधिक आवश्यक है उसे समझना।”
माधव को यह बात खली।
“बिना ईश्वर के समझ कैसे आएगी?”
तेनजिन मुस्कुराया।
“बिना आसक्ति के।”
हर रात यही होता। कोई ईश्वर की महिमा गाता, कोई उसे नकारता, कोई करुणा की बात करता, कोई मौन में सत्य खोजता। टापू मानो एक जीवित मंच बन गया था, जहाँ सदियों पुराने मतभेद फिर से खेले जा रहे थे।
संकट
एक दिन भयंकर तूफान आया। पेड़ गिर गए, उनका आश्रय टूट गया। भोजन समाप्त होने लगा। डर सबके चेहरों पर था।
माधव ने हवन करने का प्रस्ताव रखा।
डेविड ने प्रार्थना की।
अरुण ने नाव मरम्मत की योजना बनाई।
तेनजिन ध्यान में बैठ गया।
तूफान के बाद सब थके हुए थे, पर जीवित।
अरुण ने कहा,
“अगर मैंने तर्क से लकड़ी न जोड़ी होती, तो हम बह गए होते।”
माधव बोला,
“और अगर भगवान ने शक्ति न दी होती?”
डेविड ने जोड़ा,
“और अगर प्रार्थना न होती?”
तेनजिन ने आँखें खोलीं।
“और अगर हम एक-दूसरे के बिना होते?”
समझ की सुबह
उस दिन पहली बार कोई विवाद नहीं हुआ। सब चुप थे। उन्हें समझ आ रहा था कि टापू ने उन्हें केवल फँसाया नहीं था, उसने उन्हें आईना दिखाया था।
अरुण ने माना कि आशा भी एक शक्ति है।
माधव ने स्वीकारा कि कर्म के बिना विश्वास अधूरा है।
डेविड ने समझा कि प्रार्थना के साथ प्रयास जरूरी है।
तेनजिन ने देखा कि मौन भी संवाद कर सकता है।
कुछ दिनों बाद एक जहाज़ ने उन्हें देख लिया। बचाव हो गया।
टापू पीछे छूट गया, लेकिन एक बात सबके साथ चली गई—
विश्वास अलग-अलग हो सकते हैं, पर मानवता एक ही है।
और विवाद तभी तक है, जब तक सुनना बंद है।
समुद्र फिर शांत था, पर पाँचों के भीतर अब एक नई लहर उठ चुकी थी—समझ
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