Tuesday, December 30, 2025

24 घंटे

 रमेश एक अत्यंत मेहनती, अनुशासित और कर्तव्यनिष्ठ वकील थे। उनके लिए वकालत महज एक जीविका का साधन नहीं थी, बल्कि एक साधना थी—एक ऐसी साधना जिसमें हर छोटा-बड़ा काम पूर्ण ईमानदारी, सूक्ष्म ध्यान और परिपूर्णता के साथ किया जाना चाहिए। अधूरा काम उनके लिए असहनीय था; वह उनके मन में एक स्थायी बेचैनी पैदा कर देता था, जैसे कोई काँटा लगातार चुभता रहे।

वे दिल्ली हाई कोर्ट के एक प्रतिष्ठित सीनियर एडवोकेट, श्री हरिशंकर शर्मा के चैंबर में कार्यरत थे। श्री शर्मा का नाम दिल्ली की कानूनी दुनिया में भारी था—उनकी प्रतिष्ठा, उनके मुकदमों की सफलता दर और उनका कार्यभार, तीनों ही विशाल थे। वे दिन में 18-20 घंटे काम करते, और उनके जूनियर वकीलों से भी यही अपेक्षा रखते थे। रमेश उनके सबसे भरोसेमंद जूनियर थे। सुबह सात बजे चैंबर में सबसे पहले पहुँचने वाले रमेश ही थे, और रात दस-ग्यारह बजे तक फाइलों के ढेर के बीच आखिरी व्यक्ति भी वही रहते।

फाइलों का पहाड़, लगातार अदालती तारीखें, क्लाइंट्स की बेचैनी भरी उम्मीदें, और श्री शर्मा की कभी न रुकने वाली अपेक्षाएँ—यह सब रमेश के कंधों पर था। लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। न कभी काम से मुँह मोड़ा, न जिम्मेदारी से पीठ दिखाई। शायद यही कारण था कि श्री शर्मा को रमेश पर अटूट विश्वास था। वे अक्सर कहते, “रमेश को काम सौंप दिया तो समझो काम हो गया।”

एक बार ऐसा हुआ जब श्री शर्मा का एक बहुत महत्वपूर्ण क्लाइंट—बेंगलुरु के बड़े उद्योगपति श्री रवि मेहरा—दिल्ली बुलाए गए। मामला एक जटिल कॉर्पोरेट विवाद का था, जिसमें करोड़ों की संपत्ति और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी। पूरा केस श्री शर्मा ने रमेश को ही सौंप दिया। रमेश ने पूरी लगन से फाइल पढ़ी, नोट्स तैयार किए, कानूनी धाराएँ चेक कीं और ड्राफ्ट तैयार करना शुरू किया। लेकिन ठीक उसी समय कई अन्य अत्यावश्यक मामले एक साथ आ गए—एक हाई-प्रोफाइल क्रिमिनल अपील की अंतिम सुनवाई, दो पुराने क्लाइंट्स की अर्जेंट याचिकाएँ, और एक हफ्ते में तीन महत्वपूर्ण हियरिंग्स। काम का बोझ इतना बढ़ गया कि बेंगलुरु वाले केस की तैयारी अनजाने में पीछे छूट गई।

जब वह निर्णायक दिन आया और श्री रवि मेहरा दिल्ली पहुँचे, तो श्री शर्मा ने चैंबर में सभी जूनियर्स के सामने रमेश से पूछा, “रमेश, मेहरा जी का केस तैयार है न? आज शाम को मीटिंग है, उन्हें सब डिटेल्स चाहिए।”

उस पल रमेश का दिमाग खाली हो गया। उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा था। चेहरा सफेद पड़ गया। श्री शर्मा का चेहरा लाल हो उठा। क्लाइंट के सामने उनकी सारी प्रतिष्ठा दाँव पर लग गई। संयम टूटा और उन्होंने सबके सामने रमेश को कठोर शब्दों में फटकार लगाई—“तुम्हें पता है इस केस की अहमियत? तुम्हारी लापरवाही से मेरी पूरी साख पर सवाल उठ रहा है! इतने सालों से काम कर रहे हो और आज भी ऐसी गलती?”

शब्द इतने तीखे थे कि रमेश के आत्मसम्मान को गहरी चोट लगी। वे चुपचाप खड़े रहे। न कोई सफाई दी, न कोई बहाना बनाया। लेकिन भीतर उनका मन उबल रहा था। विचारों का तूफान चल रहा था—

“मैं रात-दिन एक नहीं करता, परिवार को भी समय नहीं दे पाता। छुट्टियाँ नहीं लेता, बीमार होने पर भी फाइलें लेकर घर जाता हूँ। फिर भी अपमान? मेरी मेहनत, मेरी निष्ठा का यही इनाम?”

क्रोध आग की तरह धधक रहा था। वे उसी क्षण श्री शर्मा के पास जाकर सब कुछ कह देना चाहते थे—अपनी थकान, अपनी पीड़ा, अपनी समर्पण की कहानी। वे लगभग उठ ही चुके थे कि तभी उनके सहकर्मी और अच्छे मित्र, अजय ने स्थिति भाँप ली। अजय रमेश के स्वभाव से अच्छी तरह वाकिफ था। वह जानता था कि अगर अभी रमेश गुस्से में कुछ कह देगा, तो नौकरी जा सकती है, रिश्ता बिगड़ सकता है—शायद अपूरणीय रूप से।

अजय ने धीरे से रमेश का हाथ पकड़ा और कहा, “रमेश, बस एक मिनट रुक। अभी मत जाओ।”

रमेश का क्रोध उन्हें आगे धकेल रहा था, लेकिन अजय ने शांत स्वर में कहा, “बस तीन मिनट दे दो। एक छोटी-सी कहानी सुनाता हूँ। उसके बाद जो चाहो, कर लेना।”

और अजय ने कहानी सुनानी शुरू की—

“एक संत थे, जिनकी शांति के लिए दूर-दूर तक नाम था। कोई भी अपमान, कोई भी अन्याय—उनके चेहरे पर कभी क्रोध नहीं दिखता था। एक दिन उनके शिष्य ने पूछा, ‘गुरुदेव, इतना संयम कैसे रखते हैं आप? क्रोध तो हर इंसान में आता है।’

संत ने मुस्कुराकर कहा, ‘बेटा, मेरे पिताजी ने मृत्युशय्या पर मुझे सिर्फ एक मंत्र दिया था—जब भी गुस्सा आए, 24 घंटे रुक जाना। अगर 24 घंटे बाद भी मन वही कहे, तो जो करना हो, कर लेना।’

मैंने जीवन भर इसी मंत्र को अपनाया। हर बार क्रोध आया, मैंने तुरंत जवाब नहीं दिया। 24 घंटे में परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, मन शांत हो जाता है, और ज्यादातर मामलों में क्रोध अपने आप गायब हो जाता है। कभी-कभी तो पता चलता है कि गुस्सा आने की वजह ही गलतफहमी थी।’”

कहानी सुनकर रमेश ठिठक गए। उनका तूफान थमने लगा। उन्होंने मन ही मन तय किया—“ठीक है, मैं भी 24 घंटे रुकता हूँ।”

उसी शाम श्री शर्मा ने फिर रमेश को बुलाया। रमेश ने बहुत शांत स्वर में कहा, “सर, मुझे सिर्फ 3-4 घंटे का समय दीजिए। मैं मेहरा जी का पूरा काम तैयार कर दूँगा।”

उन्होंने रात भर जागकर, पूरी एकाग्रता से काम किया। सुबह तक केस की पूरी तैयारी हो गई—ड्राफ्ट, दस्तावेज़, कानूनी तर्क, सब कुछ। श्री रवि मेहरा मीटिंग में संतुष्ट होकर चले गए और श्री शर्मा को धन्यवाद दिया।

अगले दिन रमेश श्री शर्मा से अपनी बात कहने के लिए तैयार थे कि श्री शर्मा ने खुद उन्हें बुलाया। उनकी आँखों में पश्चाताप था। वे बोले, “रमेश, कल मैंने जो व्यवहार किया, उसके लिए मुझे बहुत खेद है। काम का दबाव इतना था कि मैंने संयम खो दिया। तुमने रात भर जागकर काम पूरा किया—यह मेरी गलती थी कि मैंने तुम पर शक किया।”

रमेश सब समझ गए। उन्हें एहसास हुआ कि कल का क्रोध श्री शर्मा के अत्यधिक दबाव का परिणाम था, न कि व्यक्तिगत द्वेष का। उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “सर, कोई बात नहीं। हम सब इंसान हैं।”

उस दिन रमेश ने जीवन का एक अनमोल सबक सीखा—क्रोध का जवाब क्रोध नहीं, समय होता है।

यदि मन में आग भड़क उठे, तो तुरंत प्रतिक्रिया न दें। 24 घंटे रुकें। कारणों को समझें। भावनाओं को ठंडा होने दें। ज्यादातर मामलों में वह आग अपने आप बुझ जाती है, और जो बचता है, वह सिर्फ स्पष्टता और समझ।

इसी सिद्धांत को अपनाकर रमेश ने न केवल अपने क्रोध पर विजय पाई, बल्कि कार्यालय में उनका सम्मान और बढ़ गया। सहकर्मी उन्हें ‘शांत रमेश’ कहकर बुलाने लगे। श्री शर्मा भी अब उन्हें और अधिक जिम्मेदारी सौंपते, और रमेश हर काम को पहले से अधिक संतुलन और शांति के साथ निभाते।

सच्ची विजय वह नहीं जो बाहर जीती जाती है, बल्कि वह जो स्वयं पर प्राप्त की जाती है। और उसका सबसे सरल, सबसे प्रभावी हथियार है—शांति के साथ 24 घंटे का इंतज़ार।

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