यह कथा एक ऐसे राजकुमार की है, जिसके पास वैभव था, यौवन था, शिक्षा थी, पर मन में एक अजीब-सी उदासी घर कर गई थी। दिन में वह सभा में बैठता, पर उसकी दृष्टि कहीं खोई रहती। रात में शयनकक्ष में सोने की कोशिश करता, पर करवटें बदलते-बदलते भोर हो जाती। राजमहल के गलियारों में धीरे-धीरे यह चर्चा फैलने लगी कि राजकुमार किसी गहरे दुख में डूबा है।
महामंत्री, जो वर्षों से राज्य ही नहीं बल्कि राजपरिवार के मनोभावों को भी समझते आए थे, एक दिन साहस करके राजकुमार के पास पहुँचे। उन्होंने आदर से पूछा,
“राजकुमार, आपके मुख की आभा फीकी क्यों पड़ गई है? क्या राज्य में कोई संकट है, या हृदय में कोई पीड़ा?”
राजकुमार कुछ क्षण चुप रहा। फिर जैसे भीतर का बाँध टूट गया हो, वह बोला,
“महामंत्री, मैं प्रेम में पड़ गया हूँ। ऐसा प्रेम, जो हर क्षण मुझे बेचैन रखता है। उसके बिना सब कुछ व्यर्थ लगता है।”
महामंत्री चौंक गए। उन्होंने सोचा, शायद किसी राज्य की राजकुमारी होगी, या किसी दरबार में आई सुंदरी। उन्होंने संयत स्वर में पूछा,
“वह कौन है, राजकुमार? किस कुल की कन्या?”
उत्तर में राजकुमार ने कुछ नहीं कहा। वह अपने कक्ष के भीतर गया और एक पुराना चित्र लेकर आया। चित्र देखकर महामंत्री और भी अधिक चकित हो गए। उसमें एक लगभग पाँच वर्ष की बच्ची थी—बड़ी-बड़ी आँखें, कोमल मुख, राधा के वस्त्रों में सजी हुई।
राजकुमार ने भावुक स्वर में कहा,
“महामंत्री, यही वह है। देखिए, इतनी छोटी उम्र में भी कितनी सुंदर थी। सोचिए, अब जब वह बड़ी हो गई होगी, तो कितनी अनुपम होगी। मेरा मन उसी की कल्पना में डूबा रहता है।”
महामंत्री पहले तो कुछ समझ ही नहीं पाए। फिर उनके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान आई, जो धीरे-धीरे ठहाके में बदल गई। वे हँस पड़े।
राजकुमार को यह हँसी चुभ गई। वह नाराज़ होकर बोला,
“आप मेरी पीड़ा पर हँस रहे हैं?”
महामंत्री ने गंभीर होकर कहा,
“नहीं राजकुमार, मैं आपकी पीड़ा पर नहीं, आपके भ्रम पर हँस रहा हूँ। क्योंकि यह चित्र किसी और का नहीं, स्वयं आपका ही है।”
राजकुमार स्तब्ध रह गया।
“यह… मेरा?” उसने अविश्वास से पूछा।
महामंत्री ने स्मृतियों का द्वार खोला।
“क्या आपको याद है, बचपन में राजमहल में श्रीकृष्ण-राधा का एक नाटक हुआ था? उस समय राधा की भूमिका निभाने वाली बच्ची अचानक बीमार पड़ गई थी। नाटक रद्द होने वाला था। तब महारानी ने, मज़ाक-मज़ाक में ही सही, आपको राधा के वस्त्र पहनाए। आपकी बड़ी आँखें, कोमल चेहरा और बालों की लटें देखकर सबने कहा—यही तो साक्षात राधा है। उसी दिन यह चित्र बनाया गया था।”
राजकुमार का चेहरा लाल पड़ गया। वर्षों से जिस प्रेम को वह अपने हृदय का सत्य मान रहा था, वह एक स्मृति-भ्रम निकला। वह देर तक चुप बैठा रहा।
महामंत्री ने धीरे से कहा,
“राजकुमार, यह कथा केवल एक चित्र की नहीं है। यह मन की लीला है। मन कभी-कभी अपनी ही छाया को प्रेम समझ बैठता है। हम किसी बाहरी व्यक्ति में नहीं, बल्कि अपनी ही कल्पना में उलझ जाते हैं।”
राजकुमार की आँखों में समझ की चमक आई। उसकी उदासी जैसे धीरे-धीरे पिघलने लगी। उसने चित्र को आदर से रखा और गहरी साँस ली।
उस दिन राजकुमार ने केवल अपने भ्रम से नहीं, बल्कि अपने मन की चंचलता से भी परिचय पाया। और महल में पहली बार, बहुत दिनों बाद, उसके चेहरे पर हल्की-सी शांत मुस्कान लौट आई।
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