Friday, December 19, 2025

संसार पर विजय

सम्राट ने वर्षों तक युद्ध किए थे। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक उसकी सेनाओं की ध्वजा लहराती थी। जिन राजाओं का नाम सुनकर कभी धरती काँपती थी, वे अब उसके दरबार में सिर झुकाकर खड़े रहते थे। शंखनाद हुआ, वेदपाठ हुए, और उसे चक्रवर्ती सम्राट घोषित किया गया। राजधानी में उत्सवों की बाढ़ आ गई—सोने के तोरण, हाथियों की कतारें, नर्तकियाँ, कवि और जयघोष।

पर उस रात, जब महल के दीप बुझ गए और विजय का शोर शांत हो गया, सम्राट अकेला रह गया।

उसके भीतर एक अजीब खालीपन था।

नींद उसकी आँखों से दूर रहती। मन बार-बार पूछता—
“सब कुछ तो पा लिया, फिर यह अशांति क्यों?”

एक दिन उसने अपने महामंत्री को बुलाया। महामंत्री वर्षों से सम्राट के साथ था—युद्धों में, संधियों में, और नीतियों में।

“मंत्री,” सम्राट ने कहा,
“मेरे पास सत्ता है, धन है, सम्मान है, फिर भी मन स्थिर नहीं होता। क्या कोई प्रदेश बाकी रह गया है जिसे जीतना है?”

महामंत्री मुस्कराया, पर वह मुस्कान दरबारी नहीं थी, बल्कि किसी पुराने ज्ञानी की थी।

“महाराज,” उसने कहा,
“प्रदेश तो आपने जीत लिए, पर शायद अभी तक आपने स्वयं को नहीं जीता।”

सम्राट चौंक गया।

महामंत्री ने आगे कहा,
“यदि आज्ञा हो, तो मैं आपको किसी ऐसे व्यक्ति के पास ले चलूँ, जिसके पास न सेना है, न महल, फिर भी वह सदा शांत रहता है।”

अगले दिन दोनों नगर से बाहर निकले। न कोई राजसी जुलूस, न नगाड़े। वे एक नदी के किनारे पहुँचे, जहाँ जल धीरे-धीरे बह रहा था। वहीं एक फकीर बैठा था—फटे वस्त्र, खुले पाँव, और आँखें बंद। सूर्य की सुनहरी किरणें उसके चेहरे पर पड़ रही थीं और उसका चेहरा ऐसी शांति से दमक रहा था, जैसे वह स्वयं प्रकाश हो।

सम्राट ने आगे बढ़कर पूछा,
“फकीर, मेरे पास सब कुछ है, फिर भी मैं अशांत हूँ। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं, फिर भी तुम्हारे चेहरे पर अपार शांति है। इसका रहस्य क्या है?”

फकीर ने आँखें खोलीं, सम्राट की ओर देखा और शांति से बोला,
“यदि तुम मेरी गुरु-दक्षिणा देने को तैयार हो, तो मैं उत्तर दूँगा।”

सम्राट ने कहा,
“जो माँगोगे, मिलेगा—सोना, भूमि, वस्त्र, आश्रय।”

फकीर मुस्कराया और बोला,
“अभी केवल इतना करो कि सूर्य और मेरे बीच से हट जाओ। तुम मेरी धूप रोक रहे हो।”

यह सुनकर सम्राट स्तब्ध रह गया।
चक्रवर्ती सम्राट—और दक्षिणा में केवल दो कदम पीछे हटने की माँग!

कुछ क्षण बाद उसने स्वयं को संभाला और एक ओर हट गया। सूर्य की किरणें फिर से फकीर पर पड़ने लगीं। फकीर ने आँखें बंद कीं, जैसे भीतर कोई दीप जल उठा हो।

फिर उसने कहा,
“महाराज, जिस प्रकार तुम्हारा शरीर मेरे और सूर्य के बीच आकर प्रकाश को रोक रहा था, उसी प्रकार तुम्हारा अहंकार तुम्हें परम ब्रह्म से दूर रखे हुए है। वह चेतना हर जगह व्याप्त है—नदी में, आकाश में, तुम्हारे भीतर भी। पर तुम्हारा ‘मैं’ उसके सामने खड़ा है।”

सम्राट ध्यान से सुन रहा था।

फकीर बोला,
“तुम सोचते हो—मैं विजेता हूँ, मैं शासक हूँ, मैं महान हूँ। यही ‘मैं’ तुम्हारी अशांति का कारण है। जब तक यह ‘मैं’ खड़ा रहेगा, तब तक शांति की धूप तुम तक नहीं पहुँचेगी।”

सम्राट की आँखें भर आईं।

फकीर ने धीरे से कहा,
“अहंकार छोड़ना ही सबसे बड़ा त्याग है। राज्य छोड़ना कठिन नहीं, मुकुट छोड़ना कठिन नहीं—पर ‘मैं’ छोड़ना सबसे कठिन है। जिस दिन तुम उसके सामने से हट जाओगे, उसी दिन शांति स्वयं तुम्हें ढक लेगी।”

नदी बहती रही। सूर्य ढलने लगा।

सम्राट बिना कुछ कहे झुक गया। उस क्षण वह केवल सम्राट नहीं था—वह एक खोजी था, जो पहली बार समझ पाया कि सबसे बड़ा साम्राज्य बाहर नहीं, भीतर होता है।

और उस दिन, बिना एक भी युद्ध लड़े, उसने अपनी सबसे बड़ी विजय प्राप्त की।

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