उसने बिना किसी सहारे के नदी की ओर कदम बढ़ाए। जैसे ही उसके चरण जल को स्पर्श करने लगे, लहरें थमने लगीं। जल कठोर भूमि-सा स्थिर हो गया, मानो प्रकृति स्वयं उसकी तपस्या के आगे नतमस्तक हो गई हो। वह संत धीरे-धीरे, पूरे आत्मविश्वास के साथ, जल के ऊपर पैदल चलता हुआ नदी पार करने लगा। उसके चेहरे पर संतोष नहीं, बल्कि सूक्ष्म गर्व की झलक थी—मानो वह कहना चाहता हो कि मैंने असंभव को संभव कर दिखाया है।
किनारे खड़ा दूसरा संत यह सब देख रहा था। उसके चेहरे पर न आश्चर्य था, न प्रशंसा, न ही कोई प्रतिक्रिया। उसकी आँखों में वही गहराई थी जो नदी के जल में थी—शांत, स्थिर और मौन।
नदी पार कर लेने के बाद पहला संत मुड़ा और गर्व से बोला,“देखा? यह है मेरी साधना की सिद्धि। वर्षों के तप, संयम और ध्यान का फल।”
दूसरे संत ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने न तर्क किया, न तुलना। वह बस धीरे-धीरे आगे बढ़ा, एक साधारण-सी लकड़ी की नाव पर चढ़ा, नाविक को संकेत किया और सहज भाव से नदी पार करने लगा। न कोई चमत्कार, न कोई प्रदर्शन—बस साधारण मार्ग, साधारण साधन।
जब वह किनारे पहुँचा, तो उसने शांत, स्थिर और करुण स्वर में कहा—“चमत्कार शक्ति प्राप्त कर लेने में नहीं है। शक्ति तो कई बार अहंकार को भी मजबूत कर देती है। सच्चा चमत्कार यह है कि शक्ति पा लेने के बाद भी मन शांत रहे, जीवन साधारण रहे, और अहंकार न जागे। जो दिखाने में लगा है, वह अभी भीतर की यात्रा में अधूरा है; और जो भीतर पहुँच गया है, उसे कुछ सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं रहती।”
उसने आगे कहा—“नदी पर चलना कठिन नहीं, कठिन है अपने मन पर चलना। जल को जीत लेना साधना हो सकती है, पर स्वयं को जीत लेना ही सिद्धि है।”
यह कहकर वह बिना पीछे देखे आगे बढ़ गया। उसके कदमों में न गर्व था, न घोषणा—केवल सहजता थी। जैसे वह यह स्मरण कराता हो कि सच्ची आध्यात्मिक ऊँचाई ऊँचे दिखने में नहीं, बल्कि अदृश्य हो जाने में है; कि वास्तविक सामर्थ्य वही है जो मौन में विलीन हो जाए।
और नदी? वह फिर से बहने लगी—यह सिखाते हुए कि प्रवाह में रहना ही जीवन है, और ठहरकर दिखना केवल क्षणिक भ्रम।
No comments:
Post a Comment