दो युवा सन्यासी प्रातःकाल के धुंधलके में अपनी यात्रा पर निकले थे। सामने एक चौड़ी, वेगवती नदी थी—बरसात के कारण जल उफान पर था। दोनों ने अपने वस्त्र समेटे और तैरकर नदी पार करने की तैयारी करने लगे। उनके चेहरों पर वैराग्य की शांति थी, पर युवावस्था की ऊर्जा भी स्पष्ट झलक रही थी।
उसी समय, नदी के किनारे से एक युवती प्रकट हुई। उसका शरीर आधा ढका हुआ था; भीगे, हल्के और पारदर्शी वस्त्रों से उसका सौंदर्य अनायास झलक रहा था। नदी की नमी और हवा से उसके केश अस्त-व्यस्त थे। वह असहाय-सी खड़ी थी—न नदी पार कर पाने का साहस, न लौटने का मार्ग। उसने हाथ जोड़कर दोनों सन्यासियों से विनती की,
“महाराज, मुझे इस पार पहुँचा दीजिए। मैं तैर नहीं सकती।”
पहले सन्यासी ने दृष्टि झुकाई, स्वर कठोर नहीं पर दृढ़ था—
“बहन, हमने स्त्री-स्पर्श का त्याग किया है। हम आपकी सहायता नहीं कर सकते।”
दूसरा सन्यासी क्षण भर मौन रहा। उसने नदी की ओर देखा, फिर उस युवती के भयभीत चेहरे की ओर। बिना किसी तर्क-वितर्क के, बिना किसी आंतरिक उथल-पुथल को प्रकट किए, उसने कहा—
“आओ।”
उसने युवती को सम्मानपूर्वक गोद में उठाया और दृढ़ता से नदी में उतर गया। लहरें उसके शरीर से टकराती रहीं, पर उसका मन स्थिर था। कुछ ही क्षणों में वह नदी पार कर गया। किनारे पहुँचते ही उसने युवती को उतार दिया। युवती का शरीर भीगा हुआ था, वस्त्र जल से चिपके थे, पर सन्यासी की दृष्टि में न आकर्षण था, न विकार—केवल कर्तव्य की पूर्णता।
युवती ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, कृतज्ञता से नतमस्तक हुई और बिना पीछे देखे अपने मार्ग पर चली गई।
दोनों सन्यासी आगे बढ़े। कुछ दूर चलने के बाद पहला सन्यासी अपने मन की बेचैनी रोक न सका। उसने पूछा—
“भ्राता, तुम जानते हो कि नियम क्या कहते हैं। फिर तुमने उस युवती को गोद में क्यों उठाया?”
दूसरा सन्यासी मुस्कराया। उसकी मुस्कान में न अपराध था, न अहंकार। उसने शांत स्वर में उत्तर दिया—
“मैंने तो उसे नदी के इस पार उतार दिया था। उसे वहीं छोड़ दिया।
पर तुम… तुम अब भी उसे अपने मन में उठाए चल रहे हो।”
पहला सन्यासी ठिठक गया। नदी तो बहुत पहले पीछे छूट चुकी थी, पर उसका मन अब भी उसी तट पर अटका हुआ था।
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