किसी समय की बात है। गंगा के किनारे बसे एक शांत आश्रम में एक महान संत निवास करते थे। दूर-दूर से लोग उनके प्रवचनों को सुनने आते थे। संत का स्वर गंभीर और शांत था, और उनके वचनों में गहरी अनुभूति छिपी रहती थी। वे प्रायः कहा करते थे—
“यह संसार माया है। जो कुछ दिखाई देता है, वह नश्वर है। सत्य केवल ब्रह्म है।”
एक दिन आश्रम के प्रांगण में अनेक शिष्य और नगरवासी एकत्र थे। संत माया और ब्रह्म के भेद पर विस्तार से प्रकाश डाल रहे थे। शिष्य ध्यानमग्न होकर सुन रहे थे। उसी समय नगर की ओर से अचानक शोर सुनाई दिया—ढोल की आवाज़, लोगों की चिल्लाहट और ज़मीन के काँपने जैसा कंपन।
थोड़ी ही देर में एक पीलवान दिखाई दिया, जो एक विशाल हाथी को लेकर मार्ग से गुजर रहा था। हाथी मस्त था और उसकी आँखों में उग्रता झलक रही थी। पीलवान ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था—
“हटो! हटो! रास्ते से हट जाओ! हाथी बेकाबू है!”
अधिकांश लोग भयभीत होकर इधर-उधर हट गए। कुछ आश्रम के भीतर चले गए, कुछ पेड़ों के पीछे छिप गए। परंतु एक युवा शिष्य वहीं बैठा रहा। उसके चेहरे पर न भय था, न चिंता। वह मन ही मन गुरु के वचनों को दोहरा रहा था—
“यह संसार माया है… हाथी भी माया है… भय भी माया है।”
हाथी आगे बढ़ता गया। पीलवान ने उस शिष्य को देखकर और ज़ोर से पुकारा—
“अरे साधु! हट जाओ! जान चली जाएगी!”
पर शिष्य टस से मस न हुआ। उसने सोचा—यदि सब माया है, तो हटने वाला कौन और डरने वाला कौन?
क्षण भर में हाथी पास पहुँचा और अपनी सूँड़ से शिष्य को ज़ोर से धक्का दे दिया। शिष्य दूर जा गिरा और बुरी तरह घायल हो गया।
लोग दौड़कर आए, उसे उठाया और आश्रम में ले गए। संत भी वहाँ पहुँचे। उन्होंने शिष्य की चोटों पर मरहम लगाया और प्रेम से उसका मस्तक सहलाया।
कुछ समय बाद शिष्य ने कराहते हुए कहा—
“गुरुदेव, आप तो कहते हैं कि संसार माया है। फिर यह हाथी मुझे कैसे घायल कर गया?”
संत मंद मुस्कान के साथ बोले—
“वत्स, मैंने यह अवश्य कहा है कि संसार माया है, पर यह भी समझना आवश्यक है कि माया के भी अपने नियम होते हैं।
जब पीलवान तुम्हें हटने के लिए कह रहा था, तब वह भी उसी परम सत्ता का रूप था। भगवान ही तुम्हें चेतावनी दे रहे थे। तुमने माया को तो माना, पर माया के नियमों की उपेक्षा कर दी।”
संत ने आगे कहा—
“जल माया है, पर उसमें डूबने का नियम है। अग्नि माया है, पर उसका धर्म जलाना है। इसी प्रकार हाथी भी माया है, पर उसका स्वभाव कुचलना है।
माया में रहते हुए माया के नियमों से बचना भी विवेक है। केवल ज्ञान नहीं, व्यवहारिक बुद्धि भी आवश्यक है।”
शिष्य की आँखों से आँसू बह निकले। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और कहा—
“गुरुदेव, आज मुझे सच्चा ज्ञान मिला। माया को समझना ही नहीं, उसके बीच सही आचरण करना भी साधना है।”
संत ने आशीर्वाद देते हुए कहा—
“यही जीवन का संतुलन है—ज्ञान और व्यवहार का समन्वय।”
उस दिन के बाद आश्रम में यह कथा एक शिक्षा बनकर प्रचलित हो गई—
कि संसार भले ही माया हो, पर माया में जीते हुए उसके नियमों का सम्मान करना ही सच्ची बुद्धिमत्ता है।
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