एक नगर में एक अत्यंत धनवान व्यक्ति रहता था। उसके पास ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी—सोना, चाँदी, विशाल हवेलियाँ, सेवकों की कतारें और व्यापार का अथाह विस्तार। फिर भी उसका मन कहीं न कहीं अशांत रहता था। एक दिन उसने नगर के बाहर रहने वाले एक संत के विषय में सुना, जिनकी वाणी में शांति और जीवन का गूढ़ सत्य झलकता था।
जिज्ञासावश वह संत के पास पहुँचा। संत एक वृक्ष के नीचे बैठे थे—न कोई आडंबर, न कोई वैभव। उनका चेहरा शांत था, आँखों में करुणा और वाणी में सहज सत्य। धनवान व्यक्ति ने उनके उपदेश सुने। हर शब्द उसके हृदय को छू रहा था, मानो वर्षों से जमी धूल हटती जा रही हो। वह भीतर ही भीतर अत्यंत प्रसन्न और कृतज्ञ हो उठा।
भावावेश में आकर उसने संत से कहा—
“महाराज, आपने मुझे आज जीवन का सच्चा अर्थ समझा दिया। मैं अत्यंत धनवान हूँ। आप जो कुछ भी चाहें, मुझसे मांग लीजिए। धन, भूमि, वस्त्र, आश्रम—जो चाहें, वह मैं तुरंत प्रदान कर दूँगा।”
धनवान के मन में एक स्वाभाविक अपेक्षा थी—उसे लगा संत अवश्य कोई बड़ा दान, कोई विशाल व्यवस्था या संपत्ति माँगेंगे। किंतु संत मुस्कुराए। उनकी मुस्कान में न लोभ था, न संकोच।
संत ने शांत स्वर में कहा—
“यदि संभव हो, तो इस लोटे में थोड़ा सा पानी भर दीजिए। प्यास लगी है।”
यह सुनते ही धनवान व्यक्ति स्तब्ध रह गया। उसके हाथ काँप गए। जिस व्यक्ति के पास सब कुछ था, वह पहली बार समझ पाया कि सच्चा वैराग्य क्या होता है। संत की यह सादगी उसके समस्त ऐश्वर्य पर भारी पड़ गई। उसे लगा जैसे उसके धन का भार अचानक बहुत हल्का हो गया हो, और संत की झोली—जो खाली थी—वास्तव में सबसे भरी हुई थी।
पानी भरते समय उसकी आँखें नम थीं। उस क्षण वह संत के चरणों में नहीं, बल्कि उनकी सादगी के सामने झुक गया।
उसने समझ लिया कि जिसे कम में तृप्ति मिल जाए, वही वास्तव में सबसे धनवान होता है।
No comments:
Post a Comment