Sunday, December 28, 2025

ईश्वर की पर्ची


शाम का समय था। छोटे से कस्बे के सरकारी अस्पताल में मरीजों की भीड़ कम हो चुकी थी। बरामदे में फैली दवा की गंध और दीवार पर टंगी घड़ी की टिक–टिक के बीच एक संत धीरे–धीरे भीतर आए। कंधे पर झोला, चेहरे पर शांति, और लगातार चलती खाँसी।
डाक्टर ने ऊपर देखा। सफेद कोट में बैठा वह आधुनिक विज्ञान का प्रतिनिधि था—नाड़ी, एक्स–रे और दवाओं पर पूरा भरोसा रखने वाला। उसने संत को ध्यान से देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोला,
“बाबा, आप तो ईश्वर के भक्त हैं। इतनी खाँसी है, अपने भगवान से ही ठीक क्यों नहीं करा लेते?”
संत ने कोई उत्तर तुरंत नहीं दिया। उन्होंने पास की कुर्सी खींची, बैठ गए और खाँसी को थामते हुए शांति से डाक्टर की आँखों में देखा। फिर धीमी आवाज़ में बोले,
“बेटा, उसी भगवान ने तो मुझे आपके पास भेजा है—इलाज के लिए।”
डाक्टर क्षण भर के लिए चुप हो गया। उसकी कलम हवा में रुक गई। यह उत्तर उसे चुभ गया, जैसे किसी ने उसके भीतर छिपे अहंकार को छू लिया हो।
संत आगे बोले,
“ईश्वर सिर्फ मंदिर और आश्रम में नहीं रहते। वह आपकी विद्या में हैं, आपके हाथों में हैं, आपकी दवाओं में हैं। जब कोई किसान बीज बोता है, तो क्या वह भगवान पर विश्वास नहीं करता? और फिर भी हल चलाता है। उसी तरह मैं भी विश्वास रखता हूँ—और आपके पास आया हूँ।”
डाक्टर ने सिर झुका लिया। पहली बार उसे महसूस हुआ कि विज्ञान और भक्ति एक–दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक ही सत्य के दो रास्ते हैं। उसने पर्ची लिखी, दवा दी, और आदर से संत के चरण छुए।
संत मुस्कुराए और जाते–जाते बोले,
“आप इलाज करते रहिए, मैं प्रार्थना करता रहूँगा। दोनों मिलकर ही रोग ठीक करते हैं।”
घड़ी फिर से टिक–टिक करने लगी, लेकिन डाक्टर के भीतर कुछ बदल चुका था। अब जब भी वह किसी मरीज को देखता, उसे लगता—शायद भगवान किसी और रूप में फिर उसके पास आए हैं।

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