एक दिन रविवार बहुत खुश था।
पूरे हफ्ते काम करवाने के बाद उसे आराम करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ था।
लोग देर से उठते, चाय ठंडी हो जाती, और आत्मा गरम।
लेकिन जैसे ही शाम ढली, रविवार की हँसी फीकी पड़ने लगी।
रविवार ने कैलेंडर से पूछा—
“भाई, मेरे बाद मंडे ही क्यों आता है?
कोई और क्यों नहीं?
जैसे… सैटरडे?”
कैलेंडर ने चश्मा ठीक किया और बोला—
“यह प्रश्न साधारण नहीं है, यह अस्तित्ववादी संकट है।”
मंडे काली फाइल, अलार्म घड़ी और ई-मेल्स की तलवार लेकर आया।
उसने कहा—
“देखो रविवार,
मैं दुख देने नहीं आता,
मैं अनुशासन लेकर आता हूँ।”
रविवार बोला—
“पर लोग तो तुम्हें देखकर
आत्मा तक साइलेंट मोड पर डाल देते हैं!”
मंडे मुस्कुराया—
“यही तो मेरी उपयोगिता है।
अगर मैं न होऊँ,
तो तुम्हारी कीमत कौन समझे?”
इतने में सैटरडे बीच में कूद पड़ा—
“मुझे क्यों नहीं मौका मिलता?
मैं भी तो खुशमिज़ाज हूँ,
पार्टी, पिज़्ज़ा और प्लान्स से भरा हुआ!”
कैलेंडर बोला—
“तुम्हारी समस्या यही है सैटरडे,
तुम जिम्मेदारी से एलर्जिक हो।”
तभी समय स्वयं प्रकट हुआ—
गंभीर, शांत और लेट होने वाला।
उसने कहा—
“सन्डे के बाद मंडे इसलिए है
क्योंकि जीवन में
हर सुख के बाद
एक उत्तरदायित्व आता है।
अगर सन्डे के बाद सैटरडे होता,
तो मनुष्य
कभी बड़ा ही न होता।”
रविवार ने गहरी साँस ली और कहा—
“तो मैं सिर्फ़ छुट्टी नहीं हूँ…
मैं तैयारी हूँ।”
मंडे बोला—
“और मैं सज़ा नहीं…
मैं संस्कार हूँ।”
और तभी अलार्म बजा…
मनुष्य उठा और बोला—
“सन्डे के बाद मंडे क्यों है,
अब समझ आया…
पर मानना अभी भी मुश्किल है।”
— समाप्त, पर मंडे जारी है।
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