Thursday, December 25, 2025

अनुभूति

एक पुराने बरगद के नीचे दो व्यक्ति बैठे थे।
एक के हाथ में धर्मग्रंथ था — वह आस्तिक था।
दूसरे के हाथ में प्रश्न थे — वह नास्तिक था।
नास्तिक:
अगर भगवान है, तो दिखता क्यों नहीं?
जो है, वह प्रमाण माँगता है।
आस्तिक:
क्या प्रेम दिखता है?
क्या पीड़ा दिखाई देती है?
नास्तिक (मुस्कराकर):
प्रेम और पीड़ा तो मन की अवस्थाएँ हैं,
पर भगवान को तो तुम सत्ता कहते हो।
आस्तिक:
और चेतना क्या है?
क्या वह भी किसी प्रयोगशाला में पकड़ी गई है?
नास्तिक:
मैं तर्क से चलता हूँ।
जहाँ तर्क समाप्त, वहाँ विश्वास शुरू —
और वहीं से अंधापन भी।
आस्तिक (शांत स्वर में):
तर्क दीपक है,
पर दीपक सूरज नहीं बन सकता।
तर्क रास्ता दिखा सकता है,
पर चलना अनुभूति को ही पड़ता है।
नास्तिक (कुछ देर चुप रहकर):
तो तुम कह रहे हो
कि भगवान को समझा नहीं जा सकता?
आस्तिक:
समझा नहीं — जिया जा सकता है।
जैसे संगीत को परिभाषित नहीं करते,
सुनते हैं।
जैसे शांति को साबित नहीं करते,
महसूस करते हैं।
नास्तिक:
तो जो अनुभूति न करे,
उसके लिए भगवान नहीं?
आस्तिक (मुस्कान के साथ):
जैसे आँख बंद करने से
सूरज नहीं मिटता,
वैसे ही तर्क में अटके रहने से
ईश्वर अनुपस्थित नहीं हो जाता।
बरगद के पत्ते हिले।
हवा चली।
कुछ पल के लिए दोनों चुप रहे।
नास्तिक धीमे स्वर में बोला:
शायद…
मेरे प्रश्न गलत नहीं थे,
पर अधूरे थे।
आस्तिक:
और मेरे उत्तर भी पूरे नहीं,
जब तक तुम स्वयं न खोजो।
उस क्षण कोई बहस नहीं जीता।
लेकिन दोनों कुछ खोकर नहीं,
कुछ समझकर उठे।
निष्कर्ष:
भगवान न तर्क से सिद्ध होते हैं,
न तर्क से खंडित।
वह अनुभव हैं —
जो मौन में उतरते हैं,
जहाँ प्रश्न थक जाते हैं
और अनुभूति जागती है।

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