बहुत समय पहले की बात है। एक विस्तृत मैदान के बीच, ऊँची पहाड़ी पर एक विशाल किला खड़ा था। उसकी मोटी पत्थर की दीवारें समय की मार सह चुकी थीं, बुर्ज़ों पर हवा सीटी बजाती थी और दरवाज़ों पर जंग लगी लोहे की कीलें अतीत की गवाही दे रही थीं। उसी किले के सामने दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े थे, आँखों में आग और शब्दों में ज़िद।
पहला व्यक्ति ऊँचे स्वर में बोला,
“यह किला मेरे पूर्वजों का है। पीढ़ियों तक हमारे परिवार ने इसकी रक्षा की है। इन दीवारों में मेरे खानदान का पसीना और रक्त मिला है।”
दूसरा व्यक्ति तुरंत पलटकर बोला,
“यह झूठ है। यह किला मेरे पूर्वजों को उपहार में दिया गया था। राजाओं की कृपा से यह हमारे परिवार के पास आया। मैं ही इसका वास्तविक अधिकारी हूँ।”
दोनों की आवाज़ें ऊँची होती चली गईं। तर्क, आरोप और क्रोध आपस में उलझ गए। अंततः मामला राजा के पास पहुँचा। राजा ने दोनों की बातें धैर्यपूर्वक सुनीं, पर जब उन्होंने प्रमाण माँगे तो दोनों ही चुप हो गए। न कोई दस्तावेज़ था, न कोई शिलालेख, न कोई साक्षी।
राजा कुछ देर सोचते रहे। फिर उन्होंने अपने बुद्धिमान मंत्री की ओर देखा और बोले,
“इस विवाद का कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे इन दोनों को सत्य का बोध हो सके।”
मंत्री ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार की और दोनों व्यक्तियों को अपने साथ ले चले। वे उन्हें नगर की गलियों से होते हुए एक खुले मैदान में ले आए। वहाँ दो छोटे बच्चे आपस में झगड़ रहे थे। उनके बीच ज़मीन पर एक छोटा सा लकड़ी का रथ पड़ा था—खिलौना ही सही, पर बच्चों के लिए वह किसी खजाने से कम नहीं था।
एक बच्चा रोते हुए कह रहा था,
“यह रथ मेरा है, मैंने इसे पहले देखा था।”
दूसरा बच्चा गुस्से में चिल्लाया,
“नहीं, मैंने इसे पहले उठाया था, इसलिए यह मेरा है।”
मंत्री कुछ देर बच्चों की बहस सुनते रहे। फिर मुस्कराकर दोनों वयस्कों की ओर मुड़े और बोले,
“आप इन बच्चों की बात सुन रहे हैं? एक कहता है—पहले देखा, इसलिए मेरा। दूसरा कहता है—पहले पकड़ा, इसलिए मेरा। पर क्या देखने या पकड़ने भर से किसी वस्तु का स्वामित्व सिद्ध हो जाता है?”
दोनों व्यक्ति चुप हो गए।
मंत्री ने आगे कहा,
“आप दोनों भी उसी प्रकार उस किले पर दावा कर रहे हैं। न आपके पास प्रमाण है, न साक्ष्य—केवल कथाएँ और अनुमान। जैसे ये बच्चे बिना ठोस आधार के रथ को अपना बता रहे हैं, वैसे ही आप किले को।”
फिर मंत्री ने किले की ओर देखते हुए गंभीर स्वर में पूछा,
“क्या आपने कभी उस किले से यह जानने का प्रयास किया कि वह किसे अपना स्वामी मानता है? क्या आपने उसकी रक्षा की, उसकी सेवा की, उसके अस्तित्व का भार उठाया? या केवल अधिकार की भाषा में उसे बाँटना चाहते हैं?”
दोनों व्यक्तियों की आँखें झुक गईं। उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि स्वामित्व केवल वंश या उपहार की कहानी से नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व, सेवा और प्रमाण से सिद्ध होता है।
मंत्री ने शांत स्वर में निष्कर्ष दिया,
“जिसका अधिकार केवल दावे पर टिका हो, वह रेत पर खड़े महल के समान होता है। सच्चा स्वामी वही है जो भार उठाए, न कि केवल नाम ले।”
यह सुनकर दोनों व्यक्ति निःशब्द लौट गए। किला वहीं खड़ा रहा—मौन, अडिग और साक्षी—मानो कह रहा हो कि वह स्वयं किसी का नहीं, बल्कि समय का है।
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